Manuscripts ~ Bodh Kathayen, Bhag 2 (बोध कथाएं, भाग 2)

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Wisdom Tales of Inner Revolution / Tales of Enlightenment

year
1966
notes
42 sheets. One sheet repaired.
Sheet 16 does not found in books yet and all the rest published in Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये) (new edition with 60 chapters), chapters: 2, 60, 12, 4, 29, 5-6, 22-23, 13, 24, 7-8, 25, 14 and 9.
The transcripts below (except sheet 16) are not true transcripts, but copies from Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये).
see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi transcript
1 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 2
एक अंधेरी रात्रि में मैं आकाश के तारों को देख रहा था। सारा नगर सोया हुआ था। उन सोए हुए लोगों पर मुझे बहुत दया आ रही थी। वे बेचारे दिनभर की अधूरी वासनाओं के पूर्ण होने के स्वप्न ही देख रहे होंगे। स्वप्न में ही वे जागते हैं, और स्वप्न में ही सोते हैं। न वे सूर्य को देखते हैं, न चांद को, न तारों को। वस्तुतः जो आंखें स्वप्न देखती हैं, वे आंखें उसे नहीं देख पाती हैं। सत्य को देखने के लिए आंखों से स्वप्नों की धूल हट जाना अत्यंत आवश्यक है।
रात्रि जैसे-जैसे गहरी होती जाती थी, वैसे-वैसे आकाश में तारे ब.ढते जाते थे। धीरे-धीरे तो पूरा आकाश ही उनसे जगमग हो उठा था। और आकाश ही नहीं, उनके मौन सौंदर्य से मैं भी भर गया था। आकाश के तारों को देखते-देखते क्या आत्मा का आकाश भी तारों से ही नहीं भर जाता है? वस्तुतः मनुष्य जो देखता है, उसी से भर जाता है। क्षुद्र को देखने वाला क्षुद्र से भर जाता है, विराट को देखने वाला विराट से। आंखें आत्मा के द्वार हैं।
मैं एक वृक्ष से टिका आकाश में खोया ही था कि तभी किसी ने पीछे से आकर मेरे कंधे पर अपना ठंडा और मुर्दा हाथ रख दिया। उसकी पग-ध्वनियां भी मुझे सुनाई प.डी थीं। वे ऐसी नहीं थीं, जैसी किसी जीवित व्यक्ति की होनी चाहिए, और उसका हाथ तो इतना निर्जीव था कि अंधेरे में भी उसकी आंखों में भरे भावों को समझने में मुझे देर नहीं लगी। उसके शरीर का स्पर्श उसके मन की हवाओं को भी मुझ तक ले आया था। वह व्यक्ति तो जीवित था और युवा था, लेकिन जीवन कभी का उससे विदा ले चुका था, और यौवन तो संभवतः उसके मार्ग पर अभी आया ही नहीं था।
हम दोनों तारों के नीचे बैठ गए थे। उसके मुर्दा हाथों को मैंने अपने हाथों में ले लिया था, ताकि वे थोडे गर्म हो सकें, और मेरी जीवन-ऊष्मा भी उनमें प्रवाहित हो सके। संभवतः वह अकेला था और प्रेम उसे जिला सकता था।
निश्चय ही ऐसे समय बोलना तो उचित नहीं था और इसलिए मैं चुप ही रहा। हृदय मौन में ही कहीं ज्यादा निकटता पाता है। और शब्द जिन घावों को नहीं भर सकते, मौन उन्हें भी स्वस्थ करता है। शब्द और ध्वनियां तो पूर्ण संगीत में विघ्न और बाधाएं ही हैं।
रात्रि मौन थी, और मौन हो गई। उस शून्य संगीत ने हम दोनों को घेर लिया। वह अब मुझे अपरिचित नहीं था। उसमें भी मैं ही था। फिर उसकी पाषाण-जैसी जडता टूटी और उसके आंसुओं ने खबर दी कि वह पिघल रहा है। वह रो रहा था और उसका सारा शरीर कंपित हो रहा था। उसके हृदय में जो हो रहा था, उसकी तरंगें उसके शरीर तंतुओं तक आ रही थीं। वह रोता रहा...रोता रहा...रोता रहा और फिर बोलाः ‘‘मैं मरना चाहता हूं। मैं अत्यंत निर्धन और निराश हूं। मेरे पास कुछ भी तो नहीं है।’’
मैं थोडी देर और चुप रहा और फिर धीरे-धीरे मैंने उससे एक कहानी कही। मैंने कहाः मित्र! मुझे एक कथा स्मरण आती है। एक फकीर से किसी युवक ने जाकर कहा थाः ‘‘परमात्मा ने सब कुछ मुझसे छीन लिया है। मृत्यु के अतिरिक्त मेरे लिए अब कोई मार्ग नहीं है।’’
क्या वह युवक तुम ही तो नहीं हो?
उस फकीर ने युवक से कहा थाः ‘‘मैं तो तेरे पास छिपा हुआ एक बडा खजाना देख रहा हूं? क्या उसे बेचेगा? उसे बेच दे तो तेरा सब काम बन जाए और परमात्मा की बदनामी भी बचे? ’’
तुम वह युवक हो या नहीं, पता नहीं। लेकिन फकीर मैं वही हूं और लगता है कि कहानी फिर से दुहर रही है।
वह युवक हैरान हुआ था और शायद तुम भी हैरान हो रहे हो। उसने पूछा थाः ‘‘खजाना? मेरे पास तो फूटी कौडी भी नहीं है!’’
इस पर फकीर हंसने लगा था और बोला थाः ‘‘चलो, मेरे साथ बादशाह के पास चलो। बादशाह बडा समझदार है। छिपे खजानों पर उसकी सदा से ही गहरी नजर रही है। वह जरूर ही तुम्हारा खजाना खरीद लेगा। मैं पहले भी बहुत से छिपे खजानों के बेचने वालों को उसके पास ले गया हूं!’’
वह युवक कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। उसके लिए तो फकीर की सारी बातचीत ही पहेली थी। लेकिन फिर भी वह उसके साथ बादशाह के महल की ओर चला। मार्ग में फकीर ने उससे कहाः ‘‘कुछ बातें पहले से तय कर लेना आवश्यक है, ताकि बादशाह के सामने कोई झंझट न हो। वह बादशाह ऐसा है कि जो चीज उसे पसंद हो, उसे फिर किसी भी मूल्य पर छोडता नहीं है। इसीलिए यह भी जान लेना जरूरी है कि तुम उस चीज को बेचने को राजी भी हो या नहीं? ’’
वह युवक बोलाः ‘‘कौन सा खजाना? कौन सी चीजें? ’’
फकीर ने कहाः ‘‘जैसे, तुम्हारी आंखें। इनका क्या मूल्य लोगे? मैं 50 हजार तक बादशाह से दिला सकता हूं। क्या यह रकम पर्याप्त नहीं है? या जैसे तुम्हारा हृदय या मस्तिष्क, इनके तो एक-एक लाख भी मिल सकते हैं!
वह युवक हैरान हुआ और अब समझा कि फकीर पागल है। बोलाः ‘‘क्या आप पागल हो गए हैं? आंखें? हृदय? मस्तिष्क? आप यह कह क्या रहे हैं? मैं इन्हें तो किसी भी मूल्य पर नहीं बेच सकता। और मैं ही क्यों, कोई भी नहीं बेच सकता है।’’
फकीर हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं पागल हूं या तू? जब तेरे पास इतनी बहुमूल्य चीजें हैं, जिन्हें तू लाखों में भी नहीं बेच सकता, तो झूठ-मूठ निर्धन क्यों बना हुआ है? इनका उपयोग कर। जो खजाना उपयोग में नहीं आता, वह भरा हुआ भी खाली है, और जो उपयोग में आता है, वह खाली भी हो तो भर जाता है। परमात्मा खजाने देता है--अकूत खजाने देता है, लेकिन उन्हें खोजना और खोदना स्वयं ही पडता है। जीवन से बडी कोई संपदा नहीं है। जो उसमें ही संपदा नहीं देखता, वह संपदा को और कहां पा सकता है? ’’
रात्रि आधी से ज्यादा बीत गई थी। मैं उठा और मैंने उस युवक से कहाः ‘‘जाओ और सो जाओ। सुबह एक दूसरे ही व्यक्ति की भांति उठो। जीवन वैसा ही है, जैसा हम उसे बनाते हैं। वह मनुष्य की अपनी सृष्टि है। उसे हम मृत्यु भी बना सकते हैं, और अमृत भी। सब कुछ स्वयं के अतिरिक्त और किसी पर निर्भर नहीं है। फिर मृत्यु तो अपने-आप आ जाएगी। उसे बुलावा देने की आवश्यकता नहीं है। बुलाओ अमृत को। पुकारो परम-जीवन को। वह तो श्रम से, शक्ति से, संकल्प से और साधना से ही मिल सकता है।’’
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4 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 60
मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचने से कौन रोकता है? और मनुष्य को पृथ्वी से कौन बांधे रखता है? वह शक्ति कौन सी है जो उसकी जीवन-सरिता को सत्ता के सागर तक नहीं पहुंचने देती है?
मैं कहता हूंः मनुष्य स्वयं। उसके अहंकार का भार ही उसे ऊपर नहीं उठने देता है। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नहीं, अहंकार का पाषाणभार ही हमें ऊपर नहीं उठने देता है। हम अपने ही भार से दबे हैं, और गति में असमर्थ हो गए हैं। पृथ्वी का वश देह के आगे नहीं है। उसका गुरुत्वाकर्षण देह को बांधे हुए है। किंतु अहंकार ने आत्मा को भी पृथ्वी से बांध दिया है। उसका भार ही परमात्मा तक उठने की असमर्थता और अशक्ति बन गया है। देह तो पृथ्वी की है। वह तो उससे ही जन्मी है और उसमें ही उसे लीन हो जाना है। लेकिन आत्मा अहंकार के कारण परमात्मा से वंचित हो, व्यर्थ ही देहानुसरण को विवश हो जाती है।
और यदि आत्मा परमात्मा तक न पहुंच सके, तो जीवन एक असह्य पीडा में परिणत हो जाता है। परमात्मा ही उसका विकास है। वही उसकी पूर्णतम अभिव्यक्ति है। और जहां विकास में बाधा है, वहीं दुख है। जहां स्वयं की संभावनाओं के सत्य बनने में अवरोध है, वहीं पीडा है। क्योंकि स्वयं की पूर्ण अभिव्यक्ति ही आनंद है।
वह देखते हो? उस दीये को देखते हो? मिट्टी का मत्र्य दीया है, लेकिन ज्योति तो अमृत की है। दीया पृथ्वी का--ज्योति तो आकाश की है। जो पृथ्वी का है, वह पृथ्वी पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो सतत अज्ञात आकाश की ओर भागी जा रही है। ऐसे ही मिट्टी की देह है मनुष्य की, किंतुु आत्मा तो मिट्टी की नहीं है। वह तो मत्र्य दीप नहीं, अमृत ज्योति है। किंतु अहंकार के कारण वह भी पृथ्वी से नहीं उठ पाती है।
परमात्मा की ओर केवल वे ही गति कर पाते हैं, जो सब भांति स्वयं से निर्भार हो जाते हैं।
एक कथा मैंने सुनी हैः
एक अति दुर्गम और ऊंचे पर्वत पर परमात्मा का स्वर्ण मंदिर था। उसका पुजारी बू.ढा हो गया था और उसने घोषणा की थी कि मनुष्य-जाति में जो सर्वाधिक बलशाली होगा, वही नये पुजारी की जगह नियुक्त हो सकेगा। इस पद से बडा और कोई सौभाग्य नहीं था। निश्चित तिथि पर बलशाली उम्मीदवारों ने पर्वतारोहण प्रारंभ किया। जो सबसे पहले पर्वत-शिखर पर स्थित मंदिर में पहुंच जाएगा, निश्चय ही वही सर्वाधिक बलशाली सिद्ध हो जाएगा। आरोहण पर निकलते समय प्रत्येक प्रतियोगी ने अपने बल का द्योतक एक-एक पत्थर अपने कंधे पर ले रखा था। जो जितना बलशाली स्वयं को समझता था, उसने उतना ही बडा पत्थर अपने कंधे पर उठा रक्खा था। महीनों की अति कठिन च.ढाई थी। अनेक के प्राणों के जाने का भी भय था। शायद इसलिए आकर्षण भी था और चुनौती भी थी। सैकडों लोग अपने-अपने भाग्य और पुरुषार्थ की परीक्षा के लिए निकल पडे थे। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, अनेक आरोही पिछडते गए। कुछ खाई-खड्डों में अपने पत्थरों को लिए संसार से कूच कर गए। फिर भी थके और क्लांत जो शेष थे, वे अदम्य लालसा से ब.ढे जाते थे। जो गिरते जाते थे, उनके संबंध में चलनेवालों को विचार करने के लिए न समय था, न सुविधा थी। लेकिन एक दिन सभी आरोहियों ने आश्चर्य से देखा कि जो व्यक्ति सबसे पीछे रह गया था, वही तेजी से सबके आगे निकलता जा रहा है। उसके कंधे पर बल का द्योतक कोई भार नहीं था। निश्चय ही यही भारहीनता उसकी तीव्र गति बन गई थी। उसने अपने पत्थर को कहीं फेंक दिया था। वे सब उसकी मूढ़ता देख हंसने लगे थे, क्योंकि अपने पौरुषचिह्न से रहित व्यक्ति के पर्वत-शिखर पर पहुंचने का अभिप्राय ही क्या हो सकता था?
फिर जब महीनों की कष्ट-साध्य च.ढाई के बाद धीरे-धीरे सभी पर्वतारोही परमात्मा के मंदिर तक पहुंच गए तो उन्हें यह जान कर अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका वही स्वल्प-सामथ्र्य साथी जो अपना पौरुषभार फेंक कर सबसे पहले मंदिर पर पहुंच गया था, नया पुजारी बना दिया गया है! लेकिन इसके पहले कि वे इस अन्याय की शिकायत करें, पुराने पुजारी ने उन सबका स्वागत करते हुए कहाः ‘‘परमात्मा के मंदिर में प्रवेश का अधिकारी केवल वही है, जो स्वयं के अहंकार के भार से मुक्त हो गया है। इस युवक ने एक सर्वथा नवीन बल का परिचय दिया है। अहंकार का पाषाणभार वास्तविक बल नहीं है। और मैं आप सबसे सविनय पूछता हूं कि पर्वतारोहण के पूर्व इन पत्थरों को कंधों पर ढोने की सलाह आपको किसने दी थी और कब दी थी? ’’
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6 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 12
धर्म को मत खोजो। खोजो स्वयं को। धर्म तो फिर अपने आप मिल जाता है।
धर्म क्या शास्त्रों में है?
नहीं। धर्म शास्त्रों में नहीं है। शास्त्र तो हैं मृत और धर्म है जीवंत स्वरूप। वह शास्त्रों में कैसे हो सकता है?
धर्म क्या संप्रदायों में है?
नहीं। धर्म संप्रदायों में भी नहीं है। संप्रदाय हैं संगठन, और धर्म तो है निज की अत्यंत निजता। उसके लिए स्वयं के बाहर नहीं, भीतर चलना आवश्यक है।
धर्म स्वयं की श्वास-श्वास में है। बस उसे उघाडने की दृष्टि नहीं है। धर्म स्वयं के रक्त की बूंद में है। बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नहीं है। धर्म तो सूर्य की भांति स्पष्ट है, लेकिन आंखें तो खोलो!
धर्म तो जीवन है, लेकिन शरीर की कब्रों से ऊपर तो उठो!
धर्म जडता नहीं है। इसलिए सोओ नहीं, जागो और चलो। जो सोता है, वह खोता है। जो चलता है, वह पहुंचता है। जो जागता है, वह पाता है।
एक राजा संसार के सर्वोच्च धर्म की खोज में था। वह युवा से बू.ढा हो आया था, लेकिन उसकी खोज पूरी नहीं हो पाई थी। वह खोज पूरी होती भी कैसे? जीवन है अल्प और ऐसी खोज है मू.ढतापूर्ण। जीवन अनंत हो तो भी सर्वोच्च धर्म नहीं खोजा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः धर्म तो बस धर्म है--वह तो एक ही है, इसीलिए वहां नीचा और ऊंचा, निकृष्ट और श्रेष्ठ, क्या और कैसे हो सकता है? धर्म चूंकि बहुत नहीं हैं, इसीलिए सर्वोच्च की खोज भी सार्थक नहीं है। जहां अनेक नहीं हैं, एक ही है, वहां तुलना के लिए और तौलने के लिए न अवकाश ही है, न उपाय ही है। वह राजा खोजता तो सर्वोच्च धर्म था और जीता था निकृष्टतम अधर्म में। जब सत्य-धर्म ही नहीं मिल रहा था तो धर्म की दिशा में जीवन को ले जाने का प्रश्न ही नहीं था! अंधेरे और अज्ञात में कहीं कोई जाता है? अधर्म के संबंध में तो कोई नहीं पूछता है, लेकिन धर्म के संबंध में मुश्किल से ही कभी कोई होता है जो यह न पूछता हो। अधर्म के संबंध में कोई विचार और खोज भी नहीं करता। उसे तो जीया जाता है और धर्म को खोजा जाता है। शायद यह तथाकथित खोज, अधर्म में जीने और धर्म में जीने से बचने की ही विधि है।
उस राजा को यह कोई कहता भी नहीं था। अलग-अलग धर्मों के पंडित, साधु और दार्शनिक आते थे। वे एक दूसरे से लडते थे। एक दूसरे के दोष दिखलाते थे। एक दूसरे को भ्रांति और अज्ञान में सिद्ध करते थे। राजा इससे प्रसन्न ही होता था। इस भांति उसके समक्ष धर्म ही भ्रांत और अज्ञान हो जाता था और अधर्म में जीने के लिए और सहारे मिल जाते थे। उस राजा को धर्म के पक्ष में जीतना कठिन था, क्योंकि जितने भी पक्ष थे, वे स्वयं ही धर्म के पक्ष में नहीं थे। पक्ष, पंथ और धार्मिक संप्रदाय स्वयं के पक्ष में होते हैं। धर्म से उनका कोई भी प्रयोजन नहीं होता, नहीं हो सकता है। जो सब पक्ष छोडता है, वही धर्म का हो सकता है। निष्पक्ष हुए बिना धार्मिक होना असंभव है। धर्म-संप्रदाय अंततः धर्म के शत्रु और अधर्म के मित्र सिद्ध होते हैं।
लेकिन राजा ने खोज बंद नहीं की। वह तो उसके लिए एक खेल ही बन गई थी। फिर अधर्म भी दुख, चिंता और पीडा लाने लगा। मृत्यु करीब आने लगी। जीवन की फसल काटने के दिन आ गए तो वह बहुत उद्विग्न हो उठा। लेकिन, सर्वोच्च और आत्यंतिक रूप से निर्दोष एवं पूर्ण धर्म के अतिरिक्त वह कुछ भी मानने को तैयार न था। वह बहुत हठी था और जब तक पूर्ण धर्म स्पष्ट न हो, तब तक जीवन का एक चरण भी उस ओर न रखने के लिए भी वह कटिबद्ध था। वर्ष पर वर्ष बीतते जाते थे, और वह अपने ही हाथों स्वयं को और कीचड में फंसाता जाता था। फिर तो अंततः उसकी मृत्यु भी निकट आ गई थी।
एक दिन एक युवा भिखारी उसके द्वार पर भीख मांगने आया। राजा को अत्यंत चिंतित, उदास और खिन्नमना देख उसने कारण पूछा। राजा ने उससे कहाः ‘‘जान कर भी तुम क्या करोगे? बडे-बडे पंडित, साधु और संत भी कुछ नहीं कर सके हैं।’’ वह भिखारी बोलाः ‘‘हो सकता है, उनका बडा होना ही उनके लिए बाधा बन गया हो? फिर पंडित तो कभी भी कुछ नहीं कर सके हैं। वस्त्रों से पहचाने जानेवाले साधु और संत भी क्या साधु और संत होते हैं? ’’ राजा ने उस भिखारी को गौर से देखा। उसकी आंखों में कुछ था जो भिखारी की नहीं, सम्राटों की ही आंखों में होता है। इसी बीच वह भिखारी पुनः बोलाः ‘‘मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता हूं। असल में मैं हूं ही नहीं; लेकिन जो है, वह बहुत कुछ कर सकता है।’’ उसकी बातें निश्चित ही अदभुत थीं। राजा के पास आए हजारों समझाने वालों से वह एकदम ही भिन्न था। राजा सोचने लगा कि ऐसे दीन-हीन वेष में यह कौन है? फिर भी प्रकटतः उसने कहाः ‘‘मैं सर्वोच्च धर्म की खोज कर जीवन को धर्ममय बनाना चाहता था, लेकिन यह नहीं हो सका और फलतः अब अंत समय में मैं बहुत दुखी हूं। कौन सा धर्म सर्वोच्च है? ’’ वह भिखारी खूब हंसने लगा और बोलाः ‘‘राजन! आपने गाडी के पीछे बैल बांधने चाहे, इससे ही आप दुखी हैं। धर्म की खोज से जीवन धर्म नहीं बनता, जीवन के धर्म बनने से ही धर्म की खोज होती है। और यह भी कैसा पागलपन कि आपने सर्वोच्च धर्म खोजना चाहा? अरे धर्म की खोज ही काफी थी। सर्वोच्च धर्म? यह तो मैंने कभी सुना नहीं। ये तो शब्द ही असंगत हैं। धर्म में फिर और कुछ जोडने को नहीं रह जाता है। वृत्त ही होता है, पूर्ण वृत्त नहीं। क्योंकि जो पूर्णवृत्त नहीं है, वह वृत्त ही नहीं है। वृत्त का होना ही उसकी पूर्णता भी है। धर्म का होना ही उसकी निरपेक्ष, निर्दोष सत्यता भी है। और जो सर्वोच्च धर्म को सिद्ध करने आपके पास आते रहे, वे भी या तो आपसे कम पागल नहीं थे, या फिर पाखंडी थे। जो जानता है, वह धर्मों को नहीं, धर्म को ही जानता है।’’
राजा ने विह्वल होकर उस भिखारी के पैर पकड लिए। उस भिखारी ने कहाः ‘‘मेरे पैर छोडें। मेरे पैरों को न बांधें। मैं तो आपके भी पैरों को मुक्त करने आया हूं। राजधानी के बाहर नदी के पार चलें। वहीं मैं धर्म की ओर इंगित कर सकता हूं।’’ वे दोनों नदी-तट पर गए। राजधानी की श्रेष्ठतम नावें बुलाई गईं। लेकिन वह भिखारी प्रत्येक नाव में कोई न कोई दोष बता देता था। अंततः राजा परेशान हो गया। उसने भिखारी से कहाः ‘‘महात्मन्! हमें केवल एक छोटी सी नदी पार करनी है। इसे तो तैर कर भी पार किया जा सकता है। छोडें इन नावों को और चलें, तैर कर ही पार चले चलें। व्यर्थ ही विलंब क्यों कर रहे हैं? ’’
वह भिखारी जैसे इसकी ही प्रतीक्षा में था। उसने राजा से कहाः ‘‘राजन! यही तो मैं कहना चाहता हूं। धर्म-पंथों की नावों के पीछे क्यों पडे हैं? क्या उचित नहीं है कि परमात्मा की ओर स्वयं ही तैर चलें? वस्तुतः धर्म की कोई नाव नहीं। नावों के नाम से सब मल्लाहों के व्यवसाय हैं। स्वयं तैरना ही एकमात्र मार्ग है। सत्य स्वयं ही पाया जाता है। कोई और उसे नहीं दे सकता। सत्य के सागर में स्वयं ही तैरना है। कोई और सहारा नहीं है। जो सहारे खोजते हैं, वे तट पर ही डूब जाते हैं। और जो स्वयं तैरने का साहस करते हैं, वे डूब कर भी पहुंच जाते हैं।’’
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9 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 4
मैं वृद्धों के एक मंडल में बैठा था। वे सभी अवकाश-प्राप्त व्यक्ति हैं और लोक-परलोक की एक से एक व्यर्थ चर्चा में संलग्न रहते हैं। वैसे वे कहते इसे धर्म-चर्चा ही हैं, और यह ठीक भी है। क्योंकि जिन्हें धर्मशास्त्र कहा जाता है, उनमें भी ऐसे ही ऊहापोह की भरमार है। कई बार विचार आता है कि इन तथाकथित धर्मशास्त्रों को कहीं अवकाश-प्राप्त वृद्धों ने ही तो नहीं सिरजा है!
धर्म यदि कुछ है तो स्वयं जीवन है, व्यर्थ के ऊहापोह से उसका क्या संबंध?
लेकिन, शास्त्र तो बस शब्दों से भरे हैं। और धार्मिक कहे जाने वाले मस्तिष्क आकाशों की स्वप्न-यात्रा करते रहते हैं। शास्त्र और सिद्धांत उनके चित्त में धर्म के प्रवेश के लिए द्वार ही नहीं देते हैं।
धार्मिक चित्त क्या है?
मैं तो सब भांति शब्दों, सिद्धांतों और विचारों से शून्य चेतना को ही धार्मिक कहता हूं।
धार्मिक चित्त, काल्पनिक चित्त नहीं है। अपितु, उससे ज्यादा यथार्थवादी और सत्य की ठोस भूमि पर खडी हुई और कोई चेतना ही नहीं होती है।
मैं वृद्धों के विवाद को बडे आनंद से सुनता था कि तभी एक संन्यासी का भी आगमन हो गया था। वे इस पर विचार करते थे कि कितने-कितने जन्मों की कितनी-कितनी तपश्चर्या से मुक्ति उपलब्ध होती है। संन्यासी भी इस विवाद में कूद पडे थे। निश्चय ही वे ज्यादा अधिकारी थे और इसलिए उनकी आवाज भी सबसे ज्यादा तेज थी। शास्त्रों की दुहाइयां दी जा रही थीं और कोई भी किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं था। एक वृद्ध का कहना था कि सैकडों जन्म के कठोर तप से मुक्ति प्राप्त होती है। दूसरे का विचार था कि मुक्ति के लिए तप की या सैकडों जन्मों की कोई बात ही नहीं। वह तो प्रभु-कृपा से कभी भी मिल सकती है। तीसरे का कहना था कि चूंकि अमुक्ति भ्रम है, इसलिए तप से उसे नष्ट करने का सवाल ही नहीं है। वह तो ज्ञान की एक झलक में उसी भांति तिरोहित हो जाती है जैसे रज्जु में भासता सर्प विलीन हो जाता है।
फिर किसी ने मुझ से पूछाः ‘‘आप का क्या ख्याल है? ’’ मैं क्या कहता? इसीलिए तो एक कोने में चुपचाप दबा बैठा था कि कहीं किसी की दृष्टि मुझ पर भी न पड जाए। शास्त्रों का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। सौभाग्य से उस दिशा में जाने की भूल ही मैंने नहीं की। अतः पूछने पर भी मैं चुप ही रह गया।
लेकिन थोडी देर बाद फिर किसी ने पूछाः ‘‘आप कुछ क्यों नहीं बोलते हैं? ’’ मैं बोलता भी तो क्या बोलता? जहां इतने बोलने वाले हों, वहां मैं अकेला ही तो सुननेवाला था। मैं फिर भी चुप ही रह गया। शायद मेरी यह चुप्पी ही बोलने लगी और उन सबका ध्यान अंततः मेरी ही ओर आ गया। शायद वे सब थक गए थे और विश्राम लेना चाहते थे।
मैं जब फंस ही गया था तो मुझे कुछ न कुछ तो कहना ही था। मैंने एक कहानी कहीः एक गांव में ऐसी परंपरा थी कि जब भी किसी युवक का विवाह होता तो उसे या वरपक्ष को विवाह में कम से कम पांच हजार रुपये खर्च करने पडते थे। वह गांव बडा धनी था और इससे कम में वहां विवाह नहीं होते थे। उस गांव के शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा था। उन शास्त्रों को तो कभी किसी ने नहीं प.ढा था, लेकिन गांव के पुरोहित का ऐसा कहना था। पुरोहित से विवाद कौन करता? उसे तो अतीत की किसी मातृभाषा में लिखे सारे शास्त्र कंठस्थ थे। शास्त्र तो सदा से ही स्वतः प्रमाण रहे हैं। उनमें जो है, वही सत्य है। सत्य का और लक्षण ही क्या है? शास्त्र में होना ही तो सत्य का लक्षण है!
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि एक युवक ने केवल पांच सौ रुपयों में ही विवाह कर डाला और उसकी बहू भी आ गई। निश्चय ही वह युवक कुछ विद्रोही रहा होगा, अन्यथा ऐसा कैसे कर सकता था। गांव के लोगों ने उससे पूछाः ‘‘तूने कितने रुपये खर्च किए? ’’ वह बोलाः ‘‘पांच सौ।’’ फिर तो गांव की पंचायत बैठी और पंचों ने उससे कहाः ‘‘गलत है। बिना पांच हजार खर्च किए तो विवाह हो ही नहीं सकता।’’ वह युवक हंसा और बोलाः ‘‘पांच सौ से विवाह हो सकता है या नहीं, यह व्यर्थ बहस तुम करो। मुझको तो बहू मिल गई है और उसका सुख प्राप्त है।’’
यह कह कर वह युवक अपने घर चल दिया था।
मैं भी उठा और उन वृद्धों से बोलाः ‘‘पंचो, नमस्कार। आप बहस जारी रखें, मैं भी अब चलता हूं।’’
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11 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 29
धर्म के प्रति उपेक्षा क्यों है? और यह उपेक्षा रोज ही बढ़ती क्यों जाती है?
एक कथा मैंने सुनी हैः एक गांव था। बहुत भोले-भाले उसके निवासी थे। जो जैसा कहता, वैसी ही बात वे मान लेते थे। उनके गांव के बाहर भगवान की एक मूर्ति थी। एक महात्मा वहां आए। उन्होंने उन सबको एकत्र किया और कहाः ‘‘अनर्थ! अनर्थ! राम-राम! मूर्खो, तुम छाया में रहते हो और भगवान धूप में? भगवान के सिर पर छाया करो। देखते नहीं, भगवान कितने क्रुद्ध हो रहे हैं? ’’ गांव के लोग बहुत गरीब थे। किसी भांति अपने छप्परों को छोटा कर उन्होंने भगवान के लिए एक छप्पर बनाया। छप्पर डलवा कर महात्मा दूसरे गांव चले गए। उन्हें कोई एक ही गांव तो था नहीं। बहुत गांव थे। बहुत भगवान थे। और सबके लिए छप्पर डलवाने की जिम्मेदारी उन्हीं के ऊपर थी। फिर थोडे दिनों के बाद उस गांव में एक दूसरे महात्मा आए। भगवान के ऊपर छप्पर देखते ही दुखी हो गए। गांव वालों को इकट्ठा किया और उन पर बहुत नाराज हुए। बोले, ‘‘सीताराम, सीताराम, अनर्थ हो गया। मूर्खो! भगवान के ऊपर छप्पर? क्या उन्हें तुम्हारे छप्पर की आवश्यकता है? कहीं आग लग जाए तो सब स्वाहा। अभी उतार कर फेंको!’’ गांव वाले हैरान हुए। लेकिन, अब करते भी तो क्या करते? महात्मा जो कहते हैं सो सदा ठीक ही कहते हैं। उनकी न मानो तो अभिशाप से जन्मों-जन्मों तक दुख दे सकते हैं और नरक में भी सडा सकते हैं। भगवान तो उन्हीं के हाथ में है, जैसा चाहे, वैसा करा लेते हैं। उन बेचारों को छप्पर उतार कर फेंक देना पडा। बहुत दिनों का श्रम, शक्ति और दरिद्रों का धन व्यर्थ ही बरबाद हुआ, सो हुआ, लेकिन भगवान पर छप्पर डालने के कलंक से बच जाना ही क्या कम सौभाग्य था! महात्मा छप्पर निकलवा कर दूसरे गांव चले गए। उन्हें कोई एक ही गांव तो था नहीं। बहुत गांव थे। बहुत भगवान थे। और उन सबको छप्परों से मुक्त करवाने की जिम्मेवारी उन्हीं की थी। लेकिन थोडे ही समय बाद फिर एक महात्मा का आगमन उस गांव में हुआ। पर इस बार गांव वाले सचेत थे और भूल कर भी भगवान की मूर्ति की ओर नहीं जाते थे। पता नहीं अब कौन सा बखेडा खडा हो जाए? उन्होंने उस मार्ग पर ही आना-जाना बंद कर दिया था।
मैं देखता हूं कि जो उस गांव में हुआ था, वही करीब-करीब पूरे संसार में हो गया है। महात्माओं ने धर्म के नाम पर ऐसी-ऐसी बेहूदी बातें करवाई हैं, और ऐसे-ऐसे भय लोक-मानस में बिठाए हैं, कि यदि लोगों ने भगवान के रास्ते पर ही आना बंद कर दिया है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
धर्म की उपेक्षा तथाकथित महात्माओं द्वारा फैलाए गए आतंकों और अंधविश्वासों की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा, धर्म की आड में चल रहे शोषण, पाखंड और जडता की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा धर्म के झूठे पूरक बने संप्रदायों और उनके द्वारा फैलाई गई घृणा, वैमनस्य और शत्रुता की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा धर्म की उपेक्षा नहीं, वस्तुतः उसकी उपेक्षा है जो धर्म नहीं है।
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13 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 5
मनुष्य अकेला है, अंधकार में है, असहाय है, असुरक्षित और भयभीत है। यही उसकी चिंता है। इससे मुक्ति का उपाय ही धर्म है।
धर्म मूलतः अभय में प्रतिष्ठा का मार्ग है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो धर्म हैं, वे अभय से ही सर्वाधिक भयभीत रहते हैं। उनका स्वयं का आधार और प्राण ही मनुष्य-मन का भय है। भय ही उनका पोषण और जीवन है। अभय का तो अर्थ ही है, उनकी मृत्यु। मनुष्य के भय का बहुत शोषण हुआ है। इस शोषण में धर्म पीछे नहीं रहे हैं। शायद, वे ही अग्रणी हैं! भय के सहारे ही भूत-प्रेत जीते हैं, भय के सहारे ही धर्मों के भगवान भी। भय के सहारे खडे भूत-प्रेतों ने तो मनुष्य को डराया ही है। फिर भी यह कार्य उनके मनोविनोद की क्रीडा से ज्यादा नहीं रहा। लेकिन भय के भगवानों ने तो मनुष्य को मार ही डाला है। उनकी लीला बहुत महंगी पडी है। जीवन भयों के जाल में फंस गया है, और जहां भय ही भय है, वहां आनंद कहां? प्रेम कहां? शांति कहां? सत्य कहां? आनंद तो अभय की स्फुरणा है। भय मृत्यु है। अभय अमृत है।
भय पर भूत-प्रेत जीएं, यह तो समझ में आता है, लेकिन भय पर ही भगवान का भी जीना बहुत अशोभन है।
और फिर जब भगवान ही भय पर जीएं, तब तो भय के भूत-प्रेतों से मुक्ति का कोई उपाय ही नहीं है!
मैं कहता हूंः भगवान का भय से कोई संबंध नहीं है। निश्चय ही भगवान की आड में इस भय का शोषण कोई और ही कर रहा है।
धर्म धार्मिकों के हाथ में नहीं है। कहते हैं कि जब भी सत्य का कोई आविष्कार होता है तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। धर्म का आविष्कार जिन आत्माओं में होता है, और धर्म का व्यवसाय जो करते हैं, उनमें भिन्नता ही नहीं, आधारभूत विरोध है। धर्म सदा से ही स्वयं के शत्रुओं के हाथ में है। यदि इस तथ्य को समय रहते नहीं समझा गया तो मनुष्य का भविष्य सुंदर और स्वागतयोग्य नहीं हो सकता है।
धर्म को अधार्मिकों से नहीं, तथाकथित धार्मिकों से ही बचाना है। और निश्चय ही यह कार्य ज्यादा कठिन और कष्टसाध्य है।
धर्म जब तक भय पर आधारित है, तब तक वह वस्तुतः धर्म नहीं बन सकता है। परमात्मा का आधार प्रेम है। भय के भगवान की नहीं, मनुष्य को प्रेम के परमात्मा की आवश्यकता है।
प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई पथ नहीं है। भय तो न केवल गलत है, बल्कि घातक है। क्योंकि जहां भय है, वहां घृणा है। जहां भय है, वहां प्रेम असंभव है।
धर्म ने भय पर ही जीना चाहा, इसलिए ही उसका मंदिर धीरे-धीरे खंडहर होता गया है। मंदिर तो प्रेम के होते हैं। भय के मंदिर तो असंभव हैं। भय के मंदिर नहीं, कारागृह ही होते हैं और हो सकते हैं।
मैं पूछता हूंः क्या धर्मों के मंदिर, मंदिर हैं या कारागृह?
धर्म यदि भय है तो मंदिर कारागृह होंगे ही। धर्म यदि भय है तो स्वयं परमात्मा भी कारागृहों के परमाधिकारी से ज्यादा कैसे हो सकता है?
धर्म क्या है? भय पाप का, दंड का, नरक का? या फिर प्रलोभन पुण्य का, पुरस्कार का, स्वर्ग का?
नहीं। न धर्म भय है, न प्रलोभन। प्रलोभन तो भय का ही विस्तार है।
धर्म है अभय।
धर्म है समस्त भयों से मुक्ति।
एक पुरानी घटना है। किसी नगरी में दो भाई रहते थे। उस नगरी में सर्वाधिक धन उन्हीं के पास था। शायद नगरी का नाम था, अंधेर नगरी! बडा भाई बडा धार्मिक था। रोज नियमित मंदिर जाता था। दान-पुण्य करता था। कथा-वार्ता सुनता था। साधु-संतों का सत्संग करता था। उसके कारण भवन में प्रतिदिन ही महात्माओं की भीड जुडी रहती थी। इस लोक में साधु-संतों की सेवा से वह परलोक में स्वर्ग का अधिकारी बन गया था। ऐसा वे साधु-संत उसे समझाते थे। शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है, क्योंकि वे शास्त्र भी उन्हीं साधु-संतों के गिरोह ने बनाए हैं। वह एक ओर धन का शोषण करता था और दूसरी ओर दान-पुण्य करता। दान-पुण्य के बिना स्वर्ग नहीं है। धन के बिना दान-पुण्य नहीं है। शोषण के बिना धन नहीं है। अधर्म से धन होता है और फिर धन से धर्म होता है! वह दूसरों का शोषण करता था। साधु-संत उसका शोषण करते थे और शोषकों-शोषकों में तो सदा से ही मैत्री रही है! लेकिन उसे अपने छोटे भाई पर सदा ही बहुत दया आती थी। वह धन जुटाने में कुशल नहीं था, और परिणामतः धर्म जुटाने में भी असफल हुआ जाता था। उसका प्रेम और सत्य का व्यवहार ही उसके और परमात्मा के आडे आ रहा था! फिर न वह मंदिर ही जाता था और न धर्म-शास्त्रों का क, ख, ग, ही जानता था। उसकी स्थिति निश्चित ही दयनीय थी और परलोक में उसका खाता खाली पडा था। साधु-संतों से भी वह ऐसे बचता था, जैसे लोग छुतही बीमारियों से बचते हैं। महात्मागण घर में एक द्वार से आते तो वह दूसरे द्वार से बाहर हो जाता था। उसका धार्मिक भाई अनेक महात्माओं से अपने अधार्मिक भाई के हृदय-परिवर्तन के लिए प्रार्थना करता था। लेकिन जब वह महात्माओं के सान्निध्य में रुके तभी तो परिवर्तन हो। वह तो रुकता ही नहीं था। लेकिन एक दिन एक पूरे और असली महात्मा आ पहुंचे। उन्होंने न मालूम कितने अधार्मिकों को धार्मिक बना दिया था। साम, दाम, दंड, भेद, सभी में वे कुशल थे। लोगों को धार्मिक बनाना ही उनका धंधा था। ऐसे ही महात्माओं पर तो धर्म की आधारशिलाएं टिकी हैं। नहीं तो धर्म तो कभी का ही मिट-मिटा गया होता। उनसे भी बडे भाई ने अपनी प्रार्थना दुहराई तो वे बोलेः ‘‘घबडाओ मत। उस मूर्ख की अब शामत आ गई है। मैं उससे प्रभु-स्मरण कराके ही रहूंगा। मैं जो कहता हूं, उसे सदा पूरा करता हूं।’’ यह कह कर उन्होंने अपना डंडा उठाया और बडे भाई के साथ हो लिए। पहले वे एक पहलवान थे। फिर महात्मागिरी को पहलवानी से भी अच्छा धंधा समझ महात्मा हो गए थे। उन्होंने आते ही छोटे भाई को पकड लिया। न केवल पकडा ही, बल्कि गिरा कर उसकी छाती पर सवार हो गए। वह युवक कुछ समझ ही न पाया। हैरानी से वह अवाक ही रह गया। फिर भी उसने कहाः ‘‘महानुभाव! यह क्या करते हैं? ’’ महात्मा ने कहाः ‘‘हृदय-परिवर्तन।’’ वह युवक हंसा और बोलाः ‘‘छोडिए। यह भी हृदय-परिवर्तन की कोई राह है? देखिए, कहीं आपकी देह को कुछ चोट न लग जाए!’’ महात्मा बोलेः ‘‘हम देह को माननेवाले नहीं। हम तो ब्रह्म को मानते हैं। ‘राम’ कहो, तभी छोडेंगे। नहीं तो हम से बुरा कोई भी नहीं है।’’ महात्मा बडे दयालु थे, सो उस युवक के हित के लिए मारने-पीटने को तैयार हो गए। उस युवक ने कहाः ‘‘भय से भगवान का क्या संबंध? और भगवान का क्या कोई नाम है? और, नाम भी हो तो प्रभुमय जीवन चाहिए या उसका स्मरण? ऐसे तो मैं ‘राम’ नहीं बोलूंगा। चाहे जीवन रहे या जाए।’’ और फिर उसने महात्मा को धक्का दे नीचे गिरा दिया। गिर कर महात्मा बोलेः ‘‘वाह, वाह! बोल दिया। ‘मैं राम नहीं बोलूंगा’, यह भी राम बोलना ही है।’’ उसका भाई महात्मा के गिराए जाने से छोटे भाई पर बहुत नाराज हुआ, लेकिन महात्मा से वह बहुत प्रसन्न था। नास्तिक भाई से उसने प्रभु-स्मरण जो करा दिया था! राम-नाम की महिमा तो अपार है। उसे तो एक बार भूल से बोलने से भी मनुष्य भवसागर से तर जाता है! उस दिन उसने नगर-भोज दिया। उसका छोटा भाई धार्मिक जो हो गया था!
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‘मैं’ तभी तक है, जब तक ‘मेरा’ है। वह ‘मेरा’ का ही पुंजीभूत रूप है। जहां ‘मेरा’ कुछ नहीं है, वहां ‘मैं’ भी खो जाता है।
और जहां ‘मैं’ नहीं है, वहां वह है, जो है।
मैं-शून्य सत्ता ही परमात्मा है।
एक सुदर्शन नाम का ब्राह्मण था। शांत मन में, ध्यान में उसे दीखा कि मेरा तो कुछ भी नहीं है। उस दिन से उसके स्वामित्व-भाव का विसर्जन हो गया। यह बात उसने किसी को बताई नहीं। लेकिन, उससे जो भी, जो कुछ मांगता था, वह उसे दे देता था। एक दिन उसे गांव के बाहर जाना था सो असने अपनी चित्त स्थिति पत्नि को समझा दी और कहा- ‘जो भी कोई कुछ मांगे, दे देना। मैं, मेरा कुछ भी नहीं है।’
दिन भर तो कोई नहीं आया लेकिन रात्रि एक अपरिचित अतिथि आ पहुंचा। स्नान-भोजन के बाद उसने सुदर्शन की स्त्री को कहा : ‘किबाड़ बंद कर दो और आओ, मेरी सेवा करो।’
स्त्री ने वैसा ही किया। वह उसके पांव दबाने लगी। उसी समय सुदर्शन ने आकर बाहर से आवाज दी। उसकी स्त्री पशोपेश में पड़ी : ‘अतिथि सेवा करूं या किबाड़ खोलूं?’
अतिथि ने कहा : ‘अपने पति से पूछ लो।’
पति ने बाहर से कहा : ‘तुम अतिथि सेवा कर लो। मैं बाहर बैठा हूं।’
वह बाहर ही बैठ गया। आधी रात बीत गई तब उसकी स्त्री ने द्वार खोले। लेकिन लौटकर देखा तो अतिथि तो नहीं था। उसकी जगह एक अपूर्व प्रकाश और सुगंध जरूर घर में व्याप्त थी।
उसने अपने पति से पूछा : ‘अरे, अतिथि कहां गये?’
सुदर्शन बोला : ‘वे मेरे हृदय में आ गये हैं। मेरी परीक्षा पूरी हो गई है।’
17 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 6
एक परमात्मा को मानने वालों ने दूसरे परमात्मा की मूर्तियां तोड दी हैं। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। सदा से ही ऐसा होता रहा है। मनुष्य ही एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, उनके परमात्मा भी हैं। असल में मनुष्य जिन परमात्माओं का सृजन करता है, वे स्वयं उससे बहुत भिन्न नहीं हो सकते हैं। एक मंदिर दूसरे मंदिर के विरोध में खडा है, क्योंकि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के विरोध में है। एक शास्त्र दूसरे शास्त्र का शत्रु है, क्योंकि मनुष्य मनुष्य का शत्रु है। मनुष्य जैसा होता है, वैसा ही उसका धर्म होता है। मनुष्य मैत्री लाने के बजाय शत्रुता के ग.ढ बन गए हैं और जगत को प्रेम से भरने के बजाय उन्होंने बैर-वैमनस्य के विष से भर दिया है।
मैं मूर्तियां टूटने की खबर सुन कर लौटा ही था कि जिनकी मूर्तियां तोडी गई थीं, उनमें से कुछ व्यक्ति मेरे पास आए। वे बडे सात्विक क्रोध से भरे हुए थे! हालांकि कोई क्रोध सात्विक नहीं होता है। फिर भी उन्होंने कहा कि उनका क्रोध सात्विक है! और वे जब तक विरोधियों के मंदिरों को नष्ट नहीं कर देंगे, तब तक चैन नहीं लेंगे! सवाल धर्म की रक्षा का है।
मैं हंसने लगा तो वे हैरान हुए। निश्चय ही यह समय हंसने का नहीं था। वे बहुत गंभीर थे और उनकी दृष्टि में इससे ज्यादा गंभीर क्या बात हो सकती थी कि धर्म पर खतरा था!
मैंने उन मित्रों से पूछाः ‘‘क्या आप शैतान की भाषा समझते हैं? ’’
एक ने पूछाः ‘‘यह कौन सी भाषा है? ’’
शास्त्रों की भाषा तो वे समझते थे, लेकिन शैतान की भाषा नहीं समझते थे। हालांकि शैतान की भाषा को समझे बिना स्वयं शास्त्र ही शैतान के शास्त्र बन जाते हैं!
मैंने उनसे एक कहानी कहीः
एक नाव दूर-देश जा रही थी। और यात्रियों के साथ उसमें एक दरिद्र फकीर भी था। कुछ शरारती व्यक्ति उस फकीर को सब भांति परेशान कर रहे थे। वह जब परमात्मा की रात्रिकालीन प्रार्थना में बैठा था तो यह सोचकर कि अब तो वह कुछ भी नहीं कर सकेगा, उन्होंने उसके सिर पर जूते लगाने शुरू कर दिए। वह तो प्रार्थना में था और उसकी आंखों से प्रेम के आंसू बह रहे थे। तभी आकाशवाणी हुईः ‘‘मेरे प्यारे! तू कहे तो नाव उलट दूं।’’ वे व्यक्ति घबडा गए। और यात्री भी घबडा गए। मनोविनोद तो महंगा पड रहा था। वे सब उस फकीर के पैरों पर गिर क्षमा मांगने लगे। फकीर की प्रार्थना पूरी हुई तो वह उठा और उन लोगों से बोलाः ‘‘घबडाओ मत।’’ फिर उसने आकाश की ओर मुंह उठाया और कहाः ‘‘मेरे प्यारे प्रभु! यह तू कैसी शैतान की भाषा में बोल रहा है? तू कुछ उलटने की ही लीला करना चाहता है, तो इनकी बुद्धि उलट दे। नाव उलटने से क्या होगा? ’’ फिर आकाश-घोषणा हुईः ‘‘मैं बहुत खुश हूं। तूने ठीक पहचाना। वह वाणी मेरी नहीं थी। जो शैतान की भाषा पहचान लेता है, वही फिर मेरी भाषा पहचान सकता है।’’
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19 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 22
एक स्त्री ने पूछाः ‘‘मैं स्वयं को बदलना चाहती हूं। क्या करूं?’’
मैंने कहाः ‘‘सबसे पहली बातः वस्त्रों को बदलने से बचना। क्योंकि जब भी किसी के जीवन में आत्मक्रांति की घडी आती है, तब उसका मन उसे वस्त्रों के बदलने में संलग्न कर देता है। मन के लिए यही सुविधापूर्ण है और इसमें ही उसकी सुरक्षा भी है। वस्त्रों के परिवर्तन से मन की मृत्यु तो होती नहीं, अपितु नये वस्त्रों में, जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों के बजाय, वह और भी दीर्घायु हो जाता है। वस्त्रों के परिवर्तन से आत्मक्रांति तो नहीं होती, उल्टे अहंतुष्टि हो जाती है। और अहंतुुष्टि आत्मघात ही है।
वह स्त्री पूछने लगीः ‘‘कौन से वस्त्र? ’’
मैंने कहाः ‘‘बहुत प्रकार के वस्त्र हैं। बहुत प्रकार के आवरण हैं। बहुत प्रकार की आत्मवंचनाएं हैं। जो भी ऊपर से ओ.ढा जा सके, उससे सावधान रहना। जो भी स्वयं के यथार्थ को ढांकता हो, उसे ही आत्मवंचना जानना। उसे ही मैं वस्त्रों का नाम दे रहा हूं। व्यक्ति पापी है तो वह पुण्य के वस्त्र पहन लेता है। व्यक्ति हिंसक है तो अहिंसा के वस्त्र धारण कर लेता है। व्यक्ति अज्ञानी है तो वह शास्त्रों और शब्दों से स्वयं को भर कर ज्ञान को ओढ़ लेता है। धर्म से बचने के लिए धर्म के वस्त्रों को धारण कर लेना अधार्मिक चित्त की सनातन चाल है। क्या जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें चारों ओर दिखाई नहीं पडता है? ’’
फिर उसने कुछ सोचा और कहाः ‘‘मैं संन्यासिनी होना चाहती हूं।’’
मैंने कहाः ‘‘बस। तब जानो कि वस्त्रों को बदलने का प्रारंभ हो गया है। जब भी व्यक्ति कुछ होना चाहता है, तभी मन का षड्यंत्र शुरू हो जाता है। कुछ होने की महत्वाकांक्षा ही मन है। यह महत्वाकांक्षा ही उसे भुलाना चाहती है, जो है, और उसे ओढ़ना चाहती है, जो नहीं है। आदर्श ही सारे आवरणों और मुखौटों के जन्मदाता हैं। जिसे सत्य को जानना है, और सत्य को जाने बिना कोई मौलिक आत्मक्रांति संभव नहीं है, उसे जानना होगा जो वह वस्तुतः है। वह जो नहीं है, उसकी आकांक्षा में नहीं, वरन वह जो है उसके पूर्ण अनावरण में क्रांति फलित होती है। व्यक्ति जब स्वयं के सत्य को पूर्णतया जानता है तो यही ज्ञान क्रांति बन जाता है। ज्ञान की क्रांति में समय का अंतराल नहीं है। जहां समय का अंतराल है, वहां क्रांति नहीं आवरण-परिवर्तन की ही खोज है।’’
और फिर उससे मैंने एक घटना कहीः
एक दिन अबु हसन के पास एक व्यक्ति आया और बोलाः ‘‘ओ परमात्मा के प्यारे दरवेश! मैं अपने अपवित्र जीवन से भयाक्रांत हूं और स्वयं को बदलने के लिए कटिबद्ध हूं। मैं संन्यासी होना चाहता हूं। क्या आप मुझ पर अनुकंपा नहीं करेंगे? क्या आप अपने पहने हुए पवित्र वस्त्र मुझे नहीं दे सकते हैं? मैं भी उन्हें पहन कर पवित्र होना चाहता हूं।’’
उस व्यक्ति ने हसन के पैरों पर सिर रख दिया और उन्हें आंसुओं से गीला कर दिया। उसकी उत्कट आकांक्षा में संदेह का तो सवाल ही नहीं था। उसके आंसू ही क्या उसके लिए गवाह नहीं थे?
अबु हसन ने उसे उठाया और कहाः ‘‘मित्र! इसके पहले कि मैं तुम्हें अपने वस्त्रों को देने की भूल करूं, क्या तुम भी मेरे एक प्रश्न का उत्तर देने की कृपा कर सकते हो? क्या कोई स्त्री किसी पुरुष के वस्त्रों को पहन कर पुरुष हो सकती है? या कोई पुरुष किसी स्त्री के वस्त्र पहन कर स्त्री हो सकता है?
उस व्यक्ति ने अपने आंसू पोंछ लिए। संभवतः वह गलत जगह आ गया था। और कहाः ‘‘नहीं।’’
अबु हसन हंसने लगा और बोलाः ‘‘ये रहे मेरे वस्त्र! लेकिन यदि तुम मेरे शरीर को भी ओढ़ लो तो क्या होगा? संन्यासी के वस्त्र पहन कर क्या कभी कोई संन्यासी हुआ है? ’’
यदि मैं हसन की जगह होता तो कहताः ‘‘क्या कभी कोई संन्यासी होने की आकांक्षा से प्रेरित होकर भी संन्यासी हुआ है? संन्यास आता है। वह ज्ञान का फल है और जहां कुछ भी होने की आकांक्षा है, वहां ज्ञान नहीं है। क्योंकि, आकांक्षा से आंदोलित चित्त होता है अशांत, और अशांति में ज्ञान कहां? जहां कुछ भी होने की वासना है, वहां स्वयं से पलायन है। और जो स्वयं से ही भागता है, वह स्वयं को जान कैसे सकता है? इसलिए मैं कहता हूंः भागो नहीं, जागो। बदलो नहीं, देखो। क्योंकि जो जागता है और स्वयं को देखता है, धर्म स्वयं ही उसके द्वार पर आ जाता है।’’
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21 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 23
एक धनपति ने किसी विशेष अवसर पर अपने मित्रों को भोज दिया था। उस राज्य का राजा भी भोज में उपस्थित था। इस कारण उस धनपति की खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन अतिथि भोजन करने बैठे ही थे कि उसकी खुशी क्रोध में बदल गई। उसके दास-दासियां सेवा में लगे थे, एक दास से उसके पैर पर गर्म भोजन से भरी थाली गिर पडी। उसका पैर जल गया और उसकी आंखों में क्रोध उबल पडा। निश्चय ही उस गुलाम के जीवित बचने की अब कोई संभावना नहीं थी। वह गुलाम भय से थर-थर कांप रहा था। लेकिन मरता क्या न करता? उसने आत्मरक्षा के लिए उस देश के पवित्र धर्म-ग्रंथ से एक उद्धृत कियाः ‘‘स्वर्ग उसका है जो अपने क्रोध पर संयम करता है।’’
उसके मालिक ने सुना। उसकी आंखों में तो क्रोध उबल रहा था, लेकिन फिर भी वह संयमित होकर बोलाः ‘‘मैं क्रोध में नहीं हूं।’’
इस पर स्वभावतः अतिथियों ने तालियां बजाईं और स्वयं राजा ने भी प्रशंसा की। उस धनपति की आंखों का क्रोध अभिमान बन गया। वह गौरवान्वित हुआ था।
लेकिन उस दास ने फिर कहाः ‘‘स्वर्ग उसका है जो क्षमा करता है।’’ उसके मालिक ने कहाः ‘‘मैंने तुम्हें क्षमा किया।’’
यद्यपि उन आंखों में क्षमा कहां जो अहंकार से भरी हों। लेकिन अहंकार क्षमा करके भी तो पुष्ट हो सकता है। अहंकार के मार्ग बहुत सूक्ष्म हैं।
वह धनपति अब तो अतिथियों को अत्यंत धार्मिक मालूम होने लगा था। उन्होंने तो सदा उसे एक क्रूर शोषक की भांति ही जाना था। उसके इस अभिनव रूप को देख कर तो वे चकित ही रह गए थे। सामने ही बैठे राजा ने भी उसे ऐसे देखा जैसे कोई अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति को देखता है। वह धनपति अब पृथ्वी पर नहीं था। उसका सिर आकाश छू रहा था।
अंततः उस दास ने धर्मग्रंथ का अधूरा पूरा किया, ‘‘क्योंकि, परमात्मा उन्हें प्रेम करता है, जो दयालु हैं।’’
उस धनपति ने चारों ओर देखा। लौकिक लोभ तो सदा ही उसकी आंखों में था। आज वही पारलौकिक बन गया था। उस गुलाम से उसने कहाः ‘‘जाओ, मैंने तुम्हें मुक्त किया। अब तुम मेरे गुलाम नहीं हो।’’ और साथ ही स्वर्ण-मुद्राओं से भरी एक थैली भी उसे भेंट दी। उसकी आंखों में क्रोध, अहंकार बना था। अब वही लोभ बन गया था। क्रोध, लोभ, घृणा, भय--क्या सभी किसी एक ही शक्ति की अभिव्यक्तियां नहीं हैं?
और जब धर्म इतना सस्ता हो तो कौन धनपति उसे न खरीदना चाहेगा?
धर्म भी क्या भय और लोभ के खंभों पर ही नहीं खडा हुआ है?
मैं पूछता हूं फिर अधर्म के खंभे कौन से हैं?
धर्म के मंदिर के शिखर पर भी क्या अहंकार ही नहीं है?
मैं पूछता हूं फिर अधर्म के मंदिर का शिखर कौन सा है?
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23 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 13
एक बालक ने मुझसे पूछाः ‘‘मैं बुद्ध-जैसा बनना चाहता हूं। क्या आप मुझे मेरे आदर्श तक पहुंचने के लिए मार्ग-निर्देश कर सकेंगे? ’’ उस बालक की उम्र बहुत थी। वह कम से कम साठ बसंत तो देख ही चुका था! लेकिन जो दूसरों जैसा बनना चाहता है, वह अभी बालक ही है और उसका मस्तिष्क परिपक्व नहीं हुआ है।
क्या व्यक्ति की प्रौ.ढता का लक्षण यही नहीं है कि वह किसी और जैसा नहीं, वरन स्वयं जैसा ही बनना चाहे? और यदि कोई अन्य जैसा बनना भी चाहे तो क्या वह बन सकता है?
व्यक्ति बस स्वयं-जैसा ही हो सकता है। अन्य-जैसा होना असंभव है। मैं उस वृद्ध को बालक कह रहा हूं तो आप हंसते हैं। लेकिन यदि खोजेंगे तो हंसेंगे नहीं, रोएंगे, क्योंकि पाएंगे कि वह बाल-बुद्धि आप में भी मौजूद है। क्या आप भी किसी अन्य-जैसा नहीं होना चाहते हैं? क्या स्वयं जैसा होने का साहस और प्रौ.ढता आपके भीतर है? यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रौ.ढ हो तो किसी के भी अनुगमन का सवाल नहीं है। क्या बाल-बुद्धि के कारण ही अनुगमन, अनुयायी, शिष्य और गुरु पैदा नहीं होते हैं? और स्मरण रहे कि अनुगमन करनेवाली बुद्धि अप्रौ.ढ तो होती ही है, अंधी भी होती है।
उस वृद्ध बालक को मैंने क्या कहा था?
मैंने कहा थाः ‘‘मित्र, जो किसी और जैसा बनना चाहता है, वह स्वयं को खो देता है। प्रत्येक बीज अपने वृक्ष को स्वयं में लिए हुए है, और ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति भी। स्वयं के अतिरिक्त और अन्यथा होने का मार्ग नहीं है। हां, अन्यथा होने की चेष्टा में यह जरूर हो सकता है कि व्यक्ति वह न हो पाए जो हो सकता था। उसे खोजो जो तुम हो, और उसी खोज में से उसका विकास होता है जो तुम हो सकते हो। इसके अतिरिक्त किसी के लिए कोई आदर्श नहीं है। आदर्शों के नाम पर व्यक्ति स्वयं के विकास-पथ से भटके हैं, कहीं पहुंचे नहीं। आदर्शों की आड में मुझे आत्महत्याएं दिखाई पडती हैं, और आत्महत्याएं ही तो होंगी। मैं जब भी किसी और जैसा होने में लगूंगा, तो क्या करूंगा? स्वयं को मारूंगा, स्वयं को दबाऊंगा, स्वयं से घृणा करूंगा। आत्म-हत्या होगी और होगा पाखंड। क्योंकि, जो मैं नहीं हूं, वह होने का, वह दीखने का, उसे प्रदर्शित करने का अभिनय होगा। व्यक्तित्व में दुई पैदा हुई कि पाखंड आया। जहां व्यक्तित्व में स्व-विरोधी आरोपण है, वहीं असत्य है, वहीं अधर्म है। यह स्वाभाविक है कि ऐसी अस्वाभाविक चेष्टा दुख लाए, चिंता और संताप लाए। इस भांति के तनावों की अति ही मनुष्य में नरक बन जाती है। स्वयं के सत्य और स्वयं की संभावनाओं के साक्षात से ही जो आदर्श जन्मता है, और उसकी छाया की भांति ही जो अनुशासन सहज आता है, उसके सिवाय सभी कुछ व्यक्ति को कुरूप और अपंग करता है। बाहर से आए आदर्श और अनुशासन के चैखटे आत्महिंसा लाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूंः स्वयं को खोजो और स्वयं को पाओ। परमात्मा के द्वार पर केवल उन्हीं का स्वागत है जो स्वयं जैसे हैं। उस द्वार से राम तो निकल सकते हैं, लेकिन रामलीला के राम का निकलना संभव नहीं है। और जब भी कोई बाह्य आदर्शों से अनुप्रेरित हो स्वयं को ढालता है, तो वह रामलीला का राम ही बन सकता है। यह दूसरी बात है कि कोई उसमें ज्यादा सफल हो जाता है, कोई कम! लेकिन अंततः जो जितना ज्यादा सफल है, वह स्वयं से उतनी ही दूर निकल जाता है। रामलीला के रामों की सफलता वस्तुतः स्वयं की विफलता ही है। राम को, बुद्ध को या महावीर को ऊपर से नहीं ओ.ढा जा सकता। जो ओ.ढ लेता है, उसके व्यक्तित्व में न संगीत होता है, न स्वतंत्रता, न सौंदर्य, न सत्य। परमात्मा उसके साथ वही व्यवहार करेगा, जो स्मार्टा के एक बादशाह ने उस व्यक्ति के साथ किया था जो बुलबुल-जैसी आवाजें निकालने में इतना कुशल हो गया था कि मनुष्य की बोली उसे भूल ही गई थी। उस व्यक्ति की बडी ख्याति थी और लोग, दूर-दूर से उसे देखने और सुनने जाते थे। वह अपने कौशल का प्रदर्शन बादशाह के सामने भी करना चाहता था। बडी कठिनाई से वह बादशाह के सामने उपस्थित होने की आज्ञा पा सका। उसने सोचा था कि बादशाह उसकी प्रशंसा करेंगे और पुरस्कारों से सम्मानित भी। अन्य लोगों द्वारा मिली प्रशंसा और पुरस्कारों के कारण उसकी यह आशा उचित ही थी। लेकिन बादशाह ने उससे क्या कहा? बादशाह ने कहाः महानुभाव, मैं बुलबुल को ही गीत गाते सुन चुका हूं, मैं आपसे बुलबुल के गीतों को सुनने की नहीं, वरन उस गीत को सुनने की आशा और अपेक्षा रखता हूं, जिसे गाने के लिए आप पैदा हुए हैं। बुलबुलों के गीतों के लिए बुलबुलें ही काफी हैं। आप जाएं और अपने गीत को तैयार करें और जब वह तैयार हो जाए तो आवें। मैं आपके स्वागत के लिए तैयार रहूंगा और आपके लिए पुरस्कार भी तैयार रहेंगे।’’
निश्चय ही जीवन दूसरों की नकल के लिए नहीं, वरन स्वयं के बीज में जो छिपा है, उसे ही वृक्ष बनाने के लिए है। जीवन अनुकृति नहीं, मौलिक सृष्टि है।
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25 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 24
एक करोडपति के घर में ठहरा था। उनके पास क्या था, जो नहीं था? किंतु उनकी आंखें बहुत निर्धन थीं। उन्हें देख कर बडी दया आती थी। सुबह से सांझ तक वे धन बटोरते थे। सिक्कों के गिनने, सम्हालने और सुरक्षा करने में ही उनका जीवन बीता था। पर धनी वे नहीं थे। शायद रख वाले ही थे। दिन भर कमाते थे, रात्रि भर रख वाली करते थे। इसीलिए सो भी नहीं पाते थे! धन का कौन रख वाला कभी सो पाया है? निद्रा, स्वप्नशून्य निद्रा केवल उनकी ही संपत्ति बनती है, जो सब भांति की संपत्तियों की विक्षिप्तता से मुक्त हो जाते हैं--धन की, यश की, या धर्म की। जिसकी कोई भी दौड है, उसके दिवस-रात्रि सभी अशांत हो जाते हैं। अशांति, दौड रहे चित्त की छाया है। जहां चित्त ठहरता है, वहीं शांति है।
मैं जब रात्रि में अपने दरिद्र, लेकिन करोडपति आतिथेय से सोने के लिए विदा लेने लगा था तो उन्होंने कहा थाः ‘‘मैं भी सोना चाहता हूं, लेकिन नींद है कि मेरी और देखती ही नहीं। चिंताओं में ही रात्रि बीत जाती है। न मालूम कैसे अनर्गल विचार चलते रहते हैं, न मालूम कैसे-कैसे भय भयभीत करते हैं। स्वस्थ और शांत निद्रा के लिए मुझे कोई मार्ग बतावें। मैं क्या करूं? मैं तो पागल हुआ जाता हूं।’
क्या मार्ग मैं बताता? रोग तो मुझे ज्ञात था। धन ही उनका रोग था। वही दिन में उन्हें सताता था, वही रात्रि में। रात्रि तो दिन की ही प्रतिक्रिया और प्रतिफलन है। फिर रोग चाहे कुछ भी हो, मूलतः तो स्वयं के बाहर किसी भी भांति की सुरक्षा की खोज ही मूल रोग है। उससे सुरक्षा तो आती नहीं, वरन रोग ही और बढ़ता जाता है। सुरक्षा के सब उपायों को छोड जब तक व्यक्ति स्वयं पर ही नहीं लौट आता है, तब तक उसका पूरा जीवन ही एक लंबा दुखस्वप्न बना रहता है। वास्तविक सुरक्षा स्वयं के अतिरिक्त और कहीं नहीं है, लेकिन उसे पाने के लिए सब भांति असुरक्षित होने का साहस आवश्यक है।
मैंने उनसे एक कथा कही और कहाः ‘जाएं और सो जाएं।’ और आश्चर्य कि वे सो भी गए। दूसरे दिन उनकी आंखों में कृतज्ञता और खुशी के आंसू थे।
आज मैं सोचता हूं तो मुझे स्वयं ही विश्वास नहीं होता। कौन सा जादू उस कथा ने उन पर कर दिया था? शायद मन की किसी दशा-विशेष में कोई साधारण सी बात भी कभी असाधारण हो जाती है। जरूर ऐसा ही कुछ हुआ होगा। संभवतः तीर अनायास ही ठीक जगह लग गया था। उस रात्रि वे सो गए थे, यह तो ठीक ही है। उसके बाद उनके जीवन में भी दूसरे ही फूल खिलने लगे थे।
वह कथा क्या है? स्वभावतः ही उसे जानने की जिज्ञासा आपकी आंखों में गहरी हो उठी है।
एक महानगरी थी। उस नगरी में एक भिक्षु का आगमन हुआ। ऐसे तो भिक्षु आते ही रहते थे। लेकिन उस भिक्षु में जरूर ही कुछ अदभुत गुण था। हजारों लोगों का तांता उसकी झोपडी पर लगा था। और जो भी उसके निकट जाता, वह वैसी ही सुवास और ताजगी लेकर लौटता जैसी पहाडी झरनों, या वनों के सन्नाटे में, या आकाश के तारों में स्वयं को खो देने पर उपलब्ध होती है। उस भिक्षु का नाम भी अजीब थाः कोटिकर्ण श्रोण। संन्यास के पूर्व वह बहुत धनी था और कानों में एक करोड के मूल्य की बालियां पहनता था, इसीलिए कोटिकर्ण उसका नाम पड गया था। धन तो उसके पास था, लेकिन जब स्वयं की निर्धनता उसने अपनी मिटती नहीं देखी तो वह निर्धन होकर धनी हो गया था। यही वह औरों से कहता था और उसके श्वास से उठ रहा संगीत उसकी गवाही था। उसकी आंखों से झर रही शांति उसकी गवाही थी। उसके शब्दों से और उसके मौन से प्रकट हो रहा आनंद उसकी गवाही था। चित्त प्रौढ़ हो तो धन से, यश से, पद से, महत्वाकांक्षा से मुक्ति सहज ही हो जाती है। वे सब बालपन के खेल ही तो हैं।
भिक्षु श्रोण को देखने-सुनने हजारों व्यक्ति नगर के बाहर एकत्र हुए थे। उसकी बातें सुनने में उनका चित्त निर्वात स्थान में जलती दीपशिखा की भांति थिर था। उस समूह में एक श्राविका कातियानी भी बैठी थी। संध्या हो चली तो उसने अपनी दासी से कहा ‘‘तू जाकर घर में दीया जला दे। मैं तो यह अमृतोपम उपदेश छोड कर उठूंगी नहीं।’’ दासी घर पहुंची तो वहां सेंध लगी हुई थी। अंदर चोर सामान उठा रहे थे और बाहर उनका सरदार रख वाली कर रहा था। दासी उल्टे पांव वापस लौटी। चोरों के सरदार ने भी उसका पीछा किया। दासी ने कातियानी के पास जाकर घबडाए स्वर में कहाः ‘‘मालकिन, घर में चोर बैठे हैं।’’ किंतु कातियानी ने कुछ ध्यान न दिया। वह किसी और ही ध्यान में थी। वह तो जो सुनती थी, सो सुनती रही। जहां देखती थी, वहां देखती रही। वह तो जहां थी, वहीं बनी रही। वह किसी और ही लोक में थी। उसकी आंखों से आनंदाश्रु बहे जाते थे। दासी ने घबडा कर उसे झकझोराः ‘‘मां! मां! चोरों ने घर में सेंध लगाई है। वे समस्त स्वर्णाभूषण उठाए लिए जाते हैं।’’ कातियानी ने आंखें खोलीं और कहाः ‘‘पगली! चिंता न कर। जो उन्हें ले जाना है, ले जाने दे। वे स्वर्णाभूषण सब नकली हैं। मैं अज्ञान में थी, इसलिए वे असली थे। जिस दिन उनकी आंखें खुलेंगी, वे भी पाएंगे कि वे नकली हैं। आंखें खुलते ही वह स्वर्ण मिलता है, जो न चुराया जा सकता है, न छीना ही जा सकता है। मैं उस स्वर्ण को ही देख रही हूं। वह स्वर्ण स्वयं में ही है।’’ दासी तो कुछ भी न समझ सकी। वह तो हतप्रभ थी और अवाक थी। उसकी स्वामिनी को यह क्या हो गया था? लेकिन चोरों के सरदार का हृदय झंकृत हो उठा। उसके भीतर जैसे कोई बंद द्वार खुल गया। उसकी आत्मा में जैसे कोई अनजला दीप जल उठा। वह लौटा और अपने मित्रों से बोलाः ‘‘मित्रो! गठरियां यहीं छोड दो। ये स्वर्णाभूषण सब नकली हैं और आओ, हम भी उसी संपदा को खोजें जिसके कारण गृहस्वामिनी ने इन स्वर्णाभूषणों को नकली पाया है। मैं स्वयं भी उस स्वर्ण-राशि को देख रहा हूं। वह दूर नहीं, निकट ही है। वह स्वयं में ही है।’’
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28 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 7
सत्य की खोज में सर्वाधिक आवश्यक क्या है?
मैं कहता हूंः साहस--स्वयं के यथार्थ को जानने का साहस। मैं जैसा हूं, वैसा ही स्वयं को जानना सर्वाधिक आवश्यक है। वह बहुत कठिन है। लेकिन उसके बिना सत्य में कोई गति भी संभव नहीं है। स्वयं को निर्वस्त्र और नग्न जानने से ज्यादा बडा तप और क्या है? लेकिन, सत्य की उपलब्धि के लिए वही मूल्य चुकाना होता है। उससे ही व्यक्ति की सत्य के प्रति अभीप्सा की घोषणा होती है। स्वयं के प्रति सच्चाई ही तो सत्य के प्रति प्यास की प्रगा.ढता की अभिव्यक्ति है। असत्य के तट से जो स्वयं को बांधे हुए है, वह अपनी नौका सत्य के सागर में कैसे ले जा सकेगा? असत्य के तट को तो छोडना ही होगा। वह तट ही तो सत्य की यात्रा के लिए बाधा है। वह तट ही तो बंधन है। निश्चय ही उस तट में सुरक्षा है। सुरक्षा की अति चाह ही तो असत्य का ग.ढ है। सत्य की यात्रा में सुरक्षा का मोह नहीं, वरन अज्ञात को जानने का अदम्य साहस चाहिए। असुरक्षित होने का जिसमें साहस नहीं है, वह अज्ञात का खोजी भी नहीं हो सकता है। असुरक्षित होने की चुनौती को स्वीकार किए बिना कोई न तो अपने ओ.ढे हुए रूपों को ही उतार सकता है, और न ही उन मुखौटों से मुक्त हो सकता है जो सुरक्षा के लिए उसने पहन रखे हैं। क्या सुरक्षा के निमित्त ही, हम जो नहीं हैं, वही नहीं बने हुए हैं? क्या हमारी सारी वंचनाएं सुरक्षा की ही आयोजनाएं नहीं हैं? यह हमारी सारी सभ्यता और संस्कृति क्या है? अहंकारी विनयी बना है। लोभी त्यागी बना है। शोषक दान करता है। हिंसक ने अहिंसक के वस्त्र पहन रखे हैं। और घृणा से भरे हुए चित्त प्रेम की भाषा बोल रहे हैं। यह आत्मवंचना बहुत सुगम भी है। नाटकों में अभिनय कब कठिन रहे हैं? संस्कृति के बाजार में सुंदर मुखौटे सदा से ही सस्ते दामों में मिलते रहे हैं। लेकिन स्मरण रहे कि जो सौदा ऊपर से सस्ता है, अंततः वही सबसे महंगा सिद्ध होता है। क्योंकि जो व्यक्ति मुखौटों में स्वयं को छिपाता है, वह स्वयं से और सत्य से निरंतर दूर होता जाता है। सत्य के और उसके बीच एक अलंघ्य खाई निर्मित हो जाती है, क्योंकि उसकी आत्मा स्वयं के अनावरण के भय से ही सदा त्रस्त रहने लगती है। वह फिर स्वयं को छिपाता ही चला जाता है। वस्त्रों के ऊपर वस्त्र और मुखौटों के ऊपर मुखौटे। असत्य अकेला नहीं आता है। उसकी सुरक्षा के लिए उसकी फौजें भी आती हैं। असत्य और भय का फिर ऐसा जाल बन जाता है कि उसके ऊपर आंखें उठाना भी असंभव हो जाता है। व्यक्ति जब स्वयं के ही मुखौटों के उठ जाने के भय से पीडित हो तो वह सत्य के पात्र को उघाडने की सामथ्र्य कहां से जुटा सकता है? वह शक्ति तो स्वयं को उघाडने के साहस से ही अर्जित होती है। सत्य-साक्षात के लिए भयभीत चित्त तो शत्रु है। उस दिशा में कौन मित्र है? अभय मित्र है। चित्त की अभयता उसे ही प्राप्त होती है, जो स्वयं के यथार्थ को स्वयं ही सब भांति उघाड कर भय से मुक्त हो जाता है। स्वयं को ढांकने से भय ब.ढता जाता है, और आत्मा शक्तिहीन होती जाती है, किंतु स्वयं को उघाडो और देखो तो उस ज्ञान के प्रकाश में ही भय तिरोहित हो जाते हैं और शक्ति के अभिनव और अमित स्रोतों की उपलब्धि होती है। इसे ही मैं साहस कहता हूं--स्वयं को उघाडने और जानने की क्षमता ही साहस है। सत्योपलब्धि के लिए वह अनिवार्य है। ब्रह्म की दिशा में वही पहला चरण है। एक अत्यंत मधुर कथा हैः
एक किशोर ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा। वह सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहाः ‘‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्मविद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’’
उस किशोर का नाम सत्यकाम था।
ऋषि ने उससे पूछाः ‘‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है? ’’
उस किशोर को न अपने पिता का कोई ज्ञान था, न ही गोत्र का पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने जो उससे कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा। वह बोलाः ‘‘भगवन! मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को जानता हूं। मेरी मां को भी मेरे पिता का ज्ञान नहीं है। उससे मैंने पूछा तो उसने कहा कि युवावस्था में वह अनेक भद्रपुरुषों में रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही। उसे पता नहीं कि मैं किससे जन्मा हूं। मेरी मां का नाम जाबाली है। इसलिए, मैं सत्यकाम जाबाल हूं। ऐसा ही आपसे बताने को उसने मुझे कहा है।’’
हरिद्रुमत इस सरल सत्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस किशोर को हृदय से लगा लिया और बोलेः ‘‘मेरे प्रिय! तू निश्चय ही ब्राह्मण है। सत्य के लिए ऐसी आस्था ही ब्राह्मण का लक्षण है। तू ब्रह्म को जरूर पा सकेगा, क्योंकि जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं ही उसे खोजता हुआ उसके द्वार आ जाता है।’’
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30 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 8
मैं महत्वाकांक्षा की धुरी पर घूम रहे जीवन-वृत्त को ही नरक कहता हूं। महत्वाकांक्षाओं का ज्वर ही जीवन को विषाक्त करता है। मनुष्य जिन बडी से बडी रुग्णताओं और विक्षिप्तताओं से परिचित है, महत्वाकांक्षा से बडी बीमारी उनमें से कोई भी नहीं है। क्योंकि जो चित्त महत्वाकांक्षाओं की हवाओं से उद्वेलित है, शांति, संगीत और आनंद उसके भाग्य में नहीं हो सकता है। वह स्वयं में ही नहीं होता है। और शांति, संगीत और आनंद तो स्वयं में होने के ही फल हैं। जो स्वयं में नहीं है, वही अस्वस्थ है। स्वयं में होना ही तो स्वस्थ होना है।
एक युवती पूछती थीः ‘‘इस महत्वाकांक्षा का मूल क्या है? ’’
मैंने कहाः ‘‘हीनता का भाव। अभाव का बोध।’’
निश्चय ही हीनता का भाव और महत्वाकांक्षी-चेतना विरोधी दिखाई पडते हैं। लेकिन क्या वे वस्तुतः विरोधी हैं? नहीं, वे विरोधी नहीं हैं, वरन एक ही भावदशा के दो छोर हैं। एक छोर से जो हीनता है वही दूसरे छोर से महत्वाकांक्षा है। हीनता ही स्वयं से मुक्त होने के प्रयास में महत्वाकांक्षा बन जाती है। वह सुसज्जित हीनता ही है। लेकिन बहुमूल्य से बहुमूल्य वस्त्रों के पहन लेने से भी न तो वह मिटती है और न नष्ट ही होती है। यह हो भी सकता है कि वह औरों की दृष्टि से छिप जाए, लेकिन स्वयं को तो निरंतर ही उसके दर्शन होते रहते हैं। वस्त्रों में छिप कर व्यक्ति अन्यों के लिए तो नग्न नहीं रह जाता है, लेकिन स्वयं के समक्ष तो उसकी नग्नता पूर्ववत ही होती है। यही तो कारण है कि दूसरों की आंखों में जिनकी महत्वाकांक्षा की सफलताएं चकाचैंध पैदा कर देती हैं, फिर भी वे स्वयं अपने भीतर और बडी सफलताओं की योजनाओं में ही चिंताग्रस्त बने रहते हैं। उनकी हीनता का आंतरिक भाव किसी भी सफलता से नष्ट नहीं होता है। हर नई सफलता उन्हें और आगे की सफलताओं की चुनौती बन कर ही आती है। इस भांति जिन सफलताओं को उन्होंने समाधान जाना था, वे और नई समस्याओं की जन्मदात्री-मात्र ही सिद्ध होती हैं। जब भी किसी जीवन-समस्या को गलत ढंग से पकडा जाता है, तो परिणाम यही होता है। समस्या के समाधान समस्या से भी बडी समस्याएं बनकर आते हैं।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि किसी भी रोग को ढांकने से कभी भी कोई छुटकारा नहीं है। इस भांति रोग मिटते नहीं, बल्कि और पुष्ट ही होते हैं। हीनभाव ग्रंथि से पीडित चित्त उसे ढांकने और भूलने के प्रयास में ही महत्वाकांक्षा से भर जाता है। महत्वाकांक्षा की त्वरा में स्वयं को विस्मरण करना आसान भी है। फिर चाहे यह महत्वाकंाक्षा संसार की हो, या मोक्ष की, इससे कोई भेद नहीं पडता है। महत्वाकांक्षा मादक है। उसका नशा गहरी आत्मविस्मृति लाता है। लेकिन व्यक्ति जिस नशे का या नशे की जिस मात्रा का आदी हो जाता है फिर उससे मादकता नहीं आती है। इसलिए चित्त को नशों की ज्यादा से ज्यादा मात्राएं चाहिए, और नये-नये नशे चाहिए। इसलिए महत्वाकांक्षाएं ब.ढती ही जाती हैं। उनका कोई अंत ही नहीं आता है। उनका अथ तो है, पर इति नहीं है। और जब सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से व्यक्ति ऊब जाता है या उसकी मौत निकट आने लगती है तो फिर तथाकथित धार्मिक महत्वाकांक्षाएं शुरू होती हैं। वे और भी इंद्रजालिक हैं। उनका नशा और भी गहरा है, क्योंकि प्रत्यक्ष में उनकी उपलब्धि न होने से उनके अंग-भंग होने का भय भी नहीं होता है।
व्यक्ति जब तक स्वयं की वास्तविकता से अन्य होना चाहता है, तब तक वह किसी न किसी रूप में महत्वाकांक्षा के ज्वर से ही ग्रस्त होता है। स्वयं से अन्य होने की आकांक्षा में वह स्वयं जैसा है, उसे ढांकता है और भूलता है। लेकिन क्या किसी तथ्य का ढंक जाना और उससे मुक्त हो जाना एक ही बात है? क्या किसी तथ्य की विस्मृति और उसका विसर्जन एक ही बात है? नहीं, हीनता की विस्मृति, हीनता से मुक्ति नहीं है। यह तो अत्यंत अबुद्धिपूर्ण प्रतिक्रिया है। इसीलिए तो ज्यों-ज्यों दवा की जाती है, त्यों-त्यों मर्ज ब.ढता ही जाता है। महत्वाकांक्षी चित्त की प्रत्येक सफलता आत्मघाती है, क्योंकि वह महत्वाकांक्षा की अग्नि में घृत का ही काम करती है। सफलता तो आ जाती है, लेकिन हीनता नहीं मिटती, इसीलिए और बडी सफलताएं आवश्यक और अपरिहार्य हो उठती हैं। मूलतः यह तो हीनता का ही ब.ढते जाना है।
मनुष्य का समग्र इतिहास ऐसे ही रुग्ण-चित्त अस्वस्थ लोगों से भरा पडा है। तैमूरलंग, सिकंदर या हिटलर और क्या हैं? कृपा करके उन बेचारों पर हंसे नहीं, क्योंकि बीमारों पर हंसना शिष्टता नहीं है। फिर इस कारण से भी हंसना अनुचित है, क्योंकि उनकी बीमारियों के कीटाणु हम सबके भी भीतर मौजूद हैं। हम भी उनके ही वसीयतदार हैं। व्यक्ति नहीं, पूरी मनुष्य-जाति ही महत्वाकांक्षा के रोग से ग्रसित है। और इसीलिए तो वह महारोग हमारी दृष्टि में भी नहीं आता है। मेरी दृष्टि में तो मानसिक स्वास्थ्य का अनिवार्य लक्षण महत्वाकांक्षा-मुक्त जीवन ही है। महत्वाकांक्षा रुग्णता है और इसीलिए वह विध्वंसात्मक है। रोग तो सदा ही मृत्यु के अनुचर हैं। महत्वाकांक्षा विध्वंस है, हिंसा है। वह रुग्णचित्त से निकली घृणा है, ईष्र्या है। मनुष्य-मनुष्य के बीच संघातिक संघर्ष वही तो है। युद्ध वही तो है। मोक्ष तक की महत्वाकांक्षा विध्वंसक होती है। वह आत्महिंसा बन जाती है। वह स्वयं से ही शत्रुता बन जाती है। सांसारिक महत्वाकांक्षा औरों के प्रति हिंसक है। मोक्ष की महत्वाकांक्षा स्वयं के प्रति ही हिंसक है। जहां महत्वाकांक्षा है, वहां हिंसा है। यह दूसरी बात है कि वह बहिर्गामी हो या अंतर्गामी, पर हिंसा सदा ही प्रत्येक स्थिति और रूप में विध्वंसक होती है। इसीलिए केवल वे चेतनाएं ही सृजनात्मक हो सकती हैं, जो महत्वाकांक्षा से मुक्त होती हैं। सृजनात्मकता केवल स्वस्थ और शांत चित्त से ही स्फूर्त हो सकती है। स्वस्थ चित्त स्वयं में स्थित होता है, कुछ और होने की दौ.ड उसमें नहीं होती है। कुछ और होने की दौड के धुएं में व्यक्ति उसे नहीं जान पाता है, जो वह है। और स्वयं को न जानना ही वह मूल और केंद्रीय अभाव है, जिससे सारी हीनताओं का आविर्भाव होता है।
आत्मज्ञान के अतिरिक्त अभाव से और कोई मुक्ति नहीं है। महत्वाकांक्षाएं नहीं, आत्मज्ञान ही अभाव से मुक्त करता है। और उसके लिए चित्त से महत्वाकांक्षाओं की विदाई अत्यंत आवश्यक है।
तैमूर और बैजद के बीच हुई एक चर्चा मुझे याद आ गई है।
सुलतान बैजद युद्ध में हार गया था और विजेता तैमूर के समक्ष बंदी बनाकर लाया गया था। उसे देख कर अनायास ही तैमूर जोर से हंसने लगा था। इस पर अपमानित बैजद ने बडे अभिमान से सर उठा कर कहा थाः ‘‘जंग में फतह पाकर इतना गर्व मत करो तैमूर, याद रखो कि दूसरे की शिकस्त पर हंसने वाला एक दिन खुद अपनी शिकस्त पर आंसू बहाता है!’’
सुलतान बैजद काना था और तैमूर लंगडा। काने बैजद की बात सुन कर लंगडा तैमूर और दुगनी तेजी से हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं इतना बेवकूफ नहीं कि इस छोटी सी जीत पर हंसूं! मुझे तो अपनी और तुम्हारी स्थिति पर हंसी आ रही है! देखो न, तुम काने और मैं लंगडा! मैं तो यह सोच कर हंसा कि खुदावंद हम-तुम जैसे लंगडों-कानों को क्यों बादशाहतें देता है? ’’
मैं कब्र में सोए तैमूर से कहना चाहता हूंः ‘‘यह दोष खुदावंद का नहीं है। वस्तुतः लंगडों-कानों के अतिरिक्त और कोई बादशाहतें पाने को उत्सुक ही नहीं होता है।’’
क्या यह सत्य नहीं है कि जिस दिन मनुष्य-चित्त स्वस्थ होगा, उस दिन बादशाहतें नहीं होंगी? क्या यह सत्य नहीं है कि जो स्वस्थ हुए हैं, उनसे बादशाहतें सदा ही छूटती रही हैं?
मनुष्य स्वयं में किसी भी भांति की हीनता पाकर उससे पलायन करने लगता है। वह ठीक उसकी विपरीत दिशा में दौडने लगता है। और यहीं भूल हो जाती है। सब हीनताएं बहुत गहरे में आंतरिक अभाव की सूचनाओं से ज्यादा नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति ही आंतरिक अभाव में है। एक रिक्तता प्रत्येक को ही अनुभव होती है। इस आंतरिक रिक्तता को ही बाह्य उपलब्धियों से भरने की चेष्टा चलती है। लेकिन आंतरिक रिक्तता के गड्ढे को बाह्य से भरना कैसे संभव है? क्योंकि जो बाह्य है, वह इसी कारण तो आंतरिक को भरने में असमर्थ है। और सभी-कुछ तो बाह्य हैः धन, पद, गुण, प्रभुता, धर्म, पुण्य, त्याग, ज्ञान, परमात्मा, मोक्ष। फिर आंतरिक क्या है? उस अभाव, उस रिक्तता और शून्यता को छोड कर और कुछ भी आंतरिक नहीं है। इससे उस शून्य से भागना स्वयं से ही भागना है। उससे पलायन स्वयं की सत्ता से ही पलायन है। उससे भागने में नहीं, वरन उसमें जीने और जागने में ही कल्याण है। जो व्यक्ति उसमें जीने और जागने का साहस करता है, उसके समक्ष वह शून्य ही पूर्ण बन जाता है। उसके लिए वह रिक्तता ही परम मुक्ति सिद्ध होती है। उस ना-कुछ में ही सब-कुछ है। उस शून्य में ही सत्ता है। वह सत्ता ही परमात्मा है।
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34 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 25
बृहस्पति का पुत्र कच संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर पितृगृह लौटा था। जो भी जाना जा सकता था, वह जान कर आया था। लेकिन चित्त उसका अशांत था। वासनाएं उसे उद्विग्न किए थीं। अहंता के उत्ताप से वह व्याकुल था। इनसे मुक्त होने ही को तो वह ज्ञान की खोज में गया था। लेकिन अशांति जहां की तहां थी और ऊपर से ज्ञान का बोझ और बढ़ गया था। यही होता ही है। शास्त्र-ज्ञान से शांति के जन्म का संबंध ही कौन सा है? शास्त्र और शांति का नाता ही कोई नहीं है। उल्टे वैसा ज्ञान अहंता को और प्रगाढ़ कर अशांति के लिए अधखुले द्वार पूरे ही खोल देता है। लेकिन जिससे शांति ही उपलब्ध न हो, क्या उसे ज्ञान कहना भी उचित है? ज्ञान तो शांत और निर्भार करता है और जो अशांत और भारग्रस्त करता हो, क्या वह भी ज्ञान है? अज्ञान दुख है और यदि ज्ञान भी दुख है तो फिर आनंद कहां है? ज्ञान ही शांति नहीं देगा तब शांति पानी असंभव ही है। सत्य के द्वार पर भी यदि शांति न मिली तो शांति मिलेगी कहां? फिर क्या शास्त्रों में सत्य नहीं है? कच के मन में इन्हीं प्रश्नों के झंझावात उठ रहे थे। वह बहुत चिंतित था। उसने अपने पिता से कहाः ‘‘मैं संपूर्ण शास्त्र पढ़ आया हूं। जो भी गुरु से सीखा जा सकता था, वह सीख आया हूं। लेकिन उससे शांति नहीं मिली। बहुत दुखी और अशांत हूं। अब आप ही मुझे शांति का मार्ग बतावें। मैं शांति पाने के लिए क्या करूं? ’’ उसका निरीक्षण सम्यक ही था। शांति न शास्त्र से मिलती है, न मिल सकती है। न ही कोई गुरु ही उसे दे सकता है। वह ऐसी वस्तु ही नहीं है कि उसे बाहर से पाया जा सके। वस्तुतः उसके आविर्भाव का अन्य के द्वारा कोई उपाय ही नहीं है।
बृहस्पति ने कच से कहाः ‘‘शांति त्याग से मिलती है।’’
कच की जिज्ञासा कोरा कुतूहल-मात्र न थी। वह तो उसके प्राणों की निगूढ़तम अभीप्सा थी। उसने सब कुछ त्याग दिया। वह त्याग के ही पीछे हाथ धोकर पड गया। उसने मात्र लंगोटी पर रह कर वर्षों व्यतीत किए। उपवासों और भांति-भांति के शरीर-दमन से तप किया। वर्ष पर वर्ष बीतते गए, लेकिन शांति के आगमन की कोई पगध्वनियां उसे सुनाई नहीं पडीं। तब उसने लंगोटी भी छोड दी। वह अब पूर्ण नग्न ही रहने लगा। उसने सोचा कि शायद लंगोटी का परिग्रह ही बाधा बन रहा है। अपरिग्रह तो उसका पूरा हो गया था, लेकिन शांति फिर भी अपरिचित ही थी। अंततः उसने अंतिम तैयारी की। सोचा कि शायद देह ही बाधा हो रही है। यह भी तो परिग्रह ही है। वैसे तो तप-हठ से देह सूख कर नाम को ही शेष रह गई थी। फिर भी शेष तो थी ही। उसने उसे भी अशेष करने का निर्णय किया। चिता जला कर वह शरीर त्यागने को तैयार हो गया। किसी भी मूल्य पर हो, शांति तो उसे पानी ही थी। उसे पाने के लिए वह मृत्यु को वरण करने के लिए भी कटिबद्ध था। चिता जब धू-धू कर जलने लगी तो वह पिता से आज्ञा ले उसमें कूदने को तैयार हुआ। लेकिन बृहस्पति हंसे और उसे रोक कर कहाः ‘‘पागल! देहत्याग से क्या होगा? जब तक वासनाओं से भरा चित्त है, उसके प्रति अहंकार और ममता है, तब तक देह भस्म करने से भी कुछ नहीं हो सकता है। वासना सदा ही नये शरीर ग्रहण कर लेती है और अहंकार नये आवास खोज लेता है। इसीलिए देह-त्याग, त्याग ही नहीं है। चित्त का त्याग ही त्याग है। चित्त-त्याग में ही शांति है, क्योंकि चित्त से मुक्ति ही शांति है।’’
उस क्षण कच तो अवाक ही रह गया था। उसने किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर पूछा थाः ‘‘लेकिन, चित्त का त्याग कैसे संभव है? ’’ यही प्रश्न आप मुझसे भी पूछते हैं? जो भी शांति की खोज में है, उसकी मूलभूत समस्या यही है। जो भी सत्य या मुक्ति के अनुसंधान में है, उसकी यही तो जिज्ञासा है। यह चित्त ही तो बाधा है। यह चित्त ही तो अशांति है। यह चित्त क्या है? क्या कुछ होने की आकांक्षा ही चित्त नहीं है। एक क्षण के लिए कृपा कर नींद से जागें और इस सत्य को देखें। क्या होने की वासना, होने की दौड, होने की तृष्णा ही चित्त नहीं है? यदि कुछ होने की तृष्णा न हो तो चित्त कहां है? एक क्षण को भी यदि मैं वहां हूं, वही हूं जो मैं हूं और उससे अन्यथा होने की कोई कामना मुझ में नहीं है, तो चित्त कहां है? और यदि यह सत्य है तो फिर स्वयं चित्त ही शांति की या सत्य की खोज कैसे कर सकता है? शांति की खोज में तो वही है। वह वासना भी तो उसी की है। यह कौन है जो शांत होना चाहता है? यह कौन है जो सत्य को पाना चाहता है? यह कौन है जो मोक्ष का अभीप्सु है? क्या यह सब चित्त ही नहीं है? और यदि यह सब चित्त ही है, तो फिर चित्त से मुक्ति का उपाय क्या है? वस्तुतः चित्त का त्याग, स्वयं चित्त के ही किसी उपाय या प्रयास या साधना से नहीं हो सकता है, क्योंकि चित्त का कोई भी उपक्रम अंततः चित्त को ही समर्थ और सशक्त करता है और कर सकता है। उसकी कोई भी क्रिया उसकी ही किसी वासना का अनुकरण और अनुसंधान है। और परिणामतः यह स्वाभाविक ही है कि वह उसकी किसी भी क्रिया से स्वयं ही परिपुष्ट और सुदृढ़ हो। इसीलिए चित्त की क्रिया से ही चित्त से मुक्त होना असंभव है। चित्त स्वयं अपनी ही मृत्यु कैसे बन सकता है? संसार की कामना में भी वही जीता है। मोक्ष की कामना में भी वही प्राण पाता है। धन में भी वही है। धर्म में भी वही है। संसार से असफल हो, निराश हो, ऊब अनुभव कर वही चित्त शांति चाहने लगता है, सत्य चाहने लगता है जो संसार को चाहता था, सुख को चाहता था। चित्त वही है क्योंकि मूलतः चाह वही है। जहां चाह है, वहां चित्त है। चाह ही भोग है। चाह ही त्याग है। इस चाह से ही समस्त त्यागों और संन्यासों का जन्म होता है। वे सब भोगों की ही प्रतिक्रियाएं हैं। और जहां प्रतिक्रिया है, वहां मुक्ति कहां? जो क्रिया जिसकी प्रतिक्रिया है, वह उससे ही बंधी है, उससे ही जन्मी है। वह उसका ही रूपांतरण है। वह वही है। त्याग भोग ही है। संन्यास संसार ही है। भोग हो चाहे त्याग, संसार हो चाहे संन्यास, चित्त का मौलिक रूप, चित्त का केंद्रीय संगठन दोनों में ही अक्षुण्ण बना रहता है। चित्त का प्राण चाह है। कुछ होने, कुछ पाने, कहीं पहुंचने की तृष्णा ही उसकी आधारशिला है। इसीलिए न भोग में शांति है, न त्याग में शांति है। शांति तो वहां है और केवल वहां है, जहां चित्त अनुपस्थित है। चित्त की उपस्थिति अशांति है। चित्त की अनुपस्थिति शांति है। चित्त जहां नहीं है, वहीं वह है जो वस्तुतः है। लेकिन आप पूछते हैं ‘यह हो कैसे? ’ मित्र, यह न पूछें। क्योंकि यह चित्त ही पूछ रहा है। ‘कैसे’ की खोज उसी की है। विधियों और उपायों की खोज उसी की है। कुछ होने की खोज उसी की है। वह सदा ही पूछता हैः कैसे? यह न पूछें, बल्कि देखें कि चित्त के मार्ग क्या हैं। वह किन-किन मार्गों से संगठित होता है। वह किस-किस भांति संवर्धित होता है, वह कैसे-कैसे सशक्त होता है। निश्चय ही उसके मार्ग अतिसूक्ष्म हैं। इन मार्गों के प्रति जागें। करें कुछ नहीं, बस जागें। चित्त के रूपों और रूपांतरों के प्रति सावधान और सचेत हों। चित्त को समझें। उसे उसकी समग्रता में पहचानें। उसकी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं, उसके रागों-द्वेषों, उसकी आसक्तियों-अनासक्तियों के प्रति जागरूक हों। क्षण-क्षण उसकी स्मृति रहे। वह भूले नहीं, विस्मृत न हो। सहज ही उस पर ध्यान हो। सहज ही उस पर दृष्टि हो। बिना किसी तनाव और एकाग्रता के, पूर्ण विश्रांतिपूर्वक, उससे परिचय प्रगाढ़ हो। यह परिचय, ऐसा बोध ही, एक क्रांति लाता है। वस्तुतः यह बोध ही क्रांति है। चित्त को जानते-जानते ही चित्त विलीन हो जाता है। उसे पहचानते-पहचानते ही वह नहीं पाया जाता है। क्योंकि बोध या होश वासना नहीं है। वह कुछ होने या न होने की दौड नहीं है। वह तो उसके प्रति जागरण है, जो है, जो हो रहा है। वासना सदा भविष्य के लिए है। बोध सदा वर्तमान में है। इसीलिए बोध का आगमन ही वासना का विसर्जन बन जाता है। चित्त का ज्ञान ही चित्त से मुक्ति है। स्मरण रहे कि यह चित्त की मुक्ति नहीं, चित्त से ही मुक्ति है। और मुक्ति के इस निर्बंध आलोक में ही वह जाना जाता है, जो परमात्मा है।
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38 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 14
एक मंदिर निर्मित हो रहा है। मैं उसके पास से निकलता हूं तो सोचता हूंः मंदिर तो बहुत हैं। शायद उनमें जानेवाले ही कम पडते जाते हैं। लेकिन फिर यह नया मंदिर क्यों बन रहा है? और यही अकेला भी तो नहीं है। और भी मंदिर बन रहे हैं। रोज ही नये मंदिर बन रहे हैं। मंदिर बनते जाते हैं और मंदिरों में जाने वाले घटते जाते हैं। इसका रहस्य क्या है? बहुत खोजता रहा, लेकिन राज हाथ नहीं आता था। फिर उस मंदिर को बनाने वाले एक वृद्ध कारीगर से पूछा। सोचा, शायद नये-नये मंदिरों के बनते जाने का रहस्य उसे ज्ञात हो, क्योंकि उसने तो बहुत से मंदिर बनाए हैं?
वह वृद्ध मेरा प्रश्न सुन हंसने लगा और फिर मुझे मंदिर के पीछे ले गया, जहां पत्थरों पर काम हो रहा था। वहां भगवान की मूर्तियां भी बन रही थीं। मैंने सोचा कि शायद वह कहेगा कि भगवान की इन मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है, लेकिन इससे तो मेरी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, क्योंकि तब प्रश्न होगा कि भगवान की ये मूर्तियां क्यों बन रही हैं? लेकिन नहीं, मैं भूल में था। उसने मूर्तियों की कोई बात ही नहीं उठाई। वह तो उन्हें छोड आगे ही बढ़ता गया। सबसे अंत में, सबसे पीछे कुछ कारीगर एक पत्थर पर काम कर रहे थे। उस वृद्ध ने उस पत्थर को दिखा कर मुझे कहाः ‘‘इसके लिए मंदिर बन रहा है और इसके लिए ही सदा मंदिर बनते रहे हैं।’’ मैं तो अवाक ही रह गया और अपनी बुद्धिहीनता पर पछताने लगा। अरे! यह पहले ही मैं स्वयं क्यों न सोच सका? उस पत्थर पर मंदिर बनानेवाले का नाम खोदा जा रहा था।
यह सोचता हुआ घर लौटता था कि मार्ग में एक जुलूस मिला। किसी ने संसार छोड संन्यास ले लिया है। उसके स्वागत में जुलूस निकल रहा है। मैं भी राह के किनारे खडा हो देखने लगा। जिन्होंने संन्यास लिया है, उनके चेहरे को, उनकी आंखों को देखता हूं। उनकी आंखों में तो संन्यासी की शून्यता कहीं भी नहीं है। उनमें तो वही दर्प है, वही अस्मिता है, जो राजनेताओं की आंखों में होती है। लेकिन हो सकता है कि मैं भूल में होऊं या उस बू.ढे कारीगर की बात का असर ही काम कर रहा हो। लेकिन और संन्यासियों को भी तो मैं जानता हूं। अहंकार के जिस सूक्ष्म रूप के दर्शन उनमें होते हैं, वैसे दर्शन अन्यत्र तो दुर्लभ ही हैं। शायद मनुष्य के मन से जो भी क्रिया फलित होती है, वह अहंकार के ऊपर नहीं जा सकती है। मन से मुक्त हुए बिना अहंकार से भी मुक्ति नहीं है।
थोडे ही दिन हुए हैं, एक मित्र ने दस दिन के उपवास किए थे। उन उपवासों का ढिंढोरा पीटने में उनकी आकुल उत्सुकता देख मुझे हैरानी हुई थी। लेकिन नहीं, वह मेरी ही भूल थी। उस बू.ढे कारीगर ने तो आज मेरी जीवन भर की भूलें ही उघाड कर रख दी हैं। उपवासों के बाद उन मित्र का बडा स्वागत-सत्कार हुआ था। मैं भी उसमें उपस्थित था। वहां एक बंधु मेरे कान में बोले थेः ‘‘स्वागत-समारोह का सारा खर्च बेचारे ने स्वयं ही उठाया है!’’ उस दिन तो मैं चैंका था, लेकिन आज उस बू.ढे के कारण ज्यादा समझदार हूं और चैंकने का कोई भी कारण दिखाई नहीं पडता है। उल्टे एक विचार बार-बार मन में आता है कि जब संसार में विज्ञापन हितकर है, तो स्वर्ग में क्यों नहीं होगा? क्या स्वर्ग के नियम भी संसार-जैसे ही नहीं होंगे? आखिर संसार जिस चित्त से निर्मित है, स्वर्ग भी तो उसी की उत्पत्ति है? स्वर्ग की कामना, कल्पना क्या सांसारिक मन की ही वासना नहीं है? फिर यह परमात्मा क्या है? क्या मनुष्य-मन का आविष्कार ही नहीं है? वह भी तो अपमान से अपमानित और क्रोधित होता है और प्रतिशोध से शत्रुओं को नरकाग्नि में जलाता है। वह भी तो स्तुति से प्रसन्न होता है और भक्तों को कष्टों से बचाता है और उन पर सुखों की वर्षा करता है। यह सब क्या मनुष्य-मन का ही प्रतिफलन नहीं है? फिर उसके लोक में विज्ञापन क्यों कारगर नहीं हो सकता है? वह भी तो प्रसिद्धि को ही प्रमाण मानता होगा? आखिर उसके पास भी मनुष्य की माप का और क्या उपाय हो सकता है?
एक संन्यासी से मैंने यही कहा तो वे बहुत नाराज हुए और बोलेः ‘‘यह सब क्या आप सोचते रहते हैं? धर्म में विज्ञापन की क्या आवश्यकता? यह सब तो अहंकार का खेल है। यह सब उसी की माया है। अज्ञान में जीवन अहंकार में पडा रहता है।’’ उन्होंने जब यह कहा तो मैंने मान लिया। त्याग से ज्ञान मिलता है, और उन्होंने तो सभी कुछ त्याग दिया है। जरूर ही उन्हें ज्ञान मिल गया होगा। अब उनकी बात पर संदेह करना संभव ही कैसे था? लेकिन थोडे ही समय में उन्होंने दो-चार बार याद दिला दी कि वे लाखों रुपयों की संपत्ति पर लात मार कर संन्यासी हुए हैं, अर्थात वे कोई छोटे-मोटे संन्यासी नहीं हैं। त्याग का माप भी तो धन ही है! मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह लात आपने कब मारी? ’’ वे बोलेः ‘‘कोई 25-30 वर्ष हुए।’’ उस समय उनकी आंखों की चमक देखने ही योग्य थी। कहा भी है कि त्याग से आंखों में तेज आ जाता है। मैंने डरते-डरते उनसे निवेदन किया कि महाराज, लात शायद ठीक से लग नहीं पाई, नहीं तो 30 वर्ष बाद भी क्या उसकी स्मृति इतनी हरी हो सकती थी? जिस बात से डर था, आखिर वही हो गई। उनका क्रोध फूट पडा। लेकिन यह सोच मैंने मन में धीरज धरा कि यह तो ऋषि-मुनियों की पुरानी आदत है। किसी भांति का अभिशाप उन्होंने नहीं दिया, यही क्या कम दया है?
उनसे जाते-जाते मैंने एक कथा कही थी। वह आपसे भी कहता हूं। उस पर खूब सोचना। उसमें बहुत अर्थ है।
एक धनपति ने श्रीनाथजी को दस हजार स्वर्णमुद्राएं अर्पित कीं। लेकिन वह उन मुद्राओं को मूर्ति के समक्ष एक दिन गिन-गिन कर रखने लगा। वह जोर से थैलियों में से उन्हें निकालता और खूब खनखनाहट होती। खनखनाहट सुन मंदिर में भीड हो गई। वह और भी आवाज कर के मुद्राएं गिनने लगा। जैसे-जैसे भीड बढ़ती, उसके त्याग का आनंद भी बढ़ता जाता था। आखिर जब वह सारी मुद्राएं गिन चुका और उसने गौरव से वहां इकट्ठे लोगों की तरफ देखा तो पुजारी ने उससे कहाः ‘‘बंधु, ये मुद्राएं वापस ले जाओ। श्रीनाथ जी ऐसी भेंट स्वीकार नहीं करेंगे।’’ धनपति हैरान हुआ। उसने पूछाः ‘‘क्यों महाराज? ’’ पुजारी ने कहाः ‘‘प्रेम क्या व्यक्त किया जा सकता है? प्रार्थना क्या व्यक्त करने की वस्तु है? लेकिन तुम्हारे हृदय में तो विज्ञापन की वासना है। ऐसी वासना समर्पण में असमर्थ है। ऐसी वासना त्याग में असमर्थ है। ऐसी वासना प्रेम के लिए अपात्र है।’’
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41 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 9
मैं आप सबको जीवन के संबंध में सोच-विचार में पडे देख कर बहुत हैरान होता हूं। जीवन सोच-विचार से नहीं, वरन उसकी समग्रता में उसे जीने से ही जाना जाता है। सत्य से परिचित होने का और कोई मार्ग ही नहीं है। जागो और जीओ। जागो और चलो। सत्य कोई मृत वस्तु नहीं है कि उसे बैठे-बिठाए ही पाया जा सके। वह तो अत्यंत जीवंत प्रवाह है। जीवन के साथ ही साथ जो सब भांति मुक्त और निर्बंध हो बहता है, वही उसे पाता है। बहुत दूर के सोच-विचार में अक्सर ही निकट को खो दिया जाता है, जबकि निकट ही सत्य है और निकट में ही वह भी छिपा है जो दूर है। क्या दूर को पाने के लिए सर्वप्रथम निकट को ही पाना अनिवार्य नहीं है? क्या समस्त भविष्य वर्तमान के क्षण में ही उपस्थित नहीं है? क्या एक छोटे से कदम में ही बडी से बडी मंजिल का भी आवास नहीं होता है?
एक सीधा-सादा किसान, जीवन में पहली बार पहाडियों की यात्रा को जा रहा था। वे पहाडियां यद्यपि उसके गांव से बहुत ज्यादा दूर नहीं थीं, फिर भी वह कभी उन तक नहीं जा सका था। उनकी हरियाली से ढंकी चोटियां उसे अपने खेतों से ही दिखाई पडती थीं। बहुत बार उसके मन में उन्हें निकट से जाकर देखने की आकांक्षा अत्यंत बलवती भी हो जाती थी। लेकिन कभी एक, तो कभी दूसरे कारण से बात टलती चली गई थी, और वह वहां नहीं जा पाया था। पिछली बार तो वह इसलिए ही रुक गया था, क्योंकि उसके पास कंडील नहीं थी और पहाडियों पर जाने के लिए आधी रात के अंधेरे में ही निकल जाना आवश्यक था। सूर्य निकल आने पर तो पहाड की कठिन च.ढाई और भी कठिन हो जाती थी। एक दिन वह कंडील भी ले आया और पहाडों पर जाने की खुशी में रातभर सो भी नहीं सका। रात्रि दो बजे ही वह उठ गया और पहाडियों के लिए निकल पडा। लेकिन गांव के बाहर आकर ही वह ठिठक कर रुक गया। उसके मन में एक चिंता और दुविधा पैदा हो गई। उसने गांव के बाहर आते ही देखा कि अमावस की रात्रि का घुप्प अंधकार है। निश्चय ही उसके पास कंडील थी, लेकिन उसका प्रकाश तो दस कदमों से ज्यादा नहीं पडता था और च.ढाई थी दस मील की! वह सोचने लगा कि जाना है दस मील और रोशनी है केवल दस कदम पडने वाली, तो कैसे पूरा पडेगा? ऐसे घुप्प अंधकार में इतनी सी कंडील के प्रकाश को लेकर जाना क्या उचित है? यह तो सागर में जरा सी डोंगी लेकर उतरने जैसा ही है। वह गांव के बाहर ही बैठा रहा और सूर्य के निकलने की बाट जोहने लगा। तभी उसने देखा कि एक बू.ढा आदमी उसके पास से ही पहाडियों की तरफ जा रहा है और उसके हाथ में तो और भी छोटी कंडील है। उसने वृद्ध को रोक कर जब अपनी दुविधा बताई तो वृद्ध खूब हंसने लगा और बोलाः ‘‘पागल! तू पहले दस कदम तो चल। जितना दीखता है, उतना तो आगे ब.ढ। फिर इतना ही और आगे दीखने लगेगा। एक कदम दीखता हो तो उसके सहारे तो सारी भूमि की ही परिक्रमा की जा सकती है!’’ यह युवक समझा, उठा और चला और सूर्य निकलने के पूर्व ही वह पहाडियों पर था।
जीवन के मार्ग पर भी उस बू.ढे की सीख याद रखने योग्य है। मैं भी यही आपसे कहना चाहता हूं।
मित्रो! बैठे क्यों हो? उठो और चलो। जो सोचता है, वह नहीं; जो चलता है बस केवल वही पहुंचता है। स्मरण रहे कि इतना विवेक, इतना प्रकाश प्रत्येक के पास है कि उससे कम से कम दस कदम का फासला दिखाई पड सके और उतना ही पर्याप्त भी है। परमात्मा तक पहुंचने के लिए भी उतना ही पर्याप्त है।
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