Manuscripts ~ Jeevan Sampada Ka Adhikar (जीवन सम्पदा का अधिकार)

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Right of Life Enrichment / Wealth

year
1967 **
notes
31 sheets plus 5 written on reverse.
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
First two sheets published as ch.8 of Main Kaun Hun? (मैं कौन हूं?) (writings) and as ch.18 (of 43) of Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी).
Sheets 3-7, 9-15, 16-22 published as Sinhanad (सिंहनाद), later as ch.5 of Path Ki Khoj (पथ की खोज) and also as ch.15 (of 30) of Sadhana Path (साधना पथ). Many sheets for ch.15 are missing here. First 3 lines of sheet 13 are ommitted in the book.
Sheet 8R is unpublished memoir like Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण). We have designated that writing as event Unpublished memoir ~ 01.
Sheets 23-27 prepared for new edition of Prem Ke Swar (प्रेम के स्वर), as ch.32 (of 68), but not published yet as far as we know. We have designated that writing as event Jeevan Sampada Ka Adhikar ~ 01.
Sheets 29 and 28 are published and are the end of ch.2 of Prem Hai Dwar Prabhu Ka (प्रेम है द्वार प्रभु का). Missing sheets with the beginning.
Sheets 30 & 31 published as ch.97 & 100 of Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters).
The transcripts below are not true transcripts (except sheet 8R), but copies from Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), Path Ki Khoj (पथ की खोज), Prem Ke Swar (प्रेम के स्वर), Prem Hai Dwar Prabhu Ka (प्रेम है द्वार प्रभु का) and Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters).


see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi transcript
1R Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 18
मैं क्या देखता हूं? देखता हूं कि मनुष्य सोया हुआ है। आप सोए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य सोया हुआ है। रात्रि ही नहीं, दिवस भी निद्रा में ही बीत रहे हैं। निद्रा तो निद्रा ही है, किंतु यह तथाकथित जागरण भी निद्रा ही है।
आंखों के खुल जाने मात्र से नींद नहीं टूटती। उसके लिए तो अंतस का खुलना आवश्यक है। वास्तविक जागरण का द्वार अंतस है। जिसका अंतस सोया हो वह जाग कर भी जागा हुआ नहीं होता, और जिसका अंतस जागता है वह सोकर भी सोता नहीं है।
जीवन जागरण में है। निद्रा तो मृत्यु का ही रूप है। जागृति का दीया ही हृदय को आलोक से भरता है। निद्रा तो अंधकार है। और अंधकार में होना, दुख में, पीड़ा में, संताप में होना है। स्वयं से पूछें कि आप कहां हैं? क्या हैं? यदि संताप में हैं, भय में हैं, दुख और पीड़ा में हैं, तो जानें कि अंधकार में हैं, जानें कि निद्रा में हैं। इसके पूर्व कि कोई जागने की दिशा में चले, यह जानना आवश्यक है कि वह निद्रा में है। जो यही नहीं जानता, वह जाग भी नहीं सकता है। क्या कारागृह से मुक्त होने की आकांक्षा के जन्म के लिए स्वयं के कारागृह में होने का
बोध जरूरी नहीं है?
मैं प्रत्येक से प्रार्थना करता हूं कि वह भीतर झांके, अपने मन के कुएं में देखे। क्या वहां से आंख हटाने की वृत्ति होती है? क्या वहां से भागने का विचार आता है?
निश्चय ही यदि वहां से पलायन का ख्याल उठता हो तो जानना कि वहां अंधकार इकट्ठा है। आंखें अंधकार से हटना चाहती हैं और आलोक की ओर उठना चाहती हैं।
प्रतिदिन नये-नये मनुष्यों को जानने का मुझे मौका मिलता है। हजारों लोगों को अध्ययन करने का अवसर मिला है। एक बात उन सब में समान है, वह है दुख। सभी दुखी हैं। सभी पीड़ा में डूबे दिखाई देते हैं। एक घना संताप है, चिंता है, जिसमें वे सब जकड़े हुए हैं। इससे वे बेचैन हैं और तड़फड़ा रहे हैं। श्वास तक लेना कठिन हो रहा है। आस-पास दुख ही दुख दिखाई देता है। हवाओं का..जीवनदायी हवाओं का..तो कोई पता ही नहीं है। क्या ऐसी ही स्थिति आपकी है? क्या आप भी अपने भीतर घबरा देने वाली घुटन का अनुभव नहीं करते हैं? क्या आपकी गर्दन को भी चिंताएं नहीं दबा रही हैं और क्या आपके रक्त में भी उनका विष प्रवेश नहीं कर गया है?
अर्थहीनता घर किए हुए है। ऊब से सब दबे हैं और टूट रहे हैं। क्या यही जीवन है? क्या आप इससे ही तृप्त और संतुष्ट हैं? यदि यही जीवन है तो फिर मृत्यु क्या होगी?
मित्र,
यह जीवन नहीं है। वस्तुतः यही मृत्यु है। जीवन से सब परिचित नहीं हैं। जीवन सर्वथा भिन्न अनुभव है। जान कर ही यह मैं कह रहा हूं। कभी इस तथाकथित जीवन को ही जीवन मानने की भूल मैंने भी की थी। वह भूल स्वाभाविक है। जब और किसी भांति के जीवन को व्यक्ति जानता ही नहीं, तो जो उपलब्ध होता है उसे ही जीवन मान लेता है। यह मानना भी सचेतन नहीं होता। सचेतन होते ही तो मानना कठिन हो जाता है। वस्तुतः अविचार में ही, अबोध में ही, वैसी भूल होती है। स्वयं के प्रति थोड़ा सा भी विचार उस भूल को तोड़ देता है। जो उपलब्ध है, उसे स्वीकार नहीं, विचार करें। स्वीकार अचेतन है, वह अंधविश्वास है। विचार सचेतन है, उसके द्वारा ही भ्रम-भंग होना प्रारंभ होता है।
विचार विश्वास से बिल्कुल विरोधी घटना है। विश्वास अचेतन है। उससे जो चलता है वह मात्र जीता ही है, जीवन को उपलब्ध नहीं होता। जीवन को उपलब्ध करने के लिए विश्वास की नहीं, विचार और विवेक की दिशा पकड़नी होती है। विश्वास यानी मानना। विचार यानी खोजना। जानने के लिए मानना घातक है। खोज के लिए विश्वास बाधा है। जो मान लेते हैं, वे जानने की दिशा में चलते ही नहीं। चलने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। जानने का काम मानना ही कर देता है। इस भांति कागज के फूल ही असली फूलों का धोखा दे देते हैं और झूठे काल्पनिक पानी से ही प्यास बुझने को मान लिया जाता है।
ज्ञान के मार्ग में विश्वास की वृत्ति सबसे बड़ा अवरोध है। विचार
की मुक्ति में विश्वास की ही अड़चन है। विश्वास की जंजीरें ही स्वयं की विचार-शक्ति को जीवन की यात्रा नहीं करने देतीं और उनमें रुका व्यक्ति पानी के घिरे डबरों की भांति हो जाता है। फिर वह सड़ता है और नष्ट होता है, लेकिन सागर की ओर दौड़ना उसे संभव नहीं रह जाता। बंधो नहीं, स्वयं को बांधो नहीं। खोजो, खोजने में ही सत्य-जीवन की प्राप्ति है।
जीवन जैसा मिला है, उस पर विश्वास मत कर लेना, उससे संतुष्ट मत हो जाना। वह जीवन नहीं, बल्कि जीवन के विकास और अनुभव की एक संभावना मात्र ही है।
एक कहानी मैंने सुनी है। किसी वृद्ध व्यक्ति ने अपने दो पुत्रों की परीक्षा लेनी चाही। मरने के पूर्व वह अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी चुनना चाहता था। उसने गेहूं के कुछ बीज दोनों को दिए और कहा कि मैं अनिश्चित समय के लिए तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं, तुम इन बीजों को सम्हाल कर रखना।
पहले पुत्र ने उन्हें जमीन में गाड़ कर रख दिया। दूसरे ने उनकी खेती की और उन्हें बढ़ाया। कुछ वर्षों के बाद जब वृद्ध लौटा तो पहले के बीज सड़ कर नष्ट हो गए थे, और दूसरे ने उन्हें हजारों गुना बढ़ा कर संपदा में परिणत कर लिया था।
यही स्थिति जीवन की भी है। जो जीवन हमें मिला है, वह बीजों की भांति है। उससे ही तृप्त नहीं हो जाना है। बीज तो संभावनाएं हैं। उन्हें जो वास्तविकताओं में परिवर्तित कर लेता है, वही उनमें छिपी संपदा का मालिक होता है।
हम सब जो हैं, वहीं नहीं रुके रहना है; वस्तुतः जो हो सकते हैं, वहां तक पहुंचना है। वहीं पहुंचना हमारा वास्तविक होना भी है। फूलों को कभी देखा है? कभी उनके आनंद को, कभी उनकी अभिव्यक्ति को विचारा है? सुबह हम फूलों की एक सुंदर बगिया में थे। जो मित्र साथ थे, उनसे मैंने कहा, फूल सुंदर हैं, स्वस्थ हैं और सुवास से भरे हैं, क्योंकि वे जो हो सकते थे वही हो गए हैं। उन्होंने अपनी विकास की पूर्णता को पा लिया है। जब तक मनुष्य भी ऐसा ही न हो जाए तब तक उसका जीवन भी सुवास से नहीं भरता है।
1V
2R
2V
- - (Missing three sheets numbered 1-3 by Osho with beginning for Sinhanad (सिंहनाद))
16 Sinhanad (सिंहनाद), a part (Please note that the original sheet labels for sheets 16-21 are out of sync.)

(Missing previous sheets)

का बोझ हमें इतना निर्भार और निर्दोष नहीं होने देता कि हम शाश्वत धर्म से परिचित हो सकें। उनकी मृत देहें, लाशें ही धर्म की आत्मा को जानने और जीने में अवरोध बन जाती हैं।
जो धर्म को जानना चाहता है, उसे संप्रदाय से ऊपर उठना होता है। वैसे ही, जैसे जो मुझे जानना चाहे उसे मेरी देह के पार और अतीत देखना होगा। जो मेरी देह पर रुक जायेगा, वह मुझ तक नहीं पहुंच सकता। मैं शरीर में हूं, पर शरीर नहीं हूं। शरीर मेरा आवरण है, ‘मैं’ नहीं। ऐसा ही संप्रदायों के साथ है। वे सब शरीर हैं। धर्म को जानने के लिये उनसे मुक्ति आवश्यक है। उनके पार हुए बिना कोई उसे..उस धर्म को नहीं जान पाता; जो हो तो संप्रदाय जीवित होते हैं, जो नहीं हो तो वे मृत हो जाते हैं।
संप्रदायों के संबंध में नहीं, धर्म के संबंध में ही..विशुद्ध धर्म के संबंध में ही कुछ कहना चाहता हूं। उस धर्म के संबंध में, जिसका कोई भी विशेषण नहीं है..धर्म की आत्मा के संबंध में। धर्म संप्रदायों के ऊपर है, पीछे है और उनका प्राण भी है। और जो अनुपस्थित हो जाये तो वे केवल मुर्दा लाशें रह जाती हैं। और जिसके अभाव में, संप्रदायों की अंत्येष्टि के सिवाय विवेक के पास और कोई चारा नहीं रह जाता है।
काश, हम जान पावें कि संप्रदायों के नाम से जो प्रचलित धर्म है वह कितना मृत है, तो जीवित धर्म की दिशा में हमारे चरण सहज ही गतिमान हो सकते हैं।
मैं अभी यात्रा में था। कोई पूछता था कि मेरा कौन-सा धर्म है? मैं क्या कहता? मैंने कहा, ‘धर्म मेरा है। मैं धर्म का हूं। और धर्म एक ही है। अनेक धर्म नहीं हैं, इसलिये अपने को किसका बताऊं?’
आज सारी जमीन पर ऐसा हुआ है। धर्म नहीं, ‘कोई धर्म’ विचारणीय बन गया है। यह बहुत अनर्थ बात है..बहुत बेहूदी बात है। इसके कारण धर्म विचार के बाहर ही रह जाता है। इसलिये, इतने धर्म-संप्रदाय हैं, इतने मंदिर, इतने पूजागृह, इतने शास्त्र कि चित्त की सारी भूमि उनसे भरी हुई है। पर धर्म कहां है?
शायद हमने धर्म के लिये अवकाश, स्पेस ही नहीं छोड़ा है। चित्त में स्थान ही नहीं है, जहां धर्म हो सके। यह बड़ी दुर्दशा है। इससे हम बिना
धार्मिक हुए, धार्मिक होने के भ्रम में पड़ जाते हैं। सांप्रदायिक होना, धार्मिक होना नहीं है। उन दोनों में संगति नहीं, विरोध है। किसी सिद्धांत को, किसी शास्त्र को, किसी संप्रदाय, क्रीड को मानना और धार्मिक होना बड़ी भिन्न बातें हैं। संप्रदाय एक बौद्धिक आग्रह मात्र है। धर्म समग्र चैतन्य की क्रांति है। वह बौद्धिक आग्रहों, सिद्धांतों और विचारों से नहीं होती, वरन उसका आगमन तो तब होता है, जब बुद्धि पूर्ण निराग्रह और निष्पंद होती है।
मैं आपको देख रहा हूं। आपकी आंखों में देख रहा हूं। आपके मस्तिष्क में सरक रहे विचारों की पदध्वनियां मुझे सुनाई पड़ रही हैं। मस्तिष्क तो आपका भी बहुत सिद्धांतों को जानता है। बहुत शास्त्र और बहुत शब्द वहां कोलाहल कर रहे हैं। उनकी खूब भीड़ वहां है। धर्म के संबंध में, सत्य के संबंध में, परमात्मा के संबंध में सीखे गये सिद्धांत आपकी स्मृति में भरे हुए हैं। लेकिन क्या इससे धर्म का दूर का भी संबंध है? क्या यह ‘स्मृति-भार’ धर्म है? क्या ये सीखे हुए सिद्धांत धर्म हैं? क्या इनसे आप आनंद और आलोक को उपलब्ध हुए हैं?
मुझे पूछने की आज्ञा दें कि क्या आपके तथाकथित धर्म-संप्रदाय, विश्वास और मान्यतायें आपकी चेतना में कोई आमूल क्रांति, ट्रांसफार्मेशन उपस्थित करने में समर्थ हुए हैं? उनसे आप भर गये होंगे, लेकिन क्या बदले भी हैं?
मैं आपके जीवन में कोई आनंद-किरण नहीं देख रहा हूं। किसी आलोक का स्पर्श वहां नहीं दिखाई पड़ता। आपकी अंतरात्मा किसी भी संगीत से परिप्लावित नहीं मालूम होती। आपकी आंखें अंतस में उपलब्ध हुई किसी सौंदर्य अनुभूति, किसी सत्य-सान्निध्य की गवाही नहीं देतीं। सिद्धांतों और संप्रदायों से आप भरे होंगे, पर सत्य से क्या अभी वंचित नहीं हैं? संप्रदायों और सिद्धांतों में आप घिरे होंगे, पर धर्म ने अभी आपको मुक्त नहीं किया है।
धर्म का जीवन में जब स्पर्श होता है, तब वैसे ही सब बदल जाता है, जैसे सुबह सूरज के आगमन पर। अगर कोई कहे कि सुबह हो गयी और घना अंधेरा है, तो हम क्या कहेंगे? अगर कोई कहे कि सूरज निकल आया और चारों ओर निबिड़ रात्रि है और आकाश में तारे हैं, तो हम क्या कहेंगे? ..कि सूरज अभी नहीं निकला, अंधेरा सूरज की अनुपस्थिति का काफी प्रमाण है।
ऐसा ही आज मनुष्य के साथ हुआ है। धर्म से उसका संस्पर्श क्षीण हो गया है। धर्म के विचार हैं, धर्म-शास्त्रों से संबंध है, धर्म-संप्रदायों से नाता है, पर धर्म से संपर्क नहीं है। और इसका काफी प्रमाण है वह अंधकार, जो हमारी चेतनाओं पर छाया हुआ है। इसका काफी प्रमाण है वह दुख, वह पीड़ा, वह संताप, एंग्विश जिसमें हम डूबे हुए हैं। मनुष्य क्या एक अर्थहीन, अर्थशून्य, मीनिंगलेस इकाई नहीं हो गया है?
यह मैं आपसे कह रहा हूं..किसी और वाष्पीय मनुष्य के संबंध में नहीं, आपके संबंध में कह रहा हूं। क्या, जो मैं कह रहा हूं, वह आपके संबंध में सच नहीं है? उसके सत्य को देखें..अपने में देखें। क्या आपको अपने भीतर कोई कृतार्थता और सार्थकता दिखाई पड़ती है? क्या भीतर वह दिखाई पड़ता है, जिसके कारण जीवन शांति और संगीत हो गया हो? क्या उसके दर्शन कहीं होते हैं, जिसके कारण मात्र जीना, केवल जीना, जस्ट लिव्हिंग भी एक अर्थ से भर जाता है और श्वास-श्वास में कृतार्थता का बोध होने लगता है?
वह तो कहीं नहीं है। विपरीत उसकी जगह एक रिक्तता, एम्पटीनेस है, एक अंधकार, डार्कनेस है, एक अत्यंत ऊब पैदा करने वाला खालीपन है और एक उदासीनता है, जैसी कब्रों के आसपास होती है। और इस रिक्तता और उदासी के कारण ही हम सब किसी भांति, कहीं भी अपने को उलझाये रखना चाहते हैं। इसके कारण ही कोई भी अकेला नहीं होना चाहता और हम सब अपने से ही भागे रहते हैं।
देखें..क्या हमारा जीवन..हमारा सारा जीवन अपने से ही भागने का एक ऐसा ही लंबा उपक्रम नहीं है? क्या यह जीवन है? क्या इसे जीवन कहियेगा? मित्र! यह जीवन नहीं, पलायन है। यह पलायन, एस्केप से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
मैं एक समय एक मरणासन्न व्यक्ति के पास था। उस घर में जैसा अंधकार, उदासी और दुख अनुभव हुआ था..उस घर के वातावरण में जैसा संताप अनुभव हुआ था..वैसा ही मुझे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दिखाई पड़ता है। यह कैसी स्थिति है? पर शायद ऐसा होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि मनुष्य जीवन के मूल-स्रोत से विच्छिन्न हो गया है।
धर्म से विच्छिन्न जो युग होता है..जो मनुष्य होता है, वह आनंद में नहीं हो सकता। स्व-सत्ता से जो विच्छिन्न होता है, उसका सब छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसके सब जीवन-सूत्र और अर्थ खो जाते हैं। और उसके चित्त के द्वार पर अर्थहीनता खड़ी हो जाती है। उसकी दिशा खो जाती है और चलना एक ऊब, बोरडम और क्लांति हो जाती है। क्योंकि उसे कहीं पहुंचना तो नहीं है; बस, चलना ही है। अर्थ-शून्य और उद्देश्यविहीन चलना सार्थक कैसे हो सकता है?
धर्म गंतव्य है। इसलिये धर्म गति को अर्थ देता है। उसके जादू में गति मात्र गति ही नहीं, गीत भी हो जाती है।
मैं उसी मूल-स्रोत, उसी जीवन-स्रोत के संबंध में कुछ कहूंगा और उस साधना के संबंध में भी, जिसके माध्यम से हम उस स्रोत से संयुक्त हो सकते हैं।
उस स्रोत को जानना है और उस स्रोत के मार्ग को जानना है।
जीवन में जो दुख व्याप्त है, वह हमारे कुछ भी करने से दूर होने का नहीं है जब तक कि हम जीवन को ही आमूल न बदल दें। वह दुख किसी बाह्य अभाव के कारण नहीं है। इसलिये सब अभाव मिट जावें तब भी वह बना ही रहता है। शायद और प्रगाढ़ भी हो जाता है क्योंकि तब अभाव दूर करने की व्यस्तता न रह जाने से उसका और भी नग्न साक्षात होता है। एक दरिद्रता वह है जो दरिद्रता में दीखती है, पर एक और गहरी दरिद्रता भी है, जिसके दर्शन पूर्ण समृद्धि में ही होते हैं।
जीवन का दुख किसी बाह्य अभाव के कारण नहीं है। अभावों के कारण कष्ट है। पर कष्ट दुख नहीं है और इसलिये सारे कष्ट मिट जावें तो भी दुख नहीं मिट जाता है। कष्ट और दुख के तल अलग हैं। वे अलग-अलग समस्यायें हैं। कष्ट परिधिगत असुविधायें हैं।
दुख केंद्रगत संताप है। कष्ट बहुत हैं, दुख एक ही है। सब कष्टों को भी दूर कर देने से दुख दूर नहीं होता है। उसके निवारण का एकमात्र उपाय धर्म है। दुख असुविधा नहीं है, इसलिये किसी भी सुविधा से वह दूर नहीं होगा। दुख अज्ञान है..आत्म-अज्ञान। अंतस प्रकाश को उपलब्ध हो, तो ही वह दूर हो सकता है।
यह हो सकता है कि कोई सारे जगत को जीत ले, पर यदि वह अपने को अनजीता छोड़ दे, तो पायेगा कि कोई जीत उसकी जीत नहीं है। वह भीतर अब भी हारा हुआ है, अब भी पराजित है..स्वयं से पराजित है। उसकी बाहर की जीतें दूसरों को धोखा दे दें, पर स्वयं उसे धोखा नहीं दे सकतीं। वह दुख-स्थल, वह अंधेरा तो उसमें बना ही रहेगा, जो कि स्वयं को जीते बिना नहीं मिट सकता। उसे तो बाहर की विजय दुंदुभियों में नहीं छिपाया जा सकता है या कि कितनी देर छुपाया जा सकता है? उस दुखस्थल के बोध से टकराकर सब विजयें पराजयें हो जाती हैं और सब उपलब्धियां शून्य बन जाती हैं।
कोई स्वयं को कितनी देर वंचना में रख सकता है? हम सब कुछ पा लें, और स्वयं को खो दें, पर इतना अंधा कौन है कि देर-अबेर यह दीख न जावे? इस सौदे की व्यर्थता दीख ही जाती है। हीरों को खोकर जो कंकड़ों को खरीद लाता है, उसका सौदा भी इतना महंगा नहीं है। सब पाने के धोखे में वह व्यक्ति सब खो रहा है, जो कि स्वयं को खो रहा है। स्वयं को खोना सब खोना है। उस बिंदु के अभाव में सब भी पास में हो, तो उसका कोई मूल्य नहीं। क्योंकि सब मिलकर भी वह नहीं दे सकता है, जो कि उस अकेले ‘स्व’ में छिपा हुआ है।
‘स्व’ से बड़ी कोई संपदा नहीं है, क्योंकि उस अकेले को पाने से ही सब पा लिया जाता है और उस अकेले के खोने से ही सब खो जाता है। वस्तुतः वही एकमात्र संपदा है, क्योंकि वह हमारी अंतर्निहित शक्ति है, हमारा स्वरूप है और उसे पाये बिना कोई कुछ भी नहीं है।
जिसने स्वयं को ही नहीं पाया है, क्या कुछ और पाने के उसके दावे व्यर्थ ही नहीं हैं? जिसने स्वयं को ही नहीं पाया है वह केवल कुछ पाने के स्वप्न ही देख रहा है। उसकी सब संपदा स्वप्न-संपदा है।
स्वप्न के खंडित होते ही वह पायेगा कि उसकी दरिद्रता का तो अंत नहीं है। वास्तविक संपदा की उपलब्धि स्वयं को पाने से प्रारंभ होती है। वह जागरण का प्रारंभ है। स्वयं को पाकर ही कोई उस दुःनिद्रा, उस दुःस्वप्न, नाइटमेयर से जागता है, जिसे कि हम जीवन समझ रहे हैं।
मनुष्य की शक्ति विस्तीर्ण होती जा रही है, पर मनुष्य शक्तिहीन होता जा रहा है। यह बात कैसी विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल प्रतीत होती है। पर यही हुआ है। बाहरी हमारी शक्ति बढ़ी है पर भीतर हम शक्ति शून्य हुए हैं। पदार्थ में हमारी गति हुई है, पर स्वयं हमारी सब गति अवरुद्ध हो गई है। पदार्थ को जानने में यह हमें स्मरण ही नहीं रहा कि स्वयं को भी जानना है। हम उस मिट्टी के दीये की भांति हैं, जो सब जगह प्रकाश करता है, पर उसके स्वयं के तले ही अंधेरा इकट्ठा हो जाता है!
स्मरण रहे कि मनुष्य चाहे अपनी शक्ति का विस्तार दूर-दिगंत तक कर ले, लेकिन तब तक वह शक्तिहीन ही होगा, जब तक कि उस छोटे बिंदु पर उसकी विजय नहीं है, जो कि वह स्वयं है। उस जीवंत कण पर..उस चैतन्य-अणु पर..विजय से ही शक्ति के, परम शक्ति के आधार रखे जाते हैं। उसे पाकर ही शक्ति का और ऊर्जा का जन्म होता है।
मित्र! मैं इस विजय के लिये आपको आमंत्रित करता हूं; इस चुनौती, चैलेन्ज को स्वीकार करें। आज तक कोई भी, कभी भी बाहर के जगत में कुछ भी पाकर आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है। आनंद आंतरिक जीत से मिलता है। हम भी उस आंतरिक को जीतें। हम भी उस मार्ग पर चलें, जिस पर वास्तविक विजेता चले हैं। वीरों और विजेताओं के उस मार्ग के संबंध में मैं कहूंगा। वह मार्ग ही धर्म है। स्वयं की विजय का मार्ग ही धर्म है।
थोड़ा हम सोचें। भीतर की पराजय को सोचें। स्वयं के भीतर हम कैसे सर्वहारा हैं! बाहर जिनकी विजय की पताकायें उड़ रही हैं या कि जो उनके उड़ाने के स्वप्न देख रहे हैं..वे भीतर क्या हैं? क्या वहां थोड़ी भी विजय है? क्या अपनी जीत का एक भी चिह्न वहां है? देखेंगे तो पायेंगे कि वहां सब हार है..हम वहां बिल्कुल हारे हुए हैं। थोड़ा-सा क्रोध उठेगा तो उस पर नियंत्रण नहीं हो सकता। काम की ज्वाला धधकेगी

(Following sheets are missing)

17
18
19
21
20R
20V
- - (Missing two sheets with a part of Sinhanad (सिंहनाद))
22R Sinhanad (सिंहनाद), a part (Please note that the original sheet labels for sheets 22R-22V are out of sync.)

(Missing previous sheets)

कोई इशारा तक नहीं किया। वह उसके ऊपर था पर बिल्कुल अनुपस्थित था। उसने उसे पता भी नहीं चलने दिया कि वह है।
घोड़ा स्वच्छंद था, घोड़ा मुक्त था और सवार केवल दर्शक था। घोड़ा जब थक जाता, वह उसे विश्राम देता, उसके लिये भोजन और छाया की व्यवस्था करता। वह जब फिर भागने को उत्सुक होता, वह चुपचाप उसकी पीठ पर हो जाता, लेकिन ऐसे जैसे कि कोई पीठ पर नहीं है..सवार नहीं, मात्र दर्शक। और यह रहस्य, सीक्रेट था। घोड़ा चार दिन में मित्र हो गया, विनीत हो गया। प्रेम से जीत हो गई थी और पराया अपना हो गया था। वह शत्रु नहीं रहा, मित्र हो गया। शत्रु को अस्वीकार किया जा सकता है, मित्र को अस्वीकार करना मुश्किल था। फिर सवार ने उसे जहां चाहा वह वहीं आ गया था।
इस जगत में, इस जमीन पर कोई तीन अरब सवार हैं और तीन अरब घोड़े हैं। पर उनमें से शायद ही कुछ हों जो कि सवार हों, बाकी सब किसी भांति घोड़ों से लटके हुए हैं। वे भी लहू-लुहान हैं और घोड़े भी लहू-लुहान हैं। यह यात्रा बड़े कष्ट और पीड़ा की है। जिसे सवारी ही नहीं मालूम, उसकी भी यात्रा कोई यात्रा है? जो अपने घोड़े पर, जो अपने मन पर ही सवारी नहीं कर पा रहे हैं, वे जीवन के अंत में, यात्रा के अंत में अपने को थका हुआ, टूटा हुआ और हारा हुआ पावेंगे। वे यात्रा के अंत में पावेंगे कि यात्रा व्यर्थ गई। यात्रा के अंतिम चरण में जिसे हम संतृप्ति कहें; संतुष्टि, फुलफिलमेंट कहें, उसको वह उपलब्ध नहीं हो सकेगा। आनंद उनका भाग्य नहीं होगा। जो उन्हें मिल सकता था, वे पायेंगे कि वह उन्होंने अपने ही हाथों खो दिया है।
धर्म मन को जीतने का उपाय है। लोग सोचते हैं कि धर्म मन से लड़ने का उपाय है। वे गलत सोचते हैं। लड़ाई से क्या कभी कोई जीत हुई है? शत्रु पर कभी विजय नहीं हो पाती है। शत्रु को हराया जा सकता है, पर जीता नहीं जा सकता। और ‘हराने’ और ‘जीतने’ में, मित्र! बहुत अंतर है। शत्रु हारने से टूट जाता है, दमित हो जाता है, पर शत्रुता नहीं टूटती। उस तल पर वह अपराजित ही बना रहता है। उसके भीतर आपकी विजय की स्वीकृति कभी भी नहीं हो पाती है। इसलिये मैं कहता हूं कि शत्रु आज तक नहीं जीते गये हैं, केवल मित्र ही जीते जाते हैं। केवल मित्रों पर ही विजय होती

(Sheet 22V is written not Osho)

(Following sheets are missing)

22V
- - (Missing sheets with a part of Sinhanad (सिंहनाद))
9 Sinhanad (सिंहनाद), a part (Please note that the original sheet labels for sheets 9-15 are out of sync.)

(Missing previous sheets)

मुक्त होने को कहता है। धर्म..कोई वास्तविक धर्म दमन नहीं सिखाता है। लेकिन समझने वालों में भूल हो सकती है, क्योंकि अकसर हम वही समझ लेते हैं जो कि समझना चाहते हैं। और हमारी समझ हमारे तल की ही होती है। उदाहरण के लिये, महावीर को लें। उनका जीवन उत्कट साधना का जीवन था। वैसे तपस्वी बहुत कम हुए हैं। पर उन्हें समझा नहीं जा सका और जो उनके पीछे हैं, वे उन्हें बिल्कुल भी नहीं समझ सके। यही समझा जाता है कि महावीर दमन के मार्ग के प्रणेता थे। वे अपनी देह, और मन का दमन कर रहे थे। इससे असत्य और कोई बात नहीं हो सकती। महावीर की अत्यंत विधायक, पाजिटिव साधना, ऐसे अत्यंत नकारात्मक, निगेटिव रूप ले लेती है।
महावीर देह और मन का दमन नहीं कर रहे थे। वे तो उसे जगा रहे थे कि जिसके प्रकाश में देह, मन के बंधन विसर्जित हो जाते हैं। उनका कार्य उस विधायक तत्व के जागरण से संबद्ध था, देह मन को सुलाने से नहीं। उस विधायक का जागरण अपने आप ही देह और मन से मुक्ति बन जाता है। पर बाहर से जो देखते हैं, उन्हें नकार ही दिखाई पड़ेगा। उन्हें छोड़ना ही दिखाई पड़ेगा..पाना नहीं। जबकि पाना सब छोड़ने के पूर्व है। उन्हें विसर्जन दमन जैसा प्रतीत होगा, क्योंकि जिसके कारण विसर्जन हो रहा है, उसके प्रति उनमें आंखें नहीं हैं।
महावीर के आचरण को ही जो जानते हैं, वे दमन ही देख पावेंगे। पर जो उनके अंतस को जानते हैं, वे कुछ और जानते हैं। उनका जानना बहुत भिन्न है। वे साधना की विधायकता को जानते हैं। नकारात्मक जो भी दिखाई पड़ता है, वह उस विधायक का सहज परिणाम मात्र है। असार को छोड़ना नहीं, सार को पाना ही आधारभूत है। मैंने ऐसा ही जाना है। महावीर के अंतस में देखता हूं, तो ऐसा ही पाता हूं।
संसार असार है, ऐसा मानकर जो साधना के जीवन को अपनाता है, वह बहुत कच्ची नींव पर भवन खड़ा करता है। पक्की नींव तो तब उपलब्ध होती है, जब ज्ञात होता है कि आत्मा सार है। संसार का असार अनुभव होना साधना के लिये जिज्ञासा हो सकती है, लेकिन साधना का जीवन नहीं। उस जीवन की शुरुआत तो उसके अनुभव से होती है जो कि सार है। असार के बोध पर खड़ी
साधना नकारात्मक है। सार का आधार साधना को विधायकता देता है। और उसके बाद ही वास्तविक जीवन में प्रवेश होता है। निषेध और नकार कहीं भी ले जाने में समर्थ नहीं हैं। दमन निषेध है। वह अशुभ का विरोध है। विसर्जन निषेध नहीं है, शुभ का जागरण है। दमन नकार है। विसर्जन विधेय है।
सुबह सूरज उगता है। घास पर, वृक्षों के पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदें उसकी किरणों के आते ही विलीन हो जाती हैं, वाष्पीभूत हो जाती हैं। फिर उन्हें ढूंढ़कर भी नहीं पाया जा सकता। उनका जीवन रात्रि के शीतल अंधकार में था। प्रकाश और उत्ताप उनका जीवन नहीं है। ऐसे ही जब भीतर ज्ञान के सूरज का जन्म होता है तब विकार की, वासना की बूंदें वाष्पीभूत, एव्हपोरेट हो जाती हैं। उन्हें दमन नहीं करना होता। न उन्हें मिटाने को ही कुछ करना होता है। बस, वे नहीं पाई जाती हैं। ज्ञान का और उनका सह-अस्तित्व, को-एग्जिस्टेंस असंभव है। ज्ञान और वासना साथ-साथ नहीं होते। ज्ञान के आते ही वासना, पेशन विलीन होती है और उसमें अंतर्निहित शक्ति करुणा, कम्पेशन में परिणत हो जाती है।
अज्ञान के साथ वासना होती है, ज्ञान के साथ करुणा। वासना अज्ञान का प्रगट रूप है, करुणा ज्ञान का। वासना अज्ञान की देह है, करुणा ज्ञान की। इसलिये ही, वासना से अज्ञान पहचाना जाता है। जहां करुणा है, वहां ज्ञान है। वही ज्ञान की कसौटी है। वही ज्ञान की परीक्षा है। वही ज्ञान की खबर है।
किंतु इससे कहीं यह भ्रांति आपके मन में न पैदा हो जावे कि वासना को करुणा में बदलना है। वह परिवर्तन सीधा नहीं होता। वह परिवर्तन परोक्ष है। ज्ञान के जागरण और अज्ञान के विलीन होने से वह परिवर्तन होता है। जिस भ्रांति के प्रति मैं आपको सचेत कर रहा हूं, वह बहु-प्रचलित
है। उसके कारण ही दमन और नकार ने धर्मों की अंतरात्मा को ग्रसित कर लिया है। ज्ञान को जगावें..शेष सब उसके बाद होता है। सूर्य न हो, उसका उत्ताप न हो और अंधेरी और सर्द रात्रि हो, तो ओस की बूंदों को आप छिपा सकते हैं, मिटा नहीं सकते। और जो छिपाने में लगा है, वह गलती में लगा है। उस आत्म-वंचना में कोई न पड़े। शक्ति और श्रम के अपव्यय के अतिरिक्त उसमें कुछ भी नहीं है।
एक शब्द को अपने स्मरण में रख लें। वह शब्द है: ‘विसर्जन।’ विसर्जन की प्रक्रिया बहुत मूलभूत है। वह शब्द समस्त योग का सार सूत्र है। उस प्रक्रिया का रहस्य इसमें है कि वह विसर्जन ही नहीं, वस्तुतः संपरिवर्तन, ट्रांसफार्मेशन भी है। शक्तियां विसर्जित नहीं होतीं, वे संपरिवर्तित होती हैं। उनके रूप बदलते हैं और उनकी दिशा बदलती है। अधोगमन की जगह ऊध्र्वगमन आता है। पशु की ओर उन्मुख न होकर, शक्तियां प्रभु की ओर उन्मुख हो जाती हैं। उनका उदात्तीकरण, सब्लिमेशन ही विसर्जन है।
जगत में जो भी है, वह कुछ भी नष्ट नहीं होता है। और जो नहीं है, उसका सृजन भी नहीं होता है। न सृजन है, न विनाश है। जगत में केवल परिवर्तन है। वासनाओं के नष्ट होने का अर्थ है कि वह शक्ति जो वासना में प्रगट थी, उसने अभिव्यक्ति का दूसरा मार्ग ले लिया है। अभिव्यक्ति का मार्ग बदलता है, शक्ति नष्ट नहीं होती। जो प्रेम में प्रगट होती है, वह वही शक्ति है, जो कि घृणा में प्रगट होती थी। जो पशुता में परिलक्षित होती है, वही शक्ति दिव्यता में भी मौजूद होती है। लोहा स्वर्ण बन जाता है और कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं। शक्ति का ऊध्र्वगमन है, विनाश नहीं। उसे समझें और स्मरण रखें; क्योंकि उस पर ही साधना की सारी दिशा निर्भर होती है।
वासना और विकार के साथ सीधा कुछ भी नहीं करना है। वे केवल मार्ग हैं। मैं..वह शक्ति..जो कि उन मार्गों पर गतिमय हूं, यदि दूसरे मार्गों पर गतिमय हो जाऊं, तो वे मार्ग समर्थ हो जावेंगे। उनके साथ नहीं,
अपने साथ कुछ करना है। इसे ही मैं साधना की विधायकता कहता हूं। इस भांति उस प्रकाश की अनुभूति होती है, जिसकी उपस्थिति में वासना और विकार का अंधकार विलीन हो जाता है। अंधकार को मिटाना नहीं होता; प्रकाश को जलाना होता है।
जो अंधेरे को मिटाने और निकालने में लगे हैं, उनकी आस्था दमन है। मैं प्रकाश जलाने को कहता हूं। मेरी आस्था दमन नहीं, विसर्जन है। पाप प्रश्न नहीं है, प्रश्न प्रभु है। पाप को नहीं मिटाना, प्रभु को जगाना है। और जब मैं पाप का चिंतन करते और उसे मिटाने और जीतने का उपाय सोचते लोगों को देखता हूं तो मेरी पीड़ा का अंत नहीं रहता है। पाप का विचार व्यर्थ है। पाप है कहां? उसकी वास्तविक सत्ता कहां है, जो कि उसके साथ कुछ भी किया जा सके? वह तो स्व-बोध का अभाव ही है। उस पर नहीं, स्व-बोध पर कार्य करना है।
धर्म पाप-त्याग से नहीं, प्रभु-उपलब्धि से फलित होता है। यह मैं सबसे कहना चाहता हूं। उन हृदयों तक यह पुकार पहुंचाना चाहता हूं जो कि पाप-त्याग के विचार से पीड़ित हैं। उनकी अभीप्सा शुभ है, पर मार्ग ठीक नहीं। उनकी आकांक्षा शुभ है, पर दिशा विपरीत है। ऐसे शुभाकांक्षी हृदय भी व्यर्थ ही पीड़ा पाते हैं, क्योंकि अंधकार को सीधा निकालना और मिटाना असंभव है।
मनुष्य को पाप में मानना भूल है। मनुष्य पाप में नहीं, अज्ञान में है। जो भी पाप है, वह उसके अज्ञान का फल है। पाप नहीं अज्ञान..चोट अज्ञान पर करनी है और वह चोट ज्ञान से ही हो सकती है। अंधकार पर चोट करनी है, तो वह चोट प्रकाश से ही हो सकती है।
प्रकाश से चोट करें..ज्ञान से चोट करें..जागरण से चोट करें। प्रकाश को जलाने में लगें और फिर देखें कि क्या होता है?
अंधकार कितना ही पुराना हो तो भी वह नये नये जलाये गये प्रकाश का आघात भी सहने में समर्थ नहीं होता है। वह बहुत कमजोर है, क्योंकि वह है ही नहीं। वह तो केवल प्रकाश न होना मात्र है।
अंधकार क्या है? अज्ञान क्या है? वे तो मात्र अभावों के नाम हैं! अपने में उनका कोई होता नहीं! उनके भीतर वे कुछ भी नहीं हैं! स्वयं में वे एकदम खाली हैं। समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं? एक दिन किसी से मैंने पूछा कि प्रकाश क्या है? उन्होंने कहा: ‘अंधेरे का न होना।’ यह परिभाषा ठीक लगती है न? पर यह ठीक नहीं है। भाषा की दृष्टि से तो ठीक ही है, पर सत्ता की दृष्टि से नहीं।
प्रकाश अंधेरे का न होना नहीं है। प्रकाश तो प्रकाश का ही होना है। वह किसी का न होना नहीं, अपना ही होना है। उसकी स्वयं की सत्ता है। अंधेरे को तो हम कह सकते हैं कि वह प्रकाश का अभाव है। पर प्रकाश को नहीं कह सकते कि वह अंधेरे का अभाव है। यह इसलिये नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अंधेरा हो तो अंधेरे को हटाकर प्रकाश नहीं किया जा सकता। और प्रकाश न हो तो अंधेरे को लाकर उसे नष्ट ही किया जा सकता है। अंधेरे के साथ और अंधेरे के द्वारा कुछ भी नहीं किया जा सकता है। उसके साथ जो भी करना हो वह उसके साथ नहीं, प्रकाश के साथ करना होगा। इसलिये प्रकाश तो सत्ता है, अंधेरा सत्ता नहीं, वह प्रकाश की असत्ता मात्र है।
और ऐसा ही पाप है। और ऐसा ही अज्ञान है। और ऐसा ही संसार है। इनसे जो सीधा लड़ता है वह पागल है और जो लोगों को ऐसा सीधा लड़ने को समझाता है, वह उन्हें पागल होने की राह बताता है। सभ्यता जैसे बढ़ती है, विक्षिप्तता बढ़ती जाती है। इसका कारण क्या है? सभ्यता पागलों को क्यों पैदा करती है?
इसका कारण दमन है। इसका कारण बिना प्रकाश जलाये, अंधेरे से लड़ना है। और
बहुत-से साधक और साधु जो पागल हो जाते हैं, उसका कारण भी यही है। उनका उन्माद और तथाकथित विक्षिप्त मस्ती परमात्मा से नहीं, वासनाओं के दमन से आती है। स्वास्थ्य के नहीं, वे सब विक्षिप्तताओं के ही रूप हैं।
सम्यक साधना उन्माद में नहीं, उन्माद-मुक्ति में ले जाती है और उससे मस्ती नहीं आनंद का जन्म होता है। मस्ती आवेश है, उत्तेजना है। आनंद आवेश-शून्य, आवेग-रहित, अनुत्तेजना की अत्यंत शांत स्थिति है। मस्ती दमन से और आनंद विसर्जन से आता है। मस्ती मानसिक है, आनंद आत्मिक है। मस्ती रुग्णता है, आनंद स्वास्थ्य है। मस्ती सुख है, वह मादक है। वह दुख की और होश की विरोधी है। आनंद सुख-दुख का अभाव है। आनंद पूर्ण शांति है।
वास्तविक धर्म का संबंध मस्ती से नहीं, आनंद से है।
मस्ती के दौरे होते हैं और उनके बाद बहुत दुख और रिक्तता का बोध होता है। वह नशा है और नशे की भांति ही उसमें बार-बार जाने की इच्छा होती है। मस्ती में सब भूल जाता है। वह ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। आनंद आता है, तो जाता नहीं है। वह स्वरूप है, आवेग नहीं। वह ऊपर से आरोपण नहीं, अंतस का आरोहण है। आनंद मूच्र्छा नहीं, ज्ञान है। मस्ती भ्रम है, आनंद अंतस की वास्तविक क्रांति है। इसलिये ध्यान रहे कि हमारा लक्ष्य आनंद है, मस्ती नहीं। उन्माद नहीं, अप्रमाद..मादकता नहीं, अप्रमत्तता जीवन का लक्ष्य है।
वासना शक्ति का दमन चित्त के संतुलन को नष्ट करता है। उस असंतुलन में अनेक कल्पनायें साकार रूप धरने लगती हैं। बहुत-से प्रक्षेप, प्रोजेक्शन और भ्रांत के साक्षात होने लगते हैं। जो नहीं है, वह दीखने लगता है। इन्हें ही लोग धार्मिक अनुभूतियां समझ बैठते हैं। ईश्वर और देवी-देवताओं के भी साक्षात हो जाते हैं। वे न तो साक्षात हैं, न ही अनुभूतियां हैं। मन की स्वप्न देखने की जो क्षमता है, उसके ही ये खेल हैं। मन का जो अल्प-सा अंश चेतन है, वह भी यदि किसी भांति मूच्र्छित हो जावे, तो जागते में ही स्वप्न-शक्ति सक्रिय हो जाती है। और
जो पूर्व धारणाएं चित्त में घर किये हों, वे सत्य जैसी भासने लगती हैं। इस भांति संसार से तो संबंध टूटता है, पर सत्य से नहीं, स्वप्न से जुड़ जाता है। चित्त का असंतुलन यही कर सकता है। सत्य से संबंधित होने के लिये तो उसका पूर्ण संतुलन चाहिये। चित्त जब सहजता और संतुलन की स्थिति में आता है, तभी उसके द्वार सत्य के लिये खुलते हैं। वह संतुलन ही द्वार है।
चित्त का संतुलन कैसे हो? दमन और संघर्ष से नहीं, मैत्री, प्रेम और निरीक्षण से..वासना के विसर्जन और संपरिवर्तन से वह होता है।
क्या आपको ज्ञात है कि आप अपने से जरा भी प्रेम नहीं करते? आपकी स्वयं के प्रति जो घृणा है, वही दमन, संघर्ष और आत्मविग्रह का रूप ले लेती है। हम अपने से भी प्रेम नहीं करते हैं! क्राइस्ट ने कहा है: ‘अपने पड़ोसी को अपने जैसा ही प्रेम करो।’ मैं पूछता हूं कि आप अपने से भी प्रेम कहां करते हैं? पड़ोसी तो दूर है, पहले अपने से तो प्रेम करो! जो अपने से प्रेम करता है वह सबसे प्रेम करने लगता है। प्रेम तो भाव की अवस्था है। वह भीतर हो तो सहज ही सर्व के प्रति व्याप्त हो जाती है। आत्म-त्याग, सेल्फ रिनन्सिएशन नहीं, आत्म-प्रेम, सेल्फ-लव..इस पर चिंतन करो..सोचो और आप पाओगे कि आत्म-प्रेम ही वास्तविक आत्म-त्याग है। और जिसे हम त्याग करके जानते हैं, वह सब प्रच्छन्न स्वार्थ, सेल्फिशनेस ही है।
प्रेम करो..स्वयं को प्रेम करो। अपने प्रति प्रेम से भरो। उससे बहुत ऊर्जा का जन्म होता है। प्रेम अदभुत शक्ति है। और जब आप स्वयं अपने प्रति प्रेम से भरते हो, तो चित्त अपने रहस्य क्रमश: खोलने लगता है और उसके प्रेमपूर्ण निरीक्षण से उसके भीतर आपका प्रवेश होता है। प्रेम संतुलन लाता है; घृणा और दमन नहीं। प्रेम निरीक्षण को संभव बनाता है; घृणा और विरोध नहीं। इसलिये मुझे आज्ञा दें कि मैं आपको स्वयं अपने से प्रेम करना सिखाऊं।
यह कहना कैसा अजीब लगता है, पर सत्य यही है

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- - (Missing sheets with a part of Sinhanad (सिंहनाद))
3 Sinhanad (सिंहनाद), a part (Please note that the original sheet labels for sheets 3-4 are out of sync.)

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ज्ञान का पहला जागरण यही है कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। इसे हम अज्ञान का अंतिम साथ भी कह सकते हैं। वस्तुतः यह अज्ञान से ज्ञान में संक्रमण का बिंदु है।
इसलिये धर्म सबसे पहले यही सिखाता है कि हम स्वयं को नहीं जानते हैं। और जो-जो भ्रांतियां इस बोध में बाधा हों, जो-जो मिथ्या तादात्म्य इसमें आड़े आते हों, धर्म उन सब पर निर्मम आघात करता है। मनुष्य का अज्ञान उसके इसी मिथ्या ज्ञान में है कि वह स्वयं को जानता है। यह कैसा आश्चर्य है कि यह भ्रम सभी को बना रहता है! यह भ्रम जैसे कि जन्मजात है और सार्वभौमिक है। धर्म का संपर्क सबसे पहले इसी स्वप्न को तोड़ देता है।
स्वयं को जानने के स्वप्न से जाग जावें। आंखें खोलकर देखें। जो आपके आसपास हैं, वे ही अपरिचित नहीं, आप स्वयं भी अपने से अपरिचित हैं।
एक पत्र मुझे मिला था। लिखने वाले ने लिखा था कि वह मुझसे अपरिचित है। मैंने उससे पूछा है कि क्या वह स्वयं से परिचित है? यही मैं आपसे पूछता हूं। एक-दूसरे की ओर नहीं, अपनी ओर देखें। सुबह जब दर्पण के सामने खड़े हों तो क्षणभर को शांत और मौन होकर अपने से पूछें कि क्या मैं इस व्यक्ति को जानता हूं? रात्रि जब शैया पर लेटें तो अपने से पूछें, ‘क्या मैं स्वयं को जानता हूं?’
और आपको कोई भी उत्तर नहीं मिलेगा और आप जानेंगे कि आप अपने आपको नहीं जानते हैं।
यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इस बोध के बाद ही आगे कोई गति हो सकती है।
मैं वह नाम नहीं हूं, जिससे कि मैं जगत में जाना जाता हूं। कैसा आश्चर्य है कि नाम-धाम को दूसरे मेरा परिचय मान लेते हैं और मैं स्वयं भी अपना परिचय मान लेता हूं! किसी का कोई नाम नहीं है। सब अनाम पैदा होते हैं। और पुनः अनाम ही विलीन हो जाते हैं।
अपने अनाम होने पर चिंतन करें। उससे नाम का भ्रम मिटता है और नाम से मुक्ति होती है। जानें कि आपका कोई नाम नहीं है और फिर अपनी ओर देखें। क्या वहां आप एक बिल्कुल अपरिचित सत्ता को नहीं पाते हैं? नाम की स्थिरता और निरंतर आवर्तन से स्वयं से परिचित होने की भ्रांति पैदा होती है। इस नाम को बिल्कुल पोंछकर मिटा दें, चित्त से उसे अलग कर दें, वह सत्य नहीं है। वरन मात्र एक काल्पनिक, काम-चलाऊ संज्ञा और संकेत है। उससे आपका कोई भी संबंध नहीं है। अपने भीतर खोजें तो पायेंगे कि वहां आपका कोई भी नाम नहीं है।
और जैसा नाम है वैसा ही रूप है। आपका ‘रूप’ भी आप नहीं है। ‘रूप’ रोज बदलता है, फिर भी हमारी मूच्र्छा नहीं टूटती है।
एक दिन मैं अपने पुराने चित्र देखता था। उनमें कोई भी एकता नहीं है। वे सब भिन्न-भिन्न हैं। उन्हें हम अलग-अलग व्यक्ति के चित्र कहें तो भी कोई हर्ज नहीं है। वस्तुतः वे अलग-अलग व्यक्तियों के ही हैं। मेरा जो व्यक्ति रूप कल था वह आज नहीं है और जो आज है वह कल नहीं होगा। जन्म के समय जो शिशु रूप होता है उसमें और मृत्यु के समय जो वृद्ध रूप होता है उसमें, क्या कोई भी एकता है, कोई भी समानता है? किसी भी भांति वे एक नहीं हैं, फिर भी किसी आंतरिक मूच्र्छा और सम्मोहन के कारण हम उन्हें एक ही माने जाते हैं।
शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। एक क्षण को भी वहां ठहराव, रेस्ट नहीं है। आप जैसा शरीर लेकर यहां

(Following sheet is missing)

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- - (Missing sheet numbered 3 by Osho with a part of Sinhanad (सिंहनाद))
5 Sinhanad (सिंहनाद), a part (Please note that the original sheet labels for sheets 5-7 are out of sync.)

(Missing previous sheet)

है। शरीर नहीं, शरीर के पार ही मेरी सत्ता हो सकती है।
शरीर के भीतर चलें। शरीर की सतत प्रवाही सतह के नीचे और पीछे देखें। वहां क्या है? वहां मन है। वह मन भी एक क्षण को भी ठहरा हुआ नहीं है। शरीर के परिवर्तन से भी बहुत ज्यादा तीव्र उसके परिवर्तन की गति है। शरीर तो ठहरा हुआ लगता भी है, उस मन में तो कोई ठहराव प्रतीत भी नहीं होता है। आकाश में बादल एक क्षण को भी बिना ठहरे बदलते रहते हैं, ऐसी ही स्थिति मन के विचारों की है। इन जड़विहीन, रूटलेस बादलों जैसे विचारों को अपना स्वरूप और सत्ता मत समझ लेना। जिस पर इनका आना और जाना है, उसे खोजना होगा। बदलियों के पीछे उस आकाश को खोजना होगा, जिसमें और जिस पर कि उनका खेल चलता है।
विचार परिवर्तन की तीव्रतम शृंखला को उपस्थित करते हैं। कोई मुझे कहता था कि प्रकाश का वेग एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकेंड है और विद्युत का वेग दो लाख अठासी हजार मील प्रति सैकेंड है, जबकि विचार का वेग बाईस लाख, पैंसठ हजार, एक सौ बीस मील प्रति सैकेंड है। यह ठीक ही होगा। विचार से अधिक गति और किसमें हो सकती है? स्वप्नों से अधिक परिवर्तनशील और क्या हो सकता है?
यह स्मरण रखें कि जहां परिवर्तन है वहां आपकी आत्यंतिक सत्ता नहीं है।
यह मन एक क्षण प्रेम से भरता है और दूसरे क्षण घृणा से भर जाता है। एक क्षण शुभ विचार इसमें बहते हैं, दूसरे क्षण अशुभ बहने लगते हैं। जो थोड़ी देर पहले करुणा से भरा था, वह थोड़ी देर बाद क्रूरता में देखा जाता है। झील पर हवाओं के थपेड़ों से उठी लहरों की भांति इसकी दशा है। मेरी मानें और जरा भीतर देखें। क्या वहां किसी फिल्म की भांति विचार नहीं बह रहे
हैं? प्रत्येक के भीतर मन का यह छविगृह है और हम सब उसके चित्रों की शृंखला के दर्शक बने हुए हैं। इस छविगृह में जो दिखाई पड़ रहा है, वह नहीं, बल्कि जो देख रहा है, वही मेरा होना है, वही मैं हूं।
मैं न नाम हूं, न रूप हूं, न दृश्य हूं; वरन इन तीनों के पार और अतीत जो अनाम, अरूप द्रष्टा है, वही मेरी सत्ता और आत्मा है। इसे समझना, मनन करना और देखना। क्रमश: उस परम सखा की ओर दृष्टि ले जाने से एक दिन उसका दर्शन होता है और सारा जीवन आमूल परिवर्तित हो जाता है।
शरीर परिवर्तनशील है, चित्त परिवर्तनशील है। इसलिये मैंने कहा कि उनका होना हमारा वास्तविक होना नहीं है। ऐसा मैंने क्यों कहा है? ऐसा इसलिए कहा है कि हमारे भीतर सब बदलता जाता है, फिर भी कुछ है जो कि नहीं बदलता है। परिवर्तन की परिधि के भीतर कुछ सदा अपरिवर्तित और सनातन भी है। उसके ही आधार पर परिवर्तन होते हैं और जैसे फूलों की माला उनके भीतर अनस्यूत धागे पर टिकी होती है, वैसे ही सारे परिवर्तन उस अपरिवर्तित पर टिके होते हैं। उसके बिना तो माला बिखर जायेगी और फूल अलग-अलग हो गिर पड़ेंगे। शरीर और चित्त दोनों ही संग्रह और संयोग हैं। उनका आधार उनके बाहर है। वह आधार ही आत्मा है।
शरीर, मन का सतत प्रवाही संघात किसी अप्रवाही सत्ता के आधार के बिना हो ही कैसे सकता है? जैसे आकाश में बादल आते और जाते हैं, ऐसे ही उस पर और उसमें शरीर व मन का आना और जाना है। शरीर और मन से स्वयं का तादात्म्य, आइडेंटिटी समझ लेना ही अज्ञान है। यह तादात्म्य ही संसार का मूल है। जो इस तादात्म्य को भेदकर उसे जानने में समर्थ हो जाता है, जो कि शरीर व मन के अतीत है, वह ज्ञान को..आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होता है।
हमने देखा कि शरीर और मन निरंतर बहा जा रहा है। लेकिन फिर अतीत की स्मृति किसे होती है? मैं अपने बालपन को स्मरण कर पाता हूं। आज युवा हूं, कल वृद्ध हो जाऊंगा। वृद्ध होकर पाऊंगा कि शरीर और मन की गंगा का बहुत जल बह गया है। लेकिन फिर भी स्मृति का धागा उस सबको सम्हाले हुए है, जो कि बह गया है और अब कहीं भी नहीं है। स्मृति-विषयों, मेमोरि कंटेंट्स के प्रति जो मेरी जागरूकता, अवेअरनेस है वह तो अविच्छिन्न होती है। इससे दीखता है कि हमारे भीतर समस्त विच्छिन्नताओं के बीच प्रतीति की कोई अविच्छिन्न, कांस्टेंट एंड कंटिन्युअस तत्व मौजूद है। यह तत्व परिवर्तनों से घिरा है, पर स्वयं अपरिवर्तित है। यह ठीक भी है। क्योंकि जो समस्त परिवर्तनों को अनुभव करता है, वह स्वयं परिवर्तनशील नहीं हो सकता है। इस अविच्छिन्न चेतना तत्व का नाम ही आत्मा है। जो इस तत्व पर ध्यान करते हैं, वे न केवल इस जन्म के अतीत, वरन अतीत के समस्त जन्मों को भी स्मरण कर पाते हैं।
स्मृति-विषय, मेमोरि कंटेंट्स तो मन की ही अचेतन पर्तों पर लिपिबद्ध होते हैं। लेकिन उन्हें देखने वाला, उनके प्रति जागरूक और सचेतन होने वाला जो चेतना-तत्व है, वह उनसे पृथक और उनके पीछे है। इसलिए ही वह उनका स्मरण और उनकी प्रत्यभिज्ञा कर पाता है। स्मृति के स्मरण के रहस्य को समझने, उसका मनन करने से, उसमें झांकने से, मृत्यु के पीछे किसी अमृत और अनित्य के पीछे किसी नित्य तत्व के दर्शन होते हैं।
मनुष्य की सत्ता दोहरी है। उसके भीतर दो सत्तायें मिलती हैं और उनका संगम होता है। मनुष्य परिवर्तन और अपरिवर्तन, अनित्य और नित्य, मृत्यु और अमृत का जोड़ है। शरीर और आत्मा से हम इस द्वैत की ही सूचना देते हैं। मनुष्य की परिधि निरंतर परिवर्तित होती रहती है। और उसका केंद्र सदा अपरिवर्तित बना रहता है।
जो अपने भीतर केवल परिवर्तन

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- - (Missing sheets with the end of Sinhanad (सिंहनाद))
8R Unpublished. We have designated that writing as event Unpublished memoir ~ 01
....उनसे पूछता था कि हम क्या करें? वह बोलेः ‘यह न पूछो। कर्म (Action) का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य सत्ता (Being) का है। तुम क्या करते हो, यह नहीं, तुम क्या हो यह मूल्यवान है। कर्म तो तुम से ही आता है। वह तुम्हारी ही अभिव्यक्ति है। उसे नहीं स्व को, सत्ता को बदलना होता है। उसका परिवर्तन ही कर्म का परिवर्तन है। आचरण अंतस का अनुगामी है।’
यह सब उनसे सुनना बहुत आनंद और अर्थ देता है। क्योंकि वह जानते हैं। यह उनकी जानकारी नहीं, ज्ञान है। वे जब कुछ कहते हैं तो ऐसा नहीं लगता कि उसे सोचते हैं। ऐसा ही लगता है कि उसे देख रहे हैं। चिंतन नहीं--दर्शन, उनकी साधना का आधार सूत्र है। एक कथा उन्होंने कही थी। एक बार एक अंधे व्यक्ति को उसके कुछ मित्र एक साधु के पास ले गए। वह अंधा व्यक्ति प्रकाश को मानने को राजी नहीं था। साधु के पास वह इसीलिए ले गए थे कि वह उसे समझा दे। पर साधु ने कहाः इसे विचार की नहीं, उपचार की आवश्यकता है। प्रकाश को समझना नहीं, देखना होता है। उस अंधे व्यक्ति का उपचार किया गया। उसकी आंख पर जाली थी। वह जाली कट गई और उसने प्रकाश को जाना। वह बोलाः प्रकाश तो था पर मेरे पास आंखें नहीं थीं।
वे कहते हैं कि ऐसा ही सत्य के संबंध में भी है। सत्य को सोचना नहीं, देखना होता है। और देखने के लिए आंखें चाहिए। योग से वे आंखें मिलती हैं। जो विचार का अनुगमन करते हैं वह कहीं भी नहीं पहुंचते, पर जो आंख को खोजते हैं वे सब पा लेते हैं।
मैंने सोचा कि ऐसे आंख वाले व्यक्ति से आप को मिलाऊं, शायद उनकी आंखें आपके भी काम आ सकें और जो वह देख रहे हैं वह दर्शन किसी दिन आप का भी सौभाग्य बन सके। किसी को विदा करते हुए एक दिन उन्होंने कहा थाः ‘प्रभु आपको आंखें दें। प्रकाश तो सब तरफ है, बस आंखें होनी चाहिए। आंख पाते ही प्रकाश मिल जाता है और आंख पाते ही परमात्मा भी।’
8V
23 Unpublished and prepared for Prem Ke Swar (प्रेम के स्वर) as chapter 32 (of 68). We have designated that writing as event Jeevan Sampada Ka Adhikar ~ 01.
मैं किसी परिवार में अतिथि था। जाते ही देखा कि उनके द्वार पर दो तोते पिंजड़ों में बंद हैं। पिंजड़े सुंदर सुनहरे रंगों में रंगे हुए हैं। ठीक भी है। यदि परतंत्रता ऊपर से रंगीन और सुंदर न हो, तो उसे पसंद कौन करेगा? बंधनों को भी हम सजा लेते हैं और सुंदर बना लेते हैं। लेकिन क्या बंधन कितने ही सजाने और संवारने से कभी सुंदर हो सकते हैं? बंधन से अधिक कुरूप वस्तु और क्या है? और शायद इसीलिए बंधनों को हम जितना सुंदर बनाने का प्रयास करते हैं। उतना और किसी चीज को नहीं। जो जितना कुरूप होता है, उसे हम सुंदर से उतना ही थोप कर भुलाने की चेष्टा करते हैं।
वस्तुतः, जहां कुरूपता नहीं है वहीं सुंदर बनाने का ख्याल ही पैदा नहीं होता है। सुंदर बनाने और सुंदर होने का बोध ही कुरूपता से पैदा होता है।
यह सोचता ही था कि वे तोते कुछ बोलने लगे। उन्हें जो सिखाया गया है, वही वे बोल रहे हैं। वे राम का नाम ले रहे हैं। उन्हें सुन कर उन सबका मुझे स्मरण आता है, जिन्हें मैंने राम का नाम लेते देखा है, या अल्लाह का या किसी और का। क्या उन सबने भी वे नाम सीख नहीं लिए हैं? और सीखे हुए का मूल्य ही क्या हो सकता है? कैसा आश्चर्य है कि परमत्मा को भी सीख लिया जाता है और धर्म को भी? क्या इससे भी गहरी कोई आत्मवंचना हो सकती है?
मैं मंदिरों में जाता हूं और मस्जिदों में, गिरजों में और गुरुद्वारों में और वहां क्या पाता हूं? पाता हूं कि सीखी हुई और रटी हुई बातें वहां दोहराई जा रही हैं। और सुना तुमने? उन्हें वे प्रार्थनाएं कहते हैं! और मैं हैरान होकर वापस लौट आता हूं। मैं समझ ही नहीं पाता कि यह सब क्या हो रहा है?
प्रार्थना तो प्रेम है, और प्रेम क्या सीखा जा सकता है या कि दोहराया जा सकता है?
और प्रार्थना तो चित्त की मौन दशा है, उसे भी क्या शब्द दिए जा सकते हैं? और शब्द भी दूसरों के?
पर हम तो सीखे हुए लोग हैं और हमें सब कुछ सिखा दिया गया है। प्रेम और प्रार्थना- सभी कुछ हमने सीख लिया है! लेकिन मैं उसे मृत ही कहता हूं जिसमें कि अनसीखा कुछ भी नहीं है- सहजस्फूर्त कुछ भी नहीं है- उसका स्वयं का कुछ भी नहीं है।
जीवन में जो भी सार्थक है, वह सीखा नहीं जाता है और जीवन में जो भी मूल्यवान है, उसे दूसरों से नहीं पाया जाता है। उसे तो स्वयं ही, स्वयं में ही और स्वयं के द्वारा ही पाना होता है। और यही उसका आनंद और यही उसका सौंदर्य भी है।
विदा होते समय मैंने अपने आतिथेय को कहाः ‘इन तोतों को मुक्त क्यों नहीं कर देते हैं? ’ वे बोलेः ‘हमें इनसे बहुत प्रेम है।’ मैंने यह सुना तो आवाक होकर उनकी आंखों में देखता रह गया। मुझ से कुछ बोलते ही नहीं बना। वे किंचित परेशान हुए होंगे। मेरा ऐसा उन्हें देखना निश्चय ही अबूझ मालूम हुआ होगा। फिर मैने उनसे कहा थाः ‘ठीक ही कहते हैं। प्रेम है इसलिए इन्हें मुक्त कैसे करें? लेकिन क्या कभी सोचा है कि प्रेम भी क्या किसी को बांध सकता है? और क्या वह प्रेम होगा जो बांधे? प्रेम तो मुक्त करता है। दूसरे को बांध रखने में प्रेम नहीं, अप्रेम है- मूलतः घृणा है। दूसरे के मालिक होने में- दूसरे को अपनी वस्तु बना लेने में- प्रेम नहीं, अधिकार का आनंद है। और अधिकार का रस क्या घृणा का ही रस नहीं है? क्या यह दूसरे की हत्या नहीं है- क्या स्वतंत्रता को नष्ट करना दूसरे के स्वत्व को ही विनष्ट नहीं कर देना है?’
इस बीच उनकी पत्नी भी आ गई थीं। उन्होंने मुझसे कहाः आप इन तोतों को मुक्त कर दें!
मैने तोतों के पिंजड़ों के द्वार खोले, लेकिन तोतों ने अपने अपने पिंजड़ों के सीखचों को जोर से पकड़ लिया। वे बाहर निकलने को तैयार न थे।
उनके मालिक को उनसे प्रेम था, उन्हें अपनी कैद से प्रेम था! मैं उन्हें बाहर खींचता था और वे थे कि चिल्लाते थे, फड़फड़ाते थे और भीतर चिपटते थे। मेरी कोशिश व्यर्थ हुई। वस्तुतः
कोई अन्य किसी दूसरे को स्वतंत्रता कैसे दे सकता है? स्वतंत्रता तो पाई जाती है। वह मिलती नहीं। स्वतंत्रता को कोई दान नहीं होता है। और इसलिए दान में पाई हुई स्वतंत्रता छिपी हुई परतंत्रता ही होती है। वैसी स्वतंत्रता परतंत्रता से भी घातक है क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ती है।
फिर मैं सोचने लगा- बहुत सी बातें सोचने लगा। वे पक्षी आकाश की स्वतंत्रता के लिए राजी क्यों न हुए? क्या किसी को अपनी कैद और अपने बंधनों से भी प्रेम हो सकता है? क्या दासता से भी आसक्ति हो जाती है?
शायद, आकाश की स्वतंत्रता उन्हें भयभीत कर रही थी। अपरिचित और अज्ञात भय देता है। परिचित से परिचित होने के कारण ही अभय मालूम होने लगता है। संभवतः इसीलिए उन्होंने अपरिचित स्वतंत्रता की बजाय परिचित परतंत्रता को ही चुनना ठीक समझा। फिर परिचित सुरक्षित प्रतीत होता है। आकाश असुरक्षित था। पिंजड़ा सुरक्षित। उन्होंने पिंजड़े को नहीं, वस्तुतः सुरक्षा को ही चुना था। और तब मुझे दिखाई दिया कि उनका तर्क कितना मनुष्यों ही जैसा है! मनुष्य भी तो ऐसा ही है। कितने कम मनुष्य हैं जो कि अपने कारागृहों को छोड़ने को राजी होंगे। जंजीरों को छोड़ना बहुत कठिन है क्योंके जंजीरें सुरक्षा देती हैं।
स्वतंत्रता और सुरक्षा को एक ही साथ नहीं चाहा जा सकता है। वे तो विरोधी चाहें हैं। सुरक्षा को छोड़ने का साहस हो तो ही स्वतंत्रता की चाह का जन्म हो सकता है। असुरक्षा का साहस ही स्वतंत्रता का अधिकार है। सुरक्षा प्रिय है तो स्वतंत्रता से भय होगा। यह स्वाभाविक ही है। सुरक्षा की आकांक्षा में ही परतंत्रता की संभावना छिपी होती है। वह परतंत्रता का ही बीज है। वह एक अच्छे नाम में- परतंत्रता ही है।
मित्रों से मैं कहता हूंः स्वयं से पूछो कि क्या चाहते हो?- सुरक्षा या स्वतंत्रता? और उनकी आंखों में मैं देखता हूं तो वहां सुरक्षा की अभिलाषा ही लिखी दिखाई देती है। इस अभिलाषा ने ही न मालूम कितने प्रकार की परतंत्रताएं पैदा कर दी हैं। जो सुरक्षित होना चाहता है, वह किसी न किसी रूप में परतंत्र हो ही जाएगा। उसकी इस कमजोरी का शोषण हुए बिना नहीं रह सकता है। शास्त्र, संप्रदाय, संगठन- किसी न किसी की जंजीरें उसे बांध ही लेंगी। कोई न कोई पिंजड़ा उसकी आत्मा को कैद कर ही लेगा। राजनीति यही करती है। धर्म यही करते हैं। सब तरह के सिद्धांत यही करते हैं। सुरक्षा के आश्वासन से मनुष्य की आत्मा का शोषण होता है।
और फिर उन करागृहों को- उन मानसिक दासताओं को स्वयं ही छोड़ने में भय लगने लगता है, असुरक्षा प्रतीत होने लगती है और हम अपने ही हाथों बंधनों और चौखटों में जकड़ जाते हैं। सब भांति की परतंत्रताएं मनुष्य स्वयं ही ओढ़ता है और फिर उनकी रक्षा भी करता है। यहां तक कि उन्हें बचाए रखने के लिए स्वयं के प्राण भी दे सकता है। राष्ट्रों के नाम पर, धर्मों के नाम पर हुई कुर्बानियां और क्या हैं?
इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी हम सुरक्षित होना चाहते हैं। जीवन में ही नहीं, मृत्यु के बाद भी हम सुरक्षा चाहते हैं। इस लोभ ने ही स्वर्ग और मोक्ष की कल्पनाओं को जन्म दिया है और भय के कारण हम उनपर संदेह भी नहीं करते हैं। भयभीत मन कैसे संदेह करेगा? वह तो सुरक्षा के निमित्त किसी भी असत्य पर विश्वास कर लेता है। भयभीत मन ही तो समस्त अंधविश्वासों की पोषण भूमि है, वही तो असत्य और मिथ्या धारणाओं का सहारा है। सुरक्षा की वासना जहां है, वहां संदेह नहीं हो सकता है। और जहां संदेह नहीं है, वहां सत्य का साक्षात्कार भी नहीं हो सकता है।
ईश्वर के नाम पर प्रचलित जो सारा पाखंड है, वह क्या है? क्या वह सब हमारे भय का ही विस्तार नहीं है- क्या हम सुरक्षा चाहने के कारण ही उस सबको नहीं चलने देते हैं?
पाप और पुण्य, प्रलोभन और दंड, स्वर्ग और नरक की सारी धारणाएं क्या हैं? क्या उन सबके पीछे हमारे भयभीत मन की छाया का ही आधार नहीं है?
और आत्मा की अमरता का विचार क्या है? क्या मृत्यु के भय के कारण ही हमने उसकी शरण नहीं ले ली है?
इस भांति के भयों और अंधविश्वासों के अंधकार से बंधा चित्त सत्य का आलोक नहीं देख सकता है और इस भांति के सुरक्षा के सींकचों को पकड़े हुई आत्मा परमात्मा के आकाश में गति नहीं कर सकती है।
आकाश की स्वतंत्रता के लिए सभी भांति के पिंजड़ों का मोह छोड़ देना अनिवार्य है। और स्मरण रहे कि मानसिक दासता से मुक्ति आत्मिक मुक्ति का प्रारंभ है। जो प्रारंभ में ही बंधा हुआ है, वह अंत में मुक्त कैसे होगा? मुक्ति चाहिए हो तो मुक्ति से ही प्रारंभ करना होगा। आरंभ में ही तो अंत भी होता है। दासता कहीं भी नहीं
ले जाती है सिवाय और गहरी दासता के। फिर वह दासता चाहे शास्त्रों की हो, चाहे शास्ताओं की। दासता तो दासता है। और लोहे की जंजीरें उतनी मजबूत नहीं होती हैं जितनी कि विचार की जंजीरें। विचारों से- पराए विचारों से जो मुक्त नहीं है, वह कभी भी, किसी भी अर्थों में मुक्त नहीं हो सकता है।
मैं कहता हूंः सत्य को पाना है तो शास्त्रों से मुक्त हो जाओ और स्वयं को पाना है तो समस्त पर-शरणता के ऊपर उठना होगा। और जो धर्म को पाना चाहता है, वह संप्रदाओं को छोड़ दे। वस्तुतः, सुरक्षा की दौड़ से मुक्त होना आवश्यक है यदि स्वतंत्रता पानी हो। और स्मरण रहे कि जो असुरक्षा में कूद जाता है, वह सुरक्षित हो जाता है क्योंकि स्वतंत्रता से बड़ी और कोई सुरक्षा नहीं है। स्वतंत्रता में ही सत्य है और सत्य ही ईश्वर है।
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29 Prem Hai Dwar Prabhu Ka (प्रेम है द्वार प्रभु का), the end of chapter 2 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)

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डाक्टर और इंजीनियर तो फिर भी ठीक है, यह मिनिस्टर तो बिल्कुल भी ठीक नहीं है। मैं तो चाहूंगा कि तुम इतने अच्छे आदमी बनना कि तुम में से कोई भी मिनिस्टर न होना चाहे।
महत्वाकांक्षा तो रोग है और वह केवल उनमें ही जड़ पकड़ता है जो कि स्वयं में हीन ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। महत्वाकांक्षा भी विक्षिप्तता का एक प्रकार है। स्वस्थ चित्त व्यक्ति महत्वाकांक्षी नहीं होता है। शिक्षा सम्यक हो तो जीवन में महत्वाकांक्षा का कोई स्थान न होना चाहिए। जीओ..गहरा से गहरा जीवन जीओ। लेकिन पद पर यश के लिए जो जीता है, वह जो गहरा कभी भी नहीं जी पाता है। वह तो अत्यंत उथले में जीता है। उसका कोई जीवन थोड़े ही है। वह तो महत्वाकांक्षा से खींचा जाता है। जीवन उसका एक शांति और आनंद नहीं बल्कि एक तनाव और पीड़ा है। इसलिए कितने महत्वाकांक्षी पागल पैदा किए गए, इससे गुरुकुल की प्रतिष्ठा बढ़ने वाली नहीं है। यह एक धर्म प्रतिष्ठान है, इसके लिए कोई और गौरव निर्मित करें। यह एक आदर की बात होगी कि गुरुकुल से निकला हुआ विद्यार्थी महत्वाकांक्षी न हो, पदाकांक्षी न हो, धनाकांक्षी न हो तो हम कह सकते हैं हमारे गुरुकुल से निकला हुआ विद्यार्थी महत्वाकांक्षी न हो, पदाकांक्षी न हो, धनाकांक्षी न हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे गुरुकुल से निकला विद्यार्थी विक्षिप्त नहीं है, स्वस्थ चित्त है।
बच्चों को महत्वाकांक्षा नहीं, प्रेम सिखाइए। बच्चों को प्रथम आने की दौड़ में मत लगाइए। बच्चों को अंतिम खड़ा होने की सामथ्र्य और बल सिखाइए। क्राइस्ट ने कहा है: धन्य हैं वे लोग, जो अंतिम खड़ा होने में समर्थ हैं। उन लोगों को धन्य नहीं कहा जो प्रथम खड़े हो जाते हैं। क्राइस्ट ने उन लोगों को धन्य कहा है जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। गुरुकुल तो वह होगी कि बच्चे को हम यह सिखो कि वह सब भांति के पागलपनों में दूर पीछे खड़े रहने में समर्थ हों। वह प्रेम में इतना आगे हो कि प्रतिस्पर्धा में पीछे खड़ा हो सके। लेकिन हम तो प्रतिस्पर्धा सिखाते हैं, प्रेम नहीं, और तब यदि हमारी सयता रोज युद्धों में पड़ जाती हो तो आश्चर्य नहीं। शायद हम सोचते हैं कि बिना स्पर्धा के तो कुछ सिखाया ही नहीं जा सकता है, लेकिन यह भूल है। स्पर्धा का ज्वर पैदा करके जो सिखाया जाता है, वह सब घातक है, क्योंकि फिर वह ज्वर जीवन भर नहीं उतरता है।
सहयोगियों से स्पर्धा नहीं, वरन जो सिखाया जा रहा है, उसके प्रति प्रेम और आनंद पैदा करें। संगीत साथियों से स्पर्धा में भी सीखा जा सकता है और संगीत के प्रेम में भी। ऐसे ही गणित भी और ऐसे ही शेष सब कुछ निश्चय ही संगीत से प्रेम में भी एक स्पर्धा होगी, लेकिन वह स्वयं से ही होगी। वह होगी स्वयं को ही निरंतर अतिक्रमण करने की। मैं जहां आज हूं वहां कल मैं न रहूं। मैं जहां कल था, वही आज भी न ठहरा रहूं। ऐसी आत्मस्पर्धा शुभ है। लेकिन दूसरों से जो प्रतियोगिता है, वह जीवन को बहुत दुखों और तनावों में ले जाती है, क्योंकि उस सारी दौड़ का केंद्र अहंकार है और अहंकार नर्क का मार्ग है।
लेकिन अभी तो सभी भांति परोक्ष अपरोक्ष अहंकार ही सिखाया जाता है। वह देखो..दीवाल पर क्या लिखा है? लिखा है: राजा तो केवल अपने ही देश में लेकिन विद्वान सर्वत्र पूजता है। इसका क्या अर्थ है, क्या प्रयोजन है? निश्चय ही एक ही अभिप्राय है कि विद्वान बनो। लेकिन क्या पूजने की, पूजा पाने की इच्छा कोई शुभेच्छा है? इस भांति त्याग की शिक्षा भी दी जाती है। त्यागी बनो क्योंकि त्यागी पुजता है। लेकिन जो पूजना चाहता है क्या वह ज्ञानी या त्यागी हो सकता है? पूजा जाने की इच्छा तो अत्यंत गहरे अज्ञान और मूढ़ता से उत्पन्न होती है। वह तो निपट अहंकार है। और अहंकार से बड़ा न दुख है न दारिद्रय है, न दुर्भाग्य है।
सम्यक शिक्षा अहंकार से मुक्तदायी होनी चाहिए। क्या यह गुरुकुल ऐसे बच्चे पैदा नहीं करेगा जो निर-अहंकारी हों? यह एक बात ही हो सके तो जीवन में क्रांति हो जाती है। क्या हम ऐसे बच्चे तैयार नहीं कर सकते हैं जो सरल हों, सहज हों और जिन्हें जीवन में..दैनंदिन जीवन में आनंद हो? :परमात्मा के सौंदर्य को जानने में उसके संगीत को अनुभव करने में केवल वे ही सफल हो सकते हैं जो कि सहज और सरल हैं।
मैं बहुत आशाओं से भरा हुआ आपसे विदा लेता हूं। मनुष्य तो अनगढ़ पत्थरों की भांति है। मैं अभी यहां की गुफाओं से लौटा हूं। उन पत्थरों को सृष्टा कारीगर मिल गए इसलिए वे साधारण से पोषण प्रतिमाएं बन कर अप्रतिम सौंदर्य को उपलब्ध हो गए हैं। प्यारे बच्चो, तुम्हारा जीवन भी ऐसे ही सौंदर्य को प्राप्त कर सकता है। लेकिन तुम्हें अपना सृष्टा बनना होगा। निश्चय ही तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारा गुरुकुल, तुम्हारे मां-बाप इसमें बहुत सहयोगी हो सकते हज, लेकिन फिर भी अंतिम जिम्मेवारी तो तुम पर ही है।
मनुष्य के निर्माण में वह स्वयं ही पत्थर है और स्वयं ही कारीगर और स्वयं ही वे उपकरण, जिनसे कि एक पाषाण प्रतिमा में परिवर्तित होता है।
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30 Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapter 97
कुछ युवकों ने मुझसे पूछाः पाप क्या है? मैंने कहाः मूर्च्छा। वस्तुतः होशपूर्वक कोई भी पाप करना असंभव है। इसलिए, मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और, जो मूर्च्छा, बेहोशी के बिना न हो सके वही पाप है।
एक अंधकारपूर्ण रात्रि में किसी युवक ने एक साधु के झोपड़े में प्रवेश किया। उसने जाकर कहाः मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं। साधु ने कहाः स्वागत है। परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत है। वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोलाः लेकिन बहुत त्रुटियां हैं मुझमें--मैं बहुत पापी हूं? यह सुन साधु हंसने लगा और बोलाः परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं? मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं। उस युवक ने कहाः लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं--मैं व्यभिचारी हूं। वह साधु बोलाः इन सबसे कोई भेद नहीं पड़ता। लेकिन देखो! मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम भी मुझे स्वीकार करोगे? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं? उस युवक ने आश्वासन दिया। गुरु का इतना आदर तो स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह लौटा और उसके गुरु ने पूछा कि तुम्हारे उन पापों का क्या हाल है, तो वह हंसने लगा और बोलाः मैं जैसे ही उनकी मूर्च्छा में पड़ता हूं कि आपकी आंखें सामने आ जाती हैं और मैं जाग जाता हूं। आपकी उपस्थिति मुझे जगा देती है। और जागते हुए तो गड्ढों में गिरना असंभव है!
मेरे देखे पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुतः, तो वे हमारे अंतःकरण के सोए होने या जागे होने की सूचनाएं हैं। जो सीधे पापों से लड़ता है, या पुण्य करना चाहता है, वह भूल में है। सवाल कुछ "करने" या "न-करने" का नहीं है। सवाल तो भीतर कुछ "होने" या "न-होने" का है। और, यदि भीतर जागरण है--होश है--स्व-बोध है, तो ही तुम हो, अन्यथा घर के मालिक के सोए होने पर जैसे चोरों को सुविधा होती है, वैसी ही सुविधा पापों को भी है।
31 Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapter 100
ईश्वर कहां है? ईश्वर को खोजते लोग मेरे पास आते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि ईश्वर तो प्रतिक्षण और प्रत्येक स्थान पर है। उसे खोजने कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं। जागो--और देखो। और जाग कर जो भी देखा जाता है, वह सब परमात्मा ही है।
सूफी कवि हफीज अपने गुरु के आश्रम में था। और भी बहुत से शिष्य वहां थे। एक रात्रि गुरु ने सारे शिष्यों को शांत ध्यानस्थ हो बैठने को कहा। आधी रात गए गुरु ने धीमे से बुलायाः हफीज। सुनते ही तत्क्षण हफीज उठ कर आया। गुरु ने जो उसे बताना था, बताया। फिर थोड़ी देर बाद उसने किसी और को बुलाया। लेकिन, आया हफीज ही। इस भांति दस बार उसने बुलाया। लेकिन, बार-बार आया हफीज ही। क्योंकि, शेष सब तो सो रहे थे!
परमात्मा भी प्रतिक्षण प्रत्येक को बुला रहा है--सब दिशाओं से, सब मार्गों से उसकी ही आवाज आ रही है। लेकिन, हम तो सोए हुए हैं। जो जागता है, वह उसे सुनता है; और जो जागता है, केवल वही उसे पाता है। इसलिए कहता हूं कि ईश्वर की फिकर मत करो। उसकी चिंता व्यर्थ है। चिंता करो स्वयं को जगाने की। निद्रा में जो हम जान रहे हैं, वह ईश्वर का ही विकृत रूप है। यह विकृत अनुभव ही संसार है। जागते ही संसार नहीं पाया जाता है और जो पाया जाता है, वही सत्य है। सत्य सब ओर है। वस्तुतः, वही है और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम स्वप्न में हैं और इसलिए "जो है", वह दिखाई नहीं पड़ता है।
स्वप्नों को छोड़ो। संसार को नहीं, स्वप्न को छोड़ना ही संन्यास है। और, जो स्वप्नों को छोड़ने में समर्थ हो जाता है, वह पाता है कि वह तो स्वयं ही सत्य है।