Manuscripts ~ Naye Beej (नए बीज)

From The Sannyas Wiki
Revision as of 05:44, 4 January 2020 by Dhyanantar (talk | contribs)
Jump to navigation Jump to search

New Seeds

year
1967
notes
14 sheets (incl 5 photocopies and 1 written on reverse).
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
First 3 sheets published as Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapters: 14, 3 and 15.
The rest sheets published as Naye Sanket (नये संकेत), ch. 21-102.
One quote is unpublished (first sheet after sheet 3).
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters) and Naye Sanket (नये संकेत).
see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi
1 Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapter 14
सत्य और स्वयं में जो सत्य को चुनता है, वह सत्य को पा लेता है और स्वयं को भी। और, जो स्वयं को चुनता है, वह दोनो को खो देता है।
मनुष्य को सत्य होने से पूर्व स्वयं को खोना पड़ता है। इस मूल्य को चुकाये बिना सत्य में कोई गति नहीं है। उसका होना ही बाधा है। वही स्वयं सत्य पर पर्दा है। उसकी दृष्टिं ही अवरोध है- वह दृष्टिं जो कि 'मैं' के बिंदु से विश्व को देखती है। 'अहं-दृष्टिं' के अतिरिक्त उसे सत्य से और कोई भी पृथक नहीं किये है। मनुष्य का 'मैं' हो जाना ही, परमात्मा से उसका पतन है। 'मैं' की पार्थिवता में ही वह नीचे आता है और 'मैं' के खोते ही वह अपार्थिव और भागवत-सत्ता में ऊपर उठ आता है। 'मैं' होना नीचे होना है। 'न मैं' हो जाना ऊपर उठ जाना है।
किंतु, जो खोने जैसा दीखता है, वह वस्तुत: खोना नहीं-पाना है। स्वयं की, जो सत्ता खोनी है, वह सत्ता नहीं स्वप्न ही है और उसे खेकर जो सत्ता मिलती है, वही सत्य है।
बीज जब भूमि के भीतर स्वयं को बिलकुल खो देता है, तभी वह अंकुरित होता है और वृक्ष बनता है।
2 Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapter 3
सत्य एक है। उस तक पहुंचने के द्वार अनेक हो सकते हैं। पर, जो द्वार के मोह में पड़ जाता है, वह द्वार पर ही ठहर जाता है। और सत्य के द्वार उसके लिए कभी नहीं खुलते हैं।
सत्य सब जगह है। जो भी है, सभी सत्य है। उसकी अभिव्यक्तियां अनंत हैं। वह सौंदर्य की भांति है। सौंदर्य कितने रूपों में प्रकट होता है, लेकिन इससे क्या वह भिन्न-भिन्न हो जाता है! जो रात्रि तारों में झलकता है और जो फूलों में सुगंध बनकर झरता है और जो आंखों से प्रेम में प्रकट होता है- वह क्या अलग-अलग है? रूप अलग हों, पर जो उनमें स्थापित होता है, वह तो एक ही है।
किंतु जो रूप पर रुक जाता है, वह आत्मा को नहीं जान पाता और जो सुंदर पर ठहर जाता है, वह सौंदर्य तक नहीं पहुंच पाता है।
ऐसे ही, जो शब्द में बंध जाते हैं, वे सत्य से वंचित रह जाते हैं।
जो जानते हैं, वे राह के अवरोधों को सीढि़यां बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए सीढि़यां भी अवरोध बन जाती हैं।
3 Path Ke Pradeep (पथ के प्रदीप) (letters), chapter 15
जीवन एक कला है। वह कैसे भी जी लेने का नाम नहीं है। वस्तुत: जो सोद्देश्य जीता है, वही केवल जीता है।
जीवन का क्या अर्थ है? हमारे होने का अभिप्राय? क्या है उद्देश्य? हम क्या होना और क्या पाना चाहते हैं?
जीवन में यदि गंतव्य का बोध न हो, तो गति सम्यक कैसे हो सकती है? और यदि कहीं पहुंचना न हो, तो संतृप्ति को कैसे पाया जा सकता है?
जिसे समग्र जीवन के अर्थ का विचार नहीं है, उसके पास फूल तो हैं और वह उनकी माला भी बनाना चाहता है, किंतु उसके पास ऐसा धागा नहीं है, जो उन्हें जोड़ सके और एक कर सके। अंतत: वह पायेगा कि फूल माला नहीं बन सके हैं और उसके जीवन में न दिशा है और न कोई एकता है। उसके समस्त अनुभव आणविक ही होंगे और उनसे उस ऊर्जा का जन्म नहीं होगा, जो कि ज्ञान बन जाती है। वह जीवन के उस समग्र अनुभव से वंचित ही रह जावेगा, जिसके अभाव में जीना और न-जीना बराबर ही हो जाता है। उसका जीवन एक ऐसे वृक्ष का जीवन होगा, जिसमें कि न फूल लगे, न फल लगे। ऐसा व्यक्ति सुख-दुख तो जानेगा, लेकिन आनंद नहीं। क्योंकि, आनंद की अनुभूति तो जीवन को उसकी समग्रता में अनुभव करने से ही पैदा होती है।
आनंद को पाना है, तो जीवन को फूलों की एक माला बनाओ। और, समस्त अनुभव को एक लक्ष्य के धागे से अनस्यूत करो। जो इससे अन्यथा करता है, वह सार्थकता और कृतार्थता को नहीं पाता है।

(photocopy)
first quote seems unpublished, the rest from Naye Sanket (नये संकेत), chapters 21 - 30 ;
सत्य सरल है। शेष सब जटिल है। लेकिन हम सरल नहीं है; इसलिए सत्य को पाना कठिन होजाता है।
21. मैं दो ही प्रकार के मनुष्यों को जानता हूं। एक तो वे जो सत्य की ओर पीठ किए हुए हैं और दूसरे वे जिन्होंने सत्य की ओर आंखें उठा ली हैं। इन दो वर्गों के अतिरिक्त और कोई वर्ग नहीं है।
22. विचार शक्ति वैसे ही है जैसे विद्युत या गुरुत्वाकर्षण। विद्युत का उपयोग हम जान गए हैं लेकिन विचार का उपयोग अभी सभी को ज्ञात नहीं है। फिर जिन्हें ज्ञात है वे भी उसका उपयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि उस उपयोग के लिए स्वयं के व्यक्तित्व का आमूल परिवर्तन आवश्यक है।
23. सत्य और स्वयं के मध्य कोई अलंघय खाई नहीं है, सिवाय साहस के अभाव के।
24. मनुष्य भी कैसा अदभुत है, उसके भीतर कूड़े-करकट की गंदगी भी है और स्वर्ण की अमूल्य निधि भी। और हम किसे उपलब्ध हो जाते हैं, यह बिल्कुल ही हमारे हाथ में है।
25. प्रभु को भीतर पाते ही सर्वत्र उसी के दर्शन होने लगते हैं। वस्तुतः जो हममें होता है, उसकी ही हमें बाहर भी अनुभूति होती है। ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता है, तो जानना कि अभी तुमने उसे भीतर नहीं खोया है।
26. सत्य का सृजन नहीं करना है। उसका सृजन किया भी नहीं जा सकता। और जिसका सृजन हो सके जानना कि वह असत्य है। सत्य का सृजन नहीं, दर्शन होता है। स्वयं के पास उसे ग्रहण करनेवाली आंखें भर हों तो सत्य तो सदा ही उपस्थित है।
27. "जो है" उसे जानने के लिए स्वयं को दर्पण बनाना आवश्यक है। विचारों की छायाएं चित्त को अविकृत नहीं रहने देती हैं। जैसे ही विचार शांत होते हैं और चित्त शून्य, वैसे ही भीतर वह दर्पण उपलब्ध हो जाता है जो कि सत्य के प्रतिफलन में समर्थ होता है।
28. जो हुआ है, वह अनहुआ हो सकता है। जो किया है, वह अनकिया हो सकता है। मनुष्य कर्म में बंधने में समर्थ है तो मुक्त होने में भी समर्थ है। उसकी परतंत्रता भी उसकी स्वतंत्रता ही है।
29. स्वतंत्रता आत्मा का स्वरूप है। इसलिए यदि संकल्प हो तो कैसी भी परतंत्रता को क्षण में ही तोड़ा जा सकता है। संकल्प का, अनुपात ही स्वतंत्रता का अनुपात है।
30. मैं रोज ही मर जाता हूं--वस्तुतः प्रतिक्षण ही मर जाता हूं, और इसे मैंने जीवन का--चिर जीवन का रहस्य जाना है। जो अतीत को ढोता है, वह मृत को ढोने के कारण मृत होता है।

(photocopy)
Naye Sanket (नये संकेत), chapters 31 - 41
31. जीवन की बड़ी बड़ी यात्रा के लिए एक कदम उठाने का साहस ही काफी है क्योंकि एक कदम से अधिक तो एक ही साथ कोई भी नहीं चल सकता है। मित्र, हजारों मील की यात्रा भी एक ही कदम से आरंभ होती है और एक ही कदम से पूरी होती है।
32. प्रभु की खोज क्या है? अपने खोए घर की खोज। संसार में मनुष्य बेघर है और अजनबी है।
33. सत्य की परिभाषा पूछते हो? सत्य की कोई परिभाषा नहीं है क्योंकि स्वयं की ही स्वयं के द्वारा क्या परिभाषा हो सकती है? पायलट ने क्राइस्ट से पूछा थाः "सत्य क्या है?" क्राइस्ट ने पायलट की ओर मात्र देखा भर और चुप रहे। सत्य कोई सिद्धांत नहीं है। सत्य कोई शब्द नहीं। सत्य तो अनुभूति है--स्वयं की आत्यंतिक गहराई की अनुभूति। "जो है" उसके साथ एक हो जाना सत्य है।
34. जीवन हमें तभी मिलता है जब हम अपनी आत्यंतिक गहराई को स्पर्श करते हैं--अन्यथा हम केवल जीते हैं। और मात्र जीने और जीवन में उतना ही भेद है जितना कि मृत्यु और जीवन में है।
35. धर्म का क्या अर्थ है? कीचड़ से कमल की ओर जाना। कीचड़ भी वही है, और कमल भी वही है... पर कितना भेद है।"
36. धर्म कोई अभूर्त कल्पना नहीं है। धर्म तो है प्रत्यक्ष व्यवहार। धर्म कोई विचार नहीं। धर्म तो है अनुभूति। जिन बातों से हमें दुख होता है, वे बातें हमसे दूसरों के प्रति न हों ऐसी चित्त-दिशा में प्रतिष्ठा ही धर्म है।
37. धर्म को मुंह में मत रखो। उसे भी पेट में जाने दो और खून बनने दो। रोटी के टुकड़े को मुंह में रखे रहने से पेट नहीं भरता है।
38. धर्म का अर्थ है मृत्यु.....स्वयं की मृत्यु। जिसका स्व नहीं मरता है, वह सर्व को कैसे पा सकेगा? अहं को छोडो और अपनी पूजा कम करो। अपनी पूजा छोड देना ही परमात्मा की पूजा है।
39. मैं विचार का स्वतंत्र दीपक जलाने को कहता हूं। विचार की दृष्टि से किसी के दास मत बनो। सत्य उनका है जो अपने स्वामी हैं।
40. जीवन तो बांसुरी की भांति है--भीतर खाली और रिक्त लेकिन संगीत की अनंत सुप्त संभावनाओं को लिए हुए। जो जितना उसे बजाता है, उतना ही संगीत उससे पैदा होता है।
41. मैं दूसरों में विश्वास करने को नहीं कहता हूं क्योंकि वह स्वयं में विश्वास के अभाव का परिणाम है।

(photocopy)
Naye Sanket (नये संकेत), chapters 42 - 53
42. एक ऐसी अग्नि भी है, जो दीखती नहीं, लेकिन निरंतर स्वयं को जलाती रहती है। वह अग्नि है तृष्णा की। तृष्णा ऐसे ही जलाती है जैसे कोई जलती हुई मशाल को आंधियों के विरोध में लिए खड़ा हो और स्वयं ही उससे झुलस जाए। और फिर दोष दे आंधियों को!
43. एक छोटा सा दिया वर्षों से घिरे अंधकार को नष्ट कर देता है, ऐसे ही आत्म बोध की एक छोटी सी किरण भी जीवन में घिरे जन्म-जन्मों के अज्ञान को नष्ट कर देती है।
44. सेवा करना चाहते हैं? लेकिन स्मरण रखना कि सागर में स्वयं ही डूबता हुआ व्यक्ति किसी दूसरे डूबते हुए व्यक्ति को नहीं बचा सकता है।
45. मित्र, ईश्वर को जानना है तो मौन मार्ग है। ईश्वर के संबंध में जो भी कहा जाएगा वह इसी कारण असत्य हो जाएगा कि कहा गया है!
46. मनुष्य एक यात्रा है--अनंत के लिए यात्रा। नीत्शे ने कहा हैः "मनुष्य की महत्ता यही है कि वह सेतु है, अंत नहीं।" मैं भी यही कहता हूं।
47. मित्र, स्वयं को अनुशासन में मत बांधो। वास्तविक अनुशासन, बंधनों से नहीं, वरन विवेक के जागरण और मुक्ति से आता है।
48. शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में जो छिपा हो उसे बाहर लाना है। वह बाह्य आदर्श या आदेश नहीं, किंतु अंतस का आविष्कार है।
49. मैं उस शिक्षा के विरोध में हूं जो व्यक्तियों को किन्हीं निर्धारित आदर्श के ढांचों में ढालती हो। वैसी शिक्षा से व्यक्तित्व विकसित नहीं, कुंठित ही होते हैं। भय पर आधारित शिक्षा के भी मैं पक्ष में नहीं हूं फिर वह भय चाहे दंड का हो या प्रलोभन का। भय से अधिक विषाक्त और क्या हो सकता है? और आरोपित अनुशासन की भी मैं निंदा करता हूं क्योंकि वह दासता के लिए तैयारी से ज्यादा और क्या है?
50. महानता से सरल और कुछ नहीं, वस्तुतः सरलता ही महानता है।
51. एक सत्य सदा स्मरण रखनाः दूसरों को दिया गया धोखा अंत में स्वयं को ही दिया गया धोखा सिद्ध होता है। ...
क्योंकि हम जो दूसरों के साथ करते हैं, अंततोगत्वा वह हम पर ही लौट आता है।
52. क्या आपको ज्ञात है कि कभी भी किसी मनुष्य को दूसरों के द्वारा इतना धोखा नहीं दिया गया है जितना कि प्रत्येक स्वयं को ही देता है।
53. प्रकाश सीधी रेखा में गति करता है। सत्य और धर्म भी सीधी रेखाओं में ही गति करते हैं। तुम्हारे जीवन की गति रेखा यदि सीधी न हो तो जानना कि तुम्हारा जीवन अंधकार, अधर्म और असत्य के पथ पर है।

(photocopy)
Naye Sanket (नये संकेत), chapters 54 - 77
54. धर्म तो मार्ग है, और मार्ग मात्र जानने से नहीं, चलने से तय होता है।
55. सत्य, असत्य का विरोधी नहीं है। असत्य का विरोधी भी असत्य ही होता है। वस्तुतः सभी अतियां असत्य हैं। सत्य तो अतियों के मध्य में अर्थात अतियों के अतीत होता है।
56. मैं स्वयं के भीतर झांकता हूं तो क्या पाता हूं? पाता हूं कि मोक्ष तो पृथ्वी से भी अधिक समीप है!
57. सत्य को--स्वयं को खोजने में गुजारा गया समय और व्यय किया गया श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता, अंततः तो केवल वही बचाया हुआ समय और सार्थक हुआ श्रम सिद्ध होता है।
58. असत्य को मैंने फूस के ढेर की भांति जाना। उसमें शक्ति तो है ही नहींः सत्य की छोटी सी चिनगारी भी उसे भस्म कर देती है।
59. धर्म के लिए सबसे बड़ा आदर जो हम प्रकट कर सकते हैं... वह है कि हम उसका उपयोग करें और उसे जीए। जो मात्र उसका विचार करता है और जीता नहीं, वह स्वयं ही अपने विचार पर अविश्वस प्रकट करता है।
60. धर्म का लक्ष्य क्या है? पुरुष में सोए पुरुषोत्तम को जाग्रत करना। बस यही और यही धर्म का लक्ष्य है।
61. जीवन कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका कि उसके बाहर कोई हल खोजना है। जीवन का हल तो पूर्णता से जीने में ही मिल जाता है।
62. सबसे बड़ी मुक्ति है स्वयं को स्वयं मुक्त करना। साधारणतः हम भूले ही रहते हैं कि स्वयं पर हम स्वयं ही सबसे बड़ा बोझ और बंधन हैं।
63. मनुष्य को मनुष्यता बनी बनाई प्राप्त नहीं होती। उसे तो स्वयं ही निर्मित करना होता है। यही सौभाग्य भी है और यही दुर्भाग्य; सौभाग्य क्योंकि स्वयं के सृजन की स्वतंत्रता है और दुर्भाग्य क्योंकि स्वयं को बिना निर्मित किए समाप्त हो जाने की संभावना भी है।
64. स्वयं के "मैं" को ठीक से जानना--उसकी पूर्णता में--उससे मुक्त हो जाना भी है। अहंकार, अंधकार की उत्पत्ति है। प्रकाश के आते ही उसका न हो जाना सुनिश्चित है।
65. मनुष्य को विकास करके ईश्वर नहीं होना है। वह यदि स्वयं को पूरी तरह उघाड़ ले तो अभी और यहीं ईश्वर है। मेरी दृष्टि में स्वयं का संपूर्ण आविष्कार ही एकमात्र विकास है।
66. मनुष्य का संघर्ष किससे है? स्वयं के "मैं" से। जो क्रांति करनी है, वह स्वयं के ही अहंकार से करनी है। अहंकार से घिरा होना ही संसार में होना है, और जो अहंकार के बाहर है वही परमात्मा में है--वस्तुतः वह परमात्मा ही है।
67. "मैं" से भागने की कोशिश मत करना। उससे भागना हो ही नहीं सकता, क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है। उससे भागना नहीं, वरन समग्र शक्ति से उसमें प्रवेश करना है।
स्वयं की अहंता में जो जितना गहरा जाता है, उतना हीर पाता है कि अहंता की तो कोई वास्तविकता सत्ता ही नहीं है।
68. परमात्मा का प्रमाण पूछते हो? क्या चेतना का अस्तित्व पर्याप्त प्रमाण नहीं है? क्या जल की बूंद ही समस्त सागरों को सिद्ध नहीं कर देती है?
69. यह मत कहो कि मैं प्रार्थना में था, क्योंकि उसका अर्थ है कि आप प्रार्थना के बाहर भी होते हो। जो प्रार्थना के बाहर भी होता है, वह प्रार्थना में नहीं हो सकता। प्रार्थना क्रिया नहीं है। प्रार्थना तो प्र्रेम की परिपूर्णता है।
70. जीवन की खोज में आत्म-तुष्टि से घातक और कुछ नहीं। जो स्वयं से संतुष्ट हैं, वे एक अर्थ में जीवित ही नहीं हैं। स्वयं से जो असंतुष्ट है वही सत्य की दिशा में गति करता है। स्मरण रखना कि आत्मा तुष्टि से निरंतर ही विद्रोह में होना धार्मिक होना है।
71. मृत्यु से घबड़ा कर तो तुमने कहीं ईश्वर का आविष्कार नहीं कर लिया है? भय पर आधारित ईश्वर से असत्य और कुछ भी नहीं है।
72. जो सदा वर्तमान में है, वही सत्य है। निकटतम जो है, वही अंतिम सत्य है। दूर को नहीं, निकट को जानो, क्योंकि जो निकट को ही नहीं जानता है, वह दूर को कैसे जानेगा? और जो निकट को जान लेता है, उसके लिए दूर शेष ही नहीं रह जाता है।
73. "मैं" कौन हूं?" पूछो--स्वयं से पूछो। "मैं कहां हूं?" खोजो--स्वयं में खोजो। जब तुम कहीं भी स्वयं को नहीं पा सकोगे तो जान जाओगे कि तुम कौन हो। मैं की अनुपलब्धि में ही "मैं" का रहस्य छिपा हुआ है।
74. सत्य यदि ज्ञात नहीं है, तो शास्त्र व्यर्थ हैं और यदि सत्य ज्ञात है तो भी शास्त्र व्यर्थ हैं।
75. सत्य की जिज्ञासा कर रहे हो और मन पर धूल इकट्ठी करते जाते हो? मन तो दर्पण की भांति है, उसे साफ करो और तुम पाओगे कि सत्य तो समक्ष है--और सदा से ही समक्ष है।
76. एक भ्रम को मिटाने को दूसरा भ्रम पैदा मत करो। एक स्वप्न तोड़ने को दूसरे स्वप्न में जाना उचित नहीं है। ईश्वर की कल्पना मत करो; सब कल्पनाएं छोड़ कर देखो। जो समक्ष पाओगे वही ईश्वर है।
77. मैं नदी में स्नान करने को जाता हूं तो वस्त्र तट पर छोड़ देने होते हैं। परमात्मा में स्नान करने की जिसकी अभीप्सा है, उसे भी अपने सारे वस्त्र तट पर ही छोड़ने होंगे--सारे वस्त्र, सारे ओढ़े हुए व्यक्तित्व। उस परम सागर में तो वे ही प्रवेश पाते हैं जो कि बिल्कुल ही नग्न हैं--जिनके पास छोड़ने को अब कुछ भी शेष नहीं रहा है। किंतु, धन्य हैं वे जो सब छोड़ सकते हैं, क्योंकि इस भांति वे वह पा लेते हैं जो कि सबके जोड़ से भी अधिक है।

(photocopy)
4 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 78 - 85
78. शास्त्र और सिद्धांत तो सूखे पत्तों की भांति हैं। स्वानुभूति की हरियाली न उनमें है, न हो सकती है। हरे पत्ते और जीवित फूल तो स्वयं के जीवन वृक्ष में ही लगते हैं।
79. मैं खोजता था तो मौन से बड़ा कोई शास्त्र नहीं पा सका। और सब शास्त्र खोजे तो पाया कि शास्त्र व्यर्थ हैं, और मौन ही सार्थक है।
80. कहां जा रहे हो? जिसे खोजते हो, वह दूर नहीं निकट है। और जो निकट है, उसे पाने को यात्रा यदि की तो उसके पास नहीं, उससे दूर ही निकल जाओगे। ठहरो और देखो। निकट को पाने के लिए ठहर कर देखना ही पर्याप्त है।
81. मुक्ति न तो प्रार्थना से पाई जाती है, न पूजा से, न धर्म सिद्धांतों में विश्वासों से। मुक्ति तो पाई जाती है अमूच्र्छित जीवन से। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म में अमूच्र्छित होना ही प्रार्थना है, पूजा है और साधना है।
82. उसे सोचो जिसे कि तुम सोच ही नहीं सकते हो और तुम सोचने के बाहर हो जाओगे। सोचने के बाहर हो जाना ही स्वयं में आ जाना हैं।
83. जीवन के विरोध में निर्वाण मत खोजो। वरन जीवन को ही निर्वाण बनाने में लग जाओ। जो जानते हैं, वे यही करते हैं। दो...जेन के प्यारे शब्द हैंः ‘मोक्ष के लिए कर्म मत करो, बल्कि समस्त कर्मों को ही मौका दो कि वे मुक्तिदायी बन जाएं।’ यह हो जाता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूं और जिस दिन यह संभव होता है उस दिन जीवन एक पूरे खिले हुए फूल की भांति सुंदर हो जाता है और सुवास से भर जाता है।
84. क्या तुम ध्यान करना चाहते हो? तो ध्यान रखना कि ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो, न पीछे कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविष्य को भी। स्मृति और कल्पना--दोनों को शून्य होने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा। उस क्षण जब कुछ भी नहीं होता है, तभी जानना कि तुम ध्यान में हो। महामृत्यु का यह क्षण ही नित्य जीवन का क्षण भी है।
85. ध्यान के लिए पूछते हो कि क्या करें? कुछ भी न करो...बस शांति से श्वास-प्रश्वास के प्रति जागो। होशपूर्वक श्वास पथ को देखो। श्वास के आने जाने के साक्षी रहो। यह कोई श्रमपूर्ण चेष्टा न हो वरन शांत और शिथिल--विश्रामपूर्ण बोध मात्र हो। और फिर तुम्हारे अनजाने ही, सहज और स्वाभाविक रूप से, एक अत्यंत प्रसादपूर्ण स्थिति में तुम्हारा प्रवेश होगा। इसका भी पता नहीं चलेगा कि कब तुम प्रविष्ट हो गए हो। अचानक ही तुम अनुभव करोगे कि तुम वहां हो जहां कि कभी नहीं थे।
5 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 86 - 91
86. मैं, जो सीखा था, उसे भूला, तब उसे पा सका जो कि अकेला ही सीखने योग्य है, लेकिन सीखा नहीं जा सकता है। क्या सत्य को पाने के लिए, सत्य के संबंध में जो सीखा है, उसे भूलने की तुम्हारी तैयारी है? यदि हां, तो आओ सत्य के द्वार तुम्हारे लिए खुले हुए हैं।
87. सत्य जाना तो जा सकता है लेकिन न तो समझा जा सकता है और न समझाया ही जा सकता है।
88. सत्य आकाश की भांति है--अनादि और अनंत और असीम। क्या आकाश में प्रवेश का कोई द्वार है? तब सत्य में भी कैसे हो सकता है। पर यदि हमारी आंखें ही बंद हों तो आकाश नहीं है और ऐसा ही सत्य के संबंध में भी है। आंखों का खुला होना ही द्वार है और आंखों का बंद होना ही द्वार का बंद होना है।
89. समाधि में क्या जाना जाता है, कुछ भी नहीं। जहां तक जानने को कुछ भी शेष है, वहां तक समाधि नहीं है। समाधि सत्ता के साथ एकता है--जानने जितनी दूरी भी वहां नहीं है!
90. संसार में संसार के न होकर रहना संन्यास है। पर बहुत बार संन्यास का अर्थ उन तीन बंदरों की भांति लगा लिया जाता है जो कि बुरे दृश्यों से बचने के लिए आंख बंद किय हैं, और बुरी ध्वनियों से बचने के लिए कान और बुरी वाणी से बचने के लिए मुख। बंदरों के लिए तो यह क्षम्य है लेकिन मनुष्यों के लिए अत्यंत हास्यास्पद। भय के कारण संसार से पलायन मुक्ति नहीं, वरन एक अत्यंत सूक्ष्म और गहरा बंधन है। संसार से भागना नहीं, स्वयं के प्रति जागना है। भागने में भय है, जागने में अभय की अपलब्धि। ज्ञान से प्राप्त अभय के अतिरिक्त और कुछ भी मुक्त नहीं करना है।
91. क्या निर्वाण और मोक्ष को भी चाहा जा सकता है? निर्वाण को चाहने से अधिक असंभव बात और कोई नहीं है क्योंकि जहां कोई चाह नहीं है, वहीं निर्वाण है। चाह ही अमुक्ति है तो मोक्ष कैसे चाहा जा सकता है? किंतु मोक्ष को चाहने वाले व्यक्ति भी हैं और तब स्वाभाविक ही है कि उनका तथाकथित संन्यास भी बंधन का एक रूप हो और संसार का ही एक अंग। निर्वाण तो उस समय सहज ही, अनचाहा ही, अनपेक्षित ही उपलब्ध होता है, जब कि चाह की व्यर्थता को उसके दुख स्वरूप और बंधन को उनके समस्त सूक्ष्म से सूक्ष्म रूपों में जान और पहचान लिया जाता है। चाह की व्यर्थ दौड़ के दर्शन होते ही वह दौड़ चली जाती है। उसका संपूर्ण ज्ञान ही उससे मुक्ति है। और तब जो शेष रह जाता है, वही निर्वाण है।
6 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 92 - 96
92. हम दुखी हैं। हमारा युग दुखी है। कारण क्या है? कारण है कि हम जानते तो बहुत हैं, लेकिन अनुभव कुछ भी नहीं करते हैं। मनुष्य में मस्तिष्क ही मस्तिकष्क रह गया है और हृदय विलीन हो गया है। जब कि वास्तविक ज्ञान मात्र जानने से नहीं, वरन अनुभव करने से प्राप्त होता है और वे आंखें जो कि जीवन पथ को आलोकित करती हैं। मस्तिष्क की नहीं, हृदय की होती हैं। हृदय अंधा हो तो जीवन में अंधकार बिल्कुल ही स्वाभाविक है।
93. बुद्धि में अर्थ हो सकता है, अनुभूति नहीं। अनुभूति तो प्राणों के प्राण हृदय में होती है। और अनुभूतिशून्य अर्थ मृत होता है। ऐसे मृत अर्थ और शब्द ही हमारे मस्तिष्कों में गूंज रहे हैं और उनके बोझ से हम पीड़ित हैं। वे हमें मुक्त नहीं करते हैं, वरन वे ही हमारे बंधन हैं। निर्भार और मुक्त होने के लिए तो हृदय की अनुभूति चाहिए। इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य का अर्थ और सत्य की व्याख्या मत खोजो। खोलो सत्य की अनुभूति और जीवन। सत्य में डूबो और स्मरण रखो कि जो अशेष भाव से सत्य में डूबते हैं वे ही असत्य से उबर पाते हैं। बुद्धि ऊपर तैराती है लेकिन हृदय तो पूरा ही डुबा देता है। बुद्धि नहीं, हृदय ही मार्ग है।
94. सत्य के अनुभव और सत्य के संबंध मे दिए गए वक्तव्यों में बहुत भेद है। वक्तव्य में हम वक्तव्य के बाहर होते हैं, लेकिन अनुभव में, अनुभव के भीतर और अनुभव से एक। इसीलिए जिन्हें अनुभव है, उन्हें वक्तव्य देना असंभव ही हो जाता है। वक्तव्य की संभावना अनुभव के अभाव की धोतक है। लोग मुझसे पूछते हैंः ‘सत्य क्या ह? ’ मौन रह जाने के सिवाय मैं और क्या कह सकता हूं?
95. ज्ञान, रहस्य की समाप्ति नहीं है। वस्तुतः, ज्ञान के साथ ही रहस्य का संपूर्ण उदघाटन होता है। और फिर तो सिर्फ रहस्य का संपूर्ण उदघाटन होता है। और फिर तो सिर्फ रहस्य ही रहस्य रह जाता है। ज्ञान है, रहस्य का बोध, रहस्य की स्वीकृति, रहस्य से मिलन, रहस्य के साथ आनंदमग्न जीवन, रहस्य से, रहस्य में और रहस्य के द्वारा। जहां स्व तो मिट जाता है और मात्र रहस्य ही रह जाता है, जानना कि परमात्मा की पवित्र भूमि में प्रवेश हो गया है। और यह भी जानना कि स्व के मिट जाने से बड़ा कोई रहस्य नहीं है, क्योंकि स्व तो मिट जाता है लेकिन साथ ही स्वयं की सत्ता अपनी परिपूर्ण गरिमा में प्रकट भी हो जाती है।
96. यह सत्य है कि मनुष्य अब पशु नहीं है, लेकिन क्या यह भी सत्य है कि मनुष्य मनुष्य हो गया है? पशु होना अतीत की घटना हो गई है पर मनुष्य होना अभी भविष्य की संभावना है। शायद हम मध्य में हैं और यही हमारी पीड़ा है, यही हमारा तनाव है, यही हमारा संताप है। जो प्रयास करते हैं और स्वयं के इस पीड़ा अस्तित्व से असंतुष्ट होते हैं, वे ही मनुष्य हो पाते हैं। मनुष्यता मिली हुई नहीं है, उसे हमें स्वयं ही स्वयं में जन्म देना होता है। लेकिन मनुष्य होने के लिए यह अतिआवश्यक है कि हम पशु न होने को ही मनुष्य होना न समझ लें, और जो हैं उससे तुष्ट न हो जावें। स्वयं से गहरा और तीव्र असंतोष ही विकास बनता है।
7 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 97 - 99
97. मैं तथाकथित शिक्षा से कितना पीड़ित हुआ हूं, कैसे बताऊं? सिखाया हुआ ज्ञान, विचार की शक्ति को तो नष्ट ही कर देता है। विचारों की भीड़ में विचार की शक्ति तो दब ही जाती है। स्मृति प्रशिक्षित हो जाती है और ज्ञान के स्त्रोत अपरिचित ही रह जाते। फिर यह प्रशिक्षित स्मृति ही ज्ञान का भ्रम देने लगती है। इस तथाकथित शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति को नये सिरे से ही विचार करना सीखना होता है। उसे फिर से अशिक्षित होना पड़ता है। यही मुझे भी करना पड़ा और यह कार्य अति कठिन था। वस्त्र उतार कर रखने जैसा नहीं, वरन स्वयं की चमड़ी उतार कर रखने जैसी कठिनाई थी। पर वह जरूरी था। उसके बिना कोई राह ही नहीं थी। अपने ही ढंग से जीवन को देखने के लिए आवश्यक था कि जो मैं सीखा हूं और सिखाया गया हूं, उसे भूल जाऊं। अपनी ही दृष्टि पाने के लिए दूसरों की दृष्टियां विस्मृत करनी आवश्यक थीं। स्वयं के विचार को पाने के लिए औरों के विचार से मुक्त होना जरूरी है। जिसे अपने पैरों से चलना सीखना हो, उसे दूसरे के कंधे का सहारा छोड़ ही देना चाहिए। स्वयं की आंख तभी खुलती हैं जब हम दूसरों की आंखों से देखना बंद कर देते हैं; और स्मरण रहे कि दूसरों की आंखों से देखने वाला व्यक्ति अंधे व्यक्ति अंधे व्यक्ति से भी ज्यादा अंधा होता है।
98. जीवन में जो भी गति है, जो भी विकास है, जो भी ऊंचाइयों का स्पर्श है, वह सब दुस्साहस से आता है। दुस्साहस का अर्थ है असुरक्षा को आमंत्रण, अपरिचित और अज्ञात से प्रेम, जोखिम का आनंद। खतरे उठाने की और खतरों से प्रेम करने की जिसकी तैयारी नहीं है, वह जीता है लेकिन जीवन को नहीं पाता है और सबसे बड़ा दुस्साहस क्या है? परमात्मा की दिशा से अधिक असुरिक्षत और कौन सी दिशा है? क्योंकि, परमात्मा से अधिक अपरिचित, अज्ञात और अज्ञेय क्या है? क्योंकि परमात्मा की खोज से बड़ा दांव, जुआ और जोखिम कौन सी है? इससे मैं कहता हूं कि दुस्साहस सबसे बड़ा धार्मिक गुण है। जिसमें दुस्साहस नहीं है, वह धर्म के लिए नहीं है, और धर्म उसके लिए नहीं है।
99. सत्यानुभूति न तो विचार है, न ही भावना। वह तो समस्त प्राणों का--तुम्हारी समस्त सत्ता का आंदोलित और स्पंदित हो उठना है। वह तुममें नहीं होती, वरन तुम ही उसमें होते हो। वह तो तुम्हारा स्वरूप है। वह अनुभव ही नहीं, स्वयं तुम ही हो। और मात्र तुम ही नहीं हो, तुमसे भी ज्यादा वह है क्योंकि उसमें सर्व की सत्ता भी समाहित है।
8R Naye Sanket (नये संकेत), chapters 100 - 102 (last sentence is incompleted)
100. क्या तुम इतने दरिद्र हो कि धर्म भी तुम्हारे पास नहीं? धन की दरिद्रता बहुत बड़ी बात नहीं है। असली दरिद्रता तो धर्म की दरिद्रता है। धन रहते भी लोग दरिद्र बने रहते हैं लेकिन जिसके पास धर्म की संपदा होती है, उसकी दरिद्रता सदा सदा के लिए नष्ट हो जाती है। मनुष्य के जीवन में--पूरी मनुष्यता के जीवन में भी सबसे बड़ी घटना उसकी आधिभौतिक सफलताएं या साम्राज्यों का निर्माण नहीं है, बल्कि उस संपदा की खोज और उपलब्धि है जो कि उसके ही भीतर छिपी है। उस संपदा को ही मैं धर्म कहता हूं। जो संपदा बाहर है, वह धन है और जो संपदा भीतर, है, वह धर्म है। धन को चुनने वाले अंततः दरिद्रता को, और धर्म को चुनने वाले अंततः वास्तविक धन को चुनने वाले सिद्ध होते हैं।
101. एक घर में गया था। वहां वीणा रखी थी। मैंने कहा मनुष्य का मन भी वीणा की भांति है। वह तो साधन है। उससे संगीत और विसंगीत दोनों ही पैदा हो सकते हैं। और जो भी हम उससे पैदा करेंगे, उसकी जिम्मेवारी हमारे अतिरिक्त और किसी पर नहीं होगी। अपने मन को संगीत का साधन बनाएं और सत्य का। उसे स्वतंत्र रखें और सच्चा। और अहंकार से मुक्त रखें क्योंकि अहंकार से अधिक विसंगीत पैदा पहुंचता है जो स्वयं के भीतर संगीतपूर्ण होता है। मात्र बुद्धिमान नहीं बल्कि समग्ररूपेण जिसका व्यक्तित्व संगीतपूर्ण है, वे ही सत्य के सर्वाधिक निकट पहुंचते हैं।
102. मैं तुम्हें मंत्रों को दुहराते देखता हूं, कंठस्थ शब्दों और शास्त्रों की पुनरुक्ति करते देखता हूं तो मेरा हृदय दया और सहानुभूति से भर जाता है। यह तुम क्या कर रहे हो? क्या अपने को भुलाने और विस्मरण करने और आत्म सम्मोहन के द्वारा निद्रा में जान को ही तुमने धर्म और साधना समझ लिया है? निश्चय ही मंत्रों का उच्चार और शब्दों का जप चित्त को सुखद निद्रा में सुलाने में समर्थ है लेकिन निद्रा को समाधि मत समझ लेना। मित्र, सुषुप्ति और समाधि में बहुत भेद है। आत्म सम्मोहन जनित सुषुप्ति में अनुभव भी घटित होते हैं लेकिन वे सब स्वप्नों से ज्यादा नहीं हैं और उन्हें हमारा मन ही प्रक्षिप्त करता है। फिर ये स्वप्न चाहे कितने ही सुखद और संतुष्टिदायी हों, सुख और संतोष के कारण वे सत्य नहीं हो जाते हंै। पर साधारणतः हम सत्य को नहीं, संतोष को ही खोजते हैं और इसलिए किसी भी भ्रम में हमारा उलझ जाना बहुत आसान है। संतोष को खोजने वाला मन किसी भी रूप से पैदा हुई मादकता से तृप्त हो सकता है...किसी भी भांति का आत्म-विस्मरण उसे तृप्ति दे सकता है। और तथाकथित मंत्र, जप और एकाग्रताओं के द्वारा आत्म-विस्मरण संभव हो जाता है। किसी भी भांति की सतत पुनरुक्ति चेतना को मूच्र्छित करती है। जब कि धर्म का संबंध मूच्र्छा से नहीं, अमूच्र्छा से है। आत्म विस्मरण


(Last sentence breaks, but printed version (ch.102 of Naye Sanket) has complete sentence.)

8V