Manuscripts ~ Phool Aur Phool Aur Phool, Bhag 1 (फूल और फूल और फूल, भाग 1)

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Flowers and Flowers and Flowers

year
1966
notes
26 sheets plus 3 written on reverse.
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
Sheets 1-7 have never been published.
Sheets 8-20 published as Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये) (new edition with 60 chapters), chapters: 45, 52 (last part), 46, 47, 49, 51, 59, 53 (first part), 15 (first part), 30 (last part).
Sheets 23-4 - 23-8 have been erroneously in Manuscripts ~ Messages.
The transcripts below (except sheets 1-7) are not true transcripts, but copies from Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये).
see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi transcript
1
फूल और फूल और फूल
(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)
संकलनः अरविंद
कथा नम्बर-1
मैं देखता हूं कि प्रभु का द्वार तो मनुष्य के अति निकट है लेकिन मनुष्य उससे बहुत दूर है। क्योंकि न तो वह उस द्वार की ओर देखता ही है और न ही उसे खटखटाता है।
और मैं देखता हूं कि आनंद का खजाना तो मनुष्य के पैरों के ही नीचे है लेकिन न तो वह उसे खोजता है और न ही खोदता है।
एक रात सुलतान महमूद घोड़े पर बैठकर अकेला सैर करने निकला था। राह में उसने देखा कि एक आदमी सिर झुकाए सोने के कणों के लिए मिट्टी छान रहा है। शायद उसकी खोज दिन भर से चल रही थी। क्योंकि उसके सामने छानी हुई मिट्टी का एक बड़ा ढेर लगा हुआ था। और शायद उसकी खोज निष्फल ही रही थी। क्योंकि यदि वह सफल हो गया होता तो आधी रात गए भी अपना कार्य नहीं जारी न रखता। सुलतान क्षणभर उसे अपने कार्य में डूबा हुआ देखता रहा और फिर अपना स्वर्णिम बहुमूल्य बाजूबंद मिट्टी के ढेर पर फेंक कर वायु वेग से आगे बढ़ गया।
अगली रात वह फिर उसी राह से निकला तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि वह आदमी अब भी उसी तरह मिट्टी छानने में मशगूल है। उसने उस आदमी से कहाः ‘पागल, कल तुझे जो बाजूबंद मिला, वह तो पूरी एक दुनिया खरीदने के लिए काफी है। फिर भी तू मिट्टी छानना बंद नहीं करता है?’
वह आदमी उत्तर में हंसा और बोलाः ‘आह! इसीलिए तो अब जीवन भर खोज जारी रखनी पड़ेगी। कल ऐसी बढ़िया चीज मिली, इसीलिए तो अब अथक खोजना आवश्यक हो गया है।’
मैं कहता हूं कि जो उसी आदमी की भांति सतत खोजना जारी रखता है, केवल वही और केवल वही परमात्मा के खजाने को उपलब्ध हो पाता है।
वह खजाना तो निकट है लेकिन मनुष्य खोदता ही नहीं है। वह द्वार तो सामने है लेकिन मनुष्य खोजता ही नहीं है।
2R
कथा नम्बर-2
जीवन बहुत उलझा हुआ है लेकिन अक्सर जो उसे सुलझाने में लगते हैं वे उसे और भी उलझा लेते हैं।
जीवन निश्चय ही बड़ी समस्या है लेकिन उसके लिए प्रस्तावित समाधान उसे और भी बड़ी समस्या बना देते हैं।
क्यों? लेकिन एसा क्यों होता है?
एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?'
निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता : ‘छः!’
और फिर कोई दूसरा कहता : ‘दो!’
लेकिन अध्यापक को चुप सिर हिलाते देखकर अंततः अंतिम संभावना को सोचकर अधिकतम विद्यार्थी चिल्लाते ‘आठ’। लेकिन अध्यापक तब भी अपना अस्वीकार सूचक सिर हिलाते ही जाते थे!
और तब सन्नाटा छा जाता था क्योंकि और कोई उत्तर तो हो ही नहीं सकता था!
फिर वे अध्यापक हंसते थे और कहते थे : ‘मित्रो, आप सभी ने अत्यंत आधारभूत प्रश्न ही नहीं पूछा तो हल कैसे संभव हो सकता है? आपने यही नहीं जानना चाहा कि वस्तुतः समस्या क्या है? और जो समस्या को सम्यक रूप से जाने बिना ही समाधान जानने मैं लग जाता है, निश्चय ही वह समाधान तो पाता ही नहीं है और उल्टे समस्या को और उलझा लेता है।’
क्या यह बात सत्य नहीं है कि समस्या को जाने बिना ही समाधान खोज और पकड़ लिए जाते हैं; जबकि समाधान नहीं, महत्वपूर्ण सदा समस्या ही है। क्योंकि अंततः तो समस्या को उसकी समग्रता में जान लेना ही समाधान बनता है।
और गणित में एसी भूल हो तो हो लेकिन क्या जीवन में भी ऐसा ही नहीं होता है?
क्या वास्तविक समस्या को जाने बिना ही जब हम समाधान के लिए श्रम करने लगते हैं तो सारा श्रम व्यर्थ ही नहीं, आत्मघाती भी सिद्ध नहीं होता है?
मित्र, समस्या को ही जो सही रूप में नहीं जानता है, वह यदि किसी अन्य ही प्रश्न को प्रश्न जानकर हल करता हो तो भी आश्चर्य नहीं है।
क्या आपको उस जहाज़ के बाबत कुछ भी पता नहीं है, जो कि डूब रहा था; और कुछ लोग उसे डूबने से बचाने के लिए उस पर पालिश कर रहे थे। मैं तो सोचता हूँ कि आपको उस जहाज़ के संबंध में ज़रूर ही पता होगा, क्योंकि मैं तो आपको भी उस पर ही सवार देखता हूँ; और न केवल सवार ही देखता हूँ बल्कि यह भी देखता हूँ कि जहाज़ डूब रहा है और आप उसे बचाने के लिए उस पर पालिश करने में लगे हैं!
मित्र, वह जहाज़ जीवन का ही जहाज़ तो है।
2V
3
कथा नम्बर-3
एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।
एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही : ‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं। फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़ लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’
उस नर्स ने कहा : ‘इतने अधीर मत होइए। वह पंखे से नीचे उतर जाये, तब तो बताऊं?'
वह व्यक्ति बोला : ‘हे भगवान! क्या वह बंदर है?' और फिर थोड़ी देर तक वह चुप रहा और पुनः बोला : ‘नयी पीढ़ी का कोई भरोसा नहीं है। लेकिन यह तो हद हो गई कि आदमी से और बंदर पैदा हो?'
उसने यह सब तो कहा लेकिन एक बार भी यह नहीं सोचा कि यह नयी पीढ़ी आकस्मिक नहीं है और बंदर की ग्रंथियाँ स्वयं उसके शरीर में ही लगी हुई हैं जिनका कि यह स्वाभाविक परिणाम है।
लेकिन पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को दोष देती है और नयी पीढ़ी फिर और नयी पीढ़ी को दोष देती है, और एसे वे ग्रंथियाँ सुरक्षित रही आतीं हैं जो कि मनुष्य की सारी विकृतियों के मूल में हैं। और यह क्रम सदा से चलता चला आ रहा है। पुरानी से पुरानी किताबें यही कहतीं हैं कि नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गई है। लेकिन जब तक यह बात कही जाती रहेगी तब तक नई पीढ़ियाँ बिगड़ती ही रहेंगी।
हाँ, किसी दिन जब कोई पीढ़ी इतनी समर्थ और साहसी और समझदार होगी कि कह सके कि ‘हमारी पीढ़ी ही रुग्ण और बीमार है’ तो शायद वह स्वयं की उन ग्रंथियों को खोज सके जो कि दुर्भाग्य की काली छाया की भाँति मनुष्य का पीछा कर रही हैं। और एक बार उन ग्रंथियों की खोज हो सके तो उनसे मुक्त होना कठिन नहीं है। वस्तुतः तो उन्हें जान लेना ही उनसे मुक्त हो जाना है।
4
कथा नम्बर-4
प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है। ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।
और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।
एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने जीवन भर में भी नहीं देखा था।
उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या इस पत्थर को बेचोगे? मैं इसके दो पैसे दे सकता हूँ?'
वह चरवाहा बोला : ‘नहीं। पैसों की बात न करें। यह पत्थर मुझे बड़ा प्यारा है, मैं इसे पैसों में नहीं बेच सकूँगा। लेकिन, आपको पसंद आ गया है तो इसे आप ले लें। लेकिन एक वचन दे दें कि इसे सम्हालकर रखेंगे। यह पत्थर बड़ा प्यारा है!’
जौहरी ने हीरा रख लिया और अपने घोड़े की रफ़्तार तेज की कि कहीं उस चरवाहे का मन न बदल जाए और कहीं वह छोड़े गये दो पैसे न माँगने लगे! लेकिन जैसे ही उसने घोड़ा बढ़ाया की उसने देखा कि हीरा रो रहा है! उसने हीरे से पूछा : ‘मित्र रोते क्यों हो? मैं तो तुम्हारा पारखी हूँ? वह मूर्ख चरवाहा तो तुम्हें जानता ही न था।’
लेकिन यह सुन वह हीरा और भी ज़ोर से रोने लगा था और बोला था : ‘वह मेरे मूल्य को तो नहीं जानता था, लेकिन मुझे जानता था। वह ज्ञानी तो नहीं था। लेकिन प्रेमी था। और प्रेम जो जानता है, वह ज्ञान नहीं जान पाता है।’
5
कथा नम्बर-5
सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते हैं, इसलिए जागरूक निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है।
मैं आपको एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में ले चलता हूँ। कुछ विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हैं और एक वृद्ध वैज्ञानिक उन्हें कुछ समझा रहा है। वह कह रहा है : ‘सत्य के वैज्ञानिक अनुसंधान में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं- साहस और निरीक्षण। इन दो को सदा स्मरण रखें और प्रयोग के तौर पर देखें : मेरे हाथ में नमक के घोल से भरा हुआ एक गिलास है। में इसमें अपनी एक अंगुली डालकर फिर उसे अपनी जीभ से लगाऊँगा। और जैसा मैं करूँगा, वैसा ही आपमें से भी प्रत्येक को बाद में करना है।’
उस वृद्ध ने घोल में अंगुली डाली और जीभ से लगाई। फिर प्रत्येक विद्यार्थी ने भी वैसा ही किया। वह वृद्ध तो घोल चखकर भी हंसता रहा लेकिन विद्यार्थियों को लगा जैसे उल्टी हो जाएगी। लेकिन साहस करना ज़रूरी था, सो उन्होंने साहस किया और उस घोल में डुबाई हुई उंगली को जीभ पर रखा। जब सारे विद्यार्थी ऐसा कर चुके तो वह वृद्ध वैज्ञानिक खूब हँसने लगा फिर बोला : ‘मेरे बेटो, जहाँ तक साहस की बात है, मैं तुम्हें पूरे अंक देता हूँ लेकिन निरीक्षण के विषय में तुम सब असफल रहे। क्योंकि तुमने नहीं देखा कि मैंने जो उंगली घोल में डुबाई थी, वही जीभ से नहीं लगाई थी!’


6R
कथा नम्बर-6
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।
संत औगास्टिनस एक सुबह सागर तट पर था। सूर्य निकल रहा था और वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा था। अनेक रात्रियों के जागरण से उनकी आँखें थकी-मंदी थी। सत्य की खोज में वह करीब-करीब सब शांति खो चुका था। परमात्मा को पाने के विचार में ही दिवस और रात्रि कब बीत जाते थे, उसे पता ही नहीं पड़ता था। शास्त्र और शास्त्र, शब्द और शब्द, विचार और विचार- वह इनके ही बोझ के नीचे पूरी तरह दब गया था। लेकिन उस दिन सुबह सब कुछ बदल गया। उसका उस सुबह सागर तट पर घूमने आ जाना बड़ा सौभाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ। वह गया था तो विचारों के बोझ से दबा था और लौटा तो एकदम निर्भार था। उसने सागर के किनारे एक छोटे से बच्चे को खड़े देखा जो कि अपने हाथ में एक छोटी-सी प्याली लिए हुए था और अत्यंत चिंता और विचार में डूबा था। स्वभावतः उसने उस बच्चे से पूछा : ‘मेरे बेटे, तुम यहाँ क्या कर रहे हो और किस चिंता में डूबे हुए हो?'
उस बच्चे ने औगास्टिनस की तरफ देखा और कहा : ‘चिंतित तो आप भी हैं। क्षमा करें और पहले आप ही अपनी चिंता का कारण बताएँ? हो सकता है कि जो मेरी चिंता है, वही आपकी भी हो? लेकिन आपकी प्याली कहाँ है?'
औगास्टिनस तो कुछ समझा नहीं और प्याली की बात से उसे हँसी भी आ गई। प्रगटतः उसने कहा : ‘मैं सत्य की खोज में हूँ। और उसी के कारण चिंतित हूँ।’
वह बच्चा बोला; ‘मैं तो इस प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूँ, लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं है।’
औगास्टिनस ने यह सुना :‘में तो इस प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूं लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं है।’ और उसे अपनी बुद्धि की प्याली भी दिखाई पड़ गई और उसे सत्य का सागर भी दिखाई पड़ गया। वह हंसने लगा और उस बच्चे से बोला : ‘मित्र, हम दोनों ही बच्चे हैं क्योंकि केवल बच्चे ही सागर को प्याली में भरना चाहते हैं।’
औगास्टिनस तो लौट गया और भूल गया प्याली को और उस सागर को। लेकिन वह बच्चा अभी भी सागर किनारे अपनी प्याली लिये चिंतित खड़ा है। उसे पता ही नहीं है कि हाथ की प्याली ही तो सागर से दूरी है।
और एक ही बच्चा खड़ा हो तो कोई समझाये भी, पूरा सागर तट ही तो बच्चों से भरा है। वे अपनी-अपनी प्यालियां लिये हुए खड़े हैं, और रो रहे हैं कि सागर उनकी प्यालियों में नहीं समाता है। और कभी-कभी उस सागर तट पर इस बात पर भी संघर्ष हो जाता है कि किसकी प्याली बड़ी है और किसकी प्याली में सागर के समा जाने की सर्वाधिक संभावना है?
अब कौन उन्हें समझाये कि प्याली जितनी बड़ी हो, सागर के समाने की संभावना उतनी कम हो जाती है। क्योंकि बड़ी प्याली का अहंकार उसे छूटने ही नहीं देता है। और सागर तो उन्हें मिलता है जो प्याली को छोड़ने का साहस दिखा पाते हैं। हां, ऐसा भी कभी-कभी होता है कि उन थोड़े से लोगों में से भी कोई वहां पहुंच जाता है जिसने कि अपनी प्याली छोड़कर सागर को पा लिया है। लेकिन उस सागर तट के वासी ऐसे व्यक्तियों को बड़ी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। यह बात उन्हें बिल्कुल ही असंभव मालूम होती है कि बिना प्याली के भी कभी कोई सागर को पा सकता है?
6V
7
कथा नम्बर-7
मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है?
आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं।
पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं।
परमात्मा के मार्ग अनूठे हैं। और जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है। इसलिए तो गणित के नियम जीवन के समाधान में बिल्कुल ही व्यर्थ भी हुए देखे जाते हैं।
कंफ्यूसियस मरणशय्या पर थे। उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहा : ‘मेरे बेटो, ज़रा मेरे मुँह में झाँककर तो देखो कि जीभ है या नहीं?'
निश्चय ही शिष्य हैरान हुए होंगे उन्होंने देखा और कहा : ‘गुरुदेव, जीभ है!’
कंफ्यूसियस ने पूछा : ‘और दाँत?'
उन्होंने कहा : ‘दाँत तो एक भी नहीं है!’
कंफ्यूसियस ने पूछा : ‘कहाँ गये दाँत? जीभ का जन्म तो हुआ था पहले और दाँतों का बाद में? फिर कहाँ गये दाँत?'
वे शिष्य अब क्या कहते? वे चुप एक-दूसरे का मुँह देखने लगे तो कंफ्यूसियस ने कहा : ‘सुनो, जीभ है कोमल, इससे आज तक मौजूद है। दाँत थे क्रूर और कठोर, इसी से नष्ट हो गये हैं!’
कंफ्यूसियस की यह अंतिम शिक्षा थी।
लेकिन, मैं इसे जीवन की पहली शिक्षा बनाना चाहता हूँ।
8 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 45
यह विचारणीय नहीं है कि विचारों में धर्म है या नहीं। विचार नहीं, धर्म जब प्राण ही बनता है, तभी सार्थक है। विचारों में तो धर्म बहुत है। वह धर्म उबारता कहां है? वह तो डुबोता ही है। विचारों की नाव में क्या सागर की यात्रा पर कोई निकलता है? लेकिन सत्य के सागर में तो व्यक्ति विचारों की नाव को लेकर ही निकल जाते हैं। फिर यदि वे किनारों पर ही डूबते देखे जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं। विचारों की नाव से तो कागज की नाव भी कहीं दूर ले जा सकती है। वह भी कहीं ज्यादा वास्तविक है। विचार तो स्वप्न की भांति हैं, उन पर भरोसा उचित नहीं है।
धर्म विचार में ही हो, तो उससे ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है।
धर्म शास्त्रों में ही है, इसीलिए तो मृत है।
धर्म शब्दों में ही है, इसीलिए तो निष्क्रिय है।
धर्म संप्रदायों में ही है, इसीलिए तो धर्म धर्म ही नहीं है।
धर्म तो जीवन में हो, तभी जीवित बनता है। धर्म तो प्राणों के प्राण में हो, तभी सत्य बनता है। और जहां सत्य है, वहां शक्ति है, वहां गति है। जहां गति है, वहां जीवन है।
एक कैदी की मृत्यु हो गई थी। उसकी मृत देह के पास लोग इकट्ठे थे और रो नहीं, हंस रहे थे। यह देख मैं भी उस भीड में रुक गया था। बहुत बार उस कैदी ने सजाएं काटी थीं और शायद ही कोई जुर्म हो जो उसने न किया हो। उसके जीवन का अधिकांश कारागृहों में ही व्यतीत हुआ था। लेकिन आदमी वह बडे धार्मिक विचारों का था! धर्म की रक्षा के लिए, एक लट्ठ तो सदा ही उसके हाथों में रहता था। जब वह गालियां नहीं बकता था तो मूछों पर ताव देता हुआ राम-राम ही जपता रहता था। वह सदा कहा करता थाः ‘‘अनादर से मृत्यु भली!’’ यह उसका जीवन-सिद्धांत था। एक कागज में धार्मिक विधि से लिखवा कर उसने अपने इस मंत्र को ताबीज में बंद करवा कर भुजा में बांध रखा था। फिर जब उसे इतने से ही तृप्ति न हुई तो अंतिम बार जब वह कारागृह से छूटा तो उसने वे शब्द अपनी दोनों भुजाओं पर गुदवा भी लिए थे। रामनाम तो उसके शरीर में अनेक जगह गुदा ही हुआ था! उसका मृत शरीर सुबह की धूप में पडा था। उसका जीवन उसके जीवन की और उसकी दोनों बाहें उसके जीवन-दर्शन की घोषणा कर रही थीं! और तभी मैं समझ सका कि लोग रो क्यों नहीं रहे थे, और हंस क्यों रहे थे।
धर्म के नाम पर मनुष्य की जो स्थिति है, वह भी ठीक ऐसी ही है।
मैं आपसे यह जरूर पूछना चाहता हूं कि उस स्थिति पर रोना उचित है या कि हंसना उचित है?
9
23-6 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), the last part of chapter 52 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
हो गये हैं | इसमें ज़्यादा अशोभन और अधार्मिक क्या हो सकता है ? लेकिन प्रचार की महिमा अपार है और सतत प्रचार से निपट असत्य भी सत्य बन जाते हैं ! फिर जो पुजारी-पुरोहित स्वयं शोषण में हैं, वे यदि शोषण की व्यवस्था के समर्थक हों तो आश्चर्य ही कैसा ? धर्मों में समाज की शोषण व्यवस्था के लिए भी सुदृढ़ स्तंभों का काम किया है | काल्पनिक सीधहांतों का जाल बुनकर उन्होंने शोषकों को पुण्यत्मा और शोषितों को पापी सिद्धा किया है | शोषितों को समझाया गया है कि यह उनके दुष्कर्मों का फल है ! सच ही धर्मों ने लोगों को खूब अफ़ीम खिलाई है !
एक अछूत वृद्ध ने सभा के अंत में मुझसे पूछा था : " क्या में मंदिरों में आ सकता हूँ ? "
मैने कहा : " मंदिरों में ? लेकिन किसलिए ? परमात्मा तो स्वयं ही पुरोहितों के मंदिरों में कभी नहीं जाता है ! "
प्रकृति के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई मंदिर नहीं है | शेष सब मंदिर और मस्जिद पुरोहितों की ईजाद हैं | परमात्मा से उन मंदिरों का दूर का भी संबंध नहीं | परमात्मा और पुरोहितों में कभी बोल-चाल ही नहीं रहा ! मंदिर पुरोहितों की और पुरोहित शैतान की सृष्टि हैं | वे शैतान के शिष्य हैं | इस कारण ही उनके शास्त्र और संप्रदाय मनुष्य को मनुष्य से लड़ाने के केंद्र रहे हैं | उन्होंने बातें तो प्रेम की कि हैं, और जहर घृणा का फैलाया है | असल में जहर शक्कर चढ़ी गोलियों में देना ही आसान होता है | फिर भी मनुष्य पुरोहितों से सावधान नहीं है | और जब भी उसे परमात्मा का स्मरण आता है, वह पुरोहितों के चक्कर में पड़ जाता है | मनुष्य के परमात्मा से संबंध क्षीण होने का आधारभूत कारण यही है | पुरोहित सदा से ही परमात्मा की हत्या करने में संलग्न रहे हैं | उनके अतिरिक्त परमात्मा का हत्यारा और कोई भी नहीं है | परमात्मा को चुनना है, तो पुजारी को नहीं चुना जा सकता है | उन दोनों की पूजा एक ही साथ नहीं की जा सकती | पुजारी जैसे ही मंदिर में प्रवेश करता है, वैसे ही परमात्मा मंदिर से बाहर हो जाता है | परमात्मा से नाता जोड़ने के लिए, पुरोहित से मुक्त होना आवश्यक है | भक्त और भगवान के बीच वही बाधा है | प्रेम किसी को भी बीच में पसंद नहीं करता है। एक भोर की बात है।
एक भोर की बात है। अभी अंधेरा ही था। जैसे ही मंदिर के द्वार खुले कि एक अछूत मंदिर की सी.िढयां चढ़ कर द्वार पर पहुंच गया। वह द्वार के भीतर पैर रखने को ही था कि पुजारी क्रोध से गरजाः ‘‘रुक, रुक, पामर! एक पग भी आगे ब.ढाया तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा। मूढ़! परमात्मा के मंदिर की पवित्र सी.िढयां तूने अपवित्र कर दी हैं।’’ सहमे हुए अछूत ने उठा हुआ पैर वापस ले लिया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। परमात्मा के लिए उसके प्यासे हृदय में जैसे किसी ने छुरी भोंक दी थी। वह रोता हुआ बोलाः ‘‘हे परमात्मा, मेरा ऐसा कौन सा पाप है, जिसके कारण तेरे दर्शन मुझे नहीं हो सकते हैं? ’’ परमात्मा की ओर से पुजारी ने कहाः ‘‘तू जन्म से अशुद्ध है, पाप-भंडार है।’’ उस अछूत ने प्रार्थना कीः ‘‘फिर मैं शुद्धि के लिए साधना करूंगा, लेकिन प्रभु-दर्शन के बिना नहीं मरना चाहता हूं।’’ और फिर वर्षों तक उस अछूत का कोई पता न चला। वह न मालूम कहां चला गया था। लोग उसे भूल ही गए थे और तब अचानक एक दिन वह गांव में आया। गांव के प्रवेश-द्वार पर ही वह देवालय था। पुजारी ने उसे देवालय के पास से जाते देखा। एक अपूर्व तेज उसके चेहरे पर था। एक अपूर्व शांति उसकी आंखों में थी। उसके आसपास भी जैसे प्रकाश का एक मंडल था। लेकिन उसने देवालय की ओर आंख भी उठा कर नहीं देखा। वह उस ओर से बिल्कुल निरपेक्ष और असंग दीख रहा था। लेकिन पुजारी से न रहा गया। उसने उसे पुकारा और पूछाः ‘‘क्यों रे! क्या शुद्धि की साधना पूरी कर ली? ’’ वह अछूत इस पर हंसा और उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। पुजारी ने पूछाः ‘‘फिर मंदिर में क्यों नहीं आता? ’’ वह अछूत बोलाः ‘‘महाराज, क्या करूं आकर? प्रभु ने दर्शन दिए तो कहाः मेरी खोज में मंदिर क्यों गया था? वहां कुछ भी नहीं है। मैं तो स्वयं ही कभी उन मंदिरों में नहीं गया हूं। और जाऊं भी तो क्या पुजारी मुझे वहां घुसने दे सकते हैं? ’’
10
11 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 46
जीवन क्या है?
एक पवित्र यज्ञ। लेकिन उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए स्वयं की आहुति देने को तैयार होते हैं।
जीवन क्या है?
एक अमूल्य अवसर। लेकिन उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं।
जीवन क्या है?
एक वरदान देती चुनौती। लेकिन उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं, और उसका सामना करते हैं।
जीवन क्या है?
एक महान सषंर्घ। लेकिन उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं।
जीवन क्या है?
एक भव्य जागरण। लेकिन उन्हीं के लिए जो स्वयं की निद्रा और मूच्र्छा से लडते हैं।
जीवन क्या है?
एक दिव्य गीत। लेकिन उन्हीं के लिए जिन्होंने स्वयं को परमात्मा का वाद्य बना लिया है।
अन्यथा, जीवन एक लंबी और धीमी मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
जीवन वही हो जाता है, जो हम जीवन के साथ करते हैं।
जीवन मिलता नहीं, जीता जाता है।
जीवन स्वयं के द्वारा स्वयं का सतत सृजन है। वह नियति नहीं, निर्माण है।
एक विधिवेत्ता ने अपनी अति लंबी और उबानेवाली जिरह के मध्य में क्रोध से न्यायाधीश को कहाः ‘‘महानुभाव, जूरी सोए हुए हैं!’’ न्यायाधीश ने कहाः ‘‘मित्र, आपने ही उन्हें सुला दिया है। कृपा करके कुछ ऐसा कीजिए कि वे जाग सकें। मैं भी बीच में कई बार सोते-सोते बचा हूं।’’
जीवन सोया हुआ अनुभव हो तो जानना चाहिए कि हमने कुछ किया है, जिससे वह सो गया है। जीवन दुख प्रतीत हो तो जानना चाहिए कि हमने कुछ किया है, जिससे वह दुख हो गया है। जीवन तो हमारी ही प्रतिध्वनि है। वह तो हमारा ही प्रतिफलन है।
12 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 47
वर्षा की अंधेरी रात्रि है। आकाश में बादल घिरे हैं। बीच-बीच में बिजली तेजी से कडकती और चमकती है। एक युवक उसकी चमक के प्रकाश में ही अपना मार्ग खोज रहा था। अंततः वह उस झोपडी के द्वार पर पहुंच ही गया, जहां एक अत्यंत वृद्ध फकीर पूरे जीवन से रह रहा है। वह वृद्ध उस झोपडी को छोड कर कभी भी कहीं नहीं गया था। जब उससे कोई पूछता था कि क्या आपने संसार बिल्कुल ही नहीं देखा है, तो वह कहता थाः ‘‘देखा है, खूब देखा है। स्वयं में ही क्या सारा संसार नहीं है? ’’
मैं भी उस वृद्ध को जानता हूं। वह मेरे भीतर बैठा हुआ है। सच में ही उसने कभी अपना आवास नहीं छोडा है। वह वहीं है और वही है, जहां सदा से है और जो है!
और मैं उस युवक को भी भलीभांति जानता हूं, क्योंकि मैं ही तो वह युवक भी हूं!
वह युवक थोडी देर सी.िढयों पर खडा रहा। फिर उसने डरते-डरते द्वार पर दस्तक दी। भीतर से आवाज आईः ‘‘कौन है? क्या खोजता है? ’’
वह युवक बोलाः ‘‘यह तो ज्ञात नहीं कि मैं कौन हूं? हां, वर्षों से आनंद की तलाश में जरूर भटक रहा हूं। आनंद को खोजता हूं और वही खोज आपके द्वार पर ले आई है।’’ भीतर से हंसी की आवाज आई और कहा गयाः ‘‘जो स्वयं को ही नहीं जानता, वह आनंद को कैसे पा सकता है? उस खोज में दीये के तले अंधेरा नहीं चल सकता। लेकिन यह जानना भी बहुत जानना है कि मैं स्वयं को नहीं जानता हूं, और इसीलिए मैं द्वार खोलता हूं, लेकिन स्मरण रहे कि दूसरे का द्वार खुलने से वस्तुतः कोई द्वार नहीं खुलता है!’’
फिर द्वार खुले। बिजली की कौंध में युवक ने वृद्ध फकीर को सामने खडा देखा। उसका सौंदर्य अपूर्व है। लेकिन वह बिल्कुल नग्न है। वस्तुतः सौंदर्य सदा ही निर्वस्त्र है। वस्त्र वहीं है, जहां कुरूपता है। युवक उसके चरणों में बैठ गया। उसने वृद्ध के चरणों पर सिर रख कर पूछाः ‘‘आनंद क्या है? आनंद कहां है? ’’
यह सुन वह वृद्ध पुनः हंसने लगा और बोलाः ‘‘मेरे प्रिय! आनंद अशरणता में है। अशरण होते ही आनंद की बाढ़ आ जाती है। मेरे चरण छोड दो, सबके चरण छोड दो। आनंद को किसी की शरण में खोजते हो, यही भूल है। बाहर खोजते हो, यही भूल है। वस्तुतः उसे खोजते हो, यही भूल है। जो बाहर है, उसे खोजा जा सकता है। जो स्वयं में है, उसे कैसे खोजोगे? सब खोज छोडो और देखो! वह तो सदा से ही स्वयं में मौजूद है!’’
फिर उस वृद्ध ने अपनी झोली में से दो फल निकाले और बोलाः ‘‘मैं ये दो फल तुम्हें देता हूं। ये बडे अदभुत फल हैं। पहले को खा लो तो तुम समझ सकते हो कि आनंद क्या है और दूसरे को खा लो तो तुम स्वयं ही आनंद हो सकते हो। लेकिन एक ही फल खा सकते हो। क्योंकि एक के खाते ही दूसरा विलीन हो जाता है। और स्मरण रहे कि दूसरा फल खाने पर आनंद क्या है, यह नहीं जाना जा सकता है। अब चुनाव तुम्हारे हाथ में है! बोलो, क्या चुनना है?’’
वह युवक थोडी देर झिझका, फिर बोलाः ‘‘मैं आनंद को पहले जानना चाहता हूं, क्योंकि जाने बिना उसे पाया ही कैसे जा सकता है? ’’
वह वृद्ध फकीर फिर हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं देखता हूं कि क्यों तुम्हारी भटकन इतनी लंबी हो गई है। ऐसे तो वर्षों नहीं, जन्मों के बाद भी आनंद नहीं पाया जा सकता। क्योंकि आनंद के ज्ञान की खोज आनंद की अभीप्सा ही नहीं है। आनंद का ज्ञान और आनंदानुभूति तो विरोधी धु्रव हैं। आनंद का ज्ञान, आनंद नहीं है। उलटे वही तो दुख है। आनंद को जानना और स्वयं आनंद न होना, यही तो दुख है। इसीलिए तो मनुष्य पौधों और पशु-पक्षियों से भी कहीं ज्यादा दुखी है। लेकिन अज्ञान भी आनंद नहीं है। वह केवल दुख के प्रति मूच्र्छा है। आनंद तो है ज्ञान और अज्ञान दोनों के अतिक्रमण में। अज्ञान है, दुख के प्रति मूच्र्छा। ज्ञान है, दुख के प्रति बोध। आनंद है, ज्ञान और अज्ञान दोनों से मुक्ति। ज्ञान और अज्ञान, दोनों के अतिक्रमण का अर्थ हैः मन से ही मुक्ति। और मन से मुक्त होते ही व्यक्ति स्वयं में आ जाता है। वह स्वरूप-प्रतिष्ठा ही आनंद है। वही मोक्ष है। वही परमात्मा है।’’
13
14 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 49
एक सम्राट आकंठ चिंता में डूबा हुआ था। चिंताएं जब डुबाती हैं तो पूरा ही डुबाती हैं। क्योंकि एक चिंता जिस मार्ग से भीतर प्रवेश करती है, उसी मार्ग से और चिंताएं भी प्रविष्ट हो जाती हैं। जो एक को मार्ग देता है, वह अनजाने ही अनेक को मार्ग दे देता है। इसीलिए चिंताएं सदा भीड में आती हैं। अकेली एक चिंता से मिलन कभी भी किसी का नहीं होता है।
यह आश्चर्यजनक है कि सम्राट अक्सर ही चिंता में डूबे रहते हैं, हालांकि वस्तुतः सम्राट तो केवल वे ही हैं जो चिंता से मुक्त हो गए हैं। चिंता की दासता इतनी बडी है कि एक साम्राज्य की शक्ति भी उसे पोंछ नहीं पाती। शायद इसी कारण साम्राज्यों की शक्ति भी चिंता की सेवा में ही सन्नद्ध हो जाती है
मनुष्य सम्राट होना चाहता है, शक्ति और स्वतंत्रता के लिए, किंतु अंत में पाता है कि सम्राट से ज्यादा अशक्त, परतंत्र और पराजित व्यक्ति कोई दूसरा नहीं है। क्योंकि दूसरों को दास बनाने वाला व्यक्ति अंततः स्वयं ही दासों का दास हो जाता है। हम जिसे बांधते हैं उससे हम स्वयं भी बंध जाते हैं। स्वतंत्रता के लिए दूसरों की दासता से ही मुक्ति नहीं, दूसरों को दास बनाने की वृत्ति से भी मुक्ति आवश्यक है।
वह सम्राट भी ऐसे ही बंध गया था। जीतने तो वह स्वर्ग को निकला था, लेकिन जीत कर पाया था कि नरक के सिंहासन पर बैठ गया है। अहंकार जो भी जीतता है, वह अंततः नरक ही सिद्ध होता है। अहंकार स्वर्ग को तो जीत ही नहीं सकता, क्योंकि स्वर्ग तो वहीं है, जहां अहंकार नहीं है। अब इस स्वयं जीते हुए नरक से वह मुक्त होना चाहता था। लेकिन स्वर्ग को पाना कठिन, खोना सरल है। नरक को पाना सरल, खोना कठिन है। वह चिंताओं की लपटों से मुक्त होना चाहता था। कौन नहीं होना चाहता है? नरक के सिंहासन पर कौन बैठे रहना चाहता है? लेकिन जो भी सिंहासन पर बैठना चाहते हैं, उन्हें नरक के सिंहासन पर ही बैठना पडता है। और स्मरण रहे कि स्वर्ग में कोई सिंहासन नहीं है। नरक के सिंहासन ही दूर से स्वर्ग के सिंहासन दिखाई पडते हैं।
रात और दिन, सोते और जागते, वह सम्राट चिंताओं से लड रहा था। लेकिन एक हाथ से तो व्यक्ति चिंताओं को हटाता है, और हजारों हाथों से स्वयं ही उन्हें आमंत्रित भी करता रहता है। उस सम्राट को चिंताओं से भी छूटना था और चक्रवर्ती भी होना था। शायद वह सोचता था कि चक्रवर्ती सम्राट होकर ही वह चिंताओं से छूट सकेगा। मनुष्य की मूढ़ता ऐसे ही निष्कर्ष निकालती रहती है। इसीलिए उसे रोज नये राज्य चाहिए थे। संध्या का डूबता सूर्य उसकी साम्राज्य-सीमा को वहां न पावे, जहां उसने सुबह उगते समय पाया था। वह चांदी के सपने देखता और सोने की सांसें लेता था। जीवन के लिए तो ऐसे सपने और सांसें बहुत घातक हैं, क्योंकि चांदी के सपने प्राणों पर जंजीरें बन जाते हैं और सोने की सांसें आत्मा में जहर घोलने लगती हैं। और महत्वाकांक्षा की मदिरा से आई बेहोशी को तो बस मृत्यु ही तोड पाती है।
सम्राट के जीवन की दोपहरी बीत गई थी। जीवन-दिवस उतार पर था। मृत्यु अपने संदेश भेजने लगी थी। शक्ति रोज कम होती जाती थी और चिंताएं रोज बढ़ती जाती थीं। उसके प्राण बडे संकट में थे--मनुष्य युवावस्था में जो बोता है, बु.ढापे में उसकी ही फसल उसे काटनी पडती है। विष के बीज बोते समय नहीं, फसल काटते समय ही कष्ट देते हैं। बीज में ही जो इस दुख को देख लेते हैं, वे बोते ही नहीं हैं। बीज से तो मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन बोने पर फसल को भी काटना ही पडता है। उससे बचने का कोई भी उपाय नहीं है। वह सम्राट भी अपनी ही बोई फसलों के बीच में खडा था। उनसे बचने को वह आत्मघात तक का विचार करता था, लेकिन सम्राट होने का मोह और भविष्य में चक्रवर्ती सम्राट होने की आशा, वह भी नहीं करने देती थी। जीवन तो वह खो सकता था, खो ही दिया था, लेकिन सम्राट होना छोडना उसकी सामथ्र्य के बाहर की बात थी। वह वासना ही तो उसका जीवन थी। ऐसी वासनाएं ही, जो जीवन मालूम होती हैं, जीवन को नष्ट कर देती हैं।
एक दिन वह अपनी चिंताओं से पीछा छुडाने के लिए पर्वत के चरणों में स्थित हरियाली की ओर निकल गया था। लेकिन चिंता को छोड भागना तो चिता छोड कर भागने से भी कठिन है। स्वयं की चिता से निकल कर तो कोई भाग भी सकता है, लेकिन चिंता से नहीं, क्योंकि चिता बाहर और चिंता भीतर है। जो भीतर है, वह सदा साथ ही है। आप जहां हैं, वहीं वह है। स्वयं को आमूल परिवर्तित किए बिना उससे छुटकारा नहीं है। सम्राट जंगल में घोडे पर भागा चला जाता था। अचानक बांसुरी के स्वर उसे सुनाई पडे। स्वरों में कुछ था कि वह ठिठक गया और उस संगीत की दिशा में ही अपने घोडे को ले चला। एक पहाडी झरने के पास, वृक्षों की छाया तले, एक युवा चरवाहा बांसुरी बजा कर नाच रहा था। उसकी भेडें पास में ही विश्राम कर रही थीं। सम्राट ने उससे कहाः ‘‘तू तो ऐसा आनंदित है मानो तुझे कोई साम्राज्य मिल गया हो? ’’ वह युवक बोलाः ‘‘दुआ कर कि परमात्मा मुझे कोई साम्राज्य न दे, क्योंकि अभी तो मैं सम्राट हूं, लेकिन साम्राज्य मिलने से कोई भी सम्राट नहीं रह जाता है।’’ सम्राट हैरान हुआ और उससे पूछाः ‘‘जरा सुनूं तो कि तेरे पास क्या है, जिससे तू सम्राट है।’’ वह युवक बोलाः ‘‘संपत्ति से नहीं, स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट होता है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, सिवाय स्वयं के। मेरे पास मैं हूं, और इससे बडी और कोई संपदा नहीं है। और फिर मैं सोच ही नहीं पाता हूं कि मेरे पास क्या नहीं है, जो सम्राट के पास है? सौंदर्य को देखने के लिए मेरे पास आंखें हैं। प्रेम करने के लिए मेरे पास हृदय है, और प्रार्थना में प्रवेश करने की क्षमता है। सूरज जितनी रोशनी मुझे देता है, उससे ज्यादा सम्राट को नहीं देता और चांद जितनी चांदनी मुझ पर बरसाता है, उससे ज्यादा सम्राट पर नहीं बरसाता है। खूबसूरत फूल जितने सम्राट के लिए खिलते हैं, उतने ही मेरे लिए भी खिलते हैं। सम्राट पेट भर खाता और तन भर पहनता है। मैं भी वही करता हूं। फिर सम्राट के पास क्या है, जो मेरे पास नहीं है? शायद, साम्राज्य की चिंताएं--लेकिन उनसे परमात्मा बचाए, क्योंकि चिंता से तो चिता बेहतर है। हां, बहुत-कुछ मेरे पास जरूर है जो सम्राट के पास नहीं है; मेरी स्वतंत्रता, मेरी आत्मा, मेरा आनंद, मेरा नृत्य, मेरा संगीत। मैं जो हूं, उससे आनंदित हूं और इसलिए मैं सम्राट हूं।’’
सम्राट ने उस युवक की बातें सुनीं और बोलाः ‘‘प्यारे युवक! तू ठीक कहता है। जा, अपने गांव में सबसे कह दे कि सम्राट भी यही कह रहा था!’’
14 (2)
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16R Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 51
एक व्यक्ति ने कनफ्यूशियस से जाकर कहाः ‘‘मैं बहुत थक गया हूं। अब विश्रांति चाहता हूं। क्या कोई मार्ग है? ’’ कनफ्यूशियस ने उससे कहाः ‘‘जीवन और विश्रांति विरोधी शब्द हैं। जीवन चाहते हो तो विश्रांति मत चाहो। विश्रांति तो मृत्यु है।’’ उस व्यक्ति के माथे पर चिंता की रेखाएं सिमट आईं और उसने पूछाः ‘‘तो क्या मुझे विश्रांति कभी मिलेगी ही नहीं? ’’ कनफ्यूशियस ने कहाः ‘‘मिलेगी, अवश्य मिलेगी।’’ उसने सामने फैले कब्रगाह की ओर संकेत करके कहाः ‘‘इन कब्रों को देखो। इन्हीं में विश्रांति है। इन्हीं में शांति है।’’
मैं कनफ्यूशियस से सहमत नहीं हूं। जीवन और मृत्यु भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जो है, वे उसकी ही आती-जाती श्वासों की भांति हैं। जीवन न तो मात्र कर्म है, और न मृत्यु ही मात्र विश्रांति। वस्तुतः जो जीवन में ही विश्रांति में नहीं है, वह मृत्यु में भी शांति में नहीं हो सकता है। क्या दिवस की अशांति रात्रि की निद्रा को भी अशांत नहीं कर देती है? क्या जीवन भर की अशांति की प्रतिध्वनियां ही मृत्यु में भी पीडा नहीं देंगी? मृत्यु तो वैसी ही होगी, जैसा कि जीवन है। वह जीवन की विरोधी नहीं, वरन जीवन की ही पूर्णता है। जीवन में अकर्मण्यता न हो, यह तो ठीक है, क्योंकि वह तो जीते जी ही मुर्दा होना है। लेकिन जीवन मात्र कर्म ही हो, यह भी ठीक नहीं है। यह भी जीवन नहीं, जडता है--जड यांत्रिकता है। जीवन की परिधि पर कर्म हो और केंद्र में अकर्म, तभी जीवन की परिपूर्णता फलित होती है। बाहर कर्म, भीतर विश्रांति। बाहर गति, भीतर स्थिति। कर्मपूर्ण व्यक्तित्व जब शांत आत्मा से संयुक्त होता है तभी पूर्ण मनुष्य का जन्म होता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन तो शांत होता ही है, उसकी मृत्यु भी मोक्ष बन जाती है।
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17 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 59
मैं एक छोटे से गांव में अतिथि था। गांव तो छोटा था, लेकिन उसमें मंदिर भी था, मस्जिद भी थी। लोग बडे धार्मिक थे और सुबह होते ही अपने-अपने पूजागृहों में जाते थे। रात्रि में भी पूजागृह से लौट कर ही सोते थे। सदा धार्मिक उत्सव भी होते रहते थे। लेकिन, उस गांव का जीवन और गांवों जैसा ही था। धर्म और जीवन एक-दूसरे को छूते नहीं मालूम होते थे। जीवन का अपना रास्ता है और धर्म का अपना। दोनों समानांतर चलते हैं, इसलिए उनके कहीं मिलने का सवाल ही नहीं है। परिणाम में धर्म निष्प्राण हो जाता है और जीवन अधर्म। जो सारी पृथ्वी पर हुआ है, वही उस गांव में भी हुआ था। मैं एक-एक, दो-दो दिन गांव के सभी पूजागृहों में गया और परमात्मा के तथाकथित भक्तों और पुजारियों के हृदय में झांकने की चेष्टा की। उनकी आंखों में खोजा। उनकी प्रार्थनाओं में कुरेदा। उनसे बातें कीं। उनके जीवन में टटोला। उनका आना-जाना, उठना-बैठना देखा। उनमें से कुछ के घर भी गया। उनकी दुकानों पर भी बैठा। जागते में उन्हें समझा। निद्रा में भी उनकी बडबडाहट सुनी। उनके पडोसियों से उनके संबंध में पूछा। एक भगवान के भक्तों से दूसरे भगवान के भक्तों के संबंध में सुना। एक मंदिर के पुजारियों से दूसरे मंदिर के पुजारियों के बाबत में जानकारी ली। एक धर्म के पंडितों से दूसरे धर्म के पंडितों के संबंध में चर्चा की। ज्ञात हुआ कि धार्मिक दीखनेवाला वह गांव बिल्कुल ही अधार्मिक था। धर्म का आवरण था, अधर्म का जीवन था। अधर्म के जीवन के लिए ही धर्म के आवरण की जरूरत थी। क्या हत्यागृहों को छिपाने के लिए ही पूजागृह नहीं हैं? परमात्मा के पुजारियों को परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं था। परमात्मा को वे जरूर ही बचा कर रखना चाहते थे, क्योंकि परमात्मा पैसे लाता था। परमात्मा के भक्तों को भी परमात्मा से कोई प्रेम नहीं था। संसार की भय-भीतियों से वे परमात्मा में सुरक्षा खोज रहे थे, और संसार के प्रलोभनों में सहायक होने को वे उससे प्रार्थना कर रहे थे। जिनका यह जीवन बुझने को था, वे आगे के लिए उससे आश्वासन चाह रहे थे। सबका प्रेम सुख से था, भोग से था, संसार से था और इसलिए उनकी कोई भी प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं थी। अपनी प्रार्थनाओं में वे परमात्मा को छोड कर और सब-कुछ मांग रहे थे। वस्तुतः प्रार्थना में जब तक कोई मांग है, तब तक वह प्रार्थना परमात्मा के लिए है ही नहीं। प्रार्थना जब मांग से मुक्त होती है, तभी वह प्रार्थना बनती है। परमात्मा के लिए भी मांग हो, तो भी वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं रह जाती है। समस्त मांग से मुक्त होकर ही प्रार्थना परमात्मा से युक्त होती है। निश्चय ही ऐसी प्रार्थना स्तुति नहीं हो सकती है। स्तुति प्रार्थना नहीं, खुशामद है। स्तुति रिश्वत है। वह निम्न मन की अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही परमात्मा के प्रति धोखा भी है। और परमात्मा को धोखा देने से ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उस भांति मनुष्य स्वयं ही स्वयं के हाथों ठगा जाता है।
मित्र, प्रार्थना मांग नहीं है। वह प्रेम है। वह आत्मदान है।
प्रार्थना स्तुति नहीं है। वह तो कृतज्ञता की अत्यंत निगूढ़ भाव-दशा है। और जहां भाव की प्रगाढ़ता है, वहां शब्द कहां।
प्रार्थना वाणी नहीं, मौन है। वह शून्य में समर्पण है। वह शब्द नहीं, शून्य का संगीत है। ध्वनियां जहां समाप्त होती हैं, वहीं संगीत प्रारंभ होता है। प्रार्थना पूजा नहीं है, और न ही प्रार्थना के कोई पूजागृह हैं। उसका बाहर से कोई संबंध नहीं। पर से उसका कोई नाता ही नहीं। वह तो स्वयं का ही अंतरतम जागरण है।
प्रार्थना क्रिया नहीं, चेतना है। वह करना नहीं, होना है।
प्रार्थना के लिए तो बस प्रेम का आविर्भाव ही चाहिए। उसके लिए परमात्मा की कल्पना भी अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी है। जहां प्रार्थना है, वहां परमात्मा है। किंतु जहां परमात्मा की कल्पना है, वहां उस कल्पना के कारण ही परमात्मा उपस्थित होने में असमर्थ हो जाता है।
सत्य एक है। परमात्मा एक है। किंतु असत्य अनेक हैं, कल्पनाएं अनेक हैं, और इसलिए मंदिर अनेक हैं। इसीलिए तो मंदिर परमात्मा तक पहुंचने के लिए द्वार नहीं, दीवार ही बन जाते हैं।
प्रेम में ही जिसने परमात्मा का मंदिर नहीं पाया, उसे किसी भी मंदिर में परमात्मा नहीं मिल सकता है।
और प्रेम क्या है? क्या वह परमात्मा के प्रति आसक्ति है? आसक्ति प्रेम नहीं है। जहां आसक्ति है, वहां शोषण है। आसक्ति में दूसरा है साधन, साध्य है स्वयं। और प्रेम में तो वस्तुतः दूसरा है ही नहीं। किसी के प्रति का संबंध, अहं-संबंध है। और जहां अहंकार है, वहां परमात्मा कहां है? बस प्रेम है। वह किसी के प्रति नहीं है, वह तो बस है। प्रेम जहां किसी के प्रति है, वहां वह मोह है, आसक्ति है, वासना है। प्रेम जब बस है, तब वह वासना नहीं, प्रार्थना है। वासना सागर की ओर बहती नदियों की भांति है। प्रेम सागर की भांति है। वह किसी के प्रति बहाव नहीं है। वह तो स्वयं है। वह किसी के प्रति आकर्षण नहीं, वरन स्वयं में ही होना है, और सागर की भांति प्रेम ही प्रार्थना है। वासना बहाव है, खिंचाव है, तनाव है। प्रार्थना स्थिति है। प्रार्थना स्वयं में विश्रांति है।
प्रेम अपनी पूर्णता में अकारण, अलक्ष्य और अप्रेरित स्फुरण है।
मैं ऐसे ही प्रेम को प्रार्थना कहता हूं।
अन्यथा, हमारी सब प्रार्थनाएं असत्य हैं, आत्मवंचनाएं हैं।
एक कारागृह में फांसी की सजा हुए किसी बंदी का आगमन हुआ था। शीघ्र ही उसकी प्रभु-भक्ति से सारा बंदीगृह गूंज उठा था। भोर के पूर्व ही उसकी पूजा और प्रार्थना प्रारंभ हो जाती थी। प्रभु के प्रति उसका प्रेम असीम था। प्रार्थना के साथ ही साथ उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहती रहती थी। प्रभु-प्रेम से उपजे विरह की हार्दिकता तो उसके गीतों के शब्द-शब्द में थी। वह भगवान का भक्त था और बंदीजन उसके भक्त हो गए थे। कारागृह-अधिपति और अन्य अधिकारी भी उसका समादर करने लगे थे। उसके प्रभु-स्मरण का क्रम तो करीब-करीब अहर्निश ही चलता था। उठते-बैठते-चलते भी उसके ओंठ राम का नाम लेते रहते थे। हाथ में माला के गुरिए घूमते रहते थे। उसकी चादर पर भी राम ही राम लिखा हुआ था। कारागृह-अधिपति जब भी निरीक्षण को आते थे, तभी उसे साधना में लीन पाते थे। लेकिन एक दिन जब वे आए तो उन्होंने पाया कि काफी दिन चढ़ आया है और वह बंदी निशिं्चत सोया हुआ है। उसकी राम-नाम की चादर और माला भी उपेक्षित सी एक कोने में पडी है। अधिपति ने सोचा शायद स्वास्थ्य ठीक नहीं है। किंतु अन्य बंदियों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि स्वास्थ्य तो ठीक है, लेकिन प्रभु-स्मरण कल संध्या से ही न मालूम क्यों बंद है। अधिपति ने कैदी को उठाया और पूछाः ‘‘देर हुई, ब्रह्ममुहूर्त निकल गया है। क्या आज भोर की पूजा-प्रार्थना नहीं करनी है? ’’ वह बंदी बोलाः ‘‘पूजा-प्रार्थना? अब कैसी पूजा और कैसी प्रार्थना? घर से कल ही पत्र मिला है कि फांसी की सजा सात वर्ष के कारावास में परिणत हो गई है। भगवान से जो काम कराना चाहता था, वह पूरा हो गया है। उस बेचारे को अब व्यर्थ ही और तकलीफ देनी उचित नहीं है।’’
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20 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), first part of chapter 53
एक करोडपति ने बहुत से मंदिर बनवाए हैं। मेरे परिचित हैं और बडी आशा से उन्होंने धर्मों में पूंजी लगाई है। बडे कुशल व्यवसायी हैं और एक के दस कमाने के अभ्यस्त हैं। धर्म के धंधे में भी वे किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। असल में पीछे रहने की उन्हें आदत ही नहीं। धन में पीछे नहीं रहे, तो धर्म में पीछे कैसे रहें? इस लोक में तो आगे और ऊपर हैं ही, परलोक की व्यवस्था भी कर ली है। स्वर्ग निश्चित है, इसीलिए वे भी निशिं्चत हैं। धन से धरती ही नहीं, स्वर्ग भी खरीदा जाता है। इसीलिए ही तो धन की इतनी महिमा है। धन धर्म से भी ऊपर है। क्योंकि धर्म से धन तो नहीं, लेकिन धन से धर्म जरूर ही खरीदा जा सकता है। और जब धन से धर्म मिल सकता है, तो अधर्म से धन इकट्ठा करने का भय भी मिट जाता है। वैसे बिना अधर्म के धन इकट्ठा ही नहीं होता है। धन मूलतः चोरी है। धन शोषित रक्त ही है। लेकिन धर्म की गंगा में सब पाप धुल जाते हैं। धर्म की गंगा वहीं बहने लगती है, जहां धन के भगीरथ इशारा करते हैं। इस भांति धर्म ही अधर्म का आधार बन जाता है। लेकिन धर्म अधर्म का आधार कैसे बन सकता है? निश्चय ही ऐसा धर्म, धर्म नहीं है। धन से जो खरीदा जा सके, वह धर्म नहीं है।
मैंने सुना हैः
एक प्रभात किसी धनपति ने स्वर्ग का द्वार खटखटाया।
चित्रगुप्त ने पूछाः ‘‘बंधु, कौन हो? ’’
‘‘मैं! मुझे नहीं जानते? क्या यहां तक मेरे स्वर्गवासी होने की खबर अभी तक नहीं पहुंची है? ’’
चित्रगुप्त ने पूछाः ‘‘आप चाहते क्या हैं? ’’
उस धनपति ने क्रोध से कहाः ‘‘क्या यह भी कोई पूछने की बात है? मैं स्वर्ग में प्रवेश चाहता हूं।’’ और यह कह कर उसने रुपयों का एक बंडल अपने कोट से निकाल कर चित्रगुप्त को देना चाहा। चित्रगुप्त यह देख खूब हंसे और कहाः ‘‘बंधु, पृथ्वी की आदतें यहां काम नहीं दे सकती हैं। और न वहां के सिक्के ही यहां चलते हैं। कृपा कर अपने रुपये अपने पास ही वापस रख लें।’’ किंतु, इससे तो धनपति एकदम दरिद्र और दीन हो गया। जिस शक्ति के बल पर गर्मी थी, वही निसत्व सिद्ध हो गई थी।
23-5 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), first part of chapter 15 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
" मैं स्वयं को ब्रह्म में लीन करना चाहता हूँ | अहंकार ही दुख है | मैं इस अहंकार को परमात्मा को समर्पित करना चाहता हौं | मैं क्या करूँ ? " एक भक्त ने अत्यंत व्याकुलता से मुझसे पूछा था | उन्हें मैं जानता हूँ | वर्षों से वे भगवान के मंदिर में ही बैठे रहते हैं | भगवान के चरणों में घंटों सिर रखे रोते रहते हैं | उनकी अभिप्सा तो तीव्र है लेकिन दिशा भ्रांत है | क्योंकि जो व्यक्ति ' मैं ' को स्वीकार कर लेता है, वह उस स्वीकृति के कारण ही ' मैं ' बन जाता है | फिर इस ' मैं ' से पीड़ा आती है तो वह इससे छूटना चाहता हैं और भगवान की शरण में समर्पित होना चाहता है, लेकिन इस खोज और समर्पण का केंद्र बिंदु भी वह ' मैं ' ही होता है | क्योंकि. जो समर्पण करना चाहता है, वह कौन है ? जो दुख से, पीड़ा से छूटना चाहता है, वह कौन है ? क्या वह ' मैं ' ही नहीं है ? परमात्मा के
(unreadable, missing some lines) उत्तप्त करता है ? क्या वह ' मैं ' ही नहीं है ?
मैं पूछता हूँ कि क्या यह संभव है कि में स्वयं को ही छोड़ सकूँ -- स्वयं का ही समर्पण कर सकूँ ? क्या मेरा छोड़ना भी ' मेरा ' ही छोड़ना न होगा ? क्या मेरा समर्पण भी ' मेरा ' ही समर्पण नहीं है ? और जो ' मेरा ' हैं, उससे ही तो मेरा ' मैं ' निर्मित होता है | मेरा धन, मेरा पद, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे ही 'मैं ' को नहीं बनाते हैं | मेरा सन्यास, मेरा त्याग, मेरा समर्पण, मेरी सेवा, मेरा धर्म, मेरी आत्मा, मेरा मोक्ष भी ' मैं ' को ही बनाते हैं | जहाँ तक कुछ भी ' मेरा ' शेष है, वहाँ तक ' मैं ' भी पूर्णरूपेण अक्षुण्ण है |
' मैं ' की प्रत्येक क्रिया, पाप या पुण्य, भोग या त्याग, ' मैं ' को ही पुष्ट करती है | साधना या समर्पण सभी से वही संगठित और सशक्त होता है |
क्या ' मैं ' को छोड़ने का कोई उपाय नहीं है ? क्या ' मैं ' के त्याग की कोई विधि नहीं है ? नहीं | ' मैं ' को छोड़ने, त्यागने या समर्पित करने का न कोई उपाय है, न विधि है क्योंकि जो भी किया जा सकता है, वह सब अंततः ' मैं ' के लिए ही प्राणप्रद सिद्ध होता है | कर्म के द्वारा, क्रिया के द्वारा, संकल्प के द्वारा, ' मैं ' के बाहर न कोई कभी गया है और न जा सकता क्योंकि संकल्प स्वयम् ही सूक्ष्म रूप में ' मैं ' है | संकल्प ' मैं ' का ही कच्चा रूप है | वही तो पककर ' मैं ' बनता है | ' मैं ' संकल्प की ही तो घनीभूत दशा है | इसलिए, संकल्प से ' मैं ' को कैसे छोड़ा जा सकता है ?
23-4
23-7 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), the last part of chapter 30
साथ में लाये शास्त्रों को भी देखते जाते थे | सर्दी की ऋतु भी और कक्ष के बड़े बड़े झरोखों से सुबह की शीतल पवन भी भीतर आ रही थी लेकिन उन सबके माथे से पसीने की धारें बह रहीं थीं |थोड़ा था समय, और उस ताले को खोलने की कठिन थी समस्या और शीघ्र ही जीवन का भाग्यनिर्णय होने वाला था | इससे उसकी बैचेनी और घबराहट स्वाभाविक ही थी | उनके हाथ कांप रहे थे और स्वांस बढ़ गई थी और वे कुछ लिखते के और कुछ लिखा जाना था ! लेकिन जो व्यक्ति रातभर सोया रहा था, उसने न तो ताले का ही अध्ययन किया और न कलम ही उठाई और न कोई गणित ही हाल किया | वह तो शांति से आँखें बंद किये बैठा था | उसके चेहरे पर न कोई चिंता थी, न उत्तेजना थी | उसे देखकर एसा भी नहीं लगता था कि वह कुछ खोज रहा है | उसके भाव और विचार निर्वात गृह में थिर दीपशिखा की भाँति मालूम होते थे | वह था एकदम शांत, मौन और शून्य | लेकिन फिर अचानक वह उठा और अत्यंत सहज और शांत भाव से धीरे धीरे चल कर के द्वार के पास पहुँचा | और फिर उसने अत्यंत आहिस्ते से द्वार का हत्था घुमाया | और आश्चर्य कि द्वार उसके छूते ही खुल गया ! वह खुला हुआ ही था ! वह ताला और उसकी सब कथा धोखा थी ! लेकिन उसके जो वो मित्र गणित की पहेलियाँ बूझ रहे थे, उन्हें इस सबका कुछ भी पता नहीं चला | उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उनका एक साथी अब भीतर नहीं है | यह चौंकानेवाला सत्य तो उन्होंने तभी जाना जब सम्राट द्वार के भीतर आया और उसने उनसे कहा : " महानुभवों, अब ये गणित बंद करो | जिसे नकालना था, वह निकल चुका है ! " वे बेचारे तो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे ! उनका वह सब भाँति अयोग्य साथी सम्राट के पीछे खड़ा हुआ था ! सम्राट ने उन्हें अवाक देखकर यह भी कहा था : " जीवन में भी सबके पहले यही महत्वपूर्ण है कि देखा जावे कि समस्या वस्तुतः है भी या नहीं ? ताला बंद भी है या नहीं ? जो समस्या को ही नहीं खोजता और समाधान करने में पड़ जाता है, वह स्वभावतः ही भूल में पड़ता है और सदा के लिया भटक जाता है | "
यह कथा अदभुत रूप से सत्य है |
परमात्मा के संबंध में भी मैने यही पाया है | उसका द्वार भी सदा से ही खुला हुआ है | और उस पर लगे तालों की सब अफवाहें एकदम असत्य हैं | लेकिन उसके द्वार पे प्रवेश पाने के लिए उत्सुक उम्मीदवार उन तालों के भय से शास्त्रों को साथ बाँध लेते हैं | फिर ये शास्त्र और सिद्धांत ही उनके लिए ताले बन जाते हैं | फिर वे उनके द्वार के बाहर ही बैठे रह जाते
हैं क्योंकि जबतक वे शास्त्रों की गणित पहेलियाँ को हल न कर लें तब तक प्रवेश संभव ही कैसे है ? मुश्किल से ही कोई इतना दुस्साह करता है कि बिना शास्त्रों के ही उसके द्वार पर पहुँच जाता हो | मैं एसे ही पहुँच गया था | पहुँचकर देखा की जहाँतक आँखें देख सकतीं थी वहाँ तक पंडितगण अपने अपने शास्त्रों के ढेर में दबे बैठे हूए थे और किन्हीं सवालों के हल करने में इस भाँति तल्लीन थे कि मुझ अपात्र का वहाँ पहुँच जाना भी उन्हें ज्ञात नहीं हुआ था | मैं तो गया और उसके द्वार का हत्था घुमाया और पाया कि वह तो खुला ही हुआ है ! पहले तो यही समझा कि मेरे भाग्य से ज़रूर ही द्वारपालों से कोई भूल हो गई होगी अन्यथा यह कैसे संभव था कि जो शास्त्र न जाने, सिद्धांत न जाने, वह सत्य के जगत में प्रवेश पा ले ? और मैं डरा-डरा ही भीतर प्रविष्ट हुआ था | लेकिन जो वहाँ पहले से ही प्रविष्ट हो गये थे, उन्होंने बताया कि परमात्मा के द्वार बंद होने की खबर तो शैतान के द्वारा फैलाई गई निरि झूठी अफवाह है, क्योंकि उसके द्वार तो सदा से ही खुले हुए हैं | निश्चय ही प्रेम के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं ? निश्चय ही सत्य के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं ?
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