Manuscripts ~ Vichar Anu (विचार अणु)

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Thought Particles / Provoking Thoughts(?)

year
1967
notes
5 sheets plus 4 written on reverse.
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
Published as notes 105-168 of Naye Sanket (नये संकेत).
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Naye Sanket (नये संकेत).
see also
Category:Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo transcript
1R विचार-अणु

चर्चाओं से संकलित स्वर्ण-सूक्ति
संकलन : निकलंक

Naye Sanket (नये संकेत), notes 105 - 114

105. सत्य को पाने के लिए स्वयं को खोने को सूत्र सीखो। स्वयं को खोए बिना सत्य नहीं पाया जा सकता। क्योंकि स्वयं को होना है बीज की भांति और बीज जब मिटता है, तभी सत्य का अंकुर जन्मता है। जीवन के लिए मरना सीखना ही होता है।
106. क्या आनंद की खोज में हो? तो दूसरों को आनंद दो। जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है। हम जो करते हैं, वही हमारे पास वापस लौट आता है। जो दूसरों को आशीष देता है उस पर आशीषों की वर्षा होने लगती है, और जो गालियां, उस पर गालियों की, पत्थरों के उत्तर में पत्थर ही लौटते हैं, प्रेम नहीं, और जो दूसरों के लिए कांटे बोता है, उसे स्वयं के लिए भी कांटों की ही फसल काटने को तैयार रहना होगा। घृणा घृणा को आमंत्रित करती है, प्रेम प्रेम को। यही शाश्वत नियम है।
107. ज्ञान मिथ्या है, यदि वह विनम्र नहीं। क्योंकि विनम्रता के अभाव में ज्ञान का अविर्भाव ही नहीं होता; ज्ञान के साथ अहंकार, इस बात की घोषणाा है कि ऐसा ज्ञान उधार है।
108. पाप क्या है? स्वयं के ईश्वरत्व से अस्वीकार। स्मरण रहे कि स्वयं की दिव्यता की स्मृति के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है।
109. ईश्वर को खोजना व्यर्थ है। उचित है कि जीओ। जीवन में उसे प्रकट करो। जो उसे श्वास-प्रश्वास की भांति जीता है, वही उसे पाता है।
110. मृत्यु को जीतना है तो मृत्यु से गुजरना पड़ता है। मन के प्रति जो मर जाता है, वह मृत्यु को जीत, अमृत को पा लेता है।
111. सत्य को पाना है और शास्त्रों को खोजते हो? इससे अधिक पागलपन और क्या होगा? सत्य से तो शास्त्रों का जन्म हो सकता है किंतु शास्त्रों से सत्य का जन्म कभी नहीं हुआ। शास्त्रों में नहीं, वह तो स्वयं में है। लेकिन जीवित हृदय में तो अंधकार है और मृत शब्दों में उसे खोजा जाता है।
112. अंधकार भीतर है तो बाहर कोई प्रकाश नहंी है।
113. जीवन एक है- समग्र जीवन एक है। यह अनुभव ही प्रेम है।
114. अज्ञान कहां है? अहंकार में अज्ञान है। और इस अहंकार में ही वासना की जड़ें हैं।
1V Naye Sanket (नये संकेत), notes 115 - 127
115. वासना में दुख है, क्योंकि वासना दुष्पूर है।
116. मनुष्य जो भी चाहता है, और जिसकी भी कामना करता है, उससे उसे शांति नहीं मिल सकती, क्योंकि इस भांति जो भी पाया जा सकता है, वह क्षणभंगुर होता है। जो मन कामना करता है, वही जब क्षणजीवी है, तो उसके काम्य चिरजीवी कैसे होंगे?
117. सत्य को, नित्य को, शाश्वत को पाने का द्वार कामना नहीं है। तृष्णा नहीं है। वासना नहीं है। वस्तुतः, मन ही उसे पाने को मार्ग नहीं है। वह तो वहीं है, जहां मन नहीं है।
118. क्या प्रभु की वाणी सुनना चाहते हो? तो संसार के प्रति बहरे हो जाओ। संसार के प्रति जो बहरे है, वे ही उसे सुनते हैं, और जो अंधे हैं, वे ही उसे देखते हैं और जो लूले लंगड़े हैं, वे ही उसमें गति करते हैं।
119. वासना के पीछे दौड़ना एक मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ते रहना है। वह एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु की यात्रा है। जीवन के भ्रम में इस भांति मनुष्य बार बार मरता है। लेकिन जो वासना के प्रति मरने को राजीहो जाते हैं, वे पाते हैं कि उकसे लिए स्वयं मृत्यु ही मर गई है।
120. जीवन केवल उकने लिए ही है, जो कि जीवन के प्रति मरना जानते हैं।
121. एक दिन था कि मृत्यु मेरी प्रतीक्षा करती थी। मैं भयभीत था तो उसे मेरी प्रतीक्षा थी। फिर मैं अलिंगन करने को बढ़ा तो पाया कि वह है ही नहीं। मृत्यु के भय में ही मृत्यु है। उसका स्वीकार तो मुक्ति बन गया। भय है मृत्यु। और अभय है मोक्ष। मृत्यु उनका पीछा करती है, जो उससे भागते हैं। वह हमारी छाया की ही भांति है। और जो रुक कर और लौट कर उसका साक्षात करते हैं, उनके लिए वह विलीन हो जाती। मृत्यु के पूर्व ही मृत्यु को अंगीकार करना मृत्यु से मुक्त हो जाना है।
122. मैं सागर के किनारे खड़ा था। मन में प्रश्न उठा कि सारी नदियां सागर में ही क्यों गिरती हैं? निश्चय ही सागर उन सबसे नीचा है, इसलिए ही। और यह विचार एक आलोक की भांति मेरी अंतरात्मा पर फैल गया। धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि परमात्मा अपनी संपदा से उन्हें परिपूरित कर देता है।
123. परमात्मा को पाने के लिए शुभ और अशुभ दोनों का अतिक्रमण करना होता है। क्योंकि तभी चेतना भेद से उठती और अभेद में प्रतिष्ठित होती है।
124. मित्र, अशुभ को छोड़ा है शुभ को भी छोड़ दो। क्योंकि जहां तक किसी पर भी पकड़ है, वहां तक अहंकार है।
125. आंखें खोलो और देखो। क्या जो भी दिखाई पड़ता है, वह सब परिवर्तन नहीं है? आंखें जो भी देख सकती हैं, क्या वह सब बहाव ही नहीं है और इस बहती नदी पर जो अपना भवन बनाता है क्या वह होश में है?
126. शरीर तो मंदिर है। उससे लड़ो नहीं, उसमें खोजो। उससे होकर ही जो परमात्मा तक पहुंचा जाता है। परमात्मा का जिसमें वास है, क्या वह इस कारण ही पवित्र नहीं? शरीर तो एक तीर्थ है। उसकी शक्तियों को जो आत्मोन्मुखी करने में समर्थ होता है, वह उसके प्रति अत्यंत कृतज्ञता से भर जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है।
127. मैं भोर में फूलों के पास था। ओस की बूंदें फूलों पर उतर रही थीं। उनके पद चाप भी तो सुनाई नहीं पड़ते थे। कितनी शांति से, कितने मौन से और कितनी प्रीति से
2V Naye Sanket (नये संकेत), notes 127 - 135 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
वे फूलों पर उतर रही थीं। हृदय जब तैयार होता है तो ऐसे ही परमात्मा भी उतरता है। उसके आगमन का भी पता नहीं लगता। उसके आ जाने पर ही जाना जाता है कि वह आ गया है।
128. मैं पहाड़ों पर था। पहाड़ों को जो भी कहना था, वे मुझसे मौन में कहते थे। वृक्षों को जो कहना था, वे भी मौन में कहते थे। और नदियों और झरने और चांद और तारे सभी की वाणी मौन थीं। फिर मैं समझ गया। परमात्मा का इशारा स्पष्ट था। और मैं भी मौन हो गया और मौन होते ही पाया कि परमात्मा बोल रहा है। वह तो पहले भी बोल रहा था लेकिन मौन हुए बिना मैं स्वयं उसे सुनने में समर्थ नहीं था।
129. मैं क्या कहूं? आकाश में तारे हैं, उन्हें देखो। वे क्या कह रहे हैं? मौन में झरता उनका प्रकाश जो कह रहा है, वही तो मैं कहना चाहता हूं। कहना चाहता हूं कि जो है, वह कहने सुनने के अतीत है।
130. मैं अति दरिद्र हूं क्योंकि मेरे पास अपना भी नहीं। मैं भी अपना नहीं हूं तो और क्या मेरा होगा? जो है, परमात्मा का है, सब परमात्मा है। लेकिन जिस क्षण अपनी यह दरिद्रता जानी उसी दिन मेरी सारी दरिद्रता मिट गई। मैं सब सम्राट हूं क्योंकि मैं हूं ही नहीं और जो है वह परमात्मा है।
131. मित्र हैं ऐसे जो गालियां दे जाते हैं और मेरा हृदय उनका आभार मानता है, क्योंकि जब उनकी गालियों के बीच भी मैं उनके प्रति अपने प्रेम को बहता हुआ पाता हूं तो एक ऐसी अलौकिक शांति प्राणों पर छा जाती है, जो कि इस जगत की नहीं है।
132. संसार बहुत अदभुत है क्योंकि मैंने देखा कि जो जीवित हैं, वे वस्तुतः जीवित नहीं हैं। वासनाओं का जीवन, जीवन ही कहां? और मैंने जाना कि जो मृत हो गए हैं, वे भी मर नहीं गए हैं क्योंकि आत्मा की कोई मृत्यु नहीं है।
133. धर्म कहते हैंः ‘स्वयं को जानो’- लेकिन स्वयं की सत्ता ही कहां है? क्या ‘स्व’ का भाव ‘पर’ की ही छाया नहीं है? इसलिए मैं क्यों कहूं कि स्वयं को जानो? नहीं। नहीं मैं कहता हूंः ‘जानो। जानो। जानो उसे जो है।’
134. शरीर वृद्ध होता जाता है। यह स्वाभाविक ही है। लेकिन स्मरण रहे कि कहीं मन भी तो वृद्ध नहीं हो रहा है? शरीर वृद्ध हो और मन युवा से युवा होता जावे तो ही जीवन का सम्यक विकास है। शरीर जिस दिन मृत्यु में प्रवेश करे उस दिन मन यदि बिल्कुल नवजात शिशु जैसा हो तो जीवन की यात्रा सफल हो जाती है।
135. हृदय में घृणा का विष हो तो जीवन में आनंद के फूल कैसे खिलेंगे? उनके लिए तो निरंतर ही प्रेम की अंतःधारा चाहिए। प्रेम का अमृत जहां है, वहीं आनंद के फूल हैं।
2R Naye Sanket (नये संकेत), notes 136 - 146 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
136. आनंद का द्वार तो निकट है लेकिन जो घृणा और हिंसा को पोषता है वह स्वयं ही उसकी ओर पीठ करके चलता है। फिर कोई आश्चर्य नहीं कि वह यदि स्वर्ग को खोजता हुआ भी नरक में प्रवेश कर जाता हो। जाना तो सभी स्वर्ग चाहते हैं, किंतु पहुंचना मात्र आकांक्षा से नहीं होता। अंततः निर्णायक है वह दिशा जिस ओर कि मनुष्य चलता है।
137. मैं नहीं कहता कि तुम कुछ और बनो। जो तुम बन सकते हो, वही बन जाओ। कुछ और बन जाने से बड़ी पीड़ा नहीं है। लेकिन अधिकतम लोग कुछ और ही बन जाते हैं। स्वयं को पहचानो। स्वरूप को समझो और वही हो जाओ। स्वरूप में जीना ही स्वर्ग है।
138. क्या तुम्हें ज्ञात है कि हम अक्सर ही निकट की चीजों को दूर खोजते रहते हैं? आनंद के संबंध में तो यह शत-प्रतिशत सत्य है। आनंद कहां है? इसे पहले जानो और फिर ही उसे पाया जा सकता है। वह तो वहीं पाया जा सकता है, जहां वह है, वहां नहीं जहां कि हम उसे खेजते हैं।
139. सदगुण सुख है।
140. एक आदमी सुखी था। मैंने उसका रहस्य जानना चाहा तो ज्ञात हुआ कि वह पसंद के काम की चिंता नहीं करता वरन जो भी काम करता है, उसे ही पसंद करना जानता है।
141. एक सराय में दो व्यक्ति ठहरे। सराय गंदी थी। पहला व्यक्ति जितनी देर वहां रहा, उसकी गंदगी पर कुढ़ता रहा और दुखी होता रहा। दुसरे व्यक्ति ने उतने समय तक सराय की सफाई की और सफाई से सुखी हुआ। सराय वहीं थी किंतु एक दुखी और दूसरा सुखी। जीवन में सृजन से बड़ा और कोई सुख है? नहीं। सेवा से बड़ा और कोई सुख है? नहीं। सुख चाहते हो तो जीवन की सराय को जैसा पाया है उसे अपने पीछे जाने वालों के लिए और सुंदर और स्वच्छ छोड़ जाने के लिए श्रम करो। सौंदर्य के सृजन में निश्चय ही सुख है।
142. मेरे बंधु, क्या तुम्हें ज्ञात है कि तुम जो काम करते हो क्यों उससे न तुम्हें ही आनंद मिल पाता है, न किसी और को ही? उसका कारण है किसी भी कार्य को एक बोझ की भांति करना। जब कि आनंद तो वहीं कार्य लाता है जो कि आनंद से किया जाता है।
143. क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम किसलिए जी रहे हो? क्या तुम्हारे जीवन में ऐसा कोई लक्ष्य भी है जिसके लिए कि तुम मर भी सको? यदि नहीं तो जानो कि तुम आज ही मृत हो, क्योंकि जीने की पूर्ण ऊर्जा तो तभी जागती है जब उसे ऐसा लक्ष्य मिल जाता है, जिसके लिए कि हंसते-हंसते मरा भी जा सके। मित्र, स्मरण रहे कि मृत्यु के दांव पर ही जीवन उपलब्ध होता है।
144. एक बार कहीं मैंने कहा कि मैं सम्राट हूं, तो किसी ने पूछा कि आपका राजमुकुट कहां? मैंने कहाः ‘मस्तक पर नहीं, मेरे हृदय में। वह धातुओं से नहीं, धर्म से निर्मित है। और उसमें हीरों-माणिकों के पत्थर नहीं, शांति, ज्ञान और प्रेम की ज्योतियां जड़ी हुई हैं। और वह ऐसा राजमुकुट है कि उसे पाने को सम्राटों को भिखारी हो जाना पड़ता है।’
145. शरीर के और इंद्रियों के सुख कुमार फूलों की भांति हैं, जो कि छूते और तोड़ते ही नष्ट हो जाते हैं। सुख की खोज में तो शरीर और इंद्रियों से बहुत ऊपर जाना होता है।
146. मैं तुम्हें क्या भेंट दूं? क्या कोई कीमती पत्थर? नहीं। नहीं क्योंकि पत्थर आखिर पत्थर ही है। फिर कोई सुंदर फूल? नहीं। नहीं। क्योंकि फूल तो मैं दे भी नहीं पाऊंगा और मुरझा जाएगा। मैं तुम्हें अपने हृदय का प्रेम देता हूं क्योंकि इस पूरे जगत में प्रेम ही अकेला है जो कि पत्थर नहीं है और प्रेम ही ऐसा है जो कि कभी मुरझाता नहीं। प्रेम मनुष्य के हृदय में परमात्मा की सुंगध है। प्रेम मनुष्य के प्राणों में परमात्मा का संगीत है।
3 Naye Sanket (नये संकेत), notes 147 - 152
147. सत्य में जीना परमात्मा में जीना है। सत्य में जीना प्रेम में जीना है। लेकिन मैं क्या देखता हूं कि परमात्मा तो याद है और सत्य भूल गया है, और सत्य की बातें भी याद हैं लेकिन प्रेम का जीवन भूल गया है। अच्छा होता कि हम परमात्मा को भूल जाते और सत्य को स्मरण रखते, और अच्छा होता कि हम सत्य की बातें भी भूल जाते और प्रेम के जीवन में जीते। प्रेम हो तो सत्य अपने आप आ जाता है। और जहां सत्य है, वहां परमात्मा है।
148. क्या ही अच्छा हो कि हम इस भांति जीए जैसे कि हमारे जीवन को सारा जगत देखता हो, और इस भांति विचार करें जैसे कि एक एक विचार सारा जगत पढ़ता हो। और हमें ज्ञात हो या न हो, बहुत गहरे तल पर वस्तुतः कुछ भी छिपा नहीं है। मनुष्य समस्त से पृथक थोड़े ही है। जो उसके भीतर उठता है, उसकी गूंज अनायास ही सर्व तक पहुंच जाती है। और जैसे वह जीता है वह समस्त के जीवन का भाग हो जाता है।
149. मनुष्य वस्तुतः कृत्यों में जीता है, वर्षों में नहीं। और विचार श्वासों से भी गहरे हैं। श्वासें वर्ष लाती हैं, विचार कृत्य लाते हैं। विचारों से भी गहरे हैंः भाव हृदय की धड़कनें भी उतनी गहरी नहीं हैं। और भावों से भी गहरा एक अतल तल है। वही आत्मा है। स्वयं में जो जितना गहरे से गहरा जाता है, वह जीवन में उतना ऊंचे से ऊंचा उठ जाता है। जो वृक्ष आकाश को चूमने की अभीप्सा से प्रेरित होते हैं, उन्हें पाताल तक अपनी जड़ें पहुंचाने को तैयारी करनी होती है।
150. मैं सौंदर्य को प्रेम करता हूं, लेकिन शरीर से भी गहरे सौंदर्य के तल हैं। शरीर तो परिधि ही है। विचारों का सौंदर्य के तल हैं। शरीर तो परिधि ही है। विचारों का सौंदर्य है, भावों का सौंदर्य है और फिर निर्विचार, निर्भाव, शून्य सत्ता का परम सौंदर्य भी है। शरीर पर मत रूको। रूकना मृत्यु है। थोड़े गहरे पानी में भी चलो। सागर तट पर कंकड़ पत्थर ही हैं। मोतियों की खोज के लिए तो गहरे चलना ही पड़ता है।
151. घर घर में दर्पण है लेकिन क्या तुमने कभी देखा कि सत्य का एक छोटा सा विचार, या प्रेम की एक छोटी सी लहर, या सेवा का एक छोटा सा कृत्य आंखों को, चेहरे को, व्यक्तित्व को एक अभिनव सौंदर्य प्रदान कर जाते हैं? यदि नहीं तो तुम अंधे हो, और दर्पण के सामने व्यर्थ ही खड़े होते हो, अच्छा हो कि तुम दर्पण को तोड़ दो, क्योंकि तुम्हें उसके उपयोग का पता ही नहंी है।
152. जीवन के अंधकार पथ पर मुझे कोई न जाने, तो कोई कठिनाई नहीं, लेकिन मैं स्वयं को ही न जानूं तो क्या होगा? किंतु हम दूसरे हमें जानें, इसके लिए जितने उत्सुक और अभीप्सु होते हैं, उतने इसके लिए नहीं कि हम स्वयं को जानें। और यही तो कारण है, कि जीवन और अंधकारपूर्ण हो जाता है, क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं जानते, उनके जीवन से आलोक कैसे विकीर्ण हो सकता है? इसलिए जो समझते हैं उनकी प्रार्थना सदा यही होती हैः मैं यदि संसार को अज्ञात, अपरिचित और अनजाना ही मर जाऊं तो मुझे स्वीकार है, लेकिन कम से कम मैं स्वयं को तो जान सकूं। वस्तुतः वह छोटा प्रकाश ही परमात्मा तक ले जाने के लिए पर्याप्त है। मित्र, स्वयं में प्रदीप्त एक छोटा सा दीया भी आकाश के अनंत सूर्यों से ज्यादा बहुमूल्य है।
4R Naye Sanket (नये संकेत), notes 153 - 160: second 155th note published in 2020 ed. under number 156.
153. मैं कहता हूंः ‘दो, दो, दो’ करुणा दो, सेवा दो, प्रेम दो। क्योंकि जो जो देता है, वही वापस पाता है।
154. एक बार गंगा स्नान को गया था। स्नान से शरीर पवित्र हुआ। जल शरीर को स्वच्छ करता है। फिर मैंने साथियों से कहाः ‘एक और गंगा है। उसमें स्नान से आत्मा भी पवित्र हो जाती है।’ वे पूछने लगेः ‘कौन सी गंगा? ’ मैंने कहाः ‘प्रेम की।’
155. एक मित्र दुखी थे और रो रहे थे। मैं उन्हें घर के बाहर ले गया और कहाः देखो। तारों को देखो। फिर उनके आंसुओं में तारे चमकने लगे थे और उनका दुख क्रमशः विलीन हो गया था। फिर वे पूछने लगे कि तारों को देखने से मेरे हृदय का भार हलका क्यों हो गया? मैंने कहाः ‘परमात्मा से दूर होना दुख है। प्रकृति से दूर होना दुख है। स्व की सत्ता से दूर होना दुख है।’
155 (2) ‘संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है?’ कोई पूछता था। मैंने कहाः ‘संसार में होकर भी संसार में न होना। सुख का सूत्र तो एक ही है : पैर संसार में और प्राण परमात्मा में।’
156. जीवन को स्वीकार करो। वह परमात्मा का प्रसाद है। लड़ो नहीं। भागो नहीं। उसे प्रेम करो। क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त और कोई विजय नहीं है।
157. मनुष्य जो बाहर देखता है, वह वैसा ही होता है जैसा कि वह भीतर है। आत्मा के रंग में ही सब रंगा हुआ प्रतीत होता है। भीतर आनंद दुख तो बाहर सब कुरूप। वस्तुतः मनुष्य स्वयं को ही सब जगह देखता है। इसलिए तुम यदि नरक में हो तो जानना है कि उसके कारण तुम्हीं हो, और यह भी जानना कि स्वर्ग में होना भी तुम्हारे ही हाथ में है।
158. मेरा संदेश पूछते हैं? बहुत छोटा सा हैः ‘जीवन में जागे हुए जीएं क्योंकि जो सोता है वह स्वयं को खो देता है।’
159. मैं जहां भी देखता हूं वहां जीवन को स्पंदित होते पाता हूं। कण कण जीवन से भरा है। अणु अणु जीवन की अभीप्सा से। देखो, जो जीवन का नृत्य है। सुनो, जो जीवन का संगीत है। और न देखो, न सुनो तो स्वयं में ही जीवन की धड़कती हुई अनुभूति है। क्या यह जीवन ही परमात्मा नहीं है? जीवन से अन्य कोई और परमात्मा निश्चित ही मृत और मिथ्या होगा। जीवन ही है सत्य। और परमात्मा दूर बैठा सृष्टा नहीं, वरन जीवन सृजन की ही सतत प्रक्रिया है। जीवन सृजनात्मकता ही परमात्मा है।
160. रोज तुम्हें मंदिर जाते देखता हूं। रोज शास्त्रों को पढ़ते भी। लेकिन प्रकृति की ओर तुम्हें कभी संवेदनशील नहीं पाया, इससे चिंता होती है। प्रकृति में जो परमात्मा को नहीं देख पा रहा है, वह कहीं और उसे कैसे देख सकेगा? प्रकृति के प्रति स्वयं को खोलो। उसके सौंदर्य को तुम्हारी आंखें बनने दो। और उसके संगीत को तुम्हारा हृदय। उस अतिथि को अपने हृदयों के
4V Naye Sanket (नये संकेत), notes 160 - 165, 167
हृदय में ठहराओ और किसी दिन तुम पाओंगे कि वह अपरिचित अतिथि ही परमात्मा है।
161. मैं पहाड़ों में था तो मैंने पाया कि मेरी आत्मा भी उन जैसी ही ऊंची हो गई है और वे ही नहीं, मेरे चित्त के शिखर भी कभी न पिघली अछूती बर्फ से ढ़के हैं, और फिर मैं गहरी घाटियों में था तो पाया कि मैं भी उन जैसा ही गहरा हो गया हूं, और मेरे हृदय में भी रहस्यमय छायाओं का निवास है। और ऐसा ही सागर तट पर हुआ। उन गरजती लहरों में मैं ही था, क्योंकि वे गरजती लहरें मेरे भीतर ही थी। और जब आकाश को देखता हूं तो मैं, अनंत विस्तार हो जाता हूं और जब आकाश के तारों को, तो अनंत मौन, और पृथ्वी पर फैले फूलों को, तो अनंत सौंदर्य। और जब पक्षियों पर फैले फूलों को, तो अनंत सौंदर्य। और जब पक्षियों के गीतों को सुनता हूं तो मेरी आत्मा की ही अंतर-ध्वनि उनमें सुनाई पड़ती है, और जब पशुओं की आंखों में झांकता हूं तो पाता हूं कि वे तो मेरी ही आंखें हैं। और इस भांति क्रमशः मैं मिटता गया हूं और परमात्मा होता गया है। मैं जब परमात्मा को कहां खोजूं? कैसे खोजूं? अब तो वही है और मैं नहीं हूं।
162. क्या मैं परमात्मा की घोषणा करूं? क्या चारों और उसकी ही घोषणा नहीं हो रही है? क्या प्रकृति ही परमात्मा की घोषणा नहीं है?
163. मैं कैसे बोलूं जब कि पर्वत मौन है? मैं कैसे बोलूं जब कि आकाश मौन है? मैं कैसे बोलूं जब कि स्वयं परमात्मा मौन है? फिर भी मैं बोल रहा हूं ताकि तुम्हें उनका मौन रहूं तो तुम समझ सको। चित्रकार शुभ्र रेखाओं को उभारने के लिए काली पृष्ठभूमि का उपयोग करते हैं। ऐसा ही मैं भी कर रहा हूं। बोल रहा हूं ताकि तुम मौन को समझ सको। शब्द सार्थक हैं यदि वे निःशब्द के लिए इंगित हों। वाणी सार्थक है यदि वह मौन में ले जाएं। और जीवन सार्थक है यदि वह व्यक्ति को उस महामृत्यु के लिए तैयार करता है जो कि प्रभु का द्वार है।
164. विजय के लिए युद्ध से गुजरना आवश्यक है। लेकिन अधिकतम लोग युद्ध के पूर्व ही विजय चाहते हैं। मेरे देखे ऐसे लोगों के अतिरिक्त और कोई भी अंततः नहीं हारता है।
165. मित्र, भय न खाओ। क्योंकि जिससे तुम भयभीत हुए, उससे ही तुम्हारा साथ हो जाएंगा। जिससे भय खाया, वही तुम्हारा पीछा करेगा। और जिससे जिस मात्रा में भय है, उसी मात्रा में उससे पराजय भी है।
167. मैं एक घर में अतिथि था। उस घर के बच्चे दौड़ की प्रतियोगिता में भाग लेने जाते थे। उन्होंने मुझसे पूछाः ‘दौड़ में जीतने का राज क्या है? ’ मैंने कहाः ‘धैर्य? ’ और पुनः उनसे कहाः ‘जीवन की दौड़ में भी इसे स्मरण रखना। जीवन विजय के लिए धैर्य से बड़ी और कोई शक्ति नहीं है।’
5R Naye Sanket (नये संकेत), note 168
168. एक दिन खेत के पास से हम निकलते थे। किसान बीज बो रहे थे और गीत गा रहे थे। उनका गीत गाना मुझे बहुत ही अच्छा लगा। मेरे साथ एक उदास व्यक्ति भी था। वे संन्यासी होना चाहते थे। उनसे मैंने कहाः ‘देखें। खेत में बीज बोते और गीत गाते किसानों को देखें। जीवन भी ऐसा ही खेत है और जो उसमें सत्य और प्रेम और त्याग के बीज बोना चाहते हैं, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि बीज रोते हुए नहीं बोए जाते हैं। उस भांति सत्य नहीं, प्रेम नहीं, रुदन ही बोया जाता है। और फिर फसल भी आनंद की नहीं, आंसुओं की ही काटनी पड़ती है। बीज बोने का सूत्र है गाते हुए बोना, क्योंकि हम जो बोते हैं वहीं नहीं, वरन जिस चित्त-दशा में बोते हैं, वह भी उन बीजों में प्रविष्ट हो जाता है। उदास चित्त से जो संन्यास फलित होता है, वह अंत में दुख हो जाता है। वास्तविक संन्यास का जन्म तो आनंद में और आशा में होता है।
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