Letter written on 17 Oct 1970
Letter written to Ma Dharm Jyoti on 17 Oct 1970. It has been published in Dhai Aakhar Prem Ka (ढ़ाई आखर प्रेम का) as letter 35.
Acharya Rajaneesh 27, C. C. I. CHEMBERS BOMBAY-20 PHONE NO. : 293782 प्रिय धर्मज्योति, लेकिन, मन हमारा स्वयं में ही व्यस्त है। अव्यस्त हुये बिना उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ सकती है। अव्यस्त-चित्त ही ध्यान है। शून्य -- मौन -- निशब्द होते ही उसके स्वर प्राणों को आपूरित कर देते हैं। चुप हो -- और जान। एक तार-आफिस में वायरलेस क्लर्क की नौकरी के लिए बहुत से उम्मीदवारों को बुलाया गया था। आफिस के बाहर एक बड़ी पंक्ति में खड़े वे अपने बुलाये जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन, वह प्रतीक्षा मौन तो नहीं थी। बातें चल रही थीं और वे सब बाहर या भीतर अपने-अपने विचारों में डूबे थे। और, तभी सबसे अंत में खड़ा व्यक्ति पंक्ति से निकलकर तार-आफिस में चला गया। शायद, उसे जाते भी किसीने नहीं देखा। उसे तो देखा लोगों ने तब, जब वह नियुक्ति-पत्र लेकर बाहर आया और बोला : "जिस नौकरी के लिए यह विज्ञापन दिया गया था, वह मुझे मिलगई है, इसलिए अब आप व्यर्थ ही खड़े रहने का कष्ट न करें और अपने घरों को जानें। यह सुनते ही तो वहां बड़ी हलचल मच गई। "भाई-भतीजावाद" "मुर्दाबाद" के नारे लगने लगे। लोग कहने लगे कि जब इस व्यक्ति को इस भांति पहले से चुन लिया गया था तो हमें बुलाने की ही क्या आवश्यकता थीं? लेकिन, तार आफिस के बड़े अधिकारी ने आकर कहा आपका अनुमान गलत है। यह व्यक्ति परीक्षा में उत्तीर्ण होकर ही नियुक्त हुआ है। हमने लाउड़ स्पीकर के ऊपर तार-आफिस की टिक-टिक की भाषा में पुकारा था कि जो व्यक्ति इस संदेश को समझे वह तत्काल भीतर आजाये -- उसका नियुक्ति-पत्र तैयार है। लेकिन, आप बातों में व्यस्त थे और नहीं सुन सके तो हमारा क्या कसूर है?" आह! क्या एक दिन परमात्मा भी हम सबसे यही नहीं कहेगा? कितनी है उसकी पुकार -- लेकिन क्या हमारे शोरगुल में वह टिक-टिक की आवाज ही नहीं होगई है? चुप हो -- और जान। रजनीश के प्रणाम १७.१०.१९७० |
- See also
- Dhai Aakhar Prem Ka ~ 035 - The event of this letter.