The PS reads: "Your sweet card has been received! You have noted that I would be staying at Chanda for very few days! Could whatever days be felt more? All days - whatever days - would be felt few - and how blissful is this feeling of only few! I am reaching in the evening on 1 May only by G. T."
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)
प्रभात:
२८ अप्रैल १९६२
प्रिय मां,
कल संध्या तक एक फूल के पौधे में प्राण थे। उसकी जड़ें जमीन में थी और पत्तों में जीवन था। उसमें हरियाली थी और चमक थी। हवा में वह डोलता था तो उससे आनंद झरता था। उसके पास से मैं अनेक बार गुजरा था और उसके जीवन-संगीत को अनुभव किया था।
फिर कल यह हुआ कि किसी ने उसे खींच दिया : उसकी जड़ें हिल गईं और आज सुबह जब मैं उसके पास गया तो पाया कि उसकी सांसे टूट गई हैं। जमीन से जड़ें हट जाने पर ऐसा ही होता है। सारा खेल जड़ों का है। वे दिखती नहीं, पर सारा रहस्य जीवन का उन्हीं में है।
पौधों की जड़ें होती हैं; मनुष्य की भी जड़ें होती हैं। पौधों की जमीन है; मनुष्य की भी जमीन है। पौधे जड़ें जमीन से हटते ही सूख जाते हैं। मनुष्य भी सूख जाता है।
अलबर्ट कामू की एक पुस्तक पढ़ता था। उसकी पहली पंक्ति है कि आत्महत्या एकमात्र महत्वपूर्ण दार्शनिक समस्या है।
क्यों? क्योंकि अब मनुष्य को जीवन में कोई प्रयोजन नहीं मालुम होता है : सब व्यर्थ और सब निष्प्रयोजन हो गया है।
यह हुआ है इसलिए कि जड़े हिल गई हैं : यह हुआ है इसलिए कि उस मूल जीवन स्रोत से संबंध टूट गये हैं जिसके अभाव में जीवन एक व्यर्थ की कहानी मात्र रह जाता है।
मनुष्य को पुनः जड़ें देनी हैं और मनुष्य को पुनः जमीन देनी है। वे जड़ें आत्मा की हैं और वह जमीन धर्म की है। उतना होसके तो मनुष्यता में फिर से फूल आ सकते हैं।
रजनीश के प्रणाम
(पुनश्च: तुम्हारा मीठा कार्ड मिल गया है! तुमने लीखा कि मैं बहुत कम दिन चांदा रुकने को हूँ। क्या कितने भी दिन ज्यादा मालुम होसकते हैं? सब दिन – कितने ही दिन – थोड़े ही मालुम होंगे – और यह थोड़ा मालुम होना कितना आनंदपूर्ण है! मैं एक १ तारीख को संध्या जी.टी. में ही पहूँच रहा हूँ।)