Letter written on 7 Sep 1970: Difference between revisions

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उस व्यक्ति ने फिर झिंझोड़ा -- "बाबाजी, कुछ चिनगारियां तो जरूर हैं?"
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संत ने अपना ...(?) हुए : "कैसा मूर्ख है तू?"
संत ने अपना चमीटा रेकते हुए : "कैसा मूर्ख है तू?"


लेकिन, उस व्यक्ति ने फिरभी कहा : "बाबाजी, मुझे तो कुछ चिनगारियां दिखाई देती हैं?"
लेकिन, उस व्यक्ति ने फिरभी कहा : "बाबाजी, मुझे तो कुछ चिनगारियां दिखाई देती हैं?"
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फिर तो संत ने होश खोदिया।
फिर तो संत ने होश खोदिया।


उनकी आंखें चिनगारियों से भर गईं और उनकी वाणी लपटों से। वे अपना चमीहा(?) लेकर उसे मारने को दौड़ पड़े।
उनकी आंखें चिनगारियों से भर गईं और उनकी वाणी लपटों से। वे अपना चमीटा लेकर उसे मारने को दौड़ पड़े।


भागते-भागते उस व्यक्ति ने कहा : "बाबाजी, देखिये अबतो अग्नि पूरी हो तरह भड़क उठी है!
भागते-भागते उस व्यक्ति ने कहा : "बाबाजी, देखिये अबतो अग्नि पूरी हो तरह भड़क उठी है!

Latest revision as of 10:09, 30 April 2024

Letter written to Ma Dharm Jyoti on 7 Sep 1970. It has been published in Dhai Aakhar Prem Ka (ढ़ाई आखर प्रेम का) as letter 33.

Acharya Rajaneesh

27, C. C. I. CHEMBERS BOMBAY-20 PHONE NO. : 293782

प्रिय धर्म ज्योति,
प्रेम। चित्त को कभी भी दबाना मत।

दमन (Repression) रोग है।

और जो दबाया जाता है, वह कभी भी मिटता नहीं है।

वह लौट-लौटकर आक्रमण करता है।

चित्त को समझना है।

अंततः चित्त की समझ ही सुलझाव बनती है।

दमन तो मात्र रोगों का स्थगन (Postponement) है।

न भोग में मार्ग है, न दमन में मार्ग है।

मार्ग है ज्ञान (Understanding) में।

इसलिए, स्वयं के चित्त को उसके समग्ररूपों में जान।

होश से जी।

जाग्रत जी।

फिर जो व्यर्थ है, वह अपने आप ही विसर्जित होजाता है।

और उसकी ऊर्जा (Energy) सार्थक में रूपांतरित होजाती है।

अन्यथा हम स्वयं के साथ ही दुष्ट-चक्र (ViciousCircle) पैदा कर लेते हैं।

एक तथाकथित संत एकांत में धूनी रमाये बैठे थे।

एक व्यक्ति उनकी परीक्षा के लिए आया और उसने कहा : "बाबाजी, धूनी में कुछ आग है?"

संत ने कहा : "इसमें आग नहीं है।"

उसने कहा : "कुरेद कर देखिये, शायद आग हो?"

संत ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा : "मैंने तुमसे कह दिया इसमें आग नहीं।"

उस व्यक्ति ने फिर झिंझोड़ा -- "बाबाजी, कुछ चिनगारियां तो जरूर हैं?"

संत ने अपना चमीटा रेकते हुए : "कैसा मूर्ख है तू?"

लेकिन, उस व्यक्ति ने फिरभी कहा : "बाबाजी, मुझे तो कुछ चिनगारियां दिखाई देती हैं?"

संत ने कहा : "तो क्या मैं अंधा हूं?"

वह व्यक्ति बोला : "अबतो कुछ लपट भी उठती दिखाई देती है?"

फिर तो संत ने होश खोदिया।

उनकी आंखें चिनगारियों से भर गईं और उनकी वाणी लपटों से। वे अपना चमीटा लेकर उसे मारने को दौड़ पड़े।

भागते-भागते उस व्यक्ति ने कहा : "बाबाजी, देखिये अबतो अग्नि पूरी हो तरह भड़क उठी है!

दबाई गई अग्नि ही भड़क सकती है।

और दबाई हुई अग्नि कभी भी भड़क सकती है।

दमन स्वयं से ही दुश्मनी है।

और स्वयं को ही धोखा भी।

भोग और दमन के बीच में द्वार है -- शांति का, मुक्ति का, शक्ति का, सत्य का, समाधि का।

उस द्वार को खोज।

रजनीश के प्रणाम

७.९.१९७०


See also
Dhai Aakhar Prem Ka ~ 033 - The event of this letter.