Letter written on 25 Jul 1962 am: Difference between revisions
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रजनीश | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (म.प्र.) | |||
प्रभात:<br> | |||
२५/७/६२ | |||
प्रिय मां,<br> | |||
एक जैन साधु कल आये थे। ध्यान की साधना पर उनसे बातें हुई हैं। ध्यान करने भी उन्हें बैठाया था। यह जानकार बहुत आश्चर्य होता है कि मन के स्वरूप के संबंध में कितनी भ्रान्त और मिथ्या धारणायें प्रचलित हैं। उसे शत्रु मानकर साधना प्रारंभ करने से सब साधना ही गलत होजाती है। न मन शत्रु है, न शरीर शत्रु है। वे तो यंत्र हैं और सहयोगी हैं। चेतना उनका जैसा उपयोग करना चाहे कर सकती है। प्रारंभ से ही शत्रुता और संघर्ष की वृत्ति दमन पैदा करती है और परिणाम स्वरूप सारा जीवन बिषाक्त होजाता है। | |||
मनुष्य का मन स्वभावतः आनंदोन्मुख है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह तो उसका स्वरूप के प्रति आकर्षण है। यह न हो तो व्यक्ति कभी आत्मिक जीवन की ओर ही नहीं जासकता। यह मन आनंद की खोज संसार में करता है और फिर जब उसे वहां नहीं पाता है तो भीतर की ओर मुड़ता है। | |||
आनंद केन्द्र है। संसार का भी – मोक्ष का भी। उसकी धुरी पर ही सारा लौकिक पारलौकिक जीवन घूमता है। | |||
इस आनंद की झलक बाहर दीखती है : इससे बाहर दौड़ होती है। ध्यान से पूरा आनंद का वास्तविक स्त्रोत दीखने लगता है इससे दिशा वहां मुड़ जाती है। मन को जबरदस्ती भीतर नहीं मोड़ना है। इस दमन से ही वह शत्रु मालुम होने लगता है। आनंद का नया आयाम खोलना है। इस द्वार के खुलते ही मन अपने आप भीतर जाता पाया जाता है। वह तो आनंदोन्मुख है : जहां आनंद है वहां उसकी सहज गति है। | |||
आनंद जीवन का लक्ष्य है। आनंद – अखंड आनंद जीवन का उद्देश्य है। संसार में उसकी झलक है – प्रतिफलन है : मोक्ष में उसका मूल स्त्रोत है। बाहर उसका प्रक्षेप है, भीतर उसका मूल है। परिधि पर उसकी छाया है, केन्द्र पर उसके प्राण है। इससे संसार मोक्ष का विरोध नहीं है। बाहर भीतर का शत्रु नहीं है। समस्त सत्ता एक संगीत है। इस सत्य के दर्शन होते ही व्यक्ति बंधन के बाहर होजाता है। | |||
इस संगीत के अनुभव का नाम ही ईश्वर साक्षात् है। | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
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:[[Krantibeej ~ 099]] - The event of this letter. | |||
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. | |||
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Latest revision as of 03:51, 25 May 2022
This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 25 July 1962 in the morning.
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 99 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 143 (2002 Diamond edition), date provided by the book is 28 July 1962 am.
रजनीश ११५, नेपियर टाउन प्रभात: प्रिय मां, मनुष्य का मन स्वभावतः आनंदोन्मुख है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह तो उसका स्वरूप के प्रति आकर्षण है। यह न हो तो व्यक्ति कभी आत्मिक जीवन की ओर ही नहीं जासकता। यह मन आनंद की खोज संसार में करता है और फिर जब उसे वहां नहीं पाता है तो भीतर की ओर मुड़ता है। आनंद केन्द्र है। संसार का भी – मोक्ष का भी। उसकी धुरी पर ही सारा लौकिक पारलौकिक जीवन घूमता है। इस आनंद की झलक बाहर दीखती है : इससे बाहर दौड़ होती है। ध्यान से पूरा आनंद का वास्तविक स्त्रोत दीखने लगता है इससे दिशा वहां मुड़ जाती है। मन को जबरदस्ती भीतर नहीं मोड़ना है। इस दमन से ही वह शत्रु मालुम होने लगता है। आनंद का नया आयाम खोलना है। इस द्वार के खुलते ही मन अपने आप भीतर जाता पाया जाता है। वह तो आनंदोन्मुख है : जहां आनंद है वहां उसकी सहज गति है। आनंद जीवन का लक्ष्य है। आनंद – अखंड आनंद जीवन का उद्देश्य है। संसार में उसकी झलक है – प्रतिफलन है : मोक्ष में उसका मूल स्त्रोत है। बाहर उसका प्रक्षेप है, भीतर उसका मूल है। परिधि पर उसकी छाया है, केन्द्र पर उसके प्राण है। इससे संसार मोक्ष का विरोध नहीं है। बाहर भीतर का शत्रु नहीं है। समस्त सत्ता एक संगीत है। इस सत्य के दर्शन होते ही व्यक्ति बंधन के बाहर होजाता है। इस संगीत के अनुभव का नाम ही ईश्वर साक्षात् है। रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 099 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.