Letter written on 21 Jan 1963: Difference between revisions
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मैं कल कहा हूँ : मिट्टी फूल बन जाती है और गंदगी खाद बनकर सुगंध में परिणित होती है। ऐसे ही मनुष्य के विकार हैं। वे शक्ति हैं। जो मनुष्य में पशु जैसा दीखता है वही दिशा परिवर्तित होने पर दिव्यता को उपलब्ध होजाता है। इसलिए अदिव्य भी बीजरूप में दिव्य ही है। और तब, वस्तुतः अदिव्य कुछ भी नहीं हैं। समस्त जीवन दिव्यता है। सब कुछ दिव्य है : भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं। और ऐसा देखने पर कुछ भी घृणा करने योग्य नहीं रह जाता है। जो एक छोर पर पशु है वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशुता में और दिव्यता में विरोध नहीं, विकास है। ऐसी पृष्ठभूमि में चलने पर आत्म-दमन और उत्पीड़न व्यर्थ हैं। वह संघर्ष अवैज्ञानिक है। अपने को दो में तोड़कर कोई कभी आत्म-शांति और ज्ञान को उपलब्ध नहीं होसकता है। जो मैं ही हूँ उसके एक अंश को नष्ट नहीं किया जासकता है। वह दब सकता है : लेकिन जिसे दमन किया गया है उसे निरंतर दमन करना होता है। जो हराया गया है उसे निरंतर हराना होता है। विजय उस मार्ग से कभी पूर्ण नहीं होपाती है। विजय का पथ दूसरा है। वह दमन का नहीं ज्ञान का है। वह गंदगी को हराने का नहीं है क्योंकि वह गंदगी भी मैं ही हूँ। वह उसे खाद बनाने का है। इसे ही पुरानी अलकेमी में ‘लोहे को स्वर्ण बनाना’ कहा गया है। | |||
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Latest revision as of 16:17, 24 May 2022
This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 21 Jan 1963.
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 54 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 192 (2002 Diamond edition).
रजनीश ११५, नेपियर टाउन प्रिय मां, मैं कल कहा हूँ : मिट्टी फूल बन जाती है और गंदगी खाद बनकर सुगंध में परिणित होती है। ऐसे ही मनुष्य के विकार हैं। वे शक्ति हैं। जो मनुष्य में पशु जैसा दीखता है वही दिशा परिवर्तित होने पर दिव्यता को उपलब्ध होजाता है। इसलिए अदिव्य भी बीजरूप में दिव्य ही है। और तब, वस्तुतः अदिव्य कुछ भी नहीं हैं। समस्त जीवन दिव्यता है। सब कुछ दिव्य है : भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं। और ऐसा देखने पर कुछ भी घृणा करने योग्य नहीं रह जाता है। जो एक छोर पर पशु है वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशुता में और दिव्यता में विरोध नहीं, विकास है। ऐसी पृष्ठभूमि में चलने पर आत्म-दमन और उत्पीड़न व्यर्थ हैं। वह संघर्ष अवैज्ञानिक है। अपने को दो में तोड़कर कोई कभी आत्म-शांति और ज्ञान को उपलब्ध नहीं होसकता है। जो मैं ही हूँ उसके एक अंश को नष्ट नहीं किया जासकता है। वह दब सकता है : लेकिन जिसे दमन किया गया है उसे निरंतर दमन करना होता है। जो हराया गया है उसे निरंतर हराना होता है। विजय उस मार्ग से कभी पूर्ण नहीं होपाती है। विजय का पथ दूसरा है। वह दमन का नहीं ज्ञान का है। वह गंदगी को हराने का नहीं है क्योंकि वह गंदगी भी मैं ही हूँ। वह उसे खाद बनाने का है। इसे ही पुरानी अलकेमी में ‘लोहे को स्वर्ण बनाना’ कहा गया है। २१.१.६३ रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 054 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.