Letter written on 29 Apr 1965 am: Difference between revisions

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Letter written to [[Ma Yoga Sohan]] on 29 Apr 1965 in the morning. It has been published in ''[[Prem Ke Phool (प्रेम के फूल)]]'' as letter #121.


Letter written to [[Ma Yoga Sohan]] on 29 Apr 1965 in the morning. It has been published in ''[[Prem Ke Phool (प्रेम के फूल)]]'' as letter #121. We are awaiting a transcription and translation.
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प्रभातः<br>
२९/४/१९६५
 
सोहन,<br>
तेरा पत्र मिला है। अंगुली में क्या चोट मारली है ? दीखता है कि शरीर का कोई ध्यान नहीं रखती है। और, मन के अशांत होने का क्या कारण है ? इस स्वप्न जैसे जगत् में स्वयं को किसी भी कारण से अशांत होने देना ठीक नहीं है। शांति सबसे बड़ा आनंद है, और उससे बड़ी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसके लिए कि उसे खोया जासके। इस पर मनन् करना। सत्य के प्रति सजग होने मात्र से अंतस् में परिवर्तन होते हैं।
 
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मैं सोचता हूँ कि शायद मेरी सेवा के लिए उदयपुर नहीं आसकेगी -- कही इस कारण ही चिंतित न हो। जहां तक तो आना हो ही जायेगा और यदि न भी आसकी तो दुख मत मानना क्योंकि तेरी सेवा मुझे निरंतर ही मिल रही है। किसी का प्रेम ही क्या काफी सेवा नहीं है ? वैसे यदि तू नहीं आपायेगी तो मुझे खाली-खाली तो बहुत लगेगा। अभी तक तो उदयपुर शिविर के साथ तेरे साथ का ख़याल भी जुड़ा हुआ है। और मुझे आशा भी है की तू वहां आजायेगी। यदि गाड़ी लाने में असुविधा हो तो देहली-जनता-एक्सप्रेस से रतलाम आजाओ। मैं ५ मई की रात्रि ९.४० पर भोपाल रतलाम पैसेन्जर से वहां पहुँच रहा हूँ। वहां से १०.४५ रात्रि उदयपुर के लिए साथ ही चलना।
 
माणिक बाबू को प्रेम।
 
वहां शेष सबको मेरे प्रणाम कहना।
 
रजनीश के प्रणाम
 
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Revision as of 13:49, 21 February 2020

Letter written to Ma Yoga Sohan on 29 Apr 1965 in the morning. It has been published in Prem Ke Phool (प्रेम के फूल) as letter #121.

प्रभातः
२९/४/१९६५

सोहन,
तेरा पत्र मिला है। अंगुली में क्या चोट मारली है ? दीखता है कि शरीर का कोई ध्यान नहीं रखती है। और, मन के अशांत होने का क्या कारण है ? इस स्वप्न जैसे जगत् में स्वयं को किसी भी कारण से अशांत होने देना ठीक नहीं है। शांति सबसे बड़ा आनंद है, और उससे बड़ी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसके लिए कि उसे खोया जासके। इस पर मनन् करना। सत्य के प्रति सजग होने मात्र से अंतस् में परिवर्तन होते हैं।

*

मैं सोचता हूँ कि शायद मेरी सेवा के लिए उदयपुर नहीं आसकेगी -- कही इस कारण ही चिंतित न हो। जहां तक तो आना हो ही जायेगा और यदि न भी आसकी तो दुख मत मानना क्योंकि तेरी सेवा मुझे निरंतर ही मिल रही है। किसी का प्रेम ही क्या काफी सेवा नहीं है ? वैसे यदि तू नहीं आपायेगी तो मुझे खाली-खाली तो बहुत लगेगा। अभी तक तो उदयपुर शिविर के साथ तेरे साथ का ख़याल भी जुड़ा हुआ है। और मुझे आशा भी है की तू वहां आजायेगी। यदि गाड़ी लाने में असुविधा हो तो देहली-जनता-एक्सप्रेस से रतलाम आजाओ। मैं ५ मई की रात्रि ९.४० पर भोपाल रतलाम पैसेन्जर से वहां पहुँच रहा हूँ। वहां से १०.४५ रात्रि उदयपुर के लिए साथ ही चलना।

माणिक बाबू को प्रेम।

वहां शेष सबको मेरे प्रणाम कहना।

रजनीश के प्रणाम


See also
Prem Ke Phool ~ 121 - The event of this letter.
Letters to Sohan and Manik - Overview page of these letters.