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- 30 सितंबर | जीवन जागृति केंद्र, जनसभा | "मनुष्य, नीति और भविष्य |" शहीद स्मारक भवन |
- 1 अक्तूबर | रात्रि | डा. बिजलानी के भवन पर विचारगोष्ठी |
- 2 अक्तूबर | डी. एन. जैन कालेज भवन में व्याख्यान |
- 4-5 अक्तूबर धुलिया |
- 7 अक्तूबर | वेट्नॅरी कालेज में |
- 8 अक्तूबर |
- 9 अक्तूबर | जबलपुर में विशाल सत्संग | जीवन जागृति केंद्र द्वारा |
- 10 अक्तूबर | शहीद स्मारक भवन |
- 14 अक्तूबर | रात्रि | जीवन जागृति केंद्र, कार्यकर्ता गोष्ठी |
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(Missing the beginning of the story for sheet 2)
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2 |
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(missing the beginning)
- था क्योंकि धार्मिक व्यक्तियों में सोच-विचार इतनी दुर्लभ बात जो है ! मैं उस व्यक्ति को एक अपवाद समझ रहा था, लेकिन, फिर उसने जो कहा था, उससे मेरा वह स्वप्न एक क्षण में ही खंडित हो गया था !
- वह बोला था : " महाराज, यह जीवन-तीर्थ कहाँ है ? मैने तो यह नाम कभी सुना नहीं | शास्त्र - पुराण में भी बांचा नहीं | फिर भी आप कहते हैं तो मैं वहीं जाने को तैयार हूँ | मुझे तो पाप ढोने से काम है | गंगा में नहाना है, कोई घाट तो मिलते नहीं हैं ? "
- मैं आप से भी प्रेम के मंदिर को खोजने और पवित्रता के तीर्थ में स्नान करने को कहूँगा लेकिन आप भी कहीं वैसा मत समझ लेना जैसा कि मेरे उस मित्र मे समझ लिया था !
- प्रेम परमात्मा का मंदिर है |
- और सत्य जीवन ही धर्म तीर्थ है |
- हेनरी थोरो मृत्यु शैय्या पर था |
- एक वृद्धा ने उससे कहा : " हेनरी, क्या तुमने इश्वर और स्वयं के बीच शांति स्थापित कर ली है ? "
- यह सुन मृत्यु के द्वार खड़े उस व्यक्ति ने कहा था : " देवी! हम आपस में कभी झगड़े हों, एसा मुझे याद नहीं आता है | "
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- " मैं मनुष्य के आर पार देखता हूँ तो क्या पाता हूँ ? पाता हूँ कि मनुष्य भी मिट्टी का एक दिया है | लेकिन वह मिट्टी का दिया साथ ही नहीं है | उसमें वह ज्योतिशिखा भी है जो कि निरंतर सूर्य की ओर उपर उठती रहती है | मिट्टी उसकी देह है | उसकी आत्मा तो यह ज्योति ही है | किंतु, जो इस सतत उर्ध्वगामी ज्योतिशिखा को विस्मृत कर देते हैं, वो बस मिट्टी ही रह जाते हैं | उनके जीवन में उर्ध्वगमन बंद हो जाता है और जहाँ उर्ध्वगमन नहीं है, वहाँ जीवन ही नहीं है |
- मित्र, स्वयं के भीतर देखो ---- चित्त के सारे धुएँ को दूर कर दो और उसे देखो जो कि चेतना की लौ है | स्वयं में जो मर्त्य है, उसके उपर दृष्टि को उठाओ और उसे पहचानो जो कि अमृत है | उसकी पहचान से मूल्यवान और कुछ भी नहीं है: क्योंकि वही पहचान स्वयं के भीतर पशु की मृत्यु और परमात्मा का जन्म बनती है |
- क्या बाहर के दिए जलाने से अभी तृप्ति नहीं हुई है ? उनमें ही उलझे रहे तो भीतर का दिया कब जलाओगे ? जीवन अल्प है और समय प्रतिक्षण बीत जाता है | उठो और जागो, अन्यथा समय बीत जाने पर बहुत पछताना होता है |
- " जीवन उसका है जो जाग जाता है और ज्योति बन जाता है | " -- आचार्य श्री रजनीश
- दीपावली के शुभ अवसर पर हमारी मंगल कामनाएँ स्वीकार करें और आचार्य श्री. रजनीश के उपरोक्त अमृत वचनों को अपने हृदय में स्थान दें | उनमें जो आमंत्रण है, वह आपके हृदय की अभिप्सा बन सके यही हमारी कामना है |
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9R |
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- " धर्म की ओर पहला कदम क्या है ? मानसिक गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ डालना | श्रद्धाओं, विश्वासों और अंधी कल्पनाओं से मुक्त हो जाना ही धर्म की ओर पहला कदम है | "
- धुलिया में सत्संग
- आचार्यश्री. 4 और 5 अक्तूबर के लिए धुलिया पधारे उन्होंने धुलिया में तीन जनसभाओं को संबोधित किया | धुलिया की विचारशील जनता में उनके विचारों से क्रांति की एक लहर फैल गई | जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण ही नया और मौलिक है | उनकी प्रत्येक बात उनकी अपनी ही अनुभूति से उत्पन्न है | फिर भी वे इतनी सरलता से प्रत्येक बात समझाते हैं कि वह सभी की समझ में आ जाती है | बूढ़े और बच्चे सभी उन्हें सुनकर आनंद मग्न हो जाते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : " धर्म का श्रद्धा और विश्वास से संबंध अत्यंत घातक सिद्ध हुआ है | उनके कारण ही धर्म अंधविश्वास बन सका है और हज़ारों वर्षों से मनुष्य को अंधकार में रहना पड़ रहा है | विश्वास मानसिक अन्धेपन और गुलामी का ही दूसरा नाम है | और मानसिक रूप से गुलाम चेतना कैसे मुक्त हो सकती है ----- कैसे आनंद पा सकती है -------- कैसे आलोक को उपलब्ध हो सकती है ? इसलिए, मेरी दृष्टि में तो व्यक्ति की चेतना में धार्मिक क्रांति की शुरुआत अंधविश्वासों के सारे जाले तोड़ देने से ही शुरू होती है | धर्म की और वही पहला कदम है | "
- " जीवन का संगीत है, संतुलन में | अतिवाद पीड़ा है, तनाव है | न शरीर, न आत्मा | न विज्ञान , न धर्म ---- वरन जीवन की समग्रता और पूर्णता पर एक सँस्कृति निर्मित करनी है | "
- धुलिया महाविद्यालय में :
- 4 अक्तूबर की सुबह आचार्यश्री का आगमन धुलिया महाविद्यालय के विधयर्थीयों के बीच हुआ | विद्यार्थियों ने उनकी वाणी अभूतपूर्व शांति और तन्मयता से सुनी | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : " धर्म भी अकेला अधूरा है और विज्ञान भी | शरीर और आत्मा के अद्भुत मिलन और संतुलन में जैसे मनुष्य का जीवन है एसे ही धर्म और विज्ञान के संतुलन से ही मनुष्य की पूर्ण संस्कृति का जन्म हो सकता है |अबतक की सारी सभ्यताएँ और संकृतियाँ अधूरी थीं | इससे ही उनमें मनुष्य का कल्याण भी नहीं हुआ | या तो वे शरीरवादी थीं या आत्मवादी | लेकिन ये दोनों अतियाँ हैं | और अति एक तनाव है | वह एक रोग हैं | वह एक पीड़ा है | जीवन का संगीत तो सदा संतुलन में है, मध्य में है, अति में नहीं , अनति में है | भविष्य में एक एसी ही पूर्ण संस्कृति को जन्म देना है | वह पूर्ण संस्कृति ही मनुष्यता को दुखों और पीड़ाओं के उपर उठा सकती है | "
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- देश के लिए मैं सबकुछ ------- स्वयं को भी खोने को सदा तैयार हूँ ---- आचार्य रजनीश
- आचार्यश्री रजनीश को गुजरात राज्य सरकार ने एक विशाल आश्रम के निर्माण के निमित्त 6.00 or 600 एकड़ भूमि नारगोल समुद्र तट पर देने का निश्चय किया था | 30 -35 लाख की यह भूमि आचारयाश्री रजनीश को निःशुल्क दी जा रही थी | लेकिन उनके गाँधीवाद के संबंध में प्रगट विरोधी विचारों के कारण गुजरात सरकार ने एक विज्ञाप्ति के द्वारा यह सूचित किया है कि वह भूमि अब उन्हें नहीं दी जा सकेगी | आचार्यश्री रजनीश को जैसे ही उनके चिंतित मित्रों ने यह सूचना दी वे हँसने लगे और बोले : " भूमि के लिए ग़लत विचारों का समर्थन नहीं किया जा सकता है | एक छोटे से सत्य के लिए भी बड़ी से बड़ी संपदा छोड़ी जा सकती है | संपदा का मूल्य ही क्या है ? मूल्य तो सदा सत्य का है | सत्य है तो सब कुछ है | सत्य नहीं, तो सब कुछ भी हो तो कुछ भी नहीं है | मैं गाँधी के व्यक्तित्व का उपासक हूँ लेकिन उनके विचारों का नहीं | उन जैसा नैतिक महापुरुष हज़ारों वर्षों में एकाध बार ही पैदा होता है | लेकिन उनके विचार देश के लिए पीछे ले जाने वाले हैं | उनकी दृष्टि सामंतवादी - पूंजीवादी है | देश ने उनकी बात मानी तो हम अपने हाथों ही अपना आत्मघात कर लेंगे | इसलिए मैने निश्चय किया है कि गाँधी शताब्दी वर्ष में गाँधीवाद के विरोध में एक आंदोलन चलाना आवश्यक है | चाहे उसका मूल्य कुछ भी क्यों न चुकाना पड़े | देश के हित के लिए तो मैं सबकुछ ---- स्वयं को भी खोने को सदा तैयार हूँ | "
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- आचार्यश्री. रजनीश की वाणी ने हज़ारों
- हृदयों के तार झनझना दिए हैं | जो स्वयं
- से निराश हो गये थे, वे भी स्वयं के भीतर
- संगीत की संभावना से आशान्वित हुए हैं |
- हज़ारों निराश आँखें आशा से भर गई हैं |
- प्रकाश का जब अवतरण होता है तो एसा
- होना स्वाभाविक ही है
- आचार्यश्री. की अमृतवाणी संकलित होकर
- सबतक पहुँच सके इसी दृष्टि से ' नये बीज '
- का प्रकाशन हम कर रहे हैं ' | जिनकी मानस-
- -भूमि तैयार है, वे इन विचार-बीजों से
- एक बिल्कुल ही अभिनव जीवन में
- प्रवेश कर सकेंगे, एसी हमारी आशा
- और कामना है |
- स्मरण रहे कि अंधकार कितना ही घना
- क्यों ना हो, परमात्मा का प्रकाश सदा ही मौजूद रहता है
- और जिन्हें प्यास होती है वे उसे अवश्य
- ही खोज लेते हैं |
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- |ज्ञान के मार्ग में विश्वास की वृत्ति
- |सबसे बड़ा अवरोध है | विचार की
- |मुक्ति में विश्वास की ही अड़चन है |
- |विश्वास की जंजीरें ही स्वयं की विचारशक्ति को
- |जीवन की यात्रा नहीं करने देती
- |और उनमें घिरा व्यक्ति पानी के
- |घिरे डबरों की भाँति हो जाता है |
- |फिर वह सड़ता है और नष्ट होता
- |है लेकिन सागर की ओर दौड़ना उसे
- |संभव नहीं रह जाता | बांधो नहीं
- |और स्वयं को बांधो नहीं | खोजो
- |-------- खोजने में ही सत्य -
- |-जीवन की प्राप्ति है |
- प्रवचनों से
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- |जीवन एक यात्रा है | हम किसी बिंदु से चल रहे
- |हैं और हमें किसी बिंदु तक पहुँचना है | हमारा
- |होना एक विकास है | हम पूर्ण नहीं हैं, किंतु हमें
- |पूर्ण होना है | पूर्णता के लिए न कोई विकास है
- |न कोई यात्रा है | सब विकास और यात्रा
- |अपूर्णता में है | हम यात्रा में हैं | इस बोध का अर्थ
- |है कि हम अपूर्ण हैं | अपनी अपूर्णता को ध्यान
- |में रखो | अपनी सीमाओं पर मनन करने से
- |अपूर्णता का दर्शन होता है | और अपूर्णता का बोध
- |पूर्णता की अभिप्सा को जन्म देता है | जिसे दिखेगा
- |कि वह अपूर्ण है, वह पूर्ण के लिए आकांक्षा से
- |भर ही जावेगा | जो अनुभव करता है कि वह
- |अस्वस्थ है, वह सहज ही स्वास्थ के लिए
- |कामना करने लगता है | अंधकार का अनुभव होने
- |लगे तो प्रकाश की प्यास पैदा हो ही जाती है |
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14R |
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- सूरज उग रहा था और हम झील पर नौका
- में थे | किसी ने आचार्यश्री. रजनीश से पूछा
- था : ' क्या संपूर्ण धर्म साधना को एक सूत्र में
- कहा जा सकता है ? ' इस प्रश को सुन कर वे हँसने
- लगे थे और बोले थे : "धर्म का रहस्य तो
- अत्यंत बीजरूप है | एक छोटे से सूत्र में ही उसे
- कहा जा सकता है, अन्यथा बड़े से बड़े ग्रंथ भी उसे कहने
- में समर्थ नहीं हैं | ऐसा ही एक बीज-मंत्र
- मैं बताता हूँ | " अहं एतत् न | " ' मैं यह नहीं हूँ | ' इन
- तीन शब्दों
- के इस छोटे से सूत्र को जो साध लेता है, वह स्वयं
- तक और सत्य तक सहज ही पहुँच जाता है |
- और उसे ज्ञात होता है कि
- नश्वर नहीं , ईश्वर है | "
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14V |
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- पूर्णिमा थी और हम सब आचार्यश्री. रजनीश के
- निकट मौन बैठे थे | वे बहुत देर तक चंद्रमा को
- देखते रहे और फिर बोले : " होनेत ने कहा है '
- कोई भी एसी झोपड़ी नहीं है, जहाँ चंद्रमा की रुपहली
- किरणें न पहुँचे' |" और, मैं कहता हूँ कि कोई
- भी एसा मनुष्य नहीं है, जहाँ परमात्मा की
- ज्योति न पहुँचती हो | पर चंद्रमा को देखने के
- लिए आँखें चाहिए और परमात्मा को देखने
- के लिए भी | किंतु, जिन आँखों से परमात्मा
- की ज्योति देखी जाती है, उन्हें श्रम और
- साधना से स्वयं ही पैदा करना होता है | "
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