Letter written on 2 Nov 1964: Difference between revisions

From The Sannyas Wiki
Jump to navigation Jump to search
No edit summary
No edit summary
Line 1: Line 1:
[[image:Sohan_img550.jpg|right|300px]]
Letter written to [[Ma Yoga Sohan|Sohan Bafna]] on 2 Nov 1964. It has been published in ''[[Prem Ke Phool (प्रेम के फूल)]]'' as letter #124, however most of first paragraph left out in the book.


Letter written to [[Ma Yoga Sohan|Sohan Bafna]] on 2 Nov 1964. It has been published in ''[[Prem Ke Phool (प्रेम के फूल)]]'' as letter #124, however most of first paragraph left out in the book. We are awaiting a transcription and translation.
{| class = "wikitable" style="margin-left: 50px; margin-right: 100px;"
|-
|[[image:Sohan_img550.jpg|right|300px]]
 
आचार्य रजनीश
 
 
२ नवम्बर १९६४
 
प्रिय सोहन बाई,<br>
स्नेह । आपका अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र मिला है। इस बीच सोचता हूँ कि मेरा पत्र भी आपको मिल गया होगा। मैं जल्दी पत्र नहीं देसका और आपको बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी --- इसके लिए क्षमा याची हूँ। मैं लिखने के लिए पूरे समय ख़याल में था, पर बाहर था और व्यस्तथा इसलिए समय नहीं पासका। पर स्मरण रहे कि मुझे पूरे समय आपका स्मरण था, और आप पत्र की बाट जोह रही हैं, यह भी ज्ञात था !
 
आपने लिखा है कि मेरे शब्द आपके कानों में गूंज रहे हैं। उनकी गूंज आप की अंतरात्मा को उस लोक में लेजाये जहां शून्य है और सब निःशब्द है, यही मेरी कामना है। शब्द से शून्य पे चलना हैः वहीँ पहुँचकर स्वयं से मिलन होता है।
 
मैं आनंद में हूँ। मेरे प्रेम को स्वीकार करें। उसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है। वही मेरी संपदा है और आश्चर्य तो यह है कि वह एक एैसी संपदा है कि उसे जितना बांटों वह उतनी ही बढ़ती जाती है। वस्तुतः संपदा वही है जो बाटने से बढ़े, जो घट जावे वह कोई संपदा नहीं है !
 
श्री. माणिक लाल जी को और आप सबको मेरा प्रेम कहें।
 
पत्र दें। आप ही नहीं, पत्र की मैं भी प्रतीक्षा करता हूँ !
 
रजनीश के प्रणाम
 
|}





Revision as of 07:34, 19 February 2020

Letter written to Sohan Bafna on 2 Nov 1964. It has been published in Prem Ke Phool (प्रेम के फूल) as letter #124, however most of first paragraph left out in the book.

आचार्य रजनीश

२ नवम्बर १९६४

प्रिय सोहन बाई,
स्नेह । आपका अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र मिला है। इस बीच सोचता हूँ कि मेरा पत्र भी आपको मिल गया होगा। मैं जल्दी पत्र नहीं देसका और आपको बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी --- इसके लिए क्षमा याची हूँ। मैं लिखने के लिए पूरे समय ख़याल में था, पर बाहर था और व्यस्तथा इसलिए समय नहीं पासका। पर स्मरण रहे कि मुझे पूरे समय आपका स्मरण था, और आप पत्र की बाट जोह रही हैं, यह भी ज्ञात था !

आपने लिखा है कि मेरे शब्द आपके कानों में गूंज रहे हैं। उनकी गूंज आप की अंतरात्मा को उस लोक में लेजाये जहां शून्य है और सब निःशब्द है, यही मेरी कामना है। शब्द से शून्य पे चलना हैः वहीँ पहुँचकर स्वयं से मिलन होता है।

मैं आनंद में हूँ। मेरे प्रेम को स्वीकार करें। उसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है। वही मेरी संपदा है और आश्चर्य तो यह है कि वह एक एैसी संपदा है कि उसे जितना बांटों वह उतनी ही बढ़ती जाती है। वस्तुतः संपदा वही है जो बाटने से बढ़े, जो घट जावे वह कोई संपदा नहीं है !

श्री. माणिक लाल जी को और आप सबको मेरा प्रेम कहें।

पत्र दें। आप ही नहीं, पत्र की मैं भी प्रतीक्षा करता हूँ !

रजनीश के प्रणाम


See also
Prem Ke Phool ~ 124 - The event of this letter.
Letters to Sohan and Manik - Overview page of these letters.