Letter written on 12 Apr 1962: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 12 Apr 1962.
 
This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 111 (2002 Diamond edition).
 
The PS reads: "That night I arrived all well. While taking leave of you at the time of that silent night incidentally it was felt - in what all places and births meeting and parting wouldn't have happened. How many times wouldn't have left you all that - all that is amazing play of life. Convey my humble pranam to all - hoping that you must have reached home."
 
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रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म.प्र.)
 
प्यारी मां,<br>
रात्रि जोर की आंधियां चली हैं और पानी पड़ा है। सुबह घूमने गया तो सब गीला-गीला था और आकाश बादलों से भरा था।
 
अब सूरज उठ आया है। नीम के फूलों की गंध में डूब मैं उसके उठने को देख रहा हूँ।
 
मैं कहा कि सूरज उठ रहा है; शायद यह कहना थीक नहीं है। उठने में उसका कोई संकल्प नहीं है – उसकी अपनी कोई निर्णायक शक्ति नहीं है – ‘वह’ नहीं है।
 
ऐसा ही मनुष्य भी है। यांत्रिक और परतंत्र। उसमें भी बस कुछ होता रहता है। वह भी जबतक यांत्रिक है, तबतक नहीं है।
 
यह यांत्रिकता – यह न होना ही दुख है, संताप है।
 
पर यह संताप चरम नहीं है। इसके पार उठना संभव है। मनुष्य की समस्त यांत्रिकता और जड़ता के भीतर भी कुछ है जो जड़ नहीं है। इस कुछ में ही जीवन की, स्वतंत्रता की, मुक्ति की संभावना है।
 
मनुष्य से अधिक दुखी और दरिद्र भी कोई नहीं है; मनुष्य से अधिक समृद्ध और दिव्य भी कोई और नहीं है।
 
चेतना की एक छोटी सी चिनगारी उसमें है। उसे ही फूंकना और चमकाना है। उसके सम्यक्‌ रूप से जल उठते ही सब दरिद्रता और दुख जल जाता है।
 
और फिर उदय होता है आनंद का, अमृत का, दिव्यता का। जो सदा से था, वह प्रगट होजाता है। नित्य-मुक्त, सत्‌-चित्‌-आनंद।
 
इस अलौकिक का नाम ही ब्रह्म है।


This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 12 Apr 1962.
रजनीश के प्रणाम
 
अप्रैल १२, १९६२
 
 
(पुनश्च: मैं उस रात्रि सकुशल आ गया था। उस एकांत अर्ध रात्रि की बेला में विदा होते अचानक ऐसा लगा था कि ऐसे किन किन स्थानों और जन्मों में मिलना बिछुड़ना नहीं होता रहा है। कितनी बार नहीं आपको छोड़ा होगा वही सब, वही सब जीवन अद्‌भूत लीला है। सबको विनम्र मेरे प्रणाम कहें – सोचता हूँ कि आप घर पहुँच गई हैं।)


This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 111 (2002 Diamond edition). We are awaiting a transcription and translation.
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Revision as of 11:06, 10 March 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 12 Apr 1962.

This letter has been published, in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 111 (2002 Diamond edition).

The PS reads: "That night I arrived all well. While taking leave of you at the time of that silent night incidentally it was felt - in what all places and births meeting and parting wouldn't have happened. How many times wouldn't have left you all that - all that is amazing play of life. Convey my humble pranam to all - hoping that you must have reached home."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

प्यारी मां,
रात्रि जोर की आंधियां चली हैं और पानी पड़ा है। सुबह घूमने गया तो सब गीला-गीला था और आकाश बादलों से भरा था।

अब सूरज उठ आया है। नीम के फूलों की गंध में डूब मैं उसके उठने को देख रहा हूँ।

मैं कहा कि सूरज उठ रहा है; शायद यह कहना थीक नहीं है। उठने में उसका कोई संकल्प नहीं है – उसकी अपनी कोई निर्णायक शक्ति नहीं है – ‘वह’ नहीं है।

ऐसा ही मनुष्य भी है। यांत्रिक और परतंत्र। उसमें भी बस कुछ होता रहता है। वह भी जबतक यांत्रिक है, तबतक नहीं है।

यह यांत्रिकता – यह न होना ही दुख है, संताप है।

पर यह संताप चरम नहीं है। इसके पार उठना संभव है। मनुष्य की समस्त यांत्रिकता और जड़ता के भीतर भी कुछ है जो जड़ नहीं है। इस कुछ में ही जीवन की, स्वतंत्रता की, मुक्ति की संभावना है।

मनुष्य से अधिक दुखी और दरिद्र भी कोई नहीं है; मनुष्य से अधिक समृद्ध और दिव्य भी कोई और नहीं है।

चेतना की एक छोटी सी चिनगारी उसमें है। उसे ही फूंकना और चमकाना है। उसके सम्यक्‌ रूप से जल उठते ही सब दरिद्रता और दुख जल जाता है।

और फिर उदय होता है आनंद का, अमृत का, दिव्यता का। जो सदा से था, वह प्रगट होजाता है। नित्य-मुक्त, सत्‌-चित्‌-आनंद।

इस अलौकिक का नाम ही ब्रह्म है।

रजनीश के प्रणाम

अप्रैल १२, १९६२


(पुनश्च: मैं उस रात्रि सकुशल आ गया था। उस एकांत अर्ध रात्रि की बेला में विदा होते अचानक ऐसा लगा था कि ऐसे किन किन स्थानों और जन्मों में मिलना बिछुड़ना नहीं होता रहा है। कितनी बार नहीं आपको छोड़ा होगा वही सब, वही सब जीवन अद्‌भूत लीला है। सबको विनम्र मेरे प्रणाम कहें – सोचता हूँ कि आप घर पहुँच गई हैं।)


See also
(?) - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.