Manuscripts ~ Jeevan Ki Adrashya Jaden (जीवन की अदृश्य जड़ें): Difference between revisions
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:वस्तुतः हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन कम और जीवित मृत्यु ही ज्यादा है। शरीर से ऊपर और शरीर से भिन्न जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह कहने मात्र को ही जीवित है। जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात जिसे स्वयं का होना अनुभव नहीं होता, वह जीवित नहीं है। उसे जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व भी जीवन का अनुभव नहीं होगा, क्योंकि | :वस्तुतः हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन कम और जीवित मृत्यु ही ज्यादा है। शरीर से ऊपर और शरीर से भिन्न जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह कहने मात्र को ही जीवित है। जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात जिसे स्वयं का होना अनुभव नहीं होता, वह जीवित नहीं है। उसे जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व भी जीवन का अनुभव नहीं होगा, क्योंकि | ||
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:जीवन को खोजो, अन्यथा मृत्यु आपको खोज रही है। वह प्रतिक्षण | :जीवन को खोजो, अन्यथा मृत्यु आपको खोज रही है। वह प्रतिक्षण | ||
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:चर्मच्रुओं से तो केवल दूसरों की मृत्यु का दर्शन होता है, किंतु विचार-च्रु स्वयं को मृत्यु से घिरी और मृत्योन्मुख स्थिति को भी स्पष्ट कर देते हैं। स्वयं को इस संकट की स्थिति में घिरा जान कर ही जीवन को पाने की आकांक्षा का उदभव होता है। जैसे कोई जाने कि वह जिस घर में बैठा है उसमें आग लगी हुई है और फिर | :चर्मच्रुओं से तो केवल दूसरों की मृत्यु का दर्शन होता है, किंतु विचार-च्रु स्वयं को मृत्यु से घिरी और मृत्योन्मुख स्थिति को भी स्पष्ट कर देते हैं। स्वयं को इस संकट की स्थिति में घिरा जान कर ही जीवन को पाने की आकांक्षा का उदभव होता है। जैसे कोई जाने कि वह जिस घर में बैठा है उसमें आग लगी हुई है और फिर | ||
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:--मैं कहता आंखन देखी-20 / 'मैं कौन हूं' से संकलित क्रांति-सूत्र | :--मैं कहता आंखन देखी-20 / 'मैं कौन हूं' से संकलित क्रांति-सूत्र | ||
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:आचार्य श्री उनकी बातें सुन कर हंसने लगे और बोलेः 'एक कहानी सुनो। एक बादशाह किसी युद्ध में हार गया था। | :आचार्य श्री उनकी बातें सुन कर हंसने लगे और बोलेः 'एक कहानी सुनो। एक बादशाह किसी युद्ध में हार गया था। | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-6 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-6 | ||
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:'सिद्धार्थ गौतमी के द्वार से निकल रहे थे। उन्हें देखकर गौतमी ने कहाः 'धन्य है वह माता जिसका ऐसा पुत्र है, धन्य है वह पिता जिसका ऐसा प्रतिबिंब है और धन्य है वह पत्नी जिसका ऐसा स्वामी है।' सिद्धार्थ ने सोचाः 'यह धन्यता और आनंद तो क्षणिक है लेकिन क्या ऐसी भी कोई धन्यता है जो कि क्षणिक न हो? क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं है, जिससे | :'सिद्धार्थ गौतमी के द्वार से निकल रहे थे। उन्हें देखकर गौतमी ने कहाः 'धन्य है वह माता जिसका ऐसा पुत्र है, धन्य है वह पिता जिसका ऐसा प्रतिबिंब है और धन्य है वह पत्नी जिसका ऐसा स्वामी है।' सिद्धार्थ ने सोचाः 'यह धन्यता और आनंद तो क्षणिक है लेकिन क्या ऐसी भी कोई धन्यता है जो कि क्षणिक न हो? क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं है, जिससे | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-19 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-19 | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-3 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-3 | ||
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:फिर थोड़ी देर वे चुप रहे और पुनः कहने लगेः 'संत मलूक ने कहा है कि उन्हें एक शराबी, एक छोटे से बालक और प्रेम में पागल एक युवती के समक्ष बहुत लज्जित होना पड़ा था। पर फिर ये तीनों ही उनके गुरु भी बन गए थे। उन तीनों घटनाओं का बड़ा मधुर इतिहास है। एक दिन एक शराबी नशे में चूर लड़खड़ाता जा रहा था। मलूक ने उससे कहाः 'मित्र, पांव सम्हाल कर रखो, देखो कहीं गिर न जाना।' शराबी जोर से हंसने लगा। उत्तर में बोलाः 'भले मानस! पहले अपने पैर तो सम्हाल। मैं गिरा भी तो शरीर धोने भर से साफ हो जाऊंगा लेकिन तू गिरा तो शुद्धि कठिन है।' मलूक ने सुना और सोचा तो पाया कि बात ठीक ही थी। दूसरी बार एक बालक दीया लिए जा रहा था। मलूक ने उससे पूछाः 'यह दीया कहां से लाए हो?' इतने में ही हवा का एक झोंका आया और दीये को बुझा गया। वह बालक बोलाः 'अब तुम्हीं पहले बताओ कि दीया कहां चला गया है? तब मैं बताऊं कि दीया कहां से लाया था?' मलूक ने अपने अज्ञान को जाना और पहचाना और ज्ञान के भ्रम को विदा दे दी। तीसरी घटना ऐसे हुई कि एक युवती अपने प्रेमी को ढूंढती हुई मलूक के पास आई। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे और उसने घूंघट भी नहीं निकाला था। मलूक उसे इस प्रकार निर्लज्ज देख कर बोलेः 'पहले अपने कपड़े तो सम्हाल, मुंह तो ढंक फिर जो कहना हो सो कहना।' वह युवती बोलीः 'बंधु, मैं प्रभु के हाथों रचे एक प्राणी के प्रेम में मुग्ध होकर बेहोश हो रही हूं। मुझे अपनी देह का भी भान नहीं रहा है और आप मुझे सचेत न कर देते तो मैं ऐसे ही उसे खोजने बाजार में भी निकल जाती। पर यह कितने आश्चर्य की बात है कि प्रभु के | :फिर थोड़ी देर वे चुप रहे और पुनः कहने लगेः 'संत मलूक ने कहा है कि उन्हें एक शराबी, एक छोटे से बालक और प्रेम में पागल एक युवती के समक्ष बहुत लज्जित होना पड़ा था। पर फिर ये तीनों ही उनके गुरु भी बन गए थे। उन तीनों घटनाओं का बड़ा मधुर इतिहास है। एक दिन एक शराबी नशे में चूर लड़खड़ाता जा रहा था। मलूक ने उससे कहाः 'मित्र, पांव सम्हाल कर रखो, देखो कहीं गिर न जाना।' शराबी जोर से हंसने लगा। उत्तर में बोलाः 'भले मानस! पहले अपने पैर तो सम्हाल। मैं गिरा भी तो शरीर धोने भर से साफ हो जाऊंगा लेकिन तू गिरा तो शुद्धि कठिन है।' मलूक ने सुना और सोचा तो पाया कि बात ठीक ही थी। दूसरी बार एक बालक दीया लिए जा रहा था। मलूक ने उससे पूछाः 'यह दीया कहां से लाए हो?' इतने में ही हवा का एक झोंका आया और दीये को बुझा गया। वह बालक बोलाः 'अब तुम्हीं पहले बताओ कि दीया कहां चला गया है? तब मैं बताऊं कि दीया कहां से लाया था?' मलूक ने अपने अज्ञान को जाना और पहचाना और ज्ञान के भ्रम को विदा दे दी। तीसरी घटना ऐसे हुई कि एक युवती अपने प्रेमी को ढूंढती हुई मलूक के पास आई। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे और उसने घूंघट भी नहीं निकाला था। मलूक उसे इस प्रकार निर्लज्ज देख कर बोलेः 'पहले अपने कपड़े तो सम्हाल, मुंह तो ढंक फिर जो कहना हो सो कहना।' वह युवती बोलीः 'बंधु, मैं प्रभु के हाथों रचे एक प्राणी के प्रेम में मुग्ध होकर बेहोश हो रही हूं। मुझे अपनी देह का भी भान नहीं रहा है और आप मुझे सचेत न कर देते तो मैं ऐसे ही उसे खोजने बाजार में भी निकल जाती। पर यह कितने आश्चर्य की बात है कि प्रभु के | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-10 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-10 | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-18 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-18 | ||
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| 10R|| [[image:man0843.jpg|200px]] || [[image:man0843-2.jpg|200px]] || | | 10R|| [[image:man0843.jpg|200px]] || [[image:man0843-2.jpg|200px]] || | ||
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:'वह सत्य नहीं है, इसीलिए तो सत्य को पाने की प्यास है। लेकिन स्वयं के भीतर किसी न किसी चेतन अचेतन तल पर हमें सत्य का भी धुंधला अनुभव हो रहा है, अन्यथा इस 'मैं' को असत्य अनुभव करने का भी कोई कारण नहीं था। इस तथाकथित 'मैं' को खोना होता है। उसके ही नीचे तो सत्य है। वह सत्य इस 'मैं' से ही आवृत है। स्वयं की सतह पर यह 'मैं' है, स्वयं की गहराई में वह 'मैं' है। स्वयं की आत्यंतिक गहराई में जो 'मैं' है, वही सत्य है क्योंकि वह गहराई स्वयं की ही नहीं, सर्व की भी है। जो स्वयं के भीतर जितना गहरा जाता है, वह सर्व के भीतर भी उतना ही गहरा पहुंच जाता है। स्वयं के केंद्र पर ही सत्य का, परमात्मा का वास है। मित्र, केंद्र को पाने के लिए परिधि को खोना ही पड़ता है। इस मूल्य को चुकाए बिना कोई मार्ग नहीं। और यह मूल्य चुकाना सर्वाधिक कठिन तप है क्योंकि स्वयं को | :'वह सत्य नहीं है, इसीलिए तो सत्य को पाने की प्यास है। लेकिन स्वयं के भीतर किसी न किसी चेतन अचेतन तल पर हमें सत्य का भी धुंधला अनुभव हो रहा है, अन्यथा इस 'मैं' को असत्य अनुभव करने का भी कोई कारण नहीं था। इस तथाकथित 'मैं' को खोना होता है। उसके ही नीचे तो सत्य है। वह सत्य इस 'मैं' से ही आवृत है। स्वयं की सतह पर यह 'मैं' है, स्वयं की गहराई में वह 'मैं' है। स्वयं की आत्यंतिक गहराई में जो 'मैं' है, वही सत्य है क्योंकि वह गहराई स्वयं की ही नहीं, सर्व की भी है। जो स्वयं के भीतर जितना गहरा जाता है, वह सर्व के भीतर भी उतना ही गहरा पहुंच जाता है। स्वयं के केंद्र पर ही सत्य का, परमात्मा का वास है। मित्र, केंद्र को पाने के लिए परिधि को खोना ही पड़ता है। इस मूल्य को चुकाए बिना कोई मार्ग नहीं। और यह मूल्य चुकाना सर्वाधिक कठिन तप है क्योंकि स्वयं को | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-14 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-14 | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-15 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-15 | ||
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| 12R|| [[image:man0846.jpg|200px]] || [[image:man0846-2.jpg|200px]] || | | 12R|| [[image:man0846.jpg|200px]] || [[image:man0846-2.jpg|200px]] || | ||
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:मैंने पूछाः 'क्या हमारे विद्यालय विचार नहीं सिखाते हैं?' वे हंसने लगे और बोलेः 'विचार याद कराते हैं। लेकिन विचार करना? नहीं विचार करना नहीं सिखाते हैंः विचार को बाहर से डालना मात्र स्मृति को भरता है। विचार को भीतर से जगाना ज्ञान है। विचार की शक्ति प्रत्येक में प्रसुप्त है। उसे दूसरों के विचारों से भरना नहीं वरन उघाड़ना और आविष्कृत करना है। हम सब निरंतर विचारों से भरे हैं लेकिन कोई यदि पूछे कि क्या आप कभी विचार करते हैं। वस्तुतः तो अधिकांश को ज्ञात ही नहीं है कि उनमें विचार की क्षमता भी है। और ज्ञात होगा भी कैसे? हम केवल उन्हीं क्षमताओं के प्रति सचेत हो पाते हैं जिनका कि हम उपयोग करते हैं। सक्रिय उपयोग से ही क्षमताएं वास्तविकताओं में परिणत होती हैं। निष्क्रिय पड़ी क्षमताएं सहज ही विस्मरण हो जावें तो कोई आश्चर्य नहीं है। विचार-शक्ति ऐसी ही निष्क्रिय पड़ी शक्ति है। साधारणतः हम स्वचालित यंत्रों की भांति प्रतिक्रियाएं करते हैं और विचार का कोई उपयोग ही नहीं होता है। बाहर से आई उत्तेजनाएं | :मैंने पूछाः 'क्या हमारे विद्यालय विचार नहीं सिखाते हैं?' वे हंसने लगे और बोलेः 'विचार याद कराते हैं। लेकिन विचार करना? नहीं विचार करना नहीं सिखाते हैंः विचार को बाहर से डालना मात्र स्मृति को भरता है। विचार को भीतर से जगाना ज्ञान है। विचार की शक्ति प्रत्येक में प्रसुप्त है। उसे दूसरों के विचारों से भरना नहीं वरन उघाड़ना और आविष्कृत करना है। हम सब निरंतर विचारों से भरे हैं लेकिन कोई यदि पूछे कि क्या आप कभी विचार करते हैं। वस्तुतः तो अधिकांश को ज्ञात ही नहीं है कि उनमें विचार की क्षमता भी है। और ज्ञात होगा भी कैसे? हम केवल उन्हीं क्षमताओं के प्रति सचेत हो पाते हैं जिनका कि हम उपयोग करते हैं। सक्रिय उपयोग से ही क्षमताएं वास्तविकताओं में परिणत होती हैं। निष्क्रिय पड़ी क्षमताएं सहज ही विस्मरण हो जावें तो कोई आश्चर्य नहीं है। विचार-शक्ति ऐसी ही निष्क्रिय पड़ी शक्ति है। साधारणतः हम स्वचालित यंत्रों की भांति प्रतिक्रियाएं करते हैं और विचार का कोई उपयोग ही नहीं होता है। बाहर से आई उत्तेजनाएं | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-16 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-16 | ||
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:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-17 | :--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-17 | ||
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Revision as of 15:48, 7 March 2018
Invisible Roots of Life
- year
- 1967
- notes
- 15 sheets. One half sheet. Plus 7 written on reverse.
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".