प्रिय मां,
दोपहर तप गई है। पलाश के वृक्षों पर फूल अंगारों की तरह चमक रहे हैं।
एक सुनसान रास्ते से गुजरता हूँ। बांसों के घने झुरमुठ है और उनकी छाया भली लगती है।
कोई परिचित चिड़िया गीत गाती है। उसके निमंत्रण को मान वहीं रुक जाता हूँ।
एक व्यक्ति साथ हैं। पूछ रहे हैं : “क्रोध को कैसे जीतें, काम को कैसे जीतें?” यह बात तो अब रोज रोज पूछी जाती है। इसके पूछने में ही भूल है। यही उनसे कहता हूँ। समस्या जीतने की है ही नहीं। समस्या मात्र जानने की है। हम न क्रोध को जानते हैं और न काम को जानते हैं। यह अज्ञान ही हमारी पराजय है। जानना जीतना हो जाता है। क्रोध होता है, काम होता है तब हम नहीं होते हैं। होश नहीं होता इसलिए हम नहीं होते हैं। इस मूर्च्छा में जो होता है वह बिल्कुल यांत्रिक है। मूर्च्छा टूटते ही पछतावा आता है पर वह व्यर्थ है क्योंकि जो पछता रहा है वह काम के पकड़ते ही पुनः सोजाने को है। यह न सोपावे – अमूर्च्छा बनी रहे – जागृति – सम्यक् स्मृति बने रहे तो पाया जाता है कि न क्रोध है, न काम है। यांत्रिकता टूट जाती है और फिर किसी को जीतना नहीं पड़ता है। दुशमन पाये ही नहीं जाते हैं।
एक प्रतीक-कथा से समझें। अंधेरे में कोई रस्सी सांप दीखती है। कुछ उसे देखकर भागते हैं; कुछ लड़ने की तैयारी करते हैं। दोनों ही भूल में हैं क्योंकि दोनों ही उसे सांप स्वीकार कर लेते हैं। कोई निकट जाता है और पाता है कि सांप है ही नहीं। उसे कुछ करना नहीं होता; केवल निकट भर जाना होता है।
मनुष्य को अपने निकट भर जाना है। मनुष्य में जो भी है सबसे उसे परिचित होना है। किसी से लड़ना नहीं है और मैं कहता हूँ कि बिना लडे ही विजय घर आ जाती है।