मां,
सुबह एक पत्र मिला है। किसी ने उसमें पूछा है कि जीवन दुख में घिरा है फिर भी आप आनंद की बात कैसे करते हैं? जो है उसे देखें तो आनंद की बातें कल्पना प्रतीत होती है।
उसे उत्तर में लिख रहा हूँ कि निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है : चारों ओर दुख है पर जो घिरा है वह दुख नहीं है। जबतक जो घेरे है उसे देखते रहेंगे दुख ही मालूम होगा पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे जो कि घिरा है तो उसी क्षण दुख असत्य होजाता है और आनन्द सत्य हो जाता है। कुल दृष्टि परिवर्तन की बात है। जो दृष्टि दृष्टा को प्रगट कर देती है वही सम्यक् दृष्टि है। दृष्टा के प्रगट होते ही सब आनंद होजाता है क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत् फिर भी रहता है पर नया होजाता है। आत्म अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालुम हुए थे वे अब कांटे नहीं मालुम होते हैं।
दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है क्योंकि परवर्ती अनुभव से वह खंडित होजाती है। जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक होजाता है वैसे ही स्व-बोध पर दुख होजाता है।