This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 16th July 1963 in the evening. The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the right of and above the rest, which reads:
Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)
Osho's salutation in this letter is a simple "मां", Maan, Mom or Mother. There are a couple of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark up top and a faint but more or less readable mirror-image number bottom right, looking more like 193 than anything else.
The PS reads: "Your letter has been received. You might be touring now. I am well."
आचार्य रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविध्यालय
११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)
रात्रि : १६ जुलाई १९६३
मां,
मैं तीन छोटे छोटे शब्दों के केन्द्र पर मनुष्य की समग्र चेतना को घूमते देखता हूँ। वे तीन शब्द कौन से हैं?
वे शब्द हैं : विवेक, बुद्धि और वृत्ति।
विवेक से श्रेष्ठतम चलते हैं। बुद्धि से वे जो मध्यम हैं। और वृत्ति चेतना की निम्नतम दिशा है।
वृत्ति पाशविक है। बुद्धि मानवीय है। विवेक दिव्य है।
वृत्ति सहज और अंधी है। वह निद्रा है। वह अचेतन का जगत है। वहां न शुभ है, न अशुभ है। कोई भेद वहां नहीं है इससे कोई अन्त:संघर्ष भी नहीं है। वह अंधी वासनाओं का सहज प्रवाह है।
बुद्धि न निद्रा है, न जागरण है। वह अर्ध-मूर्च्छा है। वह वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। वह दहलीज है। उसमें एक अंश चैतन्य हो गया है लेकिन शेष अचेतन है। इससे भेद-बोध है। शुभ-अशुभ का जन्म है। वासना भी है, विचार भी है।
विवेक पूर्ण जाग्रति है। वह शुद्ध चैतन्य है। वह केवल प्रकाश है। वहां भी कोई संघर्ष नहीं है। वह भी सहज है। वह शुभ का, सत् का, सौंदर्य का सहज प्रवाह है।
वृत्ति भी सहज, विवेक भी सहज। वृत्ति अंधी सहजता, विवेक सजग सहजता। बुद्धि भर असहज है। उसमें पीछे की ओर वृत्ति है आगे की ओर विवेक है। उसके शिखर की लौ विवेक की ओर और आधार की जड़ें वृत्ति में हैं। सतह कुछ, तलहटी कुछ। यहीं खिचाव है। पशु में डूबने का आकर्षण - प्रभु में उठने की चुनौती – दोनों एक साथ हैं।
इस चुनौती से डरकर जो पशु में डूबने का प्रयास करते हैं वे भ्रांति में हैं। जो अंश चैतन्य हो गया है वह अब अचेतन नहीं हो सकता है। जगत व्यवस्था में पीछे लौटने का कोई मार्ग नहीं है।
इस चुनौती को मानकर जो सतह पर शुभ-अशुभ का चुनाव करते हैं वे भी भ्रांति में हैं। उस तरह का चुनाव और आचरण परिवर्तन सहज नहीं हो सकता है। वह केवल चेष्ठित अभिनय है। जो चेष्ठित है वह शुभ भी नहीं है। प्रश्न सतह पर नहीं है।तलहटी में है। वहां जो सोया है, उसे जगाना है। अशुभ नहीं, मूर्च्छा छोड़नी है।
अंधेरे में दिया जलाना है।
यह आज कहा हूँ।
रजनीश के प्रणाम
पुन्नश्च: आपका पत्र मिल गया है। इस समय तो यात्रा पर होंगी। मैं स्वस्थ हूँ।