प्रेम ! जोर की हवायें बह रही है। बदलियां उड़ी जाती हैं और छिपा सूरज बाहर प्रिय सोहन, निकल आया है। अभी अभी आकाश कैसा ढंका था ? ऐसा ही मनुष्य - मन है। साधना की हवायें उसकी सारी धूल को उड़ा लेजाती हैं और दर्पण स्वच्छ होजाता है। दर्पण मिटता तो है नहीं, बस ढंक जाता है। मन के दर्पण की धूल से भरे होने की बात तूने लिखी है। वह धूल हट जावेगी। धूल कोई शक्ति नहीं है। एक बार उसे हटाने का स्मरण भर आजाने की बात है।