This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written in Gadarwara on 29th October 1962. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.)" in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.
Osho's salutation in this letter is a fairly typical "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. In the PS, he mentions leaving for Jabalpur on the 31st.
There are few of the hand-written marks that have been observed in other letters: black and red tick marks in the upper right corner and a mirror-image number in the bottom right corner. As with some other recent letters, there are actually two numbers there, one crossed out (142) and replaced by a pink number, 144.
The PS reads: "Your letter is received today. Written a very long letter! I got really tired reading it. On 31st night I will be reaching Jabalpur. Meditation camp is going on, here - some 100 - 150 people are coming. Enthusiasm towards meditation has increased in the people."
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)
गाडरवारा,
२९.१०.६२
प्रिय मां,
रात्रि अभी गई नहीं है और विदा होते तारों से आकाश भरा है। नदी एक पतली चांदी की धार जैसी मालुम होती है। देर रात गिरी ओस से ठंडी हो गई है और हवाओं में बर्फीली ठंडक है।
एक गहरा सन्नाटा है और बीच बीच में पक्षियों की आवाज उसे और गहरा बना देती है।
एक मित्र को साथ ले कुछ जल्दी ही इस एकांत में चला आया हूँ। वे मित्र कह रहें हैं कि एकांत में भय मालुम होता है और सन्नाटा काटता सा लगता है। किसी भांति अपने को भरे रहें तो ठीक अन्यथा न मालुम कैसा संताप और उदासी घेर लेती है।
यह संताप प्रत्येक को घेरता है। कोई भी अपना साक्षात् नहीं करना चाहता है। स्व में झांकने से घबड़ाहट होती है और एकांत स्वयं के साथ छोड़ देता है इसलिए एकांत भयभीत करता है। पर में उलझे हों तो स्व भूल जाता है। वह एक तरह की मूर्च्छा है और पलायन है। सारे जीवन मनुष्य इस पलायन में लगा रहता है पर यह पलायन अस्थायी है और मनुष्य किसी भी भांति अपने आपसे बच नहीं सकता है। बचाव के लिए कीगई उसकी सब चेष्टायें व्यर्थ हो जाती हैं क्योंकि वह जिससे बचना चाह रहा है वह स्वयं तो वही है। मनुष्य भीतर शून्य है। इस शून्य से भागना अज्ञान है। इस शून्य को भरने का विचार भ्रम है।
‘फिर क्या करें?’
इस शून्य से परिचित हों – इस शून्य में चलें – और परिचित होते ज्ञात होता है कि जो संताप प्रतीत होता था वह संताप नहीं, जीवन था। वह दुख नहीं, आनंद है। वह खोना नहीं, पाना है। धर्म इस शून्य से परिचित होने का विज्ञान है। किसी ने कहा है : मनुष्य एकांत में अपने साथ जो करता है वही धर्म है।
धर्म शून्य में होना है।
रजनीश के प्रणाम
पुनश्च: आपका पत्र आज मिला है। खूब लम्बा पत्र लिखा है! मैं तो पढ़ते पढ़ते थक गया हूँ! ३१ की रात्रि जबलपुर पहुँच रहा हूँ। यहां ध्यान का शिविर चल रहा है कोई १००-१५० लोग आरहे हैं। लोगों की ध्यान के प्रति उत्सुकता बढी है।