In PS Osho writes: "Letter has been received. I am delighted to know that you have returned back; blissful."
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)
प्रभात:
२१.७.६२
प्रिय मां,
एक साधु आये थे। जीवन की लम्बी अवधि साधना में बिताई है। हिमालय पर कहीं आश्रम है। अमरकंटक होकर लौट रहे थे फिर किसी ने मेरी बात की होगी सो मिलने आये थे। सब तरह ऊपर से शांत और सरल दीखते हैं। पर सरलता और शांति के भीतर कहीं कड़ापन है और अहंकार छिपा बैठा है। मैं देख रहा हूँ कि जहां भी प्रयास है वहीं, अहंकार पुष्ट होजाता है। ईश्वर को पाने का प्रयास भी अहं को ही भरता है। ईश्वर को पाने की बात ही व्यर्थ है : अपने को खोने की बात ही मुझे सार्थक दीखती है।
ईश्वर को क्या पाना है? वह तो है ही। ‘मैं’ को ही खोना है क्योंकि उसके कारण ही जो ‘है’ वह नहीं दीख रहा है। इस ‘मैं’ को खोने के लिए प्रयास और अभ्यास की आवश्यकता नहीं है। संकल्प यहां व्यर्थ है। प्रतिज्ञा असंगत है। क्योंकि सब संकल्प और सब प्रतिज्ञायें ‘मैं’ ही से उपजती हैं और जो ‘मैं’ से पैदा होता है वह ‘मैं’ का अंत नहीं होसकता है।
यह सत्य दीखे तो बिना कुछ किये सब उपलब्ध होजाता है।
यह उपलब्धि किसी क्रिया के, किसी साधना के अंत में नहीं है, यह तो प्रारंभ में ही है। कोई क्रिया इसतक नहीं लेजाती है, वरन् विपरीतत:, जब सब क्रियायें, – क्रिया मात्र शांत और शून्य होती है, तब इसका अवतरण होता है। खोदने से कंकड पत्थर मिलते हैं, जो सबसे बहुमूल्य है, जो अमूल्य है वह बिना खोदे ही मिल जाता है। कारण, वह खोया नहीं है, वह निरंतर है केवल हम उसे विस्मरण कर गये हैं। स्व-स्मृति ही प्राप्ति है।
रजनीश के प्रणाम
पुनश्च: पत्र मिल गया है। आप आनंदित लौटी हैं यह जानकर प्रसन्न हूँ।