The PS reads: "I will be going to Gadarwara in the evening on 18 May. Will be staying till 30 May, there. Inform there if there is any talk about going to Buldhana. Rest, OK. My pranam to all. How is the health of Sharda, now?"
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)
प्रभात:
१७ मई १९६२
मां,
एक कोने में पड़ा हुआ बहुत दिन का दर्पण मिला है। धूल ने उसे पूरा का पूरा छिपा रखा है। दीखता नहीं है कि वह अब भी दर्पण है और प्रतिबिम्बों को पकड़ने में समर्थ होगा। धूल सबकुछ होगई है और दर्पण न कुछ होगया है। प्रगटतः, धूल ही है और दर्पण नहीं है। पर क्या सच ही धूल में छिपकर दर्पण नष्ट हुआ है? दर्पण अब भी दर्पण है – उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। धूल ऊपर है और दर्पण में नहीं है। धूल एक पर्दा बन गई है। पर पर्दा केवल आवेष्टित करता है, नष्ट नहीं। और इस पर्दे को हटाते ही जो है वह पुनः प्रगट होजाता है।
एक व्यक्ति से यह कहा हूँ और कहा हूँ कि मनुष्य की चेतना भी इस दर्पण की भांति ही है। वासना की धूल है उस पर। विकारों का पर्दा है उस पर। विचारों की परतें हैं उस पर। पर चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है। वह वही है। वह सदा वही है। पर्दा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब पर्दे ऊपर हैं इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।
आत्मा को पाना आसान है क्योंकि बीच में धूल के एक झीने पर्दे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और पर्दे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।
रजनीश
के
प्रणाम
पुनश्च: मैं १८ मई की संध्या गाडरवारा जारहा हूँ। ३० मई तक वहां रुकूँगा। बुलढ़ाना जाने की बात हो तो वहीं सूचित करें। शेष शुभ। सबको मेरे प्रणाम। शारदा का स्वास्थ्य अब कैसा है?