प्यारी सोहन,
मैं कल यहां आगया। आते लिखने की सोचता रहा,पर अब लिख पारहा हूँ। देर के लिए क्षमा करना। एक दिन की देर भी कोई थोड़ी देर तो नहीं है !
वापिसी यात्रा के लिए क्या कहूँ ?बहुत आनंदपूर्ण हुई। पुरे समय सोया रहा और तू साथ बनी रही। यूं तुझे पीछे छोड़ आया था -- पर नहीं, तू साथ ही थी। और,ऐसा साथ ही साथ है, जो कि छोड़ा नहीं जासकता है। शरीर की निकटता निकट होकर भी निकट नहीं है। उस तल पर कभी कोई मिलन नहीं होता -- वहां बीच में अलंघ्य खाई है। पर एक और निकटता भी है जो कि शरीर की नहीं है। उस निकटता का नाम ही प्रेम है। उसे पाकर फिर खोया नहीं जासकता है और तब दृश्य जग़त् में अनंत दूरी होने पर भी अदृश्य में कोई दूरी नहीं होती है।
यह अ- दूरी यदि एक से भी सध जावे तो फिर सब से सध जाती है। एक तो व्दार ही है। साध्य तो सर्व है। प्रेम का प्रारंभ एक है: अंत सर्व है। वही प्रेम जो सर्व से संबंधित होजाता है और जिसकी निकटता के बहार कुछ भी शेष नहीं बचता है -- उसे ही मैं धर्म कहता हूँ। जो प्रेम कहीं भी रुक जाता है, वही अधर्म बन जाता है।