This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 19 May 1962 from Narsinghpur while on journey. Osho informs in PS that he is going to Gadarwara and is going to stay there for 10-12 days.
प्रिय मां,
एक चर्चा में आज उपस्थित था। उपस्थित था जरूर, पर मेरी उपस्थिति न के ही बराबर थी। भागीदार मैं नहीं था; केवल श्रोता था। जो सुना वह तो साधारण था पर जो देखा वह निश्चय ही असाधारण है!
प्रत्येक विचार पर वहां वाद था, विवाद था। वह सब सुना पर दिखाई कुछ और ही दिया। दीखा विवाद विचारों पर नहीं, ‘मैं’ पर है। कोई कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहता है : सब ‘मैं’ को – अपने अपने ‘मैं’ को सिद्ध करना चाहते हैं। विवाद की मूल जड़ इस ‘मैं’ में है। फिर प्रत्यक्ष में केन्द्र कहीं दीखे – अप्रत्यक्ष में केन्द्र वहीं है। जड़ें सदा ही अप्रत्यक्ष होती हैं। दिखाई वे नहीं देती : दीखता है जो वह मूल नहीं है। फूलों पत्तों की भांति जो दीखता है वह गौण है। उस दीखने वाले पर रुक जावें तो समाधान नहीं है क्योंकि समस्या ही वहां नहीं है।
समस्या जहां है; समाधान भी वहीं है। विवाद कहीं नहीं पहुँचते, कारण जो जड़ है उसका ध्यान ही नहीं आता है।
यह भी दिखाई देता है कि जहां विवाद है वहां कोई दूसरे से नहीं बोलता है। प्रत्येक अपने से ही बातें करता है। प्रतीत भर होता है कि बातें हो रही हैं पर जहां ‘मैं’ है वहीं दीवाल है और दूसरे तक पहुँचना कठिन है। ‘मैं’ को साथ लिए संवाद असंभव है।
संसार में अधिक लोग अपने से ही बातें करने में जीवन बिता देते हैं। एक पागलखाने की घटना पढ़ा था। दो पागल विचार विमर्श में तल्लीन थे पर उनका डाक्टर एक बात देखकर हैरान हुआ। वे बातें कर रहे थे जरूर और जब एक बोलता था तो दूसरा चुप रहता था पर दोनों की बातों में कोई सम्बंध, कोई संगति नहीं थी। उसने उनसे पूछा कि जब तुम्हें अपनी अपनी ही कहना है तो एक दूसरे के बोलते समय चुप क्यों रहते हो? पागलों ने कहा : ‘सम्वाद का नियम हमें मालुम है : जब एक बोलता है तब दूसरे को चुप रहना नियमानुसार आवश्यक है।‘
यह कहानी बहुत सत्य है और पागलों के ही नहीं; सबके सम्बंध में सत्य है। बातचीत के नियम का ध्यान रखते हैं सो ठीक; अन्यथा प्रत्येक अपने से ही बोल रहा है।
‘मैं’ को छोड़े बिना कोई दूसरे से नहीं बोल सकता है। और ‘मैं‘ केवल प्रेम में छूटता है। इसलिए प्रेम में ही केवल सम्वाद होता है। उसके अतिरिक्त सब विवाद है और विवाद विक्षिप्तता है क्योंकि उसमें सब अपने द्वारा और अपने से ही कहा जारहा है।
मैं जब उस चर्चा से आने लगा तो किसी ने कहा : “आप कुछ बोले नहीं?” मैंने कहा : “कोई भी नहीं बोला है।‘
रजनीश के प्रणाम
पुनश्च: मैं गाडरवारा जारहा हूँ। १०-१२ दिन वहां रुकने को हूँ।