प्रिय मां,
चांद ऊपर उठ रहा है। दरख्तों को पार करता उसका मद्धिम प्रकाश रास्ते पर पड़ने लगा है और आम्र-फूलों की भीनी गंध से हवायें सुवासित होरही हैं।
मैं एक विचार-गोष्टी से लौटा हूँ। जो थे वहां, अधिकतर युवक थे। आधुनिकता से प्रभावित और उत्तेजित। अनास्था ही जैसे उनकी आस्था है : निषेध स्वीकार है। उनमें से एक ने कहा : “मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ : मैं स्वतंत्र हूँ।“ इस एक पंक्ति में तो युग की मनःस्थिति प्रतिबिम्बि है। सारा युग इस स्वतंत्रता की छाया में है : बिना यह जाने कि यह स्वतंत्रता आत्महत्या है।
क्यों है यह आत्महत्या? क्योंकि अपने को अस्वीकार किये बिना ईश्वर को अस्वीकार करना असंभव है।
एक कहानी मैंने उनसे कही। कवि मोनशे ने उसपर एक कविता लिखी है : ‘विद्रोही अंगूर।’ ईश्वर के भवन पर फैली एक अंगूर-बेल थी। वह फैलते फैलते, बढ़ते बढ़ते, आज्ञा मानते मानते थक गई थी। उसका मन परतंत्रता से ऊब गया था और फिर एक दिन उसने भी स्वतंत्र होना चाहा था। वह जोर से चिल्लाई थी कि सारे आकाश सुनलें : ‘मैं अब बढूँगी नहीं!’
‘मैं अब बढूँगी नहीं!’
‘मैं अब बढूँगी नहीं!’
यह विद्रोह निश्चय ही मौलिक था क्योंकि स्वभाव के प्रति ही था। ईश्वर ने बाहर झांककर कहा : “न बढ़ो, बढ़ने की आवश्यकता ही क्या है!” बेल खुश हुई : विद्रोह सफल हुआ था। वह न बढ़ने के श्रम में लग गई। पर बढ़ना न रुका, न रुका। वह न बढ़ने में लगी रही और बढ़ती गई, बढ़ती गई..... और ईश्वर यह पूर्व से ही जानता था!
यही स्थिति है। ईश्वर हमारा स्वभाव है। वह हमारा आंतरिक नियम है। उससे दूर नहीं जाया जासकता है। वह हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। कितना ही अस्वीकार करें उसे, कितना ही स्वतंत्र होना चाहें उससे, पर उससे मुक्ति नहीं है; क्योंकि वह हमारा स्व है। वस्तुतः वह ही है और हम कल्पित हैं। इससे कहता हूँ : उससे नहीं, उसमें ही मुक्ति है।