This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 15 Feb 1962 in evening in Satna, waiting room of station.
यात्रा से सतना (स्टेशन विश्रामालय)
संध्या: फर. १९६२
प्रिय मां,
एक घने कोलाहल बीच बैठा हूँ। विश्रामालय में भीड़ भाड़ है। सब बात-चीत में संलग्न है ऐर एक भी व्यक्ति शांत नहीं मालुम होता है।
प्रत्येक के बाहर जितनी बात-चीत है उतनी भीतर भी मालुम होती है। इस विक्षिप्त मनोदशा ने सारे युग को पकड़ लिया है।
एक नये व्यक्ति मेरे पास आकर बैठगये हैं। कोई राजनैतिक नेता मालुम होते हैं। अकेले हैं : बातचीत के लिए उत्सुक हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही शिकार बनूँगा। उनकी आंखों में, उनके चेहरे पर विचार तैर रहे हैं। आखिर उन्होंने बोलना शुरू कर दिया है। अखबारी बातें – चुनाव, राजनीति। मैं सुनता हूँ और मुझे बहुत हंसी आती है। हर आदमी एक रद्दी की टोकरी होगया है। दूसरों की जूठन और उधार बातें सब उसमें इकठ्ठी होजाती हैं। फिर इन्हीं को वह दूसरों पर उलिचने लगता है। इसमें कोई अशिष्टता भी नहीं है। दूसरों के घर में हम कचरा फेंकने में शायद हम डरें पर दूसरों के सिर पर फेंकने में कोई नहीं डरता है!
मैं चुप हूँ, इससे कुछ उब रहे हैं। बात चीत का ताना बाना आगे नहीं बढ़ पारहा है। हां हूँ भी मैंने नहीं की है। आखिर उन्होंने पूछा है कि क्या आप बोलते नहीं हैं? मौन हैं?
मैं फिर भी चुप हूँ। उनकी आंखों को देख रहा हूँ। वे शायद सोच रहे हैं कि किस पागल से मिलना होगया है! अंतत: मैंने कहा है : “एक समय बात चीत की बीमारी मुझे भी थी। उस पागलपन से मैं अब मुक्त होगया हूँ। प्रत्येक को होजाना चाहिए। विचार विकार हैं। उनसे उपर उठकर जीवन का अर्थ और सत्य दीखता है। वह सत्य मुक्तिदायी है।“ वे बोले : “सोचूँगा।“ मुझे हंसी आगई। मैंने कहा : “सोचियेगा? वही तो बीमारी है। केवल देखिए – अपनी बीमार आदत को देखिए। और अभी और यहीं मुक्ति होजाती है।“