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Letter written to Vijay Kumar Jain and Lala Motilal Jain on 10 October 1963.
प्रति--
श्री विजय कुमार जैन ‘भारतीय’
एवं
श्री मोतीलाल जैन ‘विजय’
१०.१०.’६३
प्रिय आत्मन्,
स्नेह। आपके प्रीतिपूर्ण पत्र मिले हैं। मैं बहुत अनुग्रहीत हूँ। अमर सेवा समिति के वार्षिकोत्सव पर उपस्थित होकर मैं धन्य अनुभव करूंगा। धर्म के प्रकाश को फैलाने के समस्त प्रयास स्तुत्य हैं। इस युग के अंधेरे के बाहर धर्म के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। उस दिशा से मनुष्य के प्रसुप्त चैतन्य को जाग्रत किया जा सकता है। और उसी जागरण में मनुष्य का भविष्य और आशा निहित है। पदार्थ में प्रसुप्त जड़ शक्ति को जगाकर विश्व आत्म-घातक विनाश में उलझ गया। चैतन्य में प्रसुप्त जीवन्त शक्ति के जागरण से ही अब बचाव और विकास हो सकता है। अणु शक्ति का उत्तर आत्म-शक्ति से देना है। वही है रक्षा और एकमात्र शरण। पर इस चुनौती को प्रत्येक को स्वीकारना होगा तभी कुछ हो सकता है। सिद्धान्तों से कुछ न होगा। जीवन में चुनौती को झेलना है। और यदि चुनौती ली जा सकी और हम अंधकार में आत्म-शक्ति सिद्ध हो सके तो इस अंधेरी रात के बाहर एक सुप्रभात का जन्म सुनिश्चित है।
यह जानकर प्रसन्न हूँ कि आप सब उसी दिशा में सेवारत हैं। प्रभु सफलता दे यही कामना है।
मैं 9 नवम्बर (शनिवार) को दोपहर कलकत्ता मेल से कटनी पहुचूंगा। रात्रि ही काशी एक्सप्रेस से वापिस होना है। समय नहीं है अन्यथा एक दिन आपके कथनानुसार और रुक सकता था।
शेष शुभ। सबको मेरे प्रणाम कहें।
रजनीश के प्रणाम
पुनश्चः 1. मेरा परिचय पूछा है। कुछ भी दे दें। कुछ खास परिचय है भी क्या?
2. मैं 15 अक्टूबर की रात्रि जबलपुर बीना पैसेन्जर से जयपुर जा रहा हूँ।
3. 9 नवम्बर का आपने मेरा जो कार्यक्रम निश्चित किया है, वह ठीक है।