Letter written on 11 Jun 1962: Difference between revisions
m (Text replacement - "Madan Kunwar Parekh" to "Madan Kunwar Parakh") |
Dhyanantar (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
[[image:Letters to Anandmayee 1004.jpg|right|300px]] | This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 Jun 1962. | ||
This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 96 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 134 (2002 Diamond edition). | |||
{| class = "wikitable" style="margin-left: 50px; margin-right: 100px;" | |||
|- | |||
|[[image:Letters to Anandmayee 1004.jpg|right|300px]] | |||
रजनीश | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (म.प्र.) | |||
११ जून १९६२ | |||
प्रिय मां,<br> | |||
रात्रि घनी हो रही है। आकाश में थोड़े से तारे हैं और पश्चिम में खंडित चांद लटका हुआ है। बेला झूल गया है और उसकी गंध हवा में तैर रही है। | |||
मैं एक महिला को द्वार तक छोड़कर वापिस लौटा हूँ। मैं उन्हें जानता नहीं हूँ। कोई दुख उनके चित्त को घेरे हुए है। उसकी कालिमा उनके चारों ओर एक मंडल बनाकर खड़ी हो गई है। | |||
यह दुख-मंडल उनके आते ही मुझे अनुभव हुआ था। उन्होंने भी, बिना समय खोये, आते ही पूछा था कि क्या कोई दुख मिटाया जा सकता है? मैं उन्हें देखता हूँ : वे दुख की प्रतिमा मालुम होती हैं। | |||
एक क्षण सोच ही नहीं पाता हूँ क्या कहूँ – क्या तो दीखता है, शायद कैसे; नहीं दीख पाता है। | |||
एक मौन अंतराल के बाद अपने को कहता हुआ सुनता हूँ : चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है; कारण; वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटावें तो दूसरा आजाता है। यह श्रंखला चलती जाती है : <u>इस</u> दुख से छूटें, <u>उस</u> दुख से छूटें, पर <u>दुख</u> से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख-निरोध होता है, दुख:मुक्ति होती है। एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुँचा था : दुखी, चिंतित, संतापग्रस्त। उसने जाकर कहा था : ‘संसार कैसा दुख है; संसार कैसी पीड़ा है!’ गौतम बुद्ध बोले थे : “<u>मैं जहां हूँ</u>, वहां आजाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।“ | |||
एक चेतना है जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे : ‘जहां मैं हूँ।’ मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं : अज्ञान की और ज्ञान की; पर-तादात्म्य की और स्व-बोध की। मैं जब तक पर से तादात्म्य कर रहा हूँ, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। पर से मुक्त होकर स्व को जानना और स्व में होना दुख निरोध है। मैं अभी मैं नहीं हूँ : इससे दुख है। मैं जब वस्तुतः मैं होता हूँ तब दुख मिटता है। | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
|} | |||
;See also | ;See also | ||
: | :[[Krantibeej ~ 096]] - The event of this letter. | ||
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. | :[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. |
Revision as of 16:58, 10 March 2020
This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 Jun 1962.
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 96 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 134 (2002 Diamond edition).
रजनीश ११५, नेपियर टाउन ११ जून १९६२ प्रिय मां, मैं एक महिला को द्वार तक छोड़कर वापिस लौटा हूँ। मैं उन्हें जानता नहीं हूँ। कोई दुख उनके चित्त को घेरे हुए है। उसकी कालिमा उनके चारों ओर एक मंडल बनाकर खड़ी हो गई है। यह दुख-मंडल उनके आते ही मुझे अनुभव हुआ था। उन्होंने भी, बिना समय खोये, आते ही पूछा था कि क्या कोई दुख मिटाया जा सकता है? मैं उन्हें देखता हूँ : वे दुख की प्रतिमा मालुम होती हैं। एक क्षण सोच ही नहीं पाता हूँ क्या कहूँ – क्या तो दीखता है, शायद कैसे; नहीं दीख पाता है। एक मौन अंतराल के बाद अपने को कहता हुआ सुनता हूँ : चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है; कारण; वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटावें तो दूसरा आजाता है। यह श्रंखला चलती जाती है : इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख-निरोध होता है, दुख:मुक्ति होती है। एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुँचा था : दुखी, चिंतित, संतापग्रस्त। उसने जाकर कहा था : ‘संसार कैसा दुख है; संसार कैसी पीड़ा है!’ गौतम बुद्ध बोले थे : “मैं जहां हूँ, वहां आजाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।“ एक चेतना है जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे : ‘जहां मैं हूँ।’ मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं : अज्ञान की और ज्ञान की; पर-तादात्म्य की और स्व-बोध की। मैं जब तक पर से तादात्म्य कर रहा हूँ, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। पर से मुक्त होकर स्व को जानना और स्व में होना दुख निरोध है। मैं अभी मैं नहीं हूँ : इससे दुख है। मैं जब वस्तुतः मैं होता हूँ तब दुख मिटता है। रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 096 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.