Letter written on 11 May 1962: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 May 1962 from Prayag (station) while on journey to Kanpur.


This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parekh. It was written on 11 May 1962 during trip to Prayag, on a station.
This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 84 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 118-119 (2002 Diamond edition).


This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 118-119 (2002 Diamond edition). We are awaiting a transcription and translation.
The PS reads: "I am going to Kanpur today. You would have come along yet I left - do you know how much renunciation have been done? That night you were telling right that you would be troubling now! You were troubling earlier also but I am feeling more blissful now."


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And see also [[Letters to Anandmayee]]
रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म.प्र.)
 
(यात्रा से,)<br>
प्रयाग, (स्टेशन)<br>
११ मई १९६२
 
प्यारी मां,<br>
रात्रि पानी पड़ा था और मैं भीतर आ गया था। खिड़कियां बंद थी और बड़ी घुटन मालुम होने लगी थी। फिर खिड़कियां खोलीं और हवा के नये – नहाये झोकों से ताजगी बही – रातरानी की सुगंध भी तैरती हुई आई और फिर मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं है।
 
सुबह एक व्यक्ति आए थे। उन्हें देखकर रात की घुटन याद आगई थी। लगा जैसे उनके मन की सारी खिड़कियां – सारे द्वार बंद है। एक भी झरोखा उनने अपने भीतर खुला नहीं छोड़ा है जिससे बाहर की ताजी हवायें – ताजे विचार – ताजी रोशनी भीतर पहुँच सके। सब बंद दीखा। मैं उनसे बातें किया और जानता रहा कि मैं दीवालों से बातें कर रहा हूँ। अधिक लोग ऐसे ही बंद हैं और जीवन की ताजगी और सौंदर्य और नयेपन से वंचित हैं।
 
मनुष्य अपने ही हाथों अपने को एक कारागार बना लेता है। इस कैद में घुटन और कुंठा मालुम होती है पर उसे मूल कारण का – ऊब और घबड़ाहट के मूल स्रोत का पता नहीं चलता है। समस्त जीवन ऐसे ही बीत जाता है। जो मुक्त गगन में उड़ने का आनंद ले सकता था वह एक तोते के पींजरें में बंद; सांसें तोड़ देता है।
 
चित्त की दीवारें तोड़ देने पर खुला आकाश उपलब्ध होजाता है और खुला आकाश ही जीवन है। यह मुक्ति प्रत्येक पासकता है और यह मुक्ति प्रत्येक को पालेनी है।
 
यह मैं रोज कह रहा हूँ पर शायद मेरी बात सबतक पहुँचती नहीं है। उनकी दीवारें मजबूत हैं पर दीवारें कितनी भी मजबूत क्यों न हो; वे मूलतः कमजोर हैं क्योंकि दुखद हैं। यही आशा है। उनके विरोध में यही आशा की किरण है कि वे दुखद हैं और जो दुखद है वह ज्यादा देर टिक नहीं सकता है। केवल आनंद ही नित्य हो सकता है।
 
रजनीश के प्रणाम
 
 
(पुनश्च: मैं आज कानपुर जारहा हूँ। आप आती थीं साथ और मैं छोड़ आया हूँ। कितना त्याग किया है जानती हैं? उस रात तुम ठीक ही कह रही थीं कि अब मैं सताऊँगी। सताती तो पहले भी थीं पर अब सच ही सताये जाने का ज्यादा आनंद अनुभव कर रहा हूँ।)
 
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;See also
:[[Krantibeej ~ 084]] - The event of this letter.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.
 
[[Category:Manuscripts|Letter 1962-05-11]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1962-05-11]]

Latest revision as of 14:45, 24 May 2022

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 May 1962 from Prayag (station) while on journey to Kanpur.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 84 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 118-119 (2002 Diamond edition).

The PS reads: "I am going to Kanpur today. You would have come along yet I left - do you know how much renunciation have been done? That night you were telling right that you would be troubling now! You were troubling earlier also but I am feeling more blissful now."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

(यात्रा से,)
प्रयाग, (स्टेशन)
११ मई १९६२

प्यारी मां,
रात्रि पानी पड़ा था और मैं भीतर आ गया था। खिड़कियां बंद थी और बड़ी घुटन मालुम होने लगी थी। फिर खिड़कियां खोलीं और हवा के नये – नहाये झोकों से ताजगी बही – रातरानी की सुगंध भी तैरती हुई आई और फिर मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं है।

सुबह एक व्यक्ति आए थे। उन्हें देखकर रात की घुटन याद आगई थी। लगा जैसे उनके मन की सारी खिड़कियां – सारे द्वार बंद है। एक भी झरोखा उनने अपने भीतर खुला नहीं छोड़ा है जिससे बाहर की ताजी हवायें – ताजे विचार – ताजी रोशनी भीतर पहुँच सके। सब बंद दीखा। मैं उनसे बातें किया और जानता रहा कि मैं दीवालों से बातें कर रहा हूँ। अधिक लोग ऐसे ही बंद हैं और जीवन की ताजगी और सौंदर्य और नयेपन से वंचित हैं।

मनुष्य अपने ही हाथों अपने को एक कारागार बना लेता है। इस कैद में घुटन और कुंठा मालुम होती है पर उसे मूल कारण का – ऊब और घबड़ाहट के मूल स्रोत का पता नहीं चलता है। समस्त जीवन ऐसे ही बीत जाता है। जो मुक्त गगन में उड़ने का आनंद ले सकता था वह एक तोते के पींजरें में बंद; सांसें तोड़ देता है।

चित्त की दीवारें तोड़ देने पर खुला आकाश उपलब्ध होजाता है और खुला आकाश ही जीवन है। यह मुक्ति प्रत्येक पासकता है और यह मुक्ति प्रत्येक को पालेनी है।

यह मैं रोज कह रहा हूँ पर शायद मेरी बात सबतक पहुँचती नहीं है। उनकी दीवारें मजबूत हैं पर दीवारें कितनी भी मजबूत क्यों न हो; वे मूलतः कमजोर हैं क्योंकि दुखद हैं। यही आशा है। उनके विरोध में यही आशा की किरण है कि वे दुखद हैं और जो दुखद है वह ज्यादा देर टिक नहीं सकता है। केवल आनंद ही नित्य हो सकता है।

रजनीश के प्रणाम


(पुनश्च: मैं आज कानपुर जारहा हूँ। आप आती थीं साथ और मैं छोड़ आया हूँ। कितना त्याग किया है जानती हैं? उस रात तुम ठीक ही कह रही थीं कि अब मैं सताऊँगी। सताती तो पहले भी थीं पर अब सच ही सताये जाने का ज्यादा आनंद अनुभव कर रहा हूँ।)


See also
Krantibeej ~ 084 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.