Letter written on 13 Mar 1962: Difference between revisions
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This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 43 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 104 (2002 Diamond edition). | |||
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रजनीश | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (म.प्र.) | |||
मां,<br> | |||
सुबह एक पत्र मिला है। किसी ने उसमें पूछा है कि जीवन दुख में घिरा है फिर भी आप आनंद की बात कैसे करते हैं? जो है उसे देखें तो आनंद की बातें कल्पना प्रतीत होती है। | |||
उसे उत्तर में लिख रहा हूँ कि निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है : चारों ओर दुख है <u>पर जो घिरा है</u> वह दुख नहीं है। जबतक जो घेरे है उसे देखते रहेंगे दुख ही मालूम होगा पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे जो कि घिरा है तो उसी क्षण दुख असत्य होजाता है और आनन्द सत्य हो जाता है। कुल दृष्टि परिवर्तन की बात है। जो दृष्टि दृष्टा को प्रगट कर देती है वही सम्यक् दृष्टि है। दृष्टा के प्रगट होते ही सब आनंद होजाता है क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत् फिर भी रहता है पर नया होजाता है। आत्म अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालुम हुए थे वे अब कांटे नहीं मालुम होते हैं। | |||
दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है क्योंकि परवर्ती अनुभव से वह खंडित होजाती है। जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक होजाता है वैसे ही स्व-बोध पर दुख होजाता है। | |||
आनंद सत्य है कारण वह स्व है। | |||
१३ मार्च १९६२ | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
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:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. | :[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. |
Revision as of 08:59, 10 March 2020
This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 13 Mar 1962.
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 43 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 104 (2002 Diamond edition).
रजनीश ११५, नेपियर टाउन मां, उसे उत्तर में लिख रहा हूँ कि निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है : चारों ओर दुख है पर जो घिरा है वह दुख नहीं है। जबतक जो घेरे है उसे देखते रहेंगे दुख ही मालूम होगा पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे जो कि घिरा है तो उसी क्षण दुख असत्य होजाता है और आनन्द सत्य हो जाता है। कुल दृष्टि परिवर्तन की बात है। जो दृष्टि दृष्टा को प्रगट कर देती है वही सम्यक् दृष्टि है। दृष्टा के प्रगट होते ही सब आनंद होजाता है क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत् फिर भी रहता है पर नया होजाता है। आत्म अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालुम हुए थे वे अब कांटे नहीं मालुम होते हैं। दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है क्योंकि परवर्ती अनुभव से वह खंडित होजाती है। जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक होजाता है वैसे ही स्व-बोध पर दुख होजाता है। आनंद सत्य है कारण वह स्व है। १३ मार्च १९६२ रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 043 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.