Letter written on 17 Apr 1962: Difference between revisions
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This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 6 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 112-113 (2002 Diamond edition). | |||
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रजनीश | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (म.प्र.) | |||
यात्रा से -<br> | |||
(उज्जैन)<br> | |||
१७ अप्रैल १९६२ | |||
प्यारी मां,<br> | |||
रात्रि बीत गई है और खेतों में सुबह का सूरज फैल रहा है। एक छोटा सा नाला अभी अभी पार हुआ है। गाड़ी की आवाज सुन – सफेद – चांदनी के फूलों से सफेद बगुलों की एक पंक्ति सूरज की ओर उड़ गई है। | |||
फिर कुछ हुआ है और गाड़ी रुक गई है। इस निर्जन में उसका रुकना भला लगा है। | |||
मेरे अपरिचित सह-यात्री भी उठ आये हैं। रात्रि किसी स्टेशन पर उनका आना हुआ था। शायद मुझे सन्यासी समझ कर प्रणाम किया है। कुछ पूछने की उत्सुकता उनकी आंखों में है। | |||
आखिर वे बोल रहे हैं : ‘अगर कोई बाधा आपको न हो तो मैं एक बात पूछना चाहता हूँ। अभी अभी शायद आप ध्यान में थे। मैं भी ध्यान करना चाहा हूँ। बहुत बार – बहुत बर्षों से प्रयास किया है पर कुछ परिणाम नहीं निकला है। क्या प्रभु मुझपर कृपालु नहीं है?’ | |||
मैंने कहाः “कल मैं एक बगीचे में गया था। कुछ साथी साथ थे। एक को प्यास थी। उसने बाल्टी कुये में डाली : गहरा कुआ था : बाल्टी खींचने में श्रम पड़ा पर बाल्टी जब लौटी तो खाली थी। सब हंसने लगे। मुझे लगा : यह बाल्टी तो मनुष्य के मन जैसी है। उसमें छेद ही छेद थे। बाल्टी नाममात्र को थी : बस छेद ही छेद थे। पानी भरा था पर सब बह गया था। ऐसा ही मन भी हमारा छेद ही छेद है। विचार ही मन के छेद हैं। इस छेद वाले मन को कितना ही प्रभु की ओर फेंको वह खाली ही वापिस लौट आता है। मित्र, पहले बाल्टी ठीक कर लें फिर पानी खींच लेना एकदम आसान है। हां, छेदों वाली बाल्टी से तपश्चर्या तो खूब होगी पर तृप्ति नहीं होसकती है।“ | |||
“विचार-वृत के बाहर चलना ध्यान है। बूरे विचारों के नहीं – समस्त विचारों के बाहर – विचार मात्र के बाहर चलना ध्यान है। बाल्टी में कुछ छेद अच्छे और कुछ बुरे नहीं होते हैं। सब छेद बाधा हैं। सब विचार भी बाधा हैं। सद् विचारों में तल्लीन होने की गलती नहीं करनी है। वह भुल बहुत होती है। मैं सोचता हूँ कि इससे ही आपके प्रयास विफल होगये हैं।“ | |||
उन्होंने एक क्षण सोचा है और फिर बोले हैं : ‘मैं अपनी भूल देख पा रहा हूँ और एक अभिनव शांति मेरे भीतर पैदा हो रही है।‘ | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
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:[[Krantibeej ~ 006]] - The event of this letter. | |||
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. | |||
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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 17 Apr 1962 during tour (Ujjain).
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 6 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 112-113 (2002 Diamond edition).
रजनीश ११५, नेपियर टाउन यात्रा से - प्यारी मां, फिर कुछ हुआ है और गाड़ी रुक गई है। इस निर्जन में उसका रुकना भला लगा है। मेरे अपरिचित सह-यात्री भी उठ आये हैं। रात्रि किसी स्टेशन पर उनका आना हुआ था। शायद मुझे सन्यासी समझ कर प्रणाम किया है। कुछ पूछने की उत्सुकता उनकी आंखों में है। आखिर वे बोल रहे हैं : ‘अगर कोई बाधा आपको न हो तो मैं एक बात पूछना चाहता हूँ। अभी अभी शायद आप ध्यान में थे। मैं भी ध्यान करना चाहा हूँ। बहुत बार – बहुत बर्षों से प्रयास किया है पर कुछ परिणाम नहीं निकला है। क्या प्रभु मुझपर कृपालु नहीं है?’ मैंने कहाः “कल मैं एक बगीचे में गया था। कुछ साथी साथ थे। एक को प्यास थी। उसने बाल्टी कुये में डाली : गहरा कुआ था : बाल्टी खींचने में श्रम पड़ा पर बाल्टी जब लौटी तो खाली थी। सब हंसने लगे। मुझे लगा : यह बाल्टी तो मनुष्य के मन जैसी है। उसमें छेद ही छेद थे। बाल्टी नाममात्र को थी : बस छेद ही छेद थे। पानी भरा था पर सब बह गया था। ऐसा ही मन भी हमारा छेद ही छेद है। विचार ही मन के छेद हैं। इस छेद वाले मन को कितना ही प्रभु की ओर फेंको वह खाली ही वापिस लौट आता है। मित्र, पहले बाल्टी ठीक कर लें फिर पानी खींच लेना एकदम आसान है। हां, छेदों वाली बाल्टी से तपश्चर्या तो खूब होगी पर तृप्ति नहीं होसकती है।“ “विचार-वृत के बाहर चलना ध्यान है। बूरे विचारों के नहीं – समस्त विचारों के बाहर – विचार मात्र के बाहर चलना ध्यान है। बाल्टी में कुछ छेद अच्छे और कुछ बुरे नहीं होते हैं। सब छेद बाधा हैं। सब विचार भी बाधा हैं। सद् विचारों में तल्लीन होने की गलती नहीं करनी है। वह भुल बहुत होती है। मैं सोचता हूँ कि इससे ही आपके प्रयास विफल होगये हैं।“ उन्होंने एक क्षण सोचा है और फिर बोले हैं : ‘मैं अपनी भूल देख पा रहा हूँ और एक अभिनव शांति मेरे भीतर पैदा हो रही है।‘ रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 006 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.