Letter written on 17 Apr 1965 pm: Difference between revisions
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मैं कल यहां आगया। आते लिखने की सोचता रहा,पर अब लिख पारहा हूँ। देर के लिए क्षमा करना। एक दिन की देर भी कोई थोड़ी देर तो नहीं है ! | मैं कल यहां आगया। आते लिखने की सोचता रहा,पर अब लिख पारहा हूँ। देर के लिए क्षमा करना। एक दिन की देर भी कोई थोड़ी देर तो नहीं है ! | ||
वापिसी यात्रा के लिए क्या कहूँ ?बहुत आनंदपूर्ण हुई। पुरे समय सोया रहा और तू साथ बनी रही। यूं तुझे पीछे छोड़ आया था -- पर नहीं, तू साथ ही थी। और,ऐसा साथ ही साथ है, जो कि छोड़ा नहीं जासकता है। शरीर की निकटता निकट होकर भी निकट नहीं है। उस तल पर कभी कोई मिलन नहीं होता -- वहां बीच में अलंघ्य खाई है। पर एक और निकटता भी है जो कि शरीर की नहीं है। उस निकटता का नाम ही प्रेम है। उसे पाकर फिर खोया नहीं जासकता है और तब दृश्य जग़त् में अनंत दूरी होने पर भी अदृश्य में कोई | वापिसी यात्रा के लिए क्या कहूँ ?बहुत आनंदपूर्ण हुई। पुरे समय सोया रहा और तू साथ बनी रही। यूं तुझे पीछे छोड़ आया था -- पर नहीं, तू साथ ही थी। और,ऐसा साथ ही साथ है, जो कि छोड़ा नहीं जासकता है। शरीर की निकटता निकट होकर भी निकट नहीं है। उस तल पर कभी कोई मिलन नहीं होता -- वहां बीच में अलंघ्य खाई है। पर एक और निकटता भी है जो कि शरीर की नहीं है। उस निकटता का नाम ही प्रेम है। उसे पाकर फिर खोया नहीं जासकता है और तब दृश्य जग़त् में अनंत दूरी होने पर भी अदृश्य में कोई दूरी नहीं होती है। | ||
यह अ- दूरी यदि एक से भी सध जावे तो फिर सब से सध जाती है। एक तो व्दार ही है। साध्य तो सर्व है। प्रेम का प्रारंभ एक है: अंत सर्व है। वही प्रेम जो सर्व से संबंधित होजाता है और जिसकी निकटता के बहार कुछ भी शेष नहीं बचता है -- उसे ही मैं धर्म कहता हूँ। जो प्रेम कहीं भी रुक जाता है, वही अधर्म बन जाता है। | यह अ- दूरी यदि एक से भी सध जावे तो फिर सब से सध जाती है। एक तो व्दार ही है। साध्य तो सर्व है। प्रेम का प्रारंभ एक है: अंत सर्व है। वही प्रेम जो सर्व से संबंधित होजाता है और जिसकी निकटता के बहार कुछ भी शेष नहीं बचता है -- उसे ही मैं धर्म कहता हूँ। जो प्रेम कहीं भी रुक जाता है, वही अधर्म बन जाता है। | ||
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:"I came here yesterday (from Bombay)." | |||
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Letter written to Ma Yoga Sohan on 17 Apr 1965 in the evening. It has been published in Prem Ke Phool (प्रेम के फूल) as letter #7.
संध्याः १७/४/१९६५ प्यारी सोहन, वापिसी यात्रा के लिए क्या कहूँ ?बहुत आनंदपूर्ण हुई। पुरे समय सोया रहा और तू साथ बनी रही। यूं तुझे पीछे छोड़ आया था -- पर नहीं, तू साथ ही थी। और,ऐसा साथ ही साथ है, जो कि छोड़ा नहीं जासकता है। शरीर की निकटता निकट होकर भी निकट नहीं है। उस तल पर कभी कोई मिलन नहीं होता -- वहां बीच में अलंघ्य खाई है। पर एक और निकटता भी है जो कि शरीर की नहीं है। उस निकटता का नाम ही प्रेम है। उसे पाकर फिर खोया नहीं जासकता है और तब दृश्य जग़त् में अनंत दूरी होने पर भी अदृश्य में कोई दूरी नहीं होती है। यह अ- दूरी यदि एक से भी सध जावे तो फिर सब से सध जाती है। एक तो व्दार ही है। साध्य तो सर्व है। प्रेम का प्रारंभ एक है: अंत सर्व है। वही प्रेम जो सर्व से संबंधित होजाता है और जिसकी निकटता के बहार कुछ भी शेष नहीं बचता है -- उसे ही मैं धर्म कहता हूँ। जो प्रेम कहीं भी रुक जाता है, वही अधर्म बन जाता है। माणिक बाबू को प्रेम। रजनीश के प्रमाण |
- Partial translation
- "I came here yesterday (from Bombay)."
- See also
- Prem Ke Phool ~ 007 - The event of this letter.
- Letters to Sohan and Manik - Overview page of these letters.