Letter written on 19 Sep 1962: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 19 Sep 1962.


This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parekh. It was written on 19 Sep 1962.
This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 19 (edited and trimmed text).


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रजनीश


And see also [[Letters to Anandmayee]]
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म.प्र.)
 
प्रिय मां,<br>
एक प्रभात गौतम बुद्ध प्रवचन प्रारंभ करने को थे कि अचानक विहार के द्वार पर एक विहग गीत गाने लगा था। गौतम बुद्ध चुप होरहे थे। संघ भी मौन उस गीत को सुनता रहा था। उस शांति में वह गीत दिव्य होगया था। गीत पूरा हुआ था तो तथागत उठ गये थे। उस दिन बस यही मौन प्रवचन हुआ था।
 
और शायद इससे श्रेष्ठ प्रवचन कभी भी नहीं हुआ है!
 
इस जगत्‌ और जीवन में जो भी है सब दिव्य है। सब में विराट की छाप और छाया है। पर हम चुप नहीं है इसलिए उसे नहीं सुन पाते हैं और हमारे चक्षु चित्रों से शून्य नहीं है इसलिए उसे हम नहीं देख पाते हैं।
 
हम हैं इसलिए वह नहीं होपाता है।
 
सब है और कुछ भी नहीं दीखता है क्योंकि देखने वाला मूर्च्छा में है। और फिर इसे खोजने दूर दूर की यात्रा होती है। जो निकट है वह भी खोजा जता है और जैसे जैसे खोज तीव्र होती है वह और खोता जाता है। खोजना नहीं है। सब खोज छोड़ चुप होना है। और इस छोड़ने में ही जो है वह पालिया जाता है। दौड़ना मूर्च्छा है, रुकते ही जाग आजाती है।
 
मैं कल कहा हूँ : रुको और पालो। कोई मछली मुझसे पूछे कि सागर खोजना है तो उससे मैं क्या कहूँगा? मैं कहूँगा : खोज छोड़ो और देखो कि तुम सागर में ही हो! प्रत्येक सागर में है : सागर को पाना नहीं, पीना शुरू करना है।
 
१९ - ९. ६२
 
रजनीश के प्रणाम
 
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;See also
:[[Krantibeej ~ 019]] - The event of this letter.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.
 
[[Category:Manuscripts|Letter 1962-09-19]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1962-09-19]]

Latest revision as of 16:02, 24 May 2022

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 19 Sep 1962.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 19 (edited and trimmed text).

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

प्रिय मां,
एक प्रभात गौतम बुद्ध प्रवचन प्रारंभ करने को थे कि अचानक विहार के द्वार पर एक विहग गीत गाने लगा था। गौतम बुद्ध चुप होरहे थे। संघ भी मौन उस गीत को सुनता रहा था। उस शांति में वह गीत दिव्य होगया था। गीत पूरा हुआ था तो तथागत उठ गये थे। उस दिन बस यही मौन प्रवचन हुआ था।

और शायद इससे श्रेष्ठ प्रवचन कभी भी नहीं हुआ है!

इस जगत्‌ और जीवन में जो भी है सब दिव्य है। सब में विराट की छाप और छाया है। पर हम चुप नहीं है इसलिए उसे नहीं सुन पाते हैं और हमारे चक्षु चित्रों से शून्य नहीं है इसलिए उसे हम नहीं देख पाते हैं।

हम हैं इसलिए वह नहीं होपाता है।

सब है और कुछ भी नहीं दीखता है क्योंकि देखने वाला मूर्च्छा में है। और फिर इसे खोजने दूर दूर की यात्रा होती है। जो निकट है वह भी खोजा जता है और जैसे जैसे खोज तीव्र होती है वह और खोता जाता है। खोजना नहीं है। सब खोज छोड़ चुप होना है। और इस छोड़ने में ही जो है वह पालिया जाता है। दौड़ना मूर्च्छा है, रुकते ही जाग आजाती है।

मैं कल कहा हूँ : रुको और पालो। कोई मछली मुझसे पूछे कि सागर खोजना है तो उससे मैं क्या कहूँगा? मैं कहूँगा : खोज छोड़ो और देखो कि तुम सागर में ही हो! प्रत्येक सागर में है : सागर को पाना नहीं, पीना शुरू करना है।

१९ - ९. ६२

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 019 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.