Letter written on 1 Aug 1962: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 1 August 1962.


This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parekh. It was written on 1 August 1962.
This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 110 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 146 (2002 Diamond edition).


This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 146 (2002 Diamond edition). We are awaiting a transcription and translation.
In PS Osho writes: "Ma, how are you? Do write. How the meditation is going - in the meditation center, now many people are coming here."


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And see also [[Letters to Anandmayee]]
रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म.प्र.)
 
१ अगस्त १९६२
 
प्रिय मां,<br>
सुबह हो गई है। सूरज बदलियों में है और धीमी फुहार पड़ रही है। बर्षा ने सब गीला गीला कर दिया है।
 
एक साधु पानी में भीगते हुए मिलने आये हैं। कोई १५-२० बर्ष हुए तब उन्होंने आत्म-उपलब्धि के लिए गृह-त्याग किया था। समाज और सम्बंध आत्म-लाभ में बाधा समझे जाते हैं। ऐसी मान्यता ने व्यर्थ ही अनेकों को जीवन से तोड़ दिया है।
 
एक कहानी उनसे मैं कहता हूँ। एक पागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल – भौतिक – नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। वह कहती थी कि उसकी काया से सुन्दर काया और दूसरी पृथिवी पर नहीं है। एक दिन उस स्त्री को एक बड़े आदमकद आईने के सामने लाया गया था। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा : और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही; उसने पास रखी कुर्सी को उठाकर दर्पण पर फेंका। दर्पण टुकड़े टुकड़े हो गया तो उसने दुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछने पर बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक किये देरहा था। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।
 
समाज और सम्बंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो हममें होता है, वे केवल उसे ही प्रतिबिम्बित कर देते हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, सम्बंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं, अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदल हो सकती है। यह क्रांति केन्द्र से शुरु होती है; परिधि पर काम करना व्यर्थ ही समय खोना है।
 
स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और सम्बंध कहीं भी बाधा नहीं हैं।
 
रजनीश के प्रणाम
 
 
पुनश्च: मां, कैसी हो? लिखना। ध्यान कैसा चल रहा है। ध्यान केंन्द्र में तो यहां अब काफी लोग आरहे हैं।
 
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;See also
:[[Krantibeej ~ 110]] - The event of this letter.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.
 
[[Category:Manuscripts|Letter 1962-08-01]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1962-08-01]]

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 1 August 1962.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 110 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 146 (2002 Diamond edition).

In PS Osho writes: "Ma, how are you? Do write. How the meditation is going - in the meditation center, now many people are coming here."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

१ अगस्त १९६२

प्रिय मां,
सुबह हो गई है। सूरज बदलियों में है और धीमी फुहार पड़ रही है। बर्षा ने सब गीला गीला कर दिया है।

एक साधु पानी में भीगते हुए मिलने आये हैं। कोई १५-२० बर्ष हुए तब उन्होंने आत्म-उपलब्धि के लिए गृह-त्याग किया था। समाज और सम्बंध आत्म-लाभ में बाधा समझे जाते हैं। ऐसी मान्यता ने व्यर्थ ही अनेकों को जीवन से तोड़ दिया है।

एक कहानी उनसे मैं कहता हूँ। एक पागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल – भौतिक – नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। वह कहती थी कि उसकी काया से सुन्दर काया और दूसरी पृथिवी पर नहीं है। एक दिन उस स्त्री को एक बड़े आदमकद आईने के सामने लाया गया था। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा : और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही; उसने पास रखी कुर्सी को उठाकर दर्पण पर फेंका। दर्पण टुकड़े टुकड़े हो गया तो उसने दुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछने पर बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक किये देरहा था। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।

समाज और सम्बंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो हममें होता है, वे केवल उसे ही प्रतिबिम्बित कर देते हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, सम्बंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं, अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदल हो सकती है। यह क्रांति केन्द्र से शुरु होती है; परिधि पर काम करना व्यर्थ ही समय खोना है।

स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और सम्बंध कहीं भी बाधा नहीं हैं।

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च: मां, कैसी हो? लिखना। ध्यान कैसा चल रहा है। ध्यान केंन्द्र में तो यहां अब काफी लोग आरहे हैं।


See also
Krantibeej ~ 110 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.