The PS reads: "Shree Parakh Ji's letter is received. I am considering to come in the 1st week of May. Have accepted the invitation to speak at 'All World Jain Conference' on 12, 13 and 14 May; being held at Kanpur. It would be good if you also come, I wish to come to Chanda before that. If the date for the annual function of Bal Mandir is finalized write soon - so that I can inform the date of my arrival. Rest, OK. Pranam to all."
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)
प्रिय मां,
सुबह थी, फिर दोपहर आई अब सूरज डूबने को है। एक सुन्दर सूर्यास्त पश्चिम पर फैल रहा है।
मैं रोज दिन को उगते देखता हूँ, दिन को छाते देखता हूँ, दिन को डूबते देखता हूँ। और फिर यह भी देखता हूँ कि न तो मैं उगा, न मैंने दोपहर पाई और न ही मैं अस्त पाता हूँ।
कल यात्रा से लौटा तो यही देख रहा था। सब यात्राओं में ऐसा ही अनुभव होता है : राह बदलती है, पर राही नहीं बदलता है। यात्रा तो परिवर्तन है पर यात्री अपरिवर्तित मालुम होता है।
कल कहां था, आज कहां हूँ; अभी क्या था, अब क्या है – पर जो मैं कल था वही आज भी हूँ जो मैं अभी था, वही अब भी हूँ।
शरीर वही नहीं है; मन वही नहीं है; पर मैं वही हूँ।
दिक् और काल में परिवर्तन है पर इस ‘मैं’ में परिवर्तन नहीं है। सब प्रवाह है पर यह ‘मैं’ प्रवाह का अंग नहीं है। यह उनमें होकर भी उनसे बाहर और उनके अतीत है।
यह नित्य यात्री – यह चिर नूतन, चिर-प्राचीन यात्री ही आत्मा है। परिवर्तन के जगत में इस के प्रति जाग जाना ही मुक्ति है।
२० अप्रैल १९६२
रजनीश के प्रणाम
(पुनश्च: श्री पारख जी का पत्र मिला है। मैं मई के पहले सप्ताह में ही आने की सोच रहा हूँ। १२, १३, और १४ मई को कानपुर में होरहे अखिल विश्व जैन अधिवेशन में बोलने का निमंत्रण स्वीकार किया है। आप भी चलें तो अच्छा है। उसके पूर्व ही मैं चांदा आना चाहता हूँ। बाल मंदिर वार्षिकोत्सव की तारीख तय होगई हो तो शीघ्र लिखें ताकि मैं अपने आने की तारीख सूचित कर सकूँ। शेष शुभ। सबको प्रणाम।)