Letter written on 25 Jan 1962 om: Difference between revisions

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प्रिय मां,<br>
प्रिय मां,<br>
कल रात्रि पानी पड़ा है। मौसम गीला है और अभी अभी फिर धीमी फुहार आनी शुरू हुई है। हवायें नम होगई हैं और वृक्षों से गिरते पत्तों को द्वार तक लारही हैं। लगता है पतझड़ होरही है और वसन्त के आगमन की तैयारी है। रास्ते पत्तों से ढंक रहे हैं और उन पर चलने में सूखे पत्ते मधुर आवाज करते हैं।  
कल रात्रि पानी पड़ा है। मौसम गीला है और अभी अभी धीमी फुहार आनी शुरू हुई है। हवायें नम होगई हैं और वृक्षों से गिरते पत्तों को द्वार तक लारही हैं। लगता है पतझड़ होरही है और वसन्त के आगमन की तैयारी है। रास्ते पत्तों से ढंक रहे हैं और उन पर चलने में सूखे पत्ते मधुर आवाज करते हैं।  


मैं उन पत्तों को देर तक देखता रहा हूँ। जो पक जाता है, वह गिर जाता है। पत्तों पर पत्ते सुबह से शाम तक गिर रहे हैं। पर वृक्षों को उनके गिरने से कोई पीड़ा नहीं होरही है। इससे जीवन का एक अद्‌भुत नियम समझ में आता है। कुछ भी कच्चा तोड़ने में कष्ट है। पकने पर टूटना अपने से हो जाता है।  
मैं उन पत्तों को देर तक देखता रहा हूँ। जो पक जाता है, वह गिर जाता है। पत्तों पर पत्ते सुबह से शाम तक गिर रहे हैं। वृक्षों को उनके गिरने से कोई पीड़ा नहीं होरही है। इससे जीवन का एक अद्‌भुत नियम समझ में आता है। कुछ भी कच्चा तोड़ने में कष्ट है। पकने पर टूटना अपने से हो जाता है।  


एक संन्यासी आए हैं। त्याग उन्हें आनंद नहीं बन पाया है। वह कष्ट है और कठिनाई है। सन्यास अपने से नहीं आया, लाया गया है। मोह के, अज्ञान के, परिग्रह, के अहंकार के पत्ते अभी कच्चे थे। जबरदस्ती की है – पत्ते तो टूट गये पर पीड़ा पीछे छोड़ गये हैं। वह पीड़ा शांति नहीं आने देती है। सोचता हूँ कि आज शाम जाकर पके पत्तों के टूटने का रहस्य उन्हें बताउँ बता आउँ। सन्यास पहले नहीं है। ज्ञान है प्रथम। उसकी आंख आंच में संसार पके पत्तों पत्ते की भांति गिर जाता है। सन्यास लाया नहीं जाता, पाया जाता है।  
एक संन्यासी आए हैं। त्याग उन्हें आनंद नहीं बन पाया है। वह कष्ट है और कठिनाई है। सन्यास अपने से नहीं आया, लाया गया है। मोह के, अज्ञान के, परिग्रह, अहंकार के पत्ते अभी कच्चे थे। जबरदस्ती की है – पत्ते तो टूट गये पर पीड़ा पीछे छोड़ गये हैं। वह पीड़ा शांति नहीं आने देती है। सोचता हूँ कि आज शाम जाकर पके पत्तों के टूटने का रहस्य उन्हें बता आउँ। सन्यास पहले नहीं है। ज्ञान है प्रथम। उसकी आंच में संसार पके पत्ते की भांति गिर जाता है। सन्यास लाया नहीं जाता, पाया जाता है।  


ज्ञान की क्रांति के बाद त्याग कष्ट नहीं, आनंद होजाता है।
ज्ञान की क्रांति के बाद त्याग कष्ट नहीं, आनंद होजाता है।

Revision as of 04:45, 10 March 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 25 Jan 1962 in afternoon.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 36 and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 92 (2002 Diamond edition).

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

प्रिय मां,
कल रात्रि पानी पड़ा है। मौसम गीला है और अभी अभी धीमी फुहार आनी शुरू हुई है। हवायें नम होगई हैं और वृक्षों से गिरते पत्तों को द्वार तक लारही हैं। लगता है पतझड़ होरही है और वसन्त के आगमन की तैयारी है। रास्ते पत्तों से ढंक रहे हैं और उन पर चलने में सूखे पत्ते मधुर आवाज करते हैं।

मैं उन पत्तों को देर तक देखता रहा हूँ। जो पक जाता है, वह गिर जाता है। पत्तों पर पत्ते सुबह से शाम तक गिर रहे हैं। वृक्षों को उनके गिरने से कोई पीड़ा नहीं होरही है। इससे जीवन का एक अद्‌भुत नियम समझ में आता है। कुछ भी कच्चा तोड़ने में कष्ट है। पकने पर टूटना अपने से हो जाता है।

एक संन्यासी आए हैं। त्याग उन्हें आनंद नहीं बन पाया है। वह कष्ट है और कठिनाई है। सन्यास अपने से नहीं आया, लाया गया है। मोह के, अज्ञान के, परिग्रह, अहंकार के पत्ते अभी कच्चे थे। जबरदस्ती की है – पत्ते तो टूट गये पर पीड़ा पीछे छोड़ गये हैं। वह पीड़ा शांति नहीं आने देती है। सोचता हूँ कि आज शाम जाकर पके पत्तों के टूटने का रहस्य उन्हें बता आउँ। सन्यास पहले नहीं है। ज्ञान है प्रथम। उसकी आंच में संसार पके पत्ते की भांति गिर जाता है। सन्यास लाया नहीं जाता, पाया जाता है।

ज्ञान की क्रांति के बाद त्याग कष्ट नहीं, आनंद होजाता है।

दोपहर.
२५ जन. १९६२

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 036 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.