Letter written on 26 Oct 1964: Difference between revisions

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Letter written to [[Ma Yoga Sohan]] on 26 Oct 1964. It has been published in ''[[Prem Ke Phool (प्रेम के फूल)]]'' as letter #125.


Letter written to [[Ma Yoga Sohan]] on 26 Oct 1964. It is unknown if it has been published or not. We are awaiting a transcription and translation.
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आचार्य रजनीश
चिदात्मन्,<br>
स्नेह. साधनाशिविर से लौटकर बाहर चला गया था. रात्रि ही लौटा हूं. इस बीच निरंतर आपका स्मरण बना रहा है. आपकी आखों में परमात्मा को पाने की प्यास को देखा हूं, और आपके ह्रदय की धड़कनों में सत्योपलब्धि के लिये जो व्याकुलता अनुभव की है, उसे भूलना संभव भी नहीं था.<br>
एैसी प्यास सौभाग्य है, क्योंकि उसकी पीड़ा से गुजरकर ही कोई प्राप्ति तक पहुंचता है.<br>
स्मरण रहे कि प्यास ही प्रकाश और प्रेम के जन्म की प्रथम शर्त है.<br>
और, परमात्मा प्रकाश और प्रेम के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. प्रेम ही परिशुद्ध और पूर्ण प्रदीप्त होकर परमात्मा होजाता है. प्रेम पर जब कोई सीमा नहीं होती है, तभी उस निर्धूम स्थिति में प्रेम की अग्नि परमात्मा बन जाती है.<br>
आप में इस विकास की सम्भावना देखी है, और मेरी अंतरात्मा बहुत आनंद से भर गई है.<br>
बीज तो उपस्थित है, अब उसे वृक्ष बनाना है. और, शायद वह समय भी निकट आगया है.<br>
परमात्म अनुभूति की कोई भी संभावना साधना के बिना वास्तविक नहीं बनती है, इसलिये अब उस तरफ सतत और संकल्पपूर्वक ध्यान देना है.<br>
मैं बहुत आशा बांध रहा हूं : क्या आप उन्हें पूरा करेंगी ?<br>
.........<br>
श्री माणिकलालजी और मेरे सब प्रियजनों को वहां मेरे प्रणाम कहना.<br>
मैं पत्र की प्रतीक्षा में हूं. कोरे कागज़ की भी बात हुई थी, वह तो याद होगी न ?<br>
शेष शुभ. मैं बहुत आनंद में हूं.
रजनीश के प्रणाम
२६ अक्तूबर १९६४.
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;Partial translation
:"Love. After returning from Sadhna Shivir I had gone out. I have returned in the night."


;See also
;See also
:[[Letters to Sohan ~ 005]] - The event of this letter.
:[[Prem Ke Phool ~ 125]] - The event of this letter.
:[[Letters to Sohan and Manik]] - Overview page of these letters.
 
[[Category:Manuscripts|Letter 1964-10-26]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1964-10-26]]

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Letter written to Ma Yoga Sohan on 26 Oct 1964. It has been published in Prem Ke Phool (प्रेम के फूल) as letter #125.

आचार्य रजनीश

चिदात्मन्,
स्नेह. साधनाशिविर से लौटकर बाहर चला गया था. रात्रि ही लौटा हूं. इस बीच निरंतर आपका स्मरण बना रहा है. आपकी आखों में परमात्मा को पाने की प्यास को देखा हूं, और आपके ह्रदय की धड़कनों में सत्योपलब्धि के लिये जो व्याकुलता अनुभव की है, उसे भूलना संभव भी नहीं था.
एैसी प्यास सौभाग्य है, क्योंकि उसकी पीड़ा से गुजरकर ही कोई प्राप्ति तक पहुंचता है.
स्मरण रहे कि प्यास ही प्रकाश और प्रेम के जन्म की प्रथम शर्त है.
और, परमात्मा प्रकाश और प्रेम के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. प्रेम ही परिशुद्ध और पूर्ण प्रदीप्त होकर परमात्मा होजाता है. प्रेम पर जब कोई सीमा नहीं होती है, तभी उस निर्धूम स्थिति में प्रेम की अग्नि परमात्मा बन जाती है.
आप में इस विकास की सम्भावना देखी है, और मेरी अंतरात्मा बहुत आनंद से भर गई है.
बीज तो उपस्थित है, अब उसे वृक्ष बनाना है. और, शायद वह समय भी निकट आगया है.
परमात्म अनुभूति की कोई भी संभावना साधना के बिना वास्तविक नहीं बनती है, इसलिये अब उस तरफ सतत और संकल्पपूर्वक ध्यान देना है.
मैं बहुत आशा बांध रहा हूं : क्या आप उन्हें पूरा करेंगी ?
.........
श्री माणिकलालजी और मेरे सब प्रियजनों को वहां मेरे प्रणाम कहना.
मैं पत्र की प्रतीक्षा में हूं. कोरे कागज़ की भी बात हुई थी, वह तो याद होगी न ?
शेष शुभ. मैं बहुत आनंद में हूं.

रजनीश के प्रणाम

२६ अक्तूबर १९६४.

Partial translation
"Love. After returning from Sadhna Shivir I had gone out. I have returned in the night."
See also
Prem Ke Phool ~ 125 - The event of this letter.
Letters to Sohan and Manik - Overview page of these letters.