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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 27th September 1962. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.)" in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.
Osho's salutation in this letter is a fairly typical "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. There are a few of the hand-written marks that have been observed in other letters: black and red tick marks in the top right corner and a mirror-image number in the bottom right corner. As with some other recent letters, there are actually two numbers there, one crossed out (136) and replaced by a pink number, 138.
Osho writes in PS: "Now that your health got spoiled, Ma, you are not leaving me alone at all. Morning-evening, sleeping or awake you are appearing - today even you have talked to me at night - however in the sickness you looked still better!"
रजनीश
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)
२७/९/६२
प्रिय मां,
सूरज निकला है। सर्दियों की सुबह सी लग रही है। रात हवायें ठंडी थी और सुबह दूब पर ओसकण भी छाये हुए थे। अब तो किरणें उन्हें पी गई हैं और धूप भी गरमा गई है।
एक सुखद सुबह दिन का प्रारंभ कर रही है। पक्षियों के अर्थहीन गीत भी कितने अर्थपूर्ण मालुम होरहे हैं – शायद, जीवन में कोई भी अर्थ नहीं है और अर्थ की कल्पना मनुष्य की अपनी है। अर्थ नहीं है शायद इससे ही जीवन में अनंत गहराई और विस्तार है। अर्थ तो सीमा है : जीवन, अस्तित्व है असीम, इससे अर्थ वहां कोई भी नहीं है। और जो अपने को इस असीम में असीम कर लेता है, इस विराट अर्थहीन में अर्थहीन होजाता है, वह उसे पा लेता है ‘जो है’ – वह अस्तित्व को पालेता है। सब अर्थ क्षुद्र है और क्षुद्र का है। सब अर्थ अहं के बिन्दु से देखा गया है। अहं ही अर्थ का केन्द्र है। उससे जो जगत् देखा जाता है वह वास्तविक जगत् नहीं है। जो भी ‘मैं’ से संबंधित है वह वास्तविक नहीं है। सत्य अखंड इकाई है। वह ‘मैं’ और ‘न-मैं’ में विभाजित नहीं है। सब अर्थ ‘मैं’ का है : इससे जो अखंड है; जो ‘मैं’ और ‘न-मैं’ के अतीत है वह अर्थ-शून्य है। इसे कोई भी नाम देना गलत है : इसे ईश्वर भी कहना गलत है। ईश्वर भी ‘मैं’ के ही प्रसंग में है। वह भी ‘मैं’ की ही धारणा है। कहें कि जो भी सार्थक है, वह व्यर्थ है। सार्थकता की सीमा के बाहर होजाना आध्यात्मिक होना है।
बोधिधर्म से सदियों पूर्व चीन में किसी ने पूछा था : ‘निर्वाण की पवित्रता क्या है?’ वह बोला था : “पवित्रता कुछ भी नहीं, केवल शून्यता निर्वाण है।“
रजनीश के प्रणाम
पुनश्च: मां, स्वास्थ्य तुम्हारा क्या बिगड़ा है कि तुम मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही हो! सुबह-शाम, सोते-जागते तुम दीख जाती हो – आज तो रात बातचीत भी कर गई हो – पर बीमारी में और भी अच्छी दीख रही थीं!