Letter written on 28 Aug 1963: Difference between revisions

From The Sannyas Wiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "Madan Kunwar Parekh" to "Madan Kunwar Parakh")
No edit summary
Line 1: Line 1:
[[image:Letters to Anandmayee 906.jpg|right|300px]]
This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 28th August 1963 while on tour, from Damoh (MP). The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the left of and oriented 90º to the rest, which reads:
This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 28th August 1963 while on tour, from Damoh (MP). The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the left of and oriented 90º to the rest, which reads:
:115, Napier Town
:115, Napier Town
Line 7: Line 5:
Osho's salutation in this letter is just plain "मां", Maan, Mom or Mother. Of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark is seen up top, and bottom right has a faint figure, potentially a mirror-image number, but unreadable. The ink used in this letter is entirely black.  
Osho's salutation in this letter is just plain "मां", Maan, Mom or Mother. Of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark is seen up top, and bottom right has a faint figure, potentially a mirror-image number, but unreadable. The ink used in this letter is entirely black.  


The letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 239-240. We are awaiting a transcription and translation.  
The letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 47 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 239-240.
 
{|  style="margin-left: 50px; margin-right: 100px; border: 1px solid black;"
|-
| style="padding: 10px;" |
 
आचार्य रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन,<br>
जबलपुर (म. प्र:)
 
प्रवास से:<br>
दमोह : २८ अगस्त १९६३
 
 
मां,<br>
एक राजा ने एक सामान्यतः स्वस्थ और संतुलित व्यक्ति को कैद कर लिया था : एकाकीपन का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है इस अध्ययन के लिए। वह व्यक्ति कुछ समय तक चीखता-चिल्लाता रहा बाहर जाने के लिए। रोता था, सिर फोड़ता था। उसकी सारी सत्ता जो बाहर थी। सारा जीवन तो पर से, अन्य से बंधा था। अपने में तो वह कुछ भी नहीं था! अकेला होना न होने के ही बराबर था।
 
और सच ही वह धीरे धीरे टूटने लगा। उसके भीतर कुछ विलीन होने लगा। चुप्पी आगया। रूदिन भी चला गया। आंसू भी सूख गये और आंखें ऐसे देखने लगीं जैसे पत्थर की हों। वह देखता हुआ भी लगता कि जैसे नहीं देख रहा है!
 
दिन बीते, माह बीते, बर्ष बीत गया। उसकी सुख-सुविधा की सब व्यवस्था थी। जो उसे बाहर उपलब्ध नहीं था वह सब कैद में उपलब्ध था। शाही आतिथ्य था!
 
लेकिन बर्ष पूरा होने पर विशेषज्ञों ने कहा : ‘वह पागल हो गया है।’
 
ऊपर से वह वैसा ही था। शायद ज्यादा ही स्वस्थ था। लेकिन भीतर?
 
भीतर? एक अर्थ में वह मर ही गया था।
 
: xxx
 
मैं पूछता हूँ : क्या एकाकीपन किसी को पागल कर सकता है? एकाकीपन कैसे पागल करेगा? वस्तुतः <u>वह तो पूर्व से ही है।</u> वाह्‌य सम्बंध उसे छिपाये थे। एकाकीपन उसे अनावृत कर देता हैं।
 
मनुष्य की अपने को भीड़ में खोने की अकुलाहट उससे बचने के लिए ही है।
 
प्रत्येक व्यक्ति इसीलिए ही स्वयं से पलायन किये हुए है।
 
पर यह पलायन स्वास्थ्य नहीं कहा जासकता है। तथ्य को न देखना, उससे मुक्त होना नहीं है।
 
जो नितांत एकाकीपन में स्वस्थ और संतुलित नहीं है वह धोखे में है। यह आत्मवंचना कभी न कभी खंडित होगी ही और वह जो भीतर है उसे उसकी परिपूर्ण नग्नता में जानना होगा। यह अपने आप अनायास होजाये तो व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न और विक्षिप्त हो जाता है। जो दमित है वह कभी न कभी विस्फोट को भी उपलब्ध होता है।
 
धर्म इस एकाकीपन में स्वयं होकर उतरने का विज्ञान है। क्रमशः एक एक पर्त उघाड़ने पर अद्‌भुत सत्य का साक्षात होता है। धीरे धीरे ज्ञात होता है कि वस्तुतः हम अकेले ही हैं। गहराई में, आंतरिकता के केंद्र पर प्रत्येक एकाकी है और उस एकाकीपन से परिचित न होने के कारण भय मालुम होता है। अपरिचित और अज्ञात भय देता है। परिचित होते ही भय की जगह अभय और आनंद लेलेता है। <u>एकाकीपन के घेरे में स्वयं सच्चिदानंद विराजमान है।</u>
 
अपने में उतरकर स्वयं प्रभु को पालिया जाता है। इससे कहता हूँ : अकेलेपन से, अपने से भागो मत वरन्‌ अपने में डूबो। सागर में डूब कर ही मोती पाये जाते हैं।
 
रजनीश के प्रणाम
 
|style="padding: 10px;" |
[[image:Letters to Anandmayee 906.jpg|right|300px]]
|}




;See also
;See also
:(?) - The event of this letter.
:[[Krantibeej ~ 047]] - The event of this letter.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.




[[category:Individual Letters (hi:व्यक्तिगत पत्र)|Letter 1963-08-28]]
[[category:Individual Letters (hi:व्यक्तिगत पत्र)|Letter 1963-08-28]]

Revision as of 05:23, 6 April 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 28th August 1963 while on tour, from Damoh (MP). The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the left of and oriented 90º to the rest, which reads:

115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is just plain "मां", Maan, Mom or Mother. Of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark is seen up top, and bottom right has a faint figure, potentially a mirror-image number, but unreadable. The ink used in this letter is entirely black.

The letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 47 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 239-240.

आचार्य रजनीश

११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र:)

प्रवास से:
दमोह : २८ अगस्त १९६३


मां,
एक राजा ने एक सामान्यतः स्वस्थ और संतुलित व्यक्ति को कैद कर लिया था : एकाकीपन का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है इस अध्ययन के लिए। वह व्यक्ति कुछ समय तक चीखता-चिल्लाता रहा बाहर जाने के लिए। रोता था, सिर फोड़ता था। उसकी सारी सत्ता जो बाहर थी। सारा जीवन तो पर से, अन्य से बंधा था। अपने में तो वह कुछ भी नहीं था! अकेला होना न होने के ही बराबर था।

और सच ही वह धीरे धीरे टूटने लगा। उसके भीतर कुछ विलीन होने लगा। चुप्पी आगया। रूदिन भी चला गया। आंसू भी सूख गये और आंखें ऐसे देखने लगीं जैसे पत्थर की हों। वह देखता हुआ भी लगता कि जैसे नहीं देख रहा है!

दिन बीते, माह बीते, बर्ष बीत गया। उसकी सुख-सुविधा की सब व्यवस्था थी। जो उसे बाहर उपलब्ध नहीं था वह सब कैद में उपलब्ध था। शाही आतिथ्य था!

लेकिन बर्ष पूरा होने पर विशेषज्ञों ने कहा : ‘वह पागल हो गया है।’

ऊपर से वह वैसा ही था। शायद ज्यादा ही स्वस्थ था। लेकिन भीतर?

भीतर? एक अर्थ में वह मर ही गया था।

xxx

मैं पूछता हूँ : क्या एकाकीपन किसी को पागल कर सकता है? एकाकीपन कैसे पागल करेगा? वस्तुतः वह तो पूर्व से ही है। वाह्‌य सम्बंध उसे छिपाये थे। एकाकीपन उसे अनावृत कर देता हैं।

मनुष्य की अपने को भीड़ में खोने की अकुलाहट उससे बचने के लिए ही है।

प्रत्येक व्यक्ति इसीलिए ही स्वयं से पलायन किये हुए है।

पर यह पलायन स्वास्थ्य नहीं कहा जासकता है। तथ्य को न देखना, उससे मुक्त होना नहीं है।

जो नितांत एकाकीपन में स्वस्थ और संतुलित नहीं है वह धोखे में है। यह आत्मवंचना कभी न कभी खंडित होगी ही और वह जो भीतर है उसे उसकी परिपूर्ण नग्नता में जानना होगा। यह अपने आप अनायास होजाये तो व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न और विक्षिप्त हो जाता है। जो दमित है वह कभी न कभी विस्फोट को भी उपलब्ध होता है।

धर्म इस एकाकीपन में स्वयं होकर उतरने का विज्ञान है। क्रमशः एक एक पर्त उघाड़ने पर अद्‌भुत सत्य का साक्षात होता है। धीरे धीरे ज्ञात होता है कि वस्तुतः हम अकेले ही हैं। गहराई में, आंतरिकता के केंद्र पर प्रत्येक एकाकी है और उस एकाकीपन से परिचित न होने के कारण भय मालुम होता है। अपरिचित और अज्ञात भय देता है। परिचित होते ही भय की जगह अभय और आनंद लेलेता है। एकाकीपन के घेरे में स्वयं सच्चिदानंद विराजमान है।

अपने में उतरकर स्वयं प्रभु को पालिया जाता है। इससे कहता हूँ : अकेलेपन से, अपने से भागो मत वरन्‌ अपने में डूबो। सागर में डूब कर ही मोती पाये जाते हैं।

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 047 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.