Letter written on 30 Mar 1962: Difference between revisions
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The PS reads: "Your card has been received. Knowing the confirmation, felt good. It is necessary to stay with Chi. Shushila for one or two days. I was only afraid that you may not change your decision for the sake of me. I will be reaching Jaipur in the morning at 4 o'clock on 7 April by Agra-Ahmedabad Express. Rest, on meeting. Humble pranam to all." | |||
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रजनीश | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (म.प्र.) | |||
प्रिय मां,<br> | |||
कल रात्रि कोई महायात्रा पर निकल गया है। उसके द्वार पर आज रुदिन है। | |||
सुबह-सुबह घूमकर लौटा हूँ : देखता हूँ कि सड़क के किनारे कुछ लोग जमा हैं : एक भिखारी शरीर से मुक्त होगया है। | |||
एक बचपन की स्मृति मन पर दुहर जाती है। पहली बार मरघट जाना हुआ था। चिता जल गई थी और लोग छोटे छोटे झुंड बनाकर बातें कर रहे थे। गांव के एक कवि ने कहा था : “मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ। मृत्यु तो मित्र है।“ | |||
यह बात तबसे अनेक रूपों में अनेक लोगों से सुनी है। जो ऐसा कहते हैं; उनकी आंखों में भी देखा है और पाया है कि भय से ही ऐसी अभय की बातें निकलती हैं। मृत्यु को अच्छे नाम देने से ही कुछ परिवर्तन नहीं होजाता है। वस्तुतः, डर मृत्यु का नहीं है; डर अपरिचय का है। जो अज्ञात है वह भय पैदा करता है। मृत्यु से परिचित होना जरूरी है : परिचय अभय में लेआता है। क्यों? क्योंकि परिचय से ज्ञात होता है कि ‘जो है’ उसकी मृत्यु नहीं है। जिस व्यक्तित्व को हमने अपना ‘मैं’ जाना है, वही टूटता है : उसकी ही मृत्यु है। वह है नहीं, इसलिए टूट जाता है। वह केवल सांयोगिक है : कुछ तत्वों का जोड़ है; जोड़ खुलते ही बिखर जाता है। यही है मृत्यु। और इसलिए व्यक्तित्व के साथ स्वरूप को एक जानना जबतक है तबतक मृत्यु है। | |||
व्यक्तित्व से गहरे उतरें, स्वरूप पर पहुंचे और अमृत उपलब्ध होजाता है। इस यात्रा का - व्यक्तित्व से स्वरूप तक की यात्रा का मार्ग ध्यान है। ध्यान में, समाधि में मृत्यु से परिचय होजाता है। | |||
सूरज उगते ही जैसे अंधेरा नहीं होजाता है वैसे ही समाधि उपलब्ध होते ही मृत्यु नहीं होजाती है। | |||
मृत्यु न तो शत्रु है, न मित्र है, मृत्यु है ही नहीं। न उससे भय करना है, न उससे अभय होना है; केवल उसे जानना है। | |||
३० मार्च १९६२ | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
(पुनश्च:<br> | |||
आपका कार्ड मिल गया है। निश्चय जानकर ठीक लगा। एक-दो दिन चि. सुशीला के पास रह लेना जरूरी है। मुझे यही डर था कि कहीं मेरे कारण निर्णय न बदल लें। मैं ७ अप्रैल को सुबह ४ बजे आगरा-अहमदाबाद एक्सप्रेस से जयपुर पहुँच रहा हूँ। शेष मिलने पर। सबको विनम्र प्रणाम।) | |||
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;See also | |||
:[[Krantibeej ~ 002]] - The event of this letter. | |||
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters. | |||
[[Category:Manuscripts|Letter 1962-03-30]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1962-03-30]] |
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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 30 Mar 1962.
This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 2 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 110 (2002 Diamond edition).
The PS reads: "Your card has been received. Knowing the confirmation, felt good. It is necessary to stay with Chi. Shushila for one or two days. I was only afraid that you may not change your decision for the sake of me. I will be reaching Jaipur in the morning at 4 o'clock on 7 April by Agra-Ahmedabad Express. Rest, on meeting. Humble pranam to all."
रजनीश ११५, नेपियर टाउन प्रिय मां, सुबह-सुबह घूमकर लौटा हूँ : देखता हूँ कि सड़क के किनारे कुछ लोग जमा हैं : एक भिखारी शरीर से मुक्त होगया है। एक बचपन की स्मृति मन पर दुहर जाती है। पहली बार मरघट जाना हुआ था। चिता जल गई थी और लोग छोटे छोटे झुंड बनाकर बातें कर रहे थे। गांव के एक कवि ने कहा था : “मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ। मृत्यु तो मित्र है।“ यह बात तबसे अनेक रूपों में अनेक लोगों से सुनी है। जो ऐसा कहते हैं; उनकी आंखों में भी देखा है और पाया है कि भय से ही ऐसी अभय की बातें निकलती हैं। मृत्यु को अच्छे नाम देने से ही कुछ परिवर्तन नहीं होजाता है। वस्तुतः, डर मृत्यु का नहीं है; डर अपरिचय का है। जो अज्ञात है वह भय पैदा करता है। मृत्यु से परिचित होना जरूरी है : परिचय अभय में लेआता है। क्यों? क्योंकि परिचय से ज्ञात होता है कि ‘जो है’ उसकी मृत्यु नहीं है। जिस व्यक्तित्व को हमने अपना ‘मैं’ जाना है, वही टूटता है : उसकी ही मृत्यु है। वह है नहीं, इसलिए टूट जाता है। वह केवल सांयोगिक है : कुछ तत्वों का जोड़ है; जोड़ खुलते ही बिखर जाता है। यही है मृत्यु। और इसलिए व्यक्तित्व के साथ स्वरूप को एक जानना जबतक है तबतक मृत्यु है। व्यक्तित्व से गहरे उतरें, स्वरूप पर पहुंचे और अमृत उपलब्ध होजाता है। इस यात्रा का - व्यक्तित्व से स्वरूप तक की यात्रा का मार्ग ध्यान है। ध्यान में, समाधि में मृत्यु से परिचय होजाता है। सूरज उगते ही जैसे अंधेरा नहीं होजाता है वैसे ही समाधि उपलब्ध होते ही मृत्यु नहीं होजाती है। मृत्यु न तो शत्रु है, न मित्र है, मृत्यु है ही नहीं। न उससे भय करना है, न उससे अभय होना है; केवल उसे जानना है। ३० मार्च १९६२ रजनीश के प्रणाम
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- See also
- Krantibeej ~ 002 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.