Letter written on 7 Nov 1961 pm: Difference between revisions
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[[image:Letters to Anandmayee 857.jpg|right|300px]] | This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parekh. It was written on 7th November 1961 in the evening from Rest House, Agra Fort Station. The letterhead is his new "professional" letterhead, which has in the top left corner: Acharya Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University) and in the top right: Nivas (Home) / 115, Napier Town / Jabalpur (Madhyapradesh). | ||
Osho's salutation in this letter is "प्रिय मां" (Priya Maan, Dear Mom). It has a few of the hand-written marks that have been observed in other letters: a blue number (32) in a circle in the top right corner, a red tick mark, and a second number (58) in the bottom left corner of the back side. It is a long letter, using about half of the back side. | |||
It has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'', as letter #107: edited and trimmed text. | |||
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आचार्य रजनीश<br> | |||
दर्शन विभाग<br> | |||
महाकोशल महाविद्यालय | |||
निवास,<br> | |||
११५, नेपियर टाउन<br> | |||
जबलपुर (मध्यप्रदेश) | |||
संध्या:<br> | |||
७ नव. १९६१ | |||
विश्रामलय. (आगरा फोर्ट स्टेशन) | |||
प्रिय मां,<br> | |||
अमावस उतर रही है। पक्षी नीड़ों पर लौट आये हैं और घिरते अंधेरे में वृक्षों पर रात्रि-विश्राम के पूर्व की चहल पहल है। नगर में दीप जलने लगे हैं : थोड़ी ही देर में आकाश में तारे और नीचे दीप ही दीप हो जाने को है। | |||
पूर्वीय आकाश में दो छोटी छोटी काली बदलियां तैर रही हैं। | |||
कोई यात्री नहीं दीखता है : विश्रामलय में एकदम अकेला हूँ। कोई विचार नहीं है : बस बैठा हूँ। और बैठना कितना आनंद है! आकाश और आकाश गंगा अपने में समा गई मालुम होती है। | |||
विचार नहीं होते हैं तो व्यक्ति-सत्ता विश्व-सत्ता से मिल जाती है। एक छोटा सा ही पर्दा है अन्यथा प्रत्येक प्रभु है। आंख पर तिनका है और तिनके ने पर्वत को छिपा लिया है। | |||
यह छोटा सा तिनका ही संसार बन गया है : इस छोटे से तिनके के हटते ही अनंत आनंद-राज्य के द्वार खुल जाते हैं। | |||
जीसस ख्रीष्ट ने कहा हैं : ‘जरा सा खटखटाओ और द्वार खुल जाते हैं।“ मैं तो कहता हँ : <u>“झांको भर द्वार खुले ही हैं।“</u> | |||
एक व्यक्ति सूर्यास्त की दिशा में भागा जाता था। उसने किसी से पूछा : पूर्व कहां है? उत्तर मिला : पीठ भर फेर लो पूर्व तो आंख के सामने ही मिल जायेगा। सब उपस्थित है : ठीक दिशा में आंख भर फेरने की आवश्यकता है। | |||
यह बात सारे जगत के कान में कह देनी है। | |||
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इसे ठीक से सुन भी लेना बहुत कुछ पालेना है। स्व-दिव्यता की आस्था आधी उपलब्धि है। | |||
मैंने आज ही ग्वालियर में मिलने आये एक मित्र से कहा हूँ : संपत्ति पास है केवल स्मरण नहीं रहा है। | |||
सम्यक स्मृति जगाओ – अपनी दिव्यता का स्मरण करो – कौन हो तुम? – इस प्रश्न को पूछो – पूछो – इतना पूछो कि समस्त मन-प्राण पर वह अकेला ही गूंजता रह जाये – फिर अचेतन में उसका तीर उतर जाता है और आनंद से भरा – संगीत में डूबा वह अलौकिक उत्तर अपने आप सामने आ खड़ा होजाता है : मैं ब्रह्म हूँ : अहम् ब्रह्मास्मि।“ | |||
“मैं ब्रह्म हूँ” : इससे मूल्यवान और कोई बोध नहीं है। यह जान लेना सब कुछ जान लेना है। | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
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Revision as of 05:55, 16 February 2020
This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parekh. It was written on 7th November 1961 in the evening from Rest House, Agra Fort Station. The letterhead is his new "professional" letterhead, which has in the top left corner: Acharya Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University) and in the top right: Nivas (Home) / 115, Napier Town / Jabalpur (Madhyapradesh).
Osho's salutation in this letter is "प्रिय मां" (Priya Maan, Dear Mom). It has a few of the hand-written marks that have been observed in other letters: a blue number (32) in a circle in the top right corner, a red tick mark, and a second number (58) in the bottom left corner of the back side. It is a long letter, using about half of the back side.
It has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज), as letter #107: edited and trimmed text.
आचार्य रजनीश निवास, संध्या: प्रिय मां, पूर्वीय आकाश में दो छोटी छोटी काली बदलियां तैर रही हैं। कोई यात्री नहीं दीखता है : विश्रामलय में एकदम अकेला हूँ। कोई विचार नहीं है : बस बैठा हूँ। और बैठना कितना आनंद है! आकाश और आकाश गंगा अपने में समा गई मालुम होती है। विचार नहीं होते हैं तो व्यक्ति-सत्ता विश्व-सत्ता से मिल जाती है। एक छोटा सा ही पर्दा है अन्यथा प्रत्येक प्रभु है। आंख पर तिनका है और तिनके ने पर्वत को छिपा लिया है। यह छोटा सा तिनका ही संसार बन गया है : इस छोटे से तिनके के हटते ही अनंत आनंद-राज्य के द्वार खुल जाते हैं। जीसस ख्रीष्ट ने कहा हैं : ‘जरा सा खटखटाओ और द्वार खुल जाते हैं।“ मैं तो कहता हँ : “झांको भर द्वार खुले ही हैं।“ एक व्यक्ति सूर्यास्त की दिशा में भागा जाता था। उसने किसी से पूछा : पूर्व कहां है? उत्तर मिला : पीठ भर फेर लो पूर्व तो आंख के सामने ही मिल जायेगा। सब उपस्थित है : ठीक दिशा में आंख भर फेरने की आवश्यकता है। यह बात सारे जगत के कान में कह देनी है। इसे ठीक से सुन भी लेना बहुत कुछ पालेना है। स्व-दिव्यता की आस्था आधी उपलब्धि है। मैंने आज ही ग्वालियर में मिलने आये एक मित्र से कहा हूँ : संपत्ति पास है केवल स्मरण नहीं रहा है। सम्यक स्मृति जगाओ – अपनी दिव्यता का स्मरण करो – कौन हो तुम? – इस प्रश्न को पूछो – पूछो – इतना पूछो कि समस्त मन-प्राण पर वह अकेला ही गूंजता रह जाये – फिर अचेतन में उसका तीर उतर जाता है और आनंद से भरा – संगीत में डूबा वह अलौकिक उत्तर अपने आप सामने आ खड़ा होजाता है : मैं ब्रह्म हूँ : अहम् ब्रह्मास्मि।“ “मैं ब्रह्म हूँ” : इससे मूल्यवान और कोई बोध नहीं है। यह जान लेना सब कुछ जान लेना है। रजनीश के प्रणाम |
- See also
- Krantibeej ~ 107 - The event of this letter.
- Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.