Manuscripts ~ Neeti, Bhay Aur Prem (नीति, भय और प्रेम): Difference between revisions
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:मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं? मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है वह हृदय में कांटों की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है? उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो, वहां जीवन भी क्या होगा? आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें? जीवन नहीं, बस एक दुखस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है..एक मूच्र्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबीशृंखला। निश्चय ही यह जीवन नहीं, बस एक लंबी बीमारी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में हो जाती है। हम जी भी नहीं पाते, और मर जाते हैं। जन्म पा लेना एक बात है, जीवन को पा लेने का सौभाग्य बहुत कम मनुष्यों को उपलब्ध हो पाता है। | :मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं? मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है वह हृदय में कांटों की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है? उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो, वहां जीवन भी क्या होगा? आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें? जीवन नहीं, बस एक दुखस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है..एक मूच्र्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबीशृंखला। निश्चय ही यह जीवन नहीं, बस एक लंबी बीमारी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में हो जाती है। हम जी भी नहीं पाते, और मर जाते हैं। जन्म पा लेना एक बात है, जीवन को पा लेने का सौभाग्य बहुत कम मनुष्यों को उपलब्ध हो पाता है। | ||
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:वह जीवित होकर भी जीवन को नहीं जानता है। जीवन की अनादि, अनंत धारा से अभी उसका परिचय नहीं हुआ। और उस परिचय के अभाव में जीवन आनंद नहीं हो पाता है। आत्म-अज्ञान ही दुख है। आत्म-ज्ञान हो तो मनुष्य का हृदय आलोक बन जाता है, और वह न हो तो उसका पथ अंधकारपूर्ण होगा ही। वह उसमें हो तो वह दिव्य हो जाता है, और वह न हो तो वह पशुओं से भी बदतर पशु है। | :वह जीवित होकर भी जीवन को नहीं जानता है। जीवन की अनादि, अनंत धारा से अभी उसका परिचय नहीं हुआ। और उस परिचय के अभाव में जीवन आनंद नहीं हो पाता है। आत्म-अज्ञान ही दुख है। आत्म-ज्ञान हो तो मनुष्य का हृदय आलोक बन जाता है, और वह न हो तो उसका पथ अंधकारपूर्ण होगा ही। वह उसमें हो तो वह दिव्य हो जाता है, और वह न हो तो वह पशुओं से भी बदतर पशु है। | ||
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:उनके बाहर भी संगीत और सुगंध फैलती है; और उनके भीतर दुख और संताप और रुदन हो तो उन्हीं की प्रतिध्वनियां उनके विचार और आचार में भी सुनी जाती हैं। यह स्वाभाविक ही है। आनंद को उपलब्ध व्यक्ति का जीवन ही प्रेम बन सकता है। | :उनके बाहर भी संगीत और सुगंध फैलती है; और उनके भीतर दुख और संताप और रुदन हो तो उन्हीं की प्रतिध्वनियां उनके विचार और आचार में भी सुनी जाती हैं। यह स्वाभाविक ही है। आनंद को उपलब्ध व्यक्ति का जीवन ही प्रेम बन सकता है। | ||
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:प्रलोभन लौकिक हों या पारलौकिक। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय से यदि कोई नैतिक और पवित्र है तो उसे न तो मैं नैतिक कहता हूं और न ही पवित्र। वह सौदे में हो सकता है, लेकिन सत्य में नहीं। नैतिक जीवन तो बेशर्त जीवन है। उसमें पाने का प्रश्न ही नहीं है। वह तो आनंद और प्रेम से स्फुरित सहचर्या है। उसकी उपलब्धि तो उसमें ही है, उसके बाहर नहीं। सूर्य से जैसे प्रकाश झरता है, वैसे ही आनंद से पवित्रता और पुण्य प्रवाहित होते हैं। | :प्रलोभन लौकिक हों या पारलौकिक। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय से यदि कोई नैतिक और पवित्र है तो उसे न तो मैं नैतिक कहता हूं और न ही पवित्र। वह सौदे में हो सकता है, लेकिन सत्य में नहीं। नैतिक जीवन तो बेशर्त जीवन है। उसमें पाने का प्रश्न ही नहीं है। वह तो आनंद और प्रेम से स्फुरित सहचर्या है। उसकी उपलब्धि तो उसमें ही है, उसके बाहर नहीं। सूर्य से जैसे प्रकाश झरता है, वैसे ही आनंद से पवित्रता और पुण्य प्रवाहित होते हैं। | ||
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:सम्यक, नैतिक जीवन के लिए नया आधार खोजने का। वह आधार भी सदा से है। महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट या कृष्ण की अंतर्दृष्टियां मिथ्या नैतिक आभासों पर नहीं खड़ी हैं। भय या प्रलोभन पर नहीं, प्रेम, ज्ञान और आनंद पर ही उसकी नींवें रखी गई हैं। प्रेम-आधारित नीति का पुनरुद्धार करना है। उसके अभाव में मनुष्य के नैतिक जीवन का अब कोई भविष्य नहीं है। भय पर आधारित नीति मर गई है। प्रेम पर आधारित नीति का जन्म न हो तो हमारे सामने अनैतिक होने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं रह जाता। जबरदस्ती मनुष्य को नैतिक नहीं बनाया जा सकता है। उसकी बौद्धिक प्रौढ़ता अंधविश्वासों को अंगीकार नहीं कर सकती है। | :सम्यक, नैतिक जीवन के लिए नया आधार खोजने का। वह आधार भी सदा से है। महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट या कृष्ण की अंतर्दृष्टियां मिथ्या नैतिक आभासों पर नहीं खड़ी हैं। भय या प्रलोभन पर नहीं, प्रेम, ज्ञान और आनंद पर ही उसकी नींवें रखी गई हैं। प्रेम-आधारित नीति का पुनरुद्धार करना है। उसके अभाव में मनुष्य के नैतिक जीवन का अब कोई भविष्य नहीं है। भय पर आधारित नीति मर गई है। प्रेम पर आधारित नीति का जन्म न हो तो हमारे सामने अनैतिक होने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं रह जाता। जबरदस्ती मनुष्य को नैतिक नहीं बनाया जा सकता है। उसकी बौद्धिक प्रौढ़ता अंधविश्वासों को अंगीकार नहीं कर सकती है। |
Revision as of 07:45, 4 February 2019
Morality, Fear and Love
- year
- 1968
- notes
- 5 sheets
- Published as ch.25 (of 43) of Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी).
- see also
- Osho's Manuscripts