Manuscripts ~ Neeti, Bhay Aur Prem (नीति, भय और प्रेम)

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Morality, Fear and Love

year
1968
notes
5 sheets
Published as ch.25 (out of 43) of Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी).
see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi transcript
1 Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 25
मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं? मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है वह हृदय में कांटों की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है? उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो, वहां जीवन भी क्या होगा? आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें? जीवन नहीं, बस एक दुखस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है..एक मूच्र्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबीशृंखला। निश्चय ही यह जीवन नहीं, बस एक लंबी बीमारी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में हो जाती है। हम जी भी नहीं पाते, और मर जाते हैं। जन्म पा लेना एक बात है, जीवन को पा लेने का सौभाग्य बहुत कम मनुष्यों को उपलब्ध हो पाता है।
जीवन को केवल वे ही उपलब्ध होते हैं जो स्वयं के और सर्व के भीतर परमात्मा को अनुभव कर लेते हैं। इस अभाव में हम केवल शरीर मात्र हैं। और शरीर जड़ है, जीवन नहीं। स्वयं को जो शरीर मात्र ही जानता है,
2 Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 25
वह जीवित होकर भी जीवन को नहीं जानता है। जीवन की अनादि, अनंत धारा से अभी उसका परिचय नहीं हुआ। और उस परिचय के अभाव में जीवन आनंद नहीं हो पाता है। आत्म-अज्ञान ही दुख है। आत्म-ज्ञान हो तो मनुष्य का हृदय आलोक बन जाता है, और वह न हो तो उसका पथ अंधकारपूर्ण होगा ही। वह उसमें हो तो वह दिव्य हो जाता है, और वह न हो तो वह पशुओं से भी बदतर पशु है।
शरीर के अतिरिक्त और शरीर को अतिक्रमण करता हुआ अपने भीतर जो किसी भी सत्य का अनुभव नहीं कर पाते हैं, उनके जीवन पशु-जीवन से ऊपर नहीं उठ सकते। शरीर के मृत्तिका घेरे से ऊपर उठती हुई जीवन-ज्योति जब अनुभव में आती है, तभी ऊध्र्वगमन प्रारंभ होता है। उसके पूर्व जो प्रकृति प्रतीत होती थी, वही उसके बाद परमात्मा में परिणत हो जाती है।
फिर जब स्वयं के भीतर अशांति हो, दुख हो, संताप हो, अंधकार और जड़ता हो, तो स्वभावतः उनके ही कीटाणु हमसे बाहर भी विस्तीर्ण होने लगते हैं। भीतर जो हो वह बाहर भी फैलने लगता है। अंतस ही तो आचरण बनता है। आचरण में हम उसी को बांटते हैं, जिसे अंतस में पाते हैं। अंतस ही अंततः आचरण है। हम जो भीतर हैं, वही हमारे अंतर्संबंधों में बाहर परिव्याप्त हो जाता है। प्रत्येक प्रतिक्षण स्वयं को उलीच रहा है। विचार में, वाणी में, व्यवहार में हम स्वयं को ही दान कर रहे हैं। इस भांति व्यक्तियों के हृदय में जो उठता है, वही समाज बन जाता है। समाज में विष हो तो उसके बीज व्यक्तियों में छिपे होंगे; और समाज को अमृत की चाह हो तो उसे व्यक्तियों में ही बोना होगा। व्यक्तियों के हृदय आनंद से भरे हों तो उनके अंतर्संबंध करुणा, मैत्री और प्रीति से भर जाते हैं; और दुख से भरे हों तो हिंसा, विद्वेष और घृणा से। उनके भीतर जीवन-संगीत बजता हो तो
3 Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 25
उनके बाहर भी संगीत और सुगंध फैलती है; और उनके भीतर दुख और संताप और रुदन हो तो उन्हीं की प्रतिध्वनियां उनके विचार और आचार में भी सुनी जाती हैं। यह स्वाभाविक ही है। आनंद को उपलब्ध व्यक्ति का जीवन ही प्रेम बन सकता है।
प्रेम ही नीति है, अप्रेम अनीति है। प्रेम में जो जितना गहरा प्रविष्ट होता है वह प्रभु में उतना ही ऊपर उठ जाता है; और जो प्रेम में जितना विपरीत होता है वह पशु में उतना ही पतित। प्रेम पवित्र जीवन का, नैतिक जीवन का मूलाधार है। क्राइस्ट का वचन है, प्रेम ही प्रभु है। संत अगस्ताइन से किसी ने पूछा, मैं क्या करूं, कैसे जीऊं कि मुझसे पाप न हो? तो उन्होंने कहा था, प्रेम करो! और फिर तुम जो भी करोगे वह सब ठीक होगा, शुभ होगा। प्रेम, इस एक शब्द में वह सब अणु रूप में छिपा है जो मनुष्य को पशु से प्रभु तक ले जाता है। लेकिन स्मरण रहे कि प्रेम केवल तभी संभव है जब भीतर आनंद हो। प्रेम को ऊपर से आरोपित नहीं किया जा सकता। वह कोई वस्त्र नहीं है जिसे हम ऊपर से ओढ़ सकें। वह तो हमारी आत्मा है। उसका तो आविष्कार करना होता है। उसे ओढ़ना नहीं, उघाड़ना होता है; उसका आरोपण नहीं, आविर्भाव होता है। प्रेम किया नहीं जाता है। वह तो एक चेतना अवस्था है जिसमें हुआ जाता है। प्रेम कर्म नहीं है, स्वभाव हो तभी सत्य होता है। और तभी वह दिव्य जीवन का आधार भी बनता है। यह भी स्मरण रहे कि सहज स्फुरित स्वभाव-रूप प्रेम के अभाव में जो नैतिक जीवन होता है, वह दिव्यता की ओर ले जाने में असमर्थ है। क्योंकि वस्तुतः वह सत्य नहीं है, उसके आधार किसी न किसी रूप में भय और प्रलोभन पर रखे होते हैं। फिर चाहे वे भय या
4 Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 25
प्रलोभन लौकिक हों या पारलौकिक। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय से यदि कोई नैतिक और पवित्र है तो उसे न तो मैं नैतिक कहता हूं और न ही पवित्र। वह सौदे में हो सकता है, लेकिन सत्य में नहीं। नैतिक जीवन तो बेशर्त जीवन है। उसमें पाने का प्रश्न ही नहीं है। वह तो आनंद और प्रेम से स्फुरित सहचर्या है। उसकी उपलब्धि तो उसमें ही है, उसके बाहर नहीं। सूर्य से जैसे प्रकाश झरता है, वैसे ही आनंद से पवित्रता और पुण्य प्रवाहित होते हैं।
एक अदभुत दृश्य मुझे याद आ रहा है। संत राबिया किसी बाजार से दौड़ी जा रही थी। उसके एक हाथ में जलती हुई मशाल थी और दूसरे में पानी से भरा हुआ घड़ा। लोगों ने उसे रोका और पूछा, यह घड़ा और मशाल किसलिए है? और तुम कहां दौड़ी जा रही हो? राबिया ने कहा था, मैं स्वर्ग को जलाने और नरक को डुबाने जा रही हूं, ताकि तुम्हारे धार्मिक होने के मार्ग की बाधाएं नष्ट हो जावें। मैं भी राबिया से सहमत हूं और स्वर्ग को जलाना और नरक को डुबाना चाहता हूं। वस्तुतः भय और प्रलोभन पर कोई वास्तविक नैतिक जीवन न कभी भी खड़ा हुआ है और न हो सकता है। उस भांति तो नैतिक जीवन का केवल एक मिथ्या आभास ही पैदा हो जाता है। और उससे आत्मविकास नहीं, आत्मवंचना ही होती है। इस तरह के मिथ्या नैतिक जीवन के आधार को मनुष्य के ज्ञान के विकास ने नष्ट कर दिया है और परिणाम में अनीति नग्न और स्पष्ट हो गई है। स्वर्ग और नरक की मान्यताएं थोथी मालूम होने लगी हैं और परिणामतः उनका प्रलोभन और भय भी शून्य हो गया है। आज की अनैतिकता और अराजकता का मूल कारण यही है। नीति नहीं, नीति का आभास टूट गया है। और यह शुभ ही है कि हम एक भ्रम से बाहर हो गए हैं। लेकिन एक बड़ा उत्तरदायित्व भी आ गया है। वह है
5 Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 25
सम्यक, नैतिक जीवन के लिए नया आधार खोजने का। वह आधार भी सदा से है। महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट या कृष्ण की अंतर्दृष्टियां मिथ्या नैतिक आभासों पर नहीं खड़ी हैं। भय या प्रलोभन पर नहीं, प्रेम, ज्ञान और आनंद पर ही उसकी नींवें रखी गई हैं। प्रेम-आधारित नीति का पुनरुद्धार करना है। उसके अभाव में मनुष्य के नैतिक जीवन का अब कोई भविष्य नहीं है। भय पर आधारित नीति मर गई है। प्रेम पर आधारित नीति का जन्म न हो तो हमारे सामने अनैतिक होने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं रह जाता। जबरदस्ती मनुष्य को नैतिक नहीं बनाया जा सकता है। उसकी बौद्धिक प्रौढ़ता अंधविश्वासों को अंगीकार नहीं कर सकती है।
मैं प्रेम में द्वार देखता हूं। उस द्वार से, ध्वस्त हुई पवित्रता और नैतिकता का पुनर्जन्म हो सकता है।
लेकिन मनुष्य में सर्व के प्रति प्रेम का जन्म तभी होता है जब स्वयं में आनंद का जन्म हो। इसलिए असली प्रश्न आनंदानुभूति है। अंतस में आनंद हो तो आत्मानुभूति से प्रेम उपजता है। जो स्वयं की आत्यंतिक सत्ता से अपरिचित है, वह कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है। स्वरूप-प्रतिष्ठा ही आनंद है और इसीलिए स्वयं को जानना वस्तुतः नैतिक और शुभ होने का मार्ग है। स्वयं को जानते ही आनंद का संगीत बजने लगता है और ज्ञान का आलोक फैल जाता है। और फिर जिसके दर्शन स्वयं के भीतर होते हैं, उसके ही दर्शन समस्त में होने लगते हैं। स्वयं के अणु को जानते ही सर्व, समस्त सत्ता जान ली जाती है। स्वयं को ही सब में पाकर प्रेम का जन्म होता है। प्रेम से बड़ी और कोई क्रांति नहीं है और न उससे बड़ी कोई पवित्रता है और न उपलब्धि है। जो उसे पा लेता है वह जीवन को पा लेता है।