Talk:Jin-Sutra, Bhag 2 (जिन-सूत्र, भाग दो) (4 volume set)

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अनुक्रम

17: आत्मा परम आधार है
18: धर्म आविष्कार है स्वयं का
19: धर्म की मूल भित्ति: अभय
20: पलकन पग पोंछूं आज पिया के
21: जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति
22: परमात्मा के मंदिर का द्वार: प्रेम
23: जीवन की भव्यता: अभी और यहीं
24: मांग नहीं--अहोभाव, अहोगीत
25: दर्शन, ज्ञान, चरित्र--और मोक्ष
26: तुम्हारी संपदा--तुम हो
27: साधु का सेवन: आत्मसेवन
28: जीवन का ऋत्‌: भाव, प्रेम, भक्ति
29: मोक्ष का द्वार: सम्यक दृष्टि
30: प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति
31: सम्यक दर्शन के आठ अंग