Talk:Rare Hindi Talks from 1962

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Spool A

Info on spool A:

The spool includes three recording:
A. Bhramcharya (Talks in Chanda) 1962 (Discourse No. 1)-CleanedA.wav -- now named under current title (Brahmacharya): quality good. Sound is lost from 0:00:09 to 0:00:25;
A. Chanda Ki Goshtiyan 1962-Side 1 (Discourse No. 2-Parts joined-CleanedA.wav -- now named Dharna Aur Dhyan (धारणा और ध्यान): quality good. At 34:06 missing some text (from that point other part starts which was on another side of spool);
A. Chanda Ki Goshtiyan 1962-Side 2 (Discourse No. 3)-Cleaned A.wav -- now named Jin Khoiya Tin Paiyan (जिन खोइया, तिन पाइयां): quality good. Beginning can be incomplete; end looks incomplete.

Cover (images on the right):

ब्रह्मचर्य की व्याख्या १९६२ —— चांदा की गोष्टियां व प्रश्नोत्तर १९६२ अक्टूबर —— के सहित शांता शारदा मदनकुंवर
आनंद

Translation:

Definition of 'brahmcharya' 1962 —-- meetings (forums) of Chanda and Q&A 1962 October ——- along with Shanta, Sharda, Madan Kunwar.
ANAND

Dilip:

no text-transcripts of 3 talks match with Arvind Jain Notebooks, Vol 3.
As per this time line before 1964 (Osho Timeline before 1964), there remain unidentified 8 events at Chanda namely:
Unknown discourse Chandrapur 1962 ~ 01 to ~ 08 from 7th to 11th October 1962. And we have Vinod Jain's Notebook Vol. 3 with the transcribed text of Osho's group talks for the same duration at Chanda. These texts may be well co-related to the 8 unidentified event.
But these talks (of Vinod Jain's Notebooks Vol. 1 to 5) do not seem to match with the 3 audios partially transcribed by me and wholly transcribed and edited by Sw Shailendra Ji which are labelled as "A. Chanda Ki Goshtiya".
Hence i feel that we are required to still identify these 3 events in "A. Chanda Ki Goshtiya" suitably for the time line (i.e. to give new names).

Anuragi:

Two of the talks are from Chanda on 7th Oct 1962. Bhramcharya and Chanda main Goshtiyan (talks to a small gathering in Chanda).

Antar:

The same date states Shailendra for two talks, but it seems date was taken as beginner date, i.e. means "from 7th Oct 1962". The question about exact date is still open. Date of first talk is 1962 according to the cover.--DhyanAntar 03:51, 23 October 2021 (UTC)


Partial transcripts made by Dilip
Sugit: better to show the complete transcripts from Shailendra?


Discourse 1 - Brahmacharya (ब्रह्मचर्य)

(Audio starts): मनुष्य को शाश्वत जीवन —- एक लंबा विकास का इतिहास मनुष्य का है - पशु की चेतना से मनुष्य की चेतना तक एक लंबी विकास की कड़ियाँ उसने पार की है, और यह भ्रांति होगी समझना कि मनुष्य इस विकास का अंतिम सोपान है। जो विकास कल तक निरंतर मनुष्य को पशु से आज की स्थिति तक लाया है, वह विकास मनुष्य तक किसी कारण समाप्त नहीं हो जाता। मनुष्य मनुष्य के भी पार जा सकता है। मनुष्य मनुष्य का भी अतिक्रमण कर सकता है। मनुष्य अति चेतना, अति मानवीय चेतना या कहें दिव्य चेतना को उपलब्ध कर सकता है। कौन से वे मार्ग हैं , कौन से वे रास्ते हैं जो मनुष्य को मनुष्य के अतिक्रमण करने में सहायक हो सकते हैं? भारत ने एक रास्ता, एक पद्धति, एक वैज्ञानिक योग खोज निकाला था जो मनुष्य को दिव्य चेतना में, ईश्वरीय चेतना में, भगवत चेतना में ले जाता है। इस मार्ग का नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसी चर्या को उपलब्ध करना। ब्रह्मचर्य का अर्थ है दिव्य जीवन को उपलब्ध करना। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि दिव्य चेतना को उपलब्ध करने का जो विज्ञान है ओ बहुत सामान्य अर्थों में केवल शक्ति संरक्षण, केवल वीर्य संरक्षण के अर्थ में प्रयोग जाना जाता है। ब्रह्मचर्य उतने अर्थों में सीमित नहीं है, ब्रह्मचर्य का पूरा अर्थ है एक ऐसा जीवन उपलब्ध कर लेना जहां हम ब्रह्म के समान हो जाते हैं। जहां मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता और जहां मनुष्य डिवाइन, दिव्य, ईश्वरीय भागवत हो जाता है। मुझे ऐसा दिखाई देता है कि ठीक से हम ब्रह्मचर्य और विज्ञान को समझ ले कि कोई कारण नहीं है - मनुष्य के जीवन में जो दुख और पीड़ा और तनाव दिखाई देते हैं, वे बने रहें। सामान्यता मनुष्य एक विरोध है, आत्म-विरोध, स्व-विरोध। उसके भीतर विरोधी शक्तियां हैं = उसके भीतर विरोधी दिशाएं हैं - उसके भीतर विरोधी रूप हैं - जो एक दूसरे के विरोध में चलते हैं। जब तक मनुष्य के भीतर विरोध हैं, जब तक मनुष्य की चेतना में विरोधाभास है, जब तक उसके दो टुकड़ें हैं, और दोनों टुकड़ें अलग दिशाओं में चलते हैं, तब तक मनुष्य कहीं भी नहीं पहुँच सकता है। मनुष्य के जीवन के विकास के लिए जरूरी है: उसमें एक संगीत पैदा हो - एक हारमनी पैदा हो - एक इकाई पैदा हो - एक योग बने - एक स्वर उत्पन्न हो। ब्रह्मचर्य एक स्वरता, एक सम स्वरता, एक संगीत उपलब्ध करने की पद्धति है। क्यों है विरोध - मनुष्य के भीतर विरोध क्यों है इसे हम ठीक से समझे तो हम यह समझ सकेंगे मनुष्य के भीतर संगीत कैसे पैदा हो सकता है। मनुष्य का जन्म - मनुष्य के जन्म के साथ उसके शरीर का विकास, उसके मन का विकास, अध्ययन करेंगे तो दिखाई देगा प्रत्येक व्यक्ति दुई लिंगीय है, बाइ-सेक्सुअल है। कोई व्यक्ति एक लिंगीय नहीं है, युनि-सेक्सुअल नहीं है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि ना तो कोई पुरुष है और न केवल कोई स्त्री है, बल्कि दोनों बातें प्रत्येक व्यक्ति में संयुक्त है। (04:19)
(34:34) पहले भी लोगों को अनुभव हुआ था जीवन दुख है, बुद्ध ने कहा जीवन दुख है, महावीर ने कहा जीवन दुख है, उन्होंने भी कहा था पर उनकी बात में कुछ फर्क मालुम होता है, जब हाइडगर कहता है जीवन संताप है या जब किर्कगार्ड कहता है कि जीवन दुख है, या जब कोई इस तरह का दार्शनिक और विचारक कहता है कि जीवन दुख है, पीड़ा है, तो इनके कहने में, बुद्ध के कहने में, महावीर के कहने में फर्क है - क्या फर्क है? यह कहते हैं की जीवन दुख है और उसके बाद इन्हें नहीं मालुम होता कि मार्ग भी है दुख के बाहर जाने का। यह कहते हैं जीवन दुख है - बस समाप्त। जब कि बुद्ध और महावीर जब कहते हैं कि जीवन दुख है तो वे कहते हैं कि जीवन के उस दुख का निरोध का मार्ग भी है। जीवन दुख है लेकिन इस दुख के बाहर जाने का मार्ग भी है। जीवन अगर दुख है तो जीवन ही सब कुछ नहीं है, इस जीवन के पार और जीवन भी है, दिव्य जीवन भी है, इसे हम छोड़ के उससे हम संयुक्त हो सकते हैं। जब वे कहते हैं जीवन दुख है तो उनका अर्थ है कि और भी जीवन है जिसे पाया जा सकता है। और जब यह आज के लोग कहते हैं जीवन दुख है, यह कहते हैं सब दुख हैं - अब सिवाय मरने के कोई मार्ग नहीं रहता है। इनके इन दुखद विचारों के परिणाम और इनके दुखद विचारों के पैदा होने का एक कारण यह है हम उस विज्ञान को भूल गए हैं जो हमें आनंद के जगत से संयुक्त करता था, जिससे अर्थ आता था, जिससे प्रयोजन आता था, जिससे मालुम होता था कि जीवन कुछ है, जिससे मालुम होता था कि जीवन एक कृतज्ञता है, जिससे मालुम होता था, जिससे मालुम होता था कि होना कितना, कितना आनंदपूर्ण है। ध्यान और ब्रह्मचर्य उस महान विज्ञान के दो पंख हैं। ध्यान प्रथम है, ब्रह्मचर्य अंतिम उपलबद्धि। इस महानतम जीवन विज्ञान को अगर आज के युग में वापिस लौटाया जा सके तो बहुत बहुत हित हो सकता है। मेरेको (मुझे) लगता है कि सबसे महत्वपूर्ण बाते यह है - ना तो विज्ञान की शोध है, न राजनीतिक विचार, न राजनीतिक पंथ संप्रदाय। और न संप्रदाय धर्मों के और उनकी बातें वे कुछ महत्व की और मूल्य की नहीं है। मूल्य की बातें यह दो हैं, अगर सारे धर्मों के पूरे निष्कर्ष को हम निचोड़ लें, अगर सारे धर्मों के पूरे महत्वपूर्ण, महत्वपूर्ण नियमों को हम निचोड़ लें, तो दो बातों में घटित हो सकता है - ध्यान और ब्रह्मचर्य। ध्यान भूमिका है - ब्रह्मचर्य उस भूमिका में उपलबद्ध होनेवाला फूल है, उस भूमिका में खिलने वाला फूल है। ध्यान के माध्यम से ब्रह्मचर्य के फूल को हम खिला लें तो वस्तुता नया जन्म होता है और जीवन शांति से भर जाता है। (Audio ends).

Discourse 2 - Dharna Aur Dhyan (धारणा और ध्यान)

(Audio starts): जीवन के संबंध में कोई भी धारणा - जो धारणाएं है जीवन में वे सब धारणाएं जीवन को जानने में बाधा बनती है। मनुष्य सत्य के प्रति धारणाओं को लेके नहीं जा सकता है। अगर मैं कुछ भी धारणाएं बनाकर सत्य की तरफ जाऊं मेरा मन धारणाओं से भरा रहेगा और मैं सत्य जैसा है उसके दर्शन नहीं कर पाऊँगा। लेकिन हम सब धारणाएं बना देते हैं। इसके पहले कि हम जानें कोई चीज, हम उस चीज के प्रति अज्ञान में कुछ धारणाएं पकड़ लेते हैं और बना लेते हैं। जो भी धारणाएं अज्ञान में बनाई गई है वे सत्य के अनुरूप नहीं हो सकती। मेरा कहना यह है जो भी सत्य हो उसके संबंध में कोई पूर्व-धारणा बनाने की जरूरत नहीं है। कोई पूर्व-धारणा बनाने की नहीं है। ज्यादा योग्य और उचित है कि हम धारणा-शून्य होकर, धारणा-मुक्त होकर, अपनी तरफ से बिना कुछ आरोपित किए और शांत होकर उस तक चलें जाए जो भी सत्य है। जिस क्षण मैं बिल्कुल धारणा-शून्य हो जाऊंगा, जिस क्षण मैं कुछ भी आरोपित नहीं करना चाहूँगा, जिस क्षण मैं किसी भी भांति नहीं चाहूँगा कि सत्य ऐसा हो, जिस क्षण मेरा समस्त अज्ञान में इकट्ठा किया हुआ विचार विसर्जित हो गया हो, जिस क्षण जो भी मुझे ज्ञात है मिट जाएगा, उस क्षण जो अज्ञात है ओ प्रगट होगा। मेरे से जब भी कोई पूछता है की इस संबंध में या उस संबंध में जो प्रचलित धारणा है उसके पक्ष में है आप या विपक्ष में, ओ ठीक है या गलत, मैं दोनों तरफ से बचने की कोशिश करता हूँ। मैं किसी भी रूप में आपको कोई धारणा नहीं देना चाहता। समस्त दी गई धारणाएं सत्य को जानने में बाधा बन जाएगी। जबकि जानने का मार्ग सुगम है; तो जानने के पूर्व व्यर्थ की हम कचरा इकट्ठा क्यों करें? और उस क्षण में हमारी मनोकांक्षाएं पीछे काम करती है। हम सोचते हैं हम पुनर्जन्म पर विशुद्ध रूप से विचार कर रहे हैं - नहीं कर रहे हैं। हम जीना चाहते हैं। हम मिट नहीं जाना चाहते हैं। जीवनेषणा, इतनी जोर से है जीवित रहने की आकांक्षा कि हम आश्वस्त होना चाहते हैं कि, शरीर गिर जाए, गिर जाए, बाकी कुछ मेरे भीतर बचेगा। हम आश्वस्त होना चाहते हैं जो सिद्धांत हमको आश्वस्त करेगा उसके सत्य होने के कारण उसको नहीं मानते हैं, हम इस खयाल में मानते हैं कि हमारी एक आकांक्षा की तृप्ति है। ओ जीवित रहने की आकांक्षा की तरह और जिस धारणा को हम वासना-जन्य कारणों से स्वीकार कर रहे हैं, ओ हमें सत्य तक नहीं ले जा सकती। तो मैं नहीं कहता कि पुनर्जन्म है और ना मैं यह कहता हूँ कि पुनर्जन्म नहीं है। (03:38) ———
(from 32:53) मेरे मनमें चाहे कोई प्रश्न पूछे और कंही से भी पूछे, मुझे लगता है केंद्र की बात हुई है और सब प्रश्नों का उत्तर यह है। उत्तर हजार हो यह संभव नहीं है। हजार प्रश्न हो सकते हैं, उत्तर एक ही है।
(at 33.11 one listener says अहं ब्रह्मास्मि की बात वही है।)
Osho continues: वही है। इस क्षण में वह बोध शुरू होता है .. उसे हम जो नाम देदें – जो नाम देना है वह हमारे ऊपर है और सब नाम एकसे ठीक और एकसे गलत है, कोई अंतर नहीं पड़ता। ब्रह्म कहलें, निर्वाण कहलें, मोक्ष कहलें या आत्मा कहलें – जो मन आए वह कहलें वह फिर हमारे ऊपर निर्भर है लेकिन बस ऐसे ही जाने से होगा।
(at 33:50 someone enters and perhaps the organiser says: दीपक ..)
Osho: बैठिए। .. आकांक्षा विसर्जित हो गई होगी और कर्म सिर्फ आनंद होगा। अभी हमारा समस्त कर्म दुख का भार है क्योंकि कर्म में हमें कोई आनंद नहीं है, कर्म के पार क्या मिलेगा उसमें आनंद है – जो मिलेगा उसमें आकांक्षा छिपी है – कर्म तो महबूरी है इसलिए करते हैं, क्योंकि वह जो पाना है बिना कर्म के नहीं पाया सकता। वैसी चेतना की स्थिति में कर्म आनंद होजाता है पाने के लिए नहीं कुछ, कर्म स्वतः आनंद हो जाता है।
जैसे पक्षी गीत गाते है, और जैसे कभी किसी कविसे कविता झरती है, या जैसे झरनों पर संगीत होता है, वैसे व्यक्ति में सहज सी शांति निहस्त है। एक आनंद की लहर व्यक्त होने लगती है - उस आनंद की लहरों से सारे कर्म भर जाते हैं। उसका समस्त कर्म दिव्य और ईश्वरीय हो जाता है।
(35:05 ) ऐसी चेतना स्थिति को उपलब्ध करने का प्रयास भारत ने किया था। यही भारत की अकेली समृद्धि और संपत्ति है। भारत ने कुछ ओर नहीं खोजा, विज्ञान नहीं खोजा, पदार्थ के जगत के रहस्य नहीं खोजे, परमाण्विक बम नहीं खोजे, कोई और शक्ति नहीं खोजी, यह अद्भुत शांति की जीवन चेतना खोजी। और इसे कुछ लोगों ने भारत में उपलब्ध किया। और उन कुछ लोगों के संक्रांत होने के कारण पूरा भारत एक दिव्यमय प्रकार का वेद बन सका। और आज हम जो भार से, उत्पीड़ा से और परेशानी से घिरे हैं, अगर वापिस उस मार्ग के थोड़े से क्षण और उस आनंद की थोड़ी सी कण उपलब्ध नहीं होते जो कभी बुद्ध को, कृष्ण को, या महावीर को उपलब्ध रहे हैं, तो हम जीवन को तो खो ही देंगे, हम भारत की परंपरा को भी खो देंगे और शायद सारे जगत में थोड़ा सा मार्ग जो बाकी बचा है - मनुष्य के दिव्य जीवन से संयुक्त होने का वह भी नष्ट हो जा सकता है। मैंने कहना शुरू किया है कि हम अपने को भी बचा सकते हैं, उस मार्ग से हम जगत को भी एक, एक मार्ग दर्शन से जीवन चेतना दे सकते हैं, लेकिन यह हमारे पिटे पिटाए धर्मके नाम पर नहीं हो सकती, हमारी पिटी पिटाई पूजा से नहीं हो सकती, कुचले गए, रोंदे गए मार्गों से नहीं हो सकती, इस सब कचरे के भीतर जो वास्तविक छीपा है, इन सब कंकड़ों के भीतर जो छीपा है, उसको उद्घाटित कर लेना जरूरी हिय। यह उद्घाटन हो सकता है, और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर उद्घाटन कर ले सकता है और परिणाम में अपने लिए और औरों के लिए मार्ग बन सकता है। मैं आपसे कहा कि यह बात जो सहज है करेंगे तो इसकी सहजता को समझ सकते हैं। थोड़ा सा जागे और शांत हो जाए, थोड़े से विचारों के प्रति जागरण बनाए और शांत हो जाए, थोड़ा सा वर्तमान में जीना शुरू करें, थोड़ा सा अपने को, भविष्य को विसर्जित होने दे, और अंतराल बनने दे और ओ अंतराल आपको सब प्रगट कर देगा। उस अंतराल के पूर्व कुछ भी बहाना और कुछ भी ग्रंथ को रखना और समझना और बुझना, किसी काम का नहीं है - दो कौड़ी का है। ओ सब बाधा है, ओ सब सत्य को पाने में रुकावट बन जाएगा । रामकृष्ण के पास विवेकानंद पढ़ते थे - रामकृष्ण ने कहा था कि मैं एक ही बात तुमसे कहता हूँ - तुम जो जानते हो कृपा करके उसे भूल जाओ। मैं भी यहाँ आज इस चर्चा में, इस पूरी चर्चा में एक ही बात को दोहाराया हूँ कि जो आप जानते हैं सत्य के संबंध में, कृपा करे भूल जाएं। जो भी आपने धारणाएं बनाई है ओ कृपा करें फेंक दे, जो भी पिटा कुटा संस्कार मंत्र बैठ गया हो - कृपा करें उस धूल को हम जड़ा दे। और तब जो प्रगट होगा ओ आपको सत्य से, जीवन से, सत्ता से संयुक्त कर देगा। मेरी बातों को प्रीति से सुना इसलिए धन्यवाद। (audio ends)

Discourse 3 - Jin Khoiya Tin Paiyan (जिन खोइया, तिन पाइयां)

(from the start) उसने गिरी से कहा कहिए स्वामी जी मेरी बाते कैसी लगी? तो गिरी ने एक बात कही बाते तो तुम्हारी सुनी लेकिन इसमें एक भी तुम्हारी नहीं है। मेरी बात सुनिए ... इतनी कठिनता हो गई है - हमारे भीतर कोलाहल इकट्ठा हो गया है कि पर्दा इतना घना हो गया है कि हम सुन नहीं पा रहे हैं। ...... गिरी ने कहा: "I am waiting to hear you. उस पंडित से कहा मैं आपको सुनने के लिए रुका हूँ। जो आप बोले उसमें कुछ भी आपका नहीं है। और जो आपका नहीं है उसे यूं कहना कि मेरा है - मैं ऐसा सोचता हूँ, मैं ऐसा समझता हूँ, मेरा ऐसा विचार है बड़ी भ्रांति है। न तो एक विचार मेरा है न एक शब्द मेरा है - सब उधार है। उसमें मेरा आप अपनी तरफ से जोड़े है, मेरे ही भर अपना है बाकी सब उधार है। जो भी उधार है उसके न तो आप आस्वस्थ है, न आत्म-विश्वस्त है - न आपके भीतर कहीं उसकी कोई जड़ है, ऊपर से चिपकाया हुआ है। उस चिपकाए में मैं भी उत्तर दे दूंगा उसको भी आप चिपका ले सकते हैं। वह भी एक सजावट बन जाएगा। किसी ओर से पूछेंगे वह भी उत्तर दे देगा जो जो आपको उत्तर देते जाएंगे वे सब आपके दुश्मन हैं। वे आपके दिमाग में कचरा इकट्ठा करते जाएंगे। उस कचरे को आप बोलने लगेंगे, बकने लगेंगे, समझाने लगेंगे, लड़ने लगेंगे और लड़ेंगे इसलिए नहीं कि आप भी जानते है सब, लड़ाई इससे नहीं होती। लड़ाई इससे होती है कि मैं कहता हूँ वह असत्य कैसे हो सकता है? लड़ाई मैं की है। लड़ाई जो कहते है उसकी नहीं है - मैं कह रहा हूँ इसकी है। तो आप मैं को घना करते जाएंगे, इकट्ठा करते जाएंगे और आप पाएंगे कि लड़ते रहेंगे जीवन भर कहीं भी नहीं पहुंचेंगे। मैं इसलिए कोई उत्तर नहीं दे रहा हूँ आपकी बातों का - मैं सिर्फ यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ इस स्थिति को समझिए। और यह समझिए कि यह सारे सत्य जो उपलब्ध हुए हैं - गीता में हो या कुरान में या बाइबल में यह सत्य विचार से उपलब्ध हुए नहीं है यह सत्य अनुभूति से उपलब्ध हुए हैं। विचार से कोई सत्य कभी उपलब्ध नहीं हुआ। (02:29) ————
(30:32) इसलिए मैंने एक दूसरी पंक्ति बना ली है। मैं नहीं कहता 'जिन खोजा तिन पाईआ' मैं कहता हूँ 'जिन खोया तिन पाईआ'। जो अपने को खो देते हैं वह पा लेते हैं। धर्म पाने का विज्ञान नहीं धर्म खोने का विज्ञान है। धर्म विसर्जित करने का विज्ञान है, धर्म मिटाने का विज्ञान है अपने को। ईसा ने कहा है 'मेरा धर्म एक तलवार की तरह है।' इस पंक्ति को बहुत कम समझा जा सका है कि इसका माने क्या है? ईसा ने कहा धर्म मेरा तलवार की तरह है। तुम्हें छेद देगा और तोड़ देगा और मिटा देगा। और जो जीवन को खोएगा वह जीवन को पा लेगा। और इसलिए क्रॉस इसाइओ का चिन्ह बन गया, वह मृत्यु का चिन्ह है। अभी एक साधु था बंगाल में, पश्चिम का एक विचारक (name not understood) भारत घूमने आए थे। वह भारतीय कुछ साधुओं से मिले - बाउल साधु से बंगाल में मिलने गए। उन्हों ने साधु से पूछा कि 'धर्म क्या है?' उस साधुने एक बात कही, (name not understood) घबरा गया। उसने कहा मृत्यु। (name not understood) समझा कि शायद साधुने कुछ भूल चूक कर दिया। दोबारा पूछा कि धर्म क्या है? उस साधुने कहा मृत्यु। (name not understood) ने कहा मैं कुछ हैरान हुआ यह क्या कहता है, मैं हैरान हुआ। वह साधु हंसने लगा। उसने कहा हैरानी होती होगी जरूर लेकिन धर्म मरने की प्रक्रिया है। उसमें मरने की जो भ्रांत है उसको छोड़ देने की जो गलत है, उसको हटा देने की, उसको विसर्जित कर देने की नहीं है और काल्पनिक है जो भ्रांत और मिथ्या मेरे पास संयुक्त है अगर वह नहीं मर रहा, मैं उस तक नहीं पहुँच सकता हूँ जो है और वास्तविक है। मेरा मैं जो बिल्कुल भ्रांत, काल्पनिक इकाई है, जो कहीं है नहीं वस्तुता और आज तक जो भी शांत मनुष्यों ने पाया है वो भ्रांत मेरा व्यक्तित्व, मेरी ईगो, मेरे सत्य के बीच बाधा है। उसकी मृत्यु सत्य तक पहुँचा देती है। धर्म मृत्यु है इस अर्थ में जो आपको तोड़ देगा और मिटा देगा। और जिस अहंकार से आप खोजने निकले थे जीवन में उस अहंकार को मिट्टी कर देगा। मनुष्य यहीं भूल कर जाता है - वह जीवन भर धन खोजता है, यश खोजता है, प्रतिष्ठा खोजता है, फिर इसी खोज में एक दिन वह अतृप्त हो जाता है और ईश्वर को खोजने लगता है। वह सोचता है जैसे मैंने और चीजें खोजी वैसे ही ईश्वर को भी खोज लूँगा। उसकी तर्क सारणी यह है की जैसे मैंने धन खोजा, यश खोजा, वैसे मैं सत्य को भी खोज लूँगा। वह खोज की उस शृंखला में सत्य को भी एक कड़ी बना लेता है।
सत्य खोज की शृंखला की कड़ी नहीं है। जहां तक खोज है वहाँ तक संसार है। जहां खोज है वहाँ वासना है। जहां खोज है वहाँ आकांक्षा है। जहां खोज है वहाँ अहंकार तृप्त होने की कोशिश में लगा है। इसलिए सत्य खोज की कड़ी नहीं है। सत्य उस दिन उपलब्ध हो जाता है जिस दिन खोज बंद हो जाती है। यह कुछ अजीब सा लगेगा। सत्य उस दिन मिल जाता है जिस दिन खोज बंद हो जाती है। खोज गई मतलब वासना गई। खोज गई मतलब अहंकार ने दौड़ छोड़ दी। खोज गई मतलब पाने का प्रयास, पाने का तनाव, अशांति गई। जैसे ही सब गया वैसे ही उसे पा लिया जाता है जो है। तो मैं नहीं कहता ईश्वर को पाना है, मैं इतना ही कहता हूँ अपने को कैसे विसर्जित करना है। भारत की पूरी की पूरी परम्पराएं पश्चिम की भी इच्छा की, अन्य मुल्कों की भी, जो वास्तविक धर्म से संबंधित है वे खोजने की नहीं खोने की, मिटा देने की, मृत्यु की है, मिथ्या की मृत्यु ताकि वास्तविक का उदय हो और अगर ऐसा देखेंगे तो पाएंगे कि धर्म में बहुत वैज्ञानिक बात है (end of the audio).


Spool B