प्यारी मौनू,
प्रेम। एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर के बाहर वट वृक्ष की छाया में बैठा है फकीर दोकुआन (Dokuan)।
सूरज ढलने को है।
पक्षी अपने बीड़ों में लौट रहे हैं।
एक युवक यामाओका (Yamaoka) दोकुआन से कह रहा है : "न कोई गुरु है, न कोई शिष्य - क्योंकि सत्य न दिया जा सकता है न लिया। और जो हम सोचते हैं और अनुभव करते हैं कि यथार्थ है वह सब अयथार्थ है - माया है। संसार शून्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है और जो भी प्रतीत होता है कि है वह सब स्वप्नवत् है।"
निश्चय ही वह युवक ज्ञान की बातें बोल रहा है !
निश्चय ही शास्रों से वह परिचित मालूम होता है!
और दोकुआन है कि चुपचाप अपना हुक्का गुड़गुड़ा रहा है।
वह सुनता रहता है बिना कुछ बोले और फिर अचानक हुक्का उठाकर उस युवक के सिर पर मार देता है।
यामाओका घबड़ाकर खड़ा हो जाता है।
उसकी आंखें क्रोधसे भर जाती हैं।
दोकुआन हंसता रहता है और अंतत: सिर्फ इतना ही बोलता है : "जब इनमें से किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है और सभी कुछ शून्य है तब तुम्हारा क्रोध कहां से जन्म रहा है? इसके संबंधमें सोचो! (Since none of these things really exists and all is emptiness, where does your anger come from? Think about it!)"
काश! ज्ञान की बातों से ज्ञान हो सकता और शास्र-दब्द सत्य बन सकते तो जीवन में फिर कोई उलझाव ही क्या था?
पर ज्ञान की बातें केवल अज्ञान को छिपाती हैं और शास्त्रों के शब्द अज्ञान के ओठों पर असत्य से भी असत्य हो जाते हैं।
सत्य को जानना कठिन तपश्चर्या है क्योंकि सत्य का द्वार अध्ययन नहीं, अनुभूति है - शास्त्र नहीं, समाधि है।