प्यारी मौनू,
प्रेम| बुद्ध अक्सर कहते थे एक कथा।
वह कथा मनुष्य की ही कथा है।
वह कथा पूरे संसार की ही कथा है।
कहते थे : "एक यात्री किसी पर्वतीय निर्जन में पीछा करते एक पागल हाथी से बचने को भाग रहा है।
निश्चय ही जीवन और मृत्यु का सवाल है उसके लिये और वह पूरी शक्ति लगाकर दौड़ता है और पहुंच जाता है एक ऐसी चट्टान के निकट जिसके आगे कि एक भयंकर गड्ढ है और जिस पर मार्ग भी समाप्त होता है और पीछे छौटना संभव नहीं है क्योंकि हाथी अभी भी पीछे चछा आ रहा है।
मरता क्या न करता?
वह कोई और उपाय न देख एक लता को पकड़कर खाई में लटक जाता है।
लता कमजोर है और किसी भी क्षण टूट सकती है।
वह नीचे झुककर खाई में देखता है तो एक सिंह मुंह बाये खड़ा है।
और हाथी ऊपर चिंघाड़ रहा है!
और तभी वह देखता है कि दो चूहे लता की जड़ों को कुतर रहे हैं - दिन और रात की भांति एक उनमें सफेद है और एक काला है!
उन चूहों की गति तेज है और साफ है कि वे शीघ्र ही अपना कार्य पूरा कर लेंगे।
मौत अब जैसे सुनिश्चित है - आह! लेकिन तभी चट्टान के किनारे खड़े एक वृक्ष पर एक मधुछत्ता दिखाई पड़ता है।
उस मधुछत्ते से बूंद-बूंद मधु ठीक उसके ऊपर ही टपक रहा है।
जैसे बूंद-बूंद सुख!
वह मुंह खोलकर मधु की एक बूंद का स्वाद लेता है।
कितना मधुर है मधु!
कैसी मिठास है मधु में।
और मधु-मिठास के उस स्वाद-क्षण में मौत का साकार रूप समान वह पागल हाथी बिलकुल ही भूल जाता है - उसकी चट्टानों को कंपाती चिंघाड़ें भी सुनाई नहीं पड़ती है और न ही स्मृति रहती है नीचे मुंह बाये खड़े सिंह की और एकमात्र सहारे को काटते हुए चुहे भी खो जाते हैं!
सत्य जैसे खो जाता है स्वप्न में!
ऐसा ही संसार है!
ऐसा ही संसार है!
ऐसा ही संसार है!"