Arvind Jain Notebooks, Vol 1: Difference between revisions
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: | ::The first book in a series of five. | ||
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:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 4]] | |||
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:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | :बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | ||
:उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः | :उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः १,००० वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके | | ||
:हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक | :हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक | ||
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:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना | :विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना २,५०० वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा | | ||
:एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे | :एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे | ||
:प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई | :प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई १०० - २०० कदम चला होगा कि उसकी टक्कर सामने आते एक व्यक्ति से हुई | अंधे ने कहा : बात क्या है, लालटेन के प्रकाश में भी तुम नहीं देख सके | जवाब मिला : लालटेन ही बुझ गई है, उसकी ज्योति समाप्त हो गई है - इससे टक्कर होना स्वाभाविक था | हमारे युग में भी आज राष्ट्र-राष्ट्र में, पति-पत्नी में,माँ-पिता-पुत्र में - चारों ओर गहरी टकराहट है, और शांति, धर्म, आनंद की ज्योति बुझ गई है | प्रकाश बुझ गया है | इसे पुनरुज्जीवित करना है | धर्म चला जायगा - तो आदमी बहुत समय तक अब ज़मीन पर जिंदा नहीं रह सकता | डा. साहब की देन - बौद्ध धर्म को पुनः भारत में पुनरुज्जीवित करने में है | | ||
:भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी | :भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी | ||
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:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | | :तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | ६ - ७ वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है | | ||
:राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते | :राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते | ||
:थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके | :थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके ८ अंग हैं - जो आर्य आष्टाँगिक योग में समाहित है | ये मार्ग मनुष्य के निखार के लिए हैं - इनका वैज्ञानिक प्रयोग है | मनुष्य के विकास के लिए संतुलित मार्ग है | सम्यक दृष्टि का | इस बीच और विचारक, उपदेशक, धर्म-प्रवर्तक यथा : महावीर, अर्जित केस कंबल, मक्खली गोशाल - हुए, जिन्होंने अपने मार्ग रखे | पर अति पर ज़ोर था | इससे अति के जीवन से बचें - तो जीवन शांत बनेगा | क्या करें ? | ||
:ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति | :ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति | ||
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:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : | :पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : ३ माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया | | ||
:मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो | :मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो १० बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम- | ||
:झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं | | :झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं | | ||
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:डा. अम्बेद्कर जयंती | :डा. अम्बेद्कर जयंती | ||
: | :१४.०४.१९६१ | ||
:पूर्वी धमापुर (जबलपुर) | :पूर्वी धमापुर (जबलपुर) | ||
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:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर | :तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर १०० कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे | ||
:थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ | | :थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ | | ||
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:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | | :सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | १५ दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा | | ||
:पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | | :पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | २०० वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को | ||
:भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है | ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा : | :भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है | ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा : | ||
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:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | :यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | ||
: | :१) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की | ||
:भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा : तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि <u>एक सांस हवा</u> मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में | :भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा : तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि <u>एक सांस हवा</u> मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में | ||
Line 173: | Line 180: | ||
:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | :होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | ||
: | :२) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा | | ||
:इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है, | :इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है, | ||
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| 22 - 23 | | 22 - 23 | ||
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:मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए | :मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए ११ ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे १२ लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | १० जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा | | ||
:मैने आपसे प्रभु-मिलन की, इस उद्दात्त अवस्था को पाने की | :मैने आपसे प्रभु-मिलन की, इस उद्दात्त अवस्था को पाने की ३ बातें कहीं | पहली बात, प्रभु-मिलन की प्यास जगाना; दूसरी बात -- मन को एकाग्र करना और तीसरी बात, अपने स्वयं के सिंहासन को खाली करना | इसे योग की | ||
:भाषा में कहें तो धारणा, ध्यान और समाधि के तीन चरणों से व्यक्ति प्रभु के जीवन में स्थित होता है | और बाहर अपने आप सब कुछ बदल जाता है | | :भाषा में कहें तो धारणा, ध्यान और समाधि के तीन चरणों से व्यक्ति प्रभु के जीवन में स्थित होता है | और बाहर अपने आप सब कुछ बदल जाता है | | ||
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:आपने मेरी चर्चा शांति के साथ सुनी -- एक लंबे समय तक - बहुत - बहुत धन्यवाद | | :आपने मेरी चर्चा शांति के साथ सुनी -- एक लंबे समय तक - बहुत - बहुत धन्यवाद | | ||
:दिनांक : | :दिनांक : २६.०४.६१ | ||
:नवीन विद्या भवन जबलपुर के 'शिक्षण-साप्ताह' में विद्यार्थियों के बीच दिया भाषण | | :नवीन विद्या भवन जबलपुर के 'शिक्षण-साप्ताह' में विद्यार्थियों के बीच दिया भाषण | | ||
:विषय : चरित्र - निर्माण के सोपान | | :विषय : चरित्र - निर्माण के सोपान | | ||
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:मेरे मित्रों, | :मेरे मित्रों, | ||
:मैं आप सबके बीच आकर अनुग्रहित हूँ | पवित्र पूनम के दिवस अभी मैं रास्ते पर था - तो आनंद और सुख के बोध से भरा रहा | पूरे चाँद की रात खिल रही है, पूरा जगत अदभुत आनंद और सौंदर्य से भर उठा है | पर एक गहरी पीड़ा आज आदमी के मन को घेरे है, उसमें सौंदर्य और आनंद का लोप हो गया है | एसा लगता है, जैसे मनुष्य के मन के अंधेरे की फूटने की घड़ी आती ही नहीं | पूरे मानवीय इतिहास में बड़े-बड़े लोग हुए, जिनकी खोज मनुष्य को आनंद और शांति की राह बताना रहा है - दुखी होने की राह नहीं | और एक अजीब बात है कि आदमी- आनंद के केंद्र में दुखी होता रहता है | इससे मैं एक ही बात आपसे कहता हूँ कि - मनुष्य को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | अपने हाथ वह दुखी बना रहता है | इससे कैसे आंतरिक शांति में आया जाय - इस पर मैं आपसे चर्चा करूँगा | आज | :मैं आप सबके बीच आकर अनुग्रहित हूँ | पवित्र पूनम के दिवस अभी मैं रास्ते पर था - तो आनंद और सुख के बोध से भरा रहा | पूरे चाँद की रात खिल रही है, पूरा जगत अदभुत आनंद और सौंदर्य से भर उठा है | पर एक गहरी पीड़ा आज आदमी के मन को घेरे है, उसमें सौंदर्य और आनंद का लोप हो गया है | एसा लगता है, जैसे मनुष्य के मन के अंधेरे की फूटने की घड़ी आती ही नहीं | पूरे मानवीय इतिहास में बड़े-बड़े लोग हुए, जिनकी खोज मनुष्य को आनंद और शांति की राह बताना रहा है - दुखी होने की राह नहीं | और एक अजीब बात है कि आदमी- आनंद के केंद्र में दुखी होता रहता है | इससे मैं एक ही बात आपसे कहता हूँ कि - मनुष्य को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | अपने हाथ वह दुखी बना रहता है | इससे कैसे आंतरिक शांति में आया जाय - इस पर मैं आपसे चर्चा करूँगा | आज २,५०० वर्ष के बाद भी बुद्ध के शांत | ||
:जीवन-दर्शन का इतने विरोध-मय, युद्ध और अशांति से पूर्ण वातावरण में उस युग से कहीं ज़्यादा महत्व बढ़ गया है, जब बुद्ध धरती पर थे | फ्रेडरिक नीत्से - पश्चिम का एक विचारक हुआ - उसके पास ही चर्च की घंटियाँ प्रभु ईसा के | :जीवन-दर्शन का इतने विरोध-मय, युद्ध और अशांति से पूर्ण वातावरण में उस युग से कहीं ज़्यादा महत्व बढ़ गया है, जब बुद्ध धरती पर थे | फ्रेडरिक नीत्से - पश्चिम का एक विचारक हुआ - उसके पास ही चर्च की घंटियाँ प्रभु ईसा के २,००० वर्ष बाद सुनाई पड़ती - तो वह आश्चर्य से भर उठता कि एक यहूदी जिसे सूली दी गई, उसके नाम पर आज भी घंटियाँ बजाते, और उसे स्मरण कर - आदर-सम्मान देते हैं | पर, आज २,५०० वर्ष बाद बुद्ध का संदेश उतना ही पवित्र और इस युद्ध के युग में कीमती हो रहा है कि दुनियाँ के सामने केवल दो ही विकल्प हैं : युद्ध या बुद्ध | इन दो में से एक को आज चुनने का प्रश्न है | | ||
:आज की अपनी चर्चा को मैं - एक मज़ाक की कथा से प्रारंभ करता हूँ, जो बिल्कुल ही काल्पनिक है, लेकिन है - तथ्य पूर्ण | भगवान के दरबार में - सभी प्रमुख राष्ट्रों के प्रतिनिधियों की एक सभा आयोजित की गई | रूस के प्रतिनिधि को वर | :आज की अपनी चर्चा को मैं - एक मज़ाक की कथा से प्रारंभ करता हूँ, जो बिल्कुल ही काल्पनिक है, लेकिन है - तथ्य पूर्ण | भगवान के दरबार में - सभी प्रमुख राष्ट्रों के प्रतिनिधियों की एक सभा आयोजित की गई | रूस के प्रतिनिधि को वर | ||
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| 32 - 33 | | 32 - 33 | ||
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:नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | | :नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | ६ वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं | | ||
:बुद्ध ने कहा : मन को दमन करके नहीं जीता जा सकता | इस सिद्धांत को आज के युग के सारे मनोवैज्ञानिक मानते हैं - और आज से २, | :बुद्ध ने कहा : मन को दमन करके नहीं जीता जा सकता | इस सिद्धांत को आज के युग के सारे मनोवैज्ञानिक मानते हैं - और आज से २,५०० | ||
:वर्ष पूर्व एक कीमती सिद्धांत - बुद्ध ने दिया - इसको - उनकी दें मानते हैं | एक कहानी : पश्चिमी होटल की है | एक नया यात्री आया - होटल में ठहरने | होटल के मालिक ने कहा कि : उपर का कमरा खाली है, उसमें ठहरने को मिल सकता आयी - लेकिन नीचे जो यात्री ठहरे हैं - वे बहुत क्रोधी हैं - इससे कुछ भी शोर-गुल न हो तो आप ठहर सकते हैं | यात्री ने कहा : ठीक, मैं समझ गया | दिन भर की थकान के बाद - यात्री, रात वापिस लौटा | एक जूता उसने खोला - और भूल से वह ज़ोर से गिर गया, इससे दूसरा जूता उसने आहिस्ते से उतार कर रख दिया | और आराम से गहरी नींद सो रहा | बहुत रात गये - नीचे का यात्री - उपर आकर उस यात्री के दरवाजे पर आकर खटका देता है | किवाड़ खुले तो उसने कहा : माफ़ करिए - मैं दूसरे जूते की राह देखा रहा हूँ, कि उसका क्या हुआ ? कृपाकर आप उसे भी ज़ोर से पटक दीजिए | उसने बताया कि जितना मैं इस बात को धक्का देता कि मुझे इससे क्या ? पर दिमाग़ से बात न निकल पाती और मुझे करवटें बदलना | :वर्ष पूर्व एक कीमती सिद्धांत - बुद्ध ने दिया - इसको - उनकी दें मानते हैं | एक कहानी : पश्चिमी होटल की है | एक नया यात्री आया - होटल में ठहरने | होटल के मालिक ने कहा कि : उपर का कमरा खाली है, उसमें ठहरने को मिल सकता आयी - लेकिन नीचे जो यात्री ठहरे हैं - वे बहुत क्रोधी हैं - इससे कुछ भी शोर-गुल न हो तो आप ठहर सकते हैं | यात्री ने कहा : ठीक, मैं समझ गया | दिन भर की थकान के बाद - यात्री, रात वापिस लौटा | एक जूता उसने खोला - और भूल से वह ज़ोर से गिर गया, इससे दूसरा जूता उसने आहिस्ते से उतार कर रख दिया | और आराम से गहरी नींद सो रहा | बहुत रात गये - नीचे का यात्री - उपर आकर उस यात्री के दरवाजे पर आकर खटका देता है | किवाड़ खुले तो उसने कहा : माफ़ करिए - मैं दूसरे जूते की राह देखा रहा हूँ, कि उसका क्या हुआ ? कृपाकर आप उसे भी ज़ोर से पटक दीजिए | उसने बताया कि जितना मैं इस बात को धक्का देता कि मुझे इससे क्या ? पर दिमाग़ से बात न निकल पाती और मुझे करवटें बदलना | ||
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:में बढ़ीं है | जबकि ठीक यह है कि ज्ञान हो तो --चरित्र और आचरण की पवित्रता आपने आप आ जाती है | दरख़्त के नीचे जड़ें होती है -- इससे फूल और पत्तों का मुरझाना जड़ों के उपर निर्भर होता है | आज जीवन की व्यवस्था सुखती चली जाती है -- इससे कोई चरित्र-सुधार आंदोलन उठाये -- जो कि आज उठाए जाते हैं -- तो यह जड़ों में पानी न देकर फूल और पत्तों की संभाल करना होगा | स्वाभाविक है कि जीवन-व्यवस्था यदि सुख चली है - तो कोई आश्चर्य नहीं है | | :में बढ़ीं है | जबकि ठीक यह है कि ज्ञान हो तो --चरित्र और आचरण की पवित्रता आपने आप आ जाती है | दरख़्त के नीचे जड़ें होती है -- इससे फूल और पत्तों का मुरझाना जड़ों के उपर निर्भर होता है | आज जीवन की व्यवस्था सुखती चली जाती है -- इससे कोई चरित्र-सुधार आंदोलन उठाये -- जो कि आज उठाए जाते हैं -- तो यह जड़ों में पानी न देकर फूल और पत्तों की संभाल करना होगा | स्वाभाविक है कि जीवन-व्यवस्था यदि सुख चली है - तो कोई आश्चर्य नहीं है | | ||
:चीन में आज माओ त्से तुंग राष्ट्रपति हैं | जब वे छोटे थे - तो माँ ने एक बगिया लगा रखी थी | उन्हें पता नहीं था कि फूल और पत्ते कैसे विकास पाते हैं | एक समय माँ बीमार हुई - माओ त्से तुंग ने बगिया संभालने का काम अपने हाथ लिया | | :चीन में आज माओ त्से तुंग राष्ट्रपति हैं | जब वे छोटे थे - तो माँ ने एक बगिया लगा रखी थी | उन्हें पता नहीं था कि फूल और पत्ते कैसे विकास पाते हैं | एक समय माँ बीमार हुई - माओ त्से तुंग ने बगिया संभालने का काम अपने हाथ लिया | १५ दिन में बगिया को माँ ने स्वस्थ होकर पाया कि सब कुछ निष्प्राण था | पूछा अपने बच्चे से - तो उत्तर मिला - मैं तो फूलों और | ||
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:कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो | :कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो ८ बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है | | ||
:एक बड़े नगर में एक व्यक्ति की आँखें खराब हुईं - लोग उससे ठीक कराने को कहते | वह कहता मेरे | :एक बड़े नगर में एक व्यक्ति की आँखें खराब हुईं - लोग उससे ठीक कराने को कहते | वह कहता मेरे ८ पुत्र, ८ बहुएँ और मेरी पत्नी की कुल मिलाकर | ||
: | :३४ आँखें हैं - मेरी दो आँखें न भी हुईं तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ता | घर में एक दिन आग लगी | सब लोग बाहर निकल भागे | जब घर जलता था - तो सबको अपने वृद्ध बिगड़ी आँख वाले पिता का स्मरण आया | लेकिन तब तक वह जल चुका था | इससे किसी बाहर की आँखों से - कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता | अपनी ही आँखों का प्रकाश मुक्ति लाता है | बुद्ध ने इस तरह व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना को ही स्थान दिया - इसके पूर्व इतना मुक्त शास्ता नहीं हुआ | अंतः का मार्ग कोई भी सामूहिक नहीं हो सकता - अपनी-अपनी स्वतंत्र चेतन-सत्ता को मार्ग स्वयं पाना होता है | अकेले के सिवाय और कोई मार्ग नहीं है | | ||
:अंत में बुद्ध ने कहा : कि कोई मोक्ष वग़ैरह मिलने को नहीं | अन्य मार्गों में कुछ संसार में छोड़के मोक्ष में कई गुना ज़्यादा मिलने की बात है | लेकिन मिलने की आशा में वह नहीं मिल सकता | कुछ सौदा वहाँ नहीं है, कुछ भी मिलने को नहीं है - बस-मात्र शून्य है | यही कारण है | :अंत में बुद्ध ने कहा : कि कोई मोक्ष वग़ैरह मिलने को नहीं | अन्य मार्गों में कुछ संसार में छोड़के मोक्ष में कई गुना ज़्यादा मिलने की बात है | लेकिन मिलने की आशा में वह नहीं मिल सकता | कुछ सौदा वहाँ नहीं है, कुछ भी मिलने को नहीं है - बस-मात्र शून्य है | यही कारण है | ||
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:आप सबने शांति से इतने समय तक - मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद | | :आप सबने शांति से इतने समय तक - मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद | | ||
:बौद्ध पूर्णिमा - | :बौद्ध पूर्णिमा - ३०.०४.६१ को महावीर लायब्रेरी में दिया गया प्रवचन (जबलपुर) | ||
:भगवान बुद्ध की बौद्ध-पूर्णिमा के उपलक्ष्य में | | :भगवान बुद्ध की बौद्ध-पूर्णिमा के उपलक्ष्य में | | ||
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:13/11/61 | :13/11/61 | ||
:दिनांक | :दिनांक ६ मई ६१. | ||
:सांझ फिर आई है | अपने सरलतम जीवन-क्रम के अनुसार आचार्य जी - भोजनोपरान्त - थोड़ा घूम -फिरकर - तख्त पर बैठे हैं | अपने अंतः प्रकाश में - बाहर का सौंदर्य उनको कैसा प्रतीत होता होगा - यह जानना कठिन है | श्री राम दुबे - आकर बैठ रहे हैं | इनको हमेशा कुछ न कुछ प्रश्न पूछने ही होते हैं - इससे बड़े हाव-भाव से संभाल कर प्रश्न पूछने की तैयारी में हैं | | :सांझ फिर आई है | अपने सरलतम जीवन-क्रम के अनुसार आचार्य जी - भोजनोपरान्त - थोड़ा घूम -फिरकर - तख्त पर बैठे हैं | अपने अंतः प्रकाश में - बाहर का सौंदर्य उनको कैसा प्रतीत होता होगा - यह जानना कठिन है | श्री राम दुबे - आकर बैठ रहे हैं | इनको हमेशा कुछ न कुछ प्रश्न पूछने ही होते हैं - इससे बड़े हाव-भाव से संभाल कर प्रश्न पूछने की तैयारी में हैं | | ||
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:यह बात ज़रूर हैं कि संगठन बनाने वाले की बात सरलता से और जल्दी पकड़ में आती है - क्योंकि उसकी बातें मन की मूल-प्रवृतियों के साथ | :यह बात ज़रूर हैं कि संगठन बनाने वाले की बात सरलता से और जल्दी पकड़ में आती है - क्योंकि उसकी बातें मन की मूल-प्रवृतियों के साथ | ||
मेल खाती हैं | पर जो संगठन पर या संप्रदाय पर ज़ोर नहीं देता - उसकी बातें - गहराई को लिए हुए और कठिन होती हैं - मन के साथ उनका मेल खाना नहीं होता | इससे भला और समझदार व्यक्ति - कभी संगठन नहीं बनाता | उसे ' गुरु ' बनने का अहं नहीं लेना होता | पर आज विश्व में ज़ोर-ज़ोर से ' गुरु ' बनने की बात दिखाई देती है | | :मेल खाती हैं | पर जो संगठन पर या संप्रदाय पर ज़ोर नहीं देता - उसकी बातें - गहराई को लिए हुए और कठिन होती हैं - मन के साथ उनका मेल खाना नहीं होता | इससे भला और समझदार व्यक्ति - कभी संगठन नहीं बनाता | उसे ' गुरु ' बनने का अहं नहीं लेना होता | पर आज विश्व में ज़ोर-ज़ोर से ' गुरु ' बनने की बात दिखाई देती है | | ||
:फिर, एक बड़ी बात - संगठन - व्यक्ति को दरिद्र बना देता है | इससे मेरे से पूछा जाता : कि मैं अपने को ' जैन ' संप्रदाय का क्यों नहीं मानता तो मेरा उत्तर होता कि मैं क्यों छोटे से को अपनाकर दरिद्र बनूँ | जितने मेरे महावीर अपने हैं - उतने ही बुद्ध और ईसा | मेरे पीछे मुझे इतनी विश्व की समृद्ध निधि मिली है - वह सब मेरी है | इससे सब कुछ मेरा है -- कुछ मुझसे अलग होकर कहाँ है | हाँ - यह बात दूसरी है कि कुछ अच्छा होगा कुछ बुरा - पर होगा तो अपना ही | इससे संगठन करने वालों और उसमें सम्मिलित होने वालों | :फिर, एक बड़ी बात - संगठन - व्यक्ति को दरिद्र बना देता है | इससे मेरे से पूछा जाता : कि मैं अपने को ' जैन ' संप्रदाय का क्यों नहीं मानता तो मेरा उत्तर होता कि मैं क्यों छोटे से को अपनाकर दरिद्र बनूँ | जितने मेरे महावीर अपने हैं - उतने ही बुद्ध और ईसा | मेरे पीछे मुझे इतनी विश्व की समृद्ध निधि मिली है - वह सब मेरी है | इससे सब कुछ मेरा है -- कुछ मुझसे अलग होकर कहाँ है | हाँ - यह बात दूसरी है कि कुछ अच्छा होगा कुछ बुरा - पर होगा तो अपना ही | इससे संगठन करने वालों और उसमें सम्मिलित होने वालों | ||
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:व्यक्ति को हमेशा बाह्य वस्तुएँ - वैसी ही दिखती हैं - जैसा वह स्वयं होता है | उसकी दृष्टि Subjective होती है | एक गहरा पर्दा - | :व्यक्ति को हमेशा बाह्य वस्तुएँ - वैसी ही दिखती हैं - जैसा वह स्वयं होता है | उसकी दृष्टि Subjective होती है | एक गहरा पर्दा - | ||
:मन की इच्छाओं और वासनाओं का संयुक्त रहता है | जे. कृष्णामूर्ति पश्चिम के मुल्कों में थे | छोटी उम्र थी - विचार बहुत गहराई लिए हुये होते | नव-युवतियाँ भी उन्हें सुनने आया करतीं | इस पर एक बड़े मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा : अभी उम्र छोटी है - बाद की उम्र में ये विचार कहना होते हैं - संभव है कामिनी अभी बाधा उपस्थित करें | कृष्णामूर्ति हँसे - उनने कहा - कि आपकी उम्र तो | :मन की इच्छाओं और वासनाओं का संयुक्त रहता है | जे. कृष्णामूर्ति पश्चिम के मुल्कों में थे | छोटी उम्र थी - विचार बहुत गहराई लिए हुये होते | नव-युवतियाँ भी उन्हें सुनने आया करतीं | इस पर एक बड़े मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा : अभी उम्र छोटी है - बाद की उम्र में ये विचार कहना होते हैं - संभव है कामिनी अभी बाधा उपस्थित करें | कृष्णामूर्ति हँसे - उनने कहा - कि आपकी उम्र तो ६८ वर्ष की है - लेकिन क्या आपकी कामना - समाप्त हुई ? उत्तर में - न मिला तो कृष्णामूर्ति ने कहा - उम्र से कोई वास्ता नहीं है - मन में यदि काम है - तो नव-युवती को कामिनी होना ही होता है | | ||
:श्री लालजी राम शुक्ल - भारत के बड़े मनोवैज्ञानिक हैं | गाँधीजी से मिले - देखा कि गाँधीजी - लड़कियों के कंधे पर हाथ रखे हैं | कहा - कि गाँधीजी अपनी अपरोक्ष वासना की पूर्ति करते हैं | बात स्पष्ट है कि - शुक्ल जी को - कंधा मात्र बस कंधा हो सकता है - यह ख्याल ही नहीं आ सकता | लड़के और लड़की का | :श्री लालजी राम शुक्ल - भारत के बड़े मनोवैज्ञानिक हैं | गाँधीजी से मिले - देखा कि गाँधीजी - लड़कियों के कंधे पर हाथ रखे हैं | कहा - कि गाँधीजी अपनी अपरोक्ष वासना की पूर्ति करते हैं | बात स्पष्ट है कि - शुक्ल जी को - कंधा मात्र बस कंधा हो सकता है - यह ख्याल ही नहीं आ सकता | लड़के और लड़की का | ||
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:आज के पुनीत दिवस पर आकर मैं आनंदित हूँ | | :आज के पुनीत दिवस पर आकर मैं आनंदित हूँ | | ||
:गुरुदेव का | :गुरुदेव का १०० वर्ष का ऋण - आज की हमारी अंधेरी सदी में जब जीवन के सारे श्रेष्ठ मूल्य खो गये हैं, बहुत-बहुत कीमत का हो उठा है | पिछली सारी संचित निधि को हमारा युग-विसर्जित कर चुका है | पश्चिम में जो जीवन-विकास हुआ -- उससे केवल २ महायुद्ध लड़े गये और जीवन आज मौत की कगारों पर खड़ा है | जीवन से अर्थ खो गये हैं | आत्म-हत्याएँ बढ़ चली हैं और बड़े विचारकों में - स्टीविन्स ज्यूंग, पावले आदि ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं | स्पष्ट है कि जीवन से प्रेम का लोप हो गया है - और जीना भी मौत से सुखकर नहीं है | एसे अंधेरे की सदी में - रवीन्द्रनाथ जन्में - जिसमें कि जीवन की मूल प्रेरणा विलीन हो चुकी थी | इससे रवींद्रनाथ की संपूर्ण साहित्य-साधना -- जगत को या समष्टि को व्यक्ति में समाहित कर - एक केंद्रीय सार्थकता को जीवन में जगाना रहा है | | ||
:वोल्टेयर एक बड़ा विचारक हुआ | उसने | :वोल्टेयर एक बड़ा विचारक हुआ | उसने | ||
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:रवींद्रनाथ ने जो छुआ वह काव्य में बह निकला | क्या जीवन साधना थी - इस पर में आपसे चर्चा करना पसंद करूँगा -- | :रवींद्रनाथ ने जो छुआ वह काव्य में बह निकला | क्या जीवन साधना थी - इस पर में आपसे चर्चा करना पसंद करूँगा -- | ||
:( | :(१) -- मनुष्य को समष्टि से संयुक्त होना है | रवींद्रनाथ कहते : एक गीत की पंक्ति - गीत से अलग होकर अपने में निर्मुल्य है - संयुक्त होकर ही वह गीत में अर्थकारी हो पाती है | मनुष्य भी अकेला - अलग - उस टूटी ही पंक्ति के समान है - जिसमें व्यक्ति का अपना स्थान विराट में या प्रभु में नहीं हो पाता | इससे संयुक्त होकर - अपना स्थान प्रभु के साथ बना लेना मानव-जीवन की सर्थकता है | आज सारे व्यक्ति अलग-अलग टूटे खड़े हैं - व्यक्तिगत अहँता बढ़ी है - इससे मूलतः व्यक्तिगत अहँता को विसर्जित कर; अपने को समष्टि से जोड़ना ही - रवींद्रनाथ की एकमात्र जीवन-साधना रही है | बूँद सागर में विसर्जित होकर जैसे सब पा लेती है, वैसे ही हम क्षुद्र सी अहँता को विसर्जित कर ' उसे ' पा सकते हैं | रवींद्रनाथ ने कहा : हमें दुखी होने | ||
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:भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने | :भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने ५,००० वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया | | ||
:प्रभु के चरणों की प्रतीति उन्हें हर समय और हर जगह होती थी | एक जगह उनने लिखा कि : पहले मैं घर में आए मेहमानों के प्रति घृणा से भरा रहता और एसा लगता कि व्यर्थ खाने-पीने मात्र ये लोग पड़े रहते हैं | एक सुबह मैं सागर-तट पर घूमने गया | सूरज उगते ही लहर-लहर पर और सारे जगत में प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो उठीं | मुझे लगा कि सूरज तो एक है, लेकिन उसका प्रकाश सब ओर व्याप्त है | पहली बार उन्हें इस घटना से सबमें प्रभु के प्रकाश का बोध हुआ | घर वापिस लौटे | सारे मेहमानों से आँसू में डूबकर गले मिले, आस-पड़ोस के परिचितों से मिले, जब कोई मिलने को न रहा तो वृक्षों से | :प्रभु के चरणों की प्रतीति उन्हें हर समय और हर जगह होती थी | एक जगह उनने लिखा कि : पहले मैं घर में आए मेहमानों के प्रति घृणा से भरा रहता और एसा लगता कि व्यर्थ खाने-पीने मात्र ये लोग पड़े रहते हैं | एक सुबह मैं सागर-तट पर घूमने गया | सूरज उगते ही लहर-लहर पर और सारे जगत में प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो उठीं | मुझे लगा कि सूरज तो एक है, लेकिन उसका प्रकाश सब ओर व्याप्त है | पहली बार उन्हें इस घटना से सबमें प्रभु के प्रकाश का बोध हुआ | घर वापिस लौटे | सारे मेहमानों से आँसू में डूबकर गले मिले, आस-पड़ोस के परिचितों से मिले, जब कोई मिलने को न रहा तो वृक्षों से | ||
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:मास्को में गुरुदेव के चित्रों का प्रदर्शन हुआ | लोगों ने चित्रों का विश्लेषण जानना चाहा | तब रवींद्रनाथ ने कहा विश्लेषण से सौंदर्य-बोध नहीं होगा | ( पिकासो नाम का एक अमेरिकी धनपति अपना चित्र एक कलाकार से बनवाना चाहा | मूल्य जो भी वह माँगेगा - यह कहकर - उसने सितरकार को धनपति ने चित्रकार को चित्र बनाने को कहा | — crossed) | :मास्को में गुरुदेव के चित्रों का प्रदर्शन हुआ | लोगों ने चित्रों का विश्लेषण जानना चाहा | तब रवींद्रनाथ ने कहा विश्लेषण से सौंदर्य-बोध नहीं होगा | ( पिकासो नाम का एक अमेरिकी धनपति अपना चित्र एक कलाकार से बनवाना चाहा | मूल्य जो भी वह माँगेगा - यह कहकर - उसने सितरकार को धनपति ने चित्रकार को चित्र बनाने को कहा | — crossed) | ||
:एक घटना से यह बात स्पष्ट होगी | एक अमेरिकी धनपति ने पिकासो नामक चित्रकार से अपना चित्र बनाने को कहा | धनपति ने कहा कि जितना भी मूल्य पिकासो माँगेगा, वह देगा | | :एक घटना से यह बात स्पष्ट होगी | एक अमेरिकी धनपति ने पिकासो नामक चित्रकार से अपना चित्र बनाने को कहा | धनपति ने कहा कि जितना भी मूल्य पिकासो माँगेगा, वह देगा | २ वर्ष के बाद चित्र तैयार हुआ | पिकासो ने ५ हज़ार डालर मूल्य माँगा | धनपति ने कहा : एसा इस चित्र में है ही क्या ? थोड़ा सा रंग और कागज के सिवाय और कुछ नहीं | इस पर पिकासो ने सहायक से कहा कि इन्हें | ||
:थोड़ा रंग और कागज दे दें और बेहतर हो कि ये अपना चित्र स्वयं बना लें | स्पष्ट है कि चित्र, रंग और कागज पर समाप्त नहीं होता, कुछ और है जो रंग और कागज से प्रगट होता है | समग्र जगत को गहरा देखना हम प्रारंभ करें तो प्रभु के इशारों को हम जान पायेंगे | | :थोड़ा रंग और कागज दे दें और बेहतर हो कि ये अपना चित्र स्वयं बना लें | स्पष्ट है कि चित्र, रंग और कागज पर समाप्त नहीं होता, कुछ और है जो रंग और कागज से प्रगट होता है | समग्र जगत को गहरा देखना हम प्रारंभ करें तो प्रभु के इशारों को हम जान पायेंगे | | ||
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:रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | :रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | ||
:हम जितना अपने को दे पाते हैं, उतना उपलब्ध होता है | अपने को पूरे अर्थों में दे डालना - प्रभु को पा लेना है | जितना हम अपने को रोक रखेंगे - कृपण और कंजूस रहेंगे - प्रभु-प्रकाश न मिलेगा | एक-एक शब्द में रवींद्रनाथ ने देने की क्षमता - अपने अहंकार को विसर्जन की साधना से संयुक्त किया है | | :हम जितना अपने को दे पाते हैं, उतना उपलब्ध होता है | अपने को पूरे अर्थों में दे डालना - प्रभु को पा लेना है | जितना हम अपने को रोक रखेंगे - कृपण और कंजूस रहेंगे - प्रभु-प्रकाश न मिलेगा | एक-एक शब्द में रवींद्रनाथ ने देने की क्षमता - अपने अहंकार को विसर्जन की साधना से संयुक्त किया है | ७० वर्ष की उम्र में भी उनके गीतों और चित्रों में ५ वर्ष के बालक सी सरलता है | कुछ भी जीवन का भारीपन उनमें न आ सका | ईसा कहते थे कि मेरे प्रभु-राज्य का उत्तराधिकारी वह होगा जो इन बालकों की तरह | ||
:सरल हो आये | उनके सारे गीत सहजता में भरे हैं | बहुत-बहुत अर्थ इससे उनके गीतों में खोजना व्यर्थ है | गीत में भी उपादेयता-व्यर्थ है | फूल में सुगंध है - बस इसे जानना होता है - क्या सुगंध को भी समझिएगा -- तो फूल को जानना न हो सकेगा | आज हम काव्य को भी गणित के सम-तुल्य स्मझने में -- आनंद का बोध करते हैं | इससे एक व्यर्थ की परेशानी और भार बढ़ता है -- गीत तो बस गीत हैं | गीत में भी बस गंध होती है -- कुछ और उनमें खोजना व्यर्थ है | उपादेयता उनमें नहीं होती | आनंद का, एक खेल का और लीला का बोध उनमें छिपा होता है | जो गीत रवींद्रनाथ ने गाये, वे परिपूर्ण आनंद में होकर -- बच्चों के मन जैसे आनंद में डूबकर गाये | भीतर आनंद था तो बाहर संगीत निकला | भीतर कुछ न हो तो संगीत भी बेसुरा होता है | | :सरल हो आये | उनके सारे गीत सहजता में भरे हैं | बहुत-बहुत अर्थ इससे उनके गीतों में खोजना व्यर्थ है | गीत में भी उपादेयता-व्यर्थ है | फूल में सुगंध है - बस इसे जानना होता है - क्या सुगंध को भी समझिएगा -- तो फूल को जानना न हो सकेगा | आज हम काव्य को भी गणित के सम-तुल्य स्मझने में -- आनंद का बोध करते हैं | इससे एक व्यर्थ की परेशानी और भार बढ़ता है -- गीत तो बस गीत हैं | गीत में भी बस गंध होती है -- कुछ और उनमें खोजना व्यर्थ है | उपादेयता उनमें नहीं होती | आनंद का, एक खेल का और लीला का बोध उनमें छिपा होता है | जो गीत रवींद्रनाथ ने गाये, वे परिपूर्ण आनंद में होकर -- बच्चों के मन जैसे आनंद में डूबकर गाये | भीतर आनंद था तो बाहर संगीत निकला | भीतर कुछ न हो तो संगीत भी बेसुरा होता है | | ||
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| 60 - 61 | | 60 - 61 | ||
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:देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने | :देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने ५ प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही | ||
:मैं ' गुरुदेव ' के चरणों में शीश झुकाता हूँ | | :मैं ' गुरुदेव ' के चरणों में शीश झुकाता हूँ | | ||
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:आप सबने इतनी देर - शांति से मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद | | :आप सबने इतनी देर - शांति से मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद | | ||
:दिनांक : | :दिनांक : ७:५:६१ को एवं ८:५:६१ को विश्वविद्यालय और देबेंद्र बंगाली क्लब में (जी. सी. एफ.) आयोजित रवींद्र शताब्दी समारोह में दिया गया - भाषण | | ||
:विषय : रवींद्रनाथ की जीवन-साधना | :विषय : रवींद्रनाथ की जीवन-साधना | ||
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| 62 - 63 | | 62 - 63 | ||
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: | :९ मई सन १९६१ ............ | ||
:सांझ की पुनीत-पावन बेला | सब अपने में खोया और स्तब्ध | पक्षी भी अपने-अपने नीड़ो में वापिस हो गये | तारे दूर-दूर तक निकल आए हैं | शाम एक नव-उल्हास से घिर आई है | प्रकृति ने एक ओर से अपने पंख समेटकर - दूसरी ओर मुखरित किए हैं | श्री राम मिश्रा आ कर -- आचार्य जी की चरण-छाया में बैठे है | घर के सारे लोग और कुछ नव-आगंतुक भी बीच-बीच में आकर बैठते रहे और चर्चा में रसलीन हुए | संप्रदायों पर चर्च शुरू हुई | | :सांझ की पुनीत-पावन बेला | सब अपने में खोया और स्तब्ध | पक्षी भी अपने-अपने नीड़ो में वापिस हो गये | तारे दूर-दूर तक निकल आए हैं | शाम एक नव-उल्हास से घिर आई है | प्रकृति ने एक ओर से अपने पंख समेटकर - दूसरी ओर मुखरित किए हैं | श्री राम मिश्रा आ कर -- आचार्य जी की चरण-छाया में बैठे है | घर के सारे लोग और कुछ नव-आगंतुक भी बीच-बीच में आकर बैठते रहे और चर्चा में रसलीन हुए | संप्रदायों पर चर्च शुरू हुई | | ||
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:समूह से एकदम प्रथक हो जाता है | उसका अपना स्वतः का धर्म अब बन जाता है | उसे ' निर्जन ' ही ' अकेले ' ही चलना होता है | हम सारे लोग यहाँ बैठे हैं, लेकिन यदि हम प्रार्थना प्रारंभ करते हैं - तो एकदम प्रत्येक को अपने में अकेले होकर - ' निर्जन' होकर प्रार्थना करनी होगी | इस तरह हम सोचें - तो प्रत्येक व्यक्ति हर क्षण अपने में अकेला या निर्जन खड़ा है | इतनी आस्था मन में आ जाय तो संसार की भीड़ में भी रहकर व्यक्ति अलग बना रह सकता है - या फिर इस आस्था को लाने के लिए - एकांत में भी जाया जा सकता है | समूह में बँधकर चलना - अपनी हत्या करना है | समूह का कोई धर्म हो - यह असंभव है | प्रत्येक इकाई अपने में स्वतंत्र और अलग खड़ी है | इससे मूलतः प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म में खड़ा होकर मुक्ति पाता है | | :समूह से एकदम प्रथक हो जाता है | उसका अपना स्वतः का धर्म अब बन जाता है | उसे ' निर्जन ' ही ' अकेले ' ही चलना होता है | हम सारे लोग यहाँ बैठे हैं, लेकिन यदि हम प्रार्थना प्रारंभ करते हैं - तो एकदम प्रत्येक को अपने में अकेले होकर - ' निर्जन' होकर प्रार्थना करनी होगी | इस तरह हम सोचें - तो प्रत्येक व्यक्ति हर क्षण अपने में अकेला या निर्जन खड़ा है | इतनी आस्था मन में आ जाय तो संसार की भीड़ में भी रहकर व्यक्ति अलग बना रह सकता है - या फिर इस आस्था को लाने के लिए - एकांत में भी जाया जा सकता है | समूह में बँधकर चलना - अपनी हत्या करना है | समूह का कोई धर्म हो - यह असंभव है | प्रत्येक इकाई अपने में स्वतंत्र और अलग खड़ी है | इससे मूलतः प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म में खड़ा होकर मुक्ति पाता है | | ||
: | :१३-५-६१ | ||
:रात्रि ने अपने गहरे अंधकार को दूर - | :रात्रि ने अपने गहरे अंधकार को दूर - | ||
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| 66 - 67 | | 66 - 67 | ||
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:मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ | :मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ १०० वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी ८० वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप ४ बी.सी. जी लिए भगवान करे - ५ वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब ५ वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें ४ बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के १०० वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ | ||
:जैसी उपलब्धि नहीं दिखती | रवींद्रनाथ का योग एक एसे युग में था जबकि सारी आस्थाएँ और जीवन के मूल्य विनष्ट हो चुके थे | सार्त्र एक पश्चिमी विचारक ने कहा था : ' हम नरक में जी रहे हैं, हमारे चारों ओर नरक है | ' जीवन बस दुख ही दुख है | घने दुख और पीड़ा के बीच भी रवींद्रनाथ ने आनंद, सौंदर्य के गीत गाए और अपने हाथ से वीना के स्वरों से गीत निकाले और एक अखंड आनंद को पाया | उनके काव्य, नाटक और चित्रों में सारे जगत का आनंद बोध समाया है | जीवन से दुख-निरोध का मार्ग अपनाया और आनंद को पाया | रवींद्रनाथ ने ईश्वरीय आस्था को - धर्म को पुनः मानवीय जीवन में स्थापित किया और दुख के विसर्जन से - आनंद और शांति का प्रकाश जगत को दिया | उन्होंने व्यक्ति को समष्टिगत या ईश्वरीय चेतना के साथ एक किया | बचपन से ही पूरी प्रतीति उनको ईश्वर की थी -- उनकी गुनगुनहट में ईश्वर की आंतरिक चेतना पर सब कुछ समर्पण का भाव है | गीतांजलि में उनके | :जैसी उपलब्धि नहीं दिखती | रवींद्रनाथ का योग एक एसे युग में था जबकि सारी आस्थाएँ और जीवन के मूल्य विनष्ट हो चुके थे | सार्त्र एक पश्चिमी विचारक ने कहा था : ' हम नरक में जी रहे हैं, हमारे चारों ओर नरक है | ' जीवन बस दुख ही दुख है | घने दुख और पीड़ा के बीच भी रवींद्रनाथ ने आनंद, सौंदर्य के गीत गाए और अपने हाथ से वीना के स्वरों से गीत निकाले और एक अखंड आनंद को पाया | उनके काव्य, नाटक और चित्रों में सारे जगत का आनंद बोध समाया है | जीवन से दुख-निरोध का मार्ग अपनाया और आनंद को पाया | रवींद्रनाथ ने ईश्वरीय आस्था को - धर्म को पुनः मानवीय जीवन में स्थापित किया और दुख के विसर्जन से - आनंद और शांति का प्रकाश जगत को दिया | उन्होंने व्यक्ति को समष्टिगत या ईश्वरीय चेतना के साथ एक किया | बचपन से ही पूरी प्रतीति उनको ईश्वर की थी -- उनकी गुनगुनहट में ईश्वर की आंतरिक चेतना पर सब कुछ समर्पण का भाव है | गीतांजलि में उनके | ||
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| 68 - 69 | | 68 - 69 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
:एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के | :एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के ३,००० वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :- | ||
:रवींद्रनाथ ने लिखा - मेरे बचपन और युवा के जीवन में एक तरह की दीवारें थीं | मैं हमेशा अलग | :रवींद्रनाथ ने लिखा - मेरे बचपन और युवा के जीवन में एक तरह की दीवारें थीं | मैं हमेशा अलग | ||
:बना रहता था | हमेशा उपेक्षा और घृणा से भरा रहता | जलता रहता था | मेरा बड़ा परिवार था - करीब | :बना रहता था | हमेशा उपेक्षा और घृणा से भरा रहता | जलता रहता था | मेरा बड़ा परिवार था - करीब १०० सदस्य थे | १०-२५ मेहमान हमेशा बने रहते थे | मैं उनके प्रति क्रोध से भरा रहता और कभी उनकी तरफ आँख उठाकर भी न देखता - सोचता उठाईगिरी की तरह व्यर्थ पड़े रहते हैं | लेकिन यह सब एक दिन विसर्जित हुआ - और नये रवींद्र का जन्म हुआ | एक सुबह उठकर रवीन्द्र - सागर-तट पर गये - सूरज उठने लगा और सागर की अनंत-अनंत लहरों पर प्रतिबिंब बनने लगा - मेरे भीतर कुछ टूटने लगा | सूरज तो एक ही है - और उसका साफ तथा गंदे पानी में भी बिम्ब तो एक सा ही बनता है | लगा उन्हें - चाहे कोई कैसा भी हो वही एक अनंत प्रभु सबमें व्याप्त है | सबमें वही समाया है - और आत्मा अपने स्वाभाव में शुद्ध है | उनकी दृष्टि बदल गई | सब कुछ एकदम सुंदर हो आया | और लोगों ने संस्मरण लिखे कि हम सब हैरान थे - आख़िर क्या हुआ ? रवींद्रनाथ ३ दिन तक बेहोश रहे - घर आए -- आँखों में आँसू थे -- जिन मेहमानों से | ||
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:कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह | :कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह ३ दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने | ||
:पर प्रकाश अपने आप भीतर आता है | मान के द्वार खोल लेने पर प्रभु भी अपने आप आता है | मैं एक छोटी सी घटना आपसे कहता हूँ - बहुत बार कहता हूँ - पर जितनी बार कहता हूँ - उतनी ही प्रिय मुझे वह हो आती है | जैसे सिक्का चलके पुराना नहीं होता - वैसे ही यह घटना चिर-नवीन है | | :पर प्रकाश अपने आप भीतर आता है | मान के द्वार खोल लेने पर प्रभु भी अपने आप आता है | मैं एक छोटी सी घटना आपसे कहता हूँ - बहुत बार कहता हूँ - पर जितनी बार कहता हूँ - उतनी ही प्रिय मुझे वह हो आती है | जैसे सिक्का चलके पुराना नहीं होता - वैसे ही यह घटना चिर-नवीन है | | ||
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:रवीन्द्र को बाल्यकाल में मृत्यु से भय था | बाद जब सब सुंदर हो आया - असुंदर मिट गया - तब की एक घटना है - जो किसी दूसरे के साथ कहीं भी नहीं घटी | रवीन्द्र एक पुस्तकालय में एक ग्रंथ पढ़ते थे कभी कल्पना भी नहीं थी कि कोई व्यक्ति आँधी की तरह घुसेगा - और कहेगा - मैं तुम्हारा वध करने आया हूँ | रवींद्र ने कहा : तुम आए सो तो ठीक किया - पर बड़े बे-मौके आए हो | कुछ पत्र मैं अपने पूरे कर लूँ - बाद वध कर लेना मैं तैयार रहूँगा | उसके तो यह सुनना था कि हाथ कंप गये | एसे बुड्ढे को क्या मारना - जो कहता - मैं तैयार मिलूँगा | जीवन में - रवींद्रनाथ ने लिखा - एक बार तो मृत्यु आई - वह भी चली गई हत्यारे में भी सुंदर - उन्हें दिखा था - भारत के सिवाय और कहीं नहीं - इस तरह घटा | | :रवीन्द्र को बाल्यकाल में मृत्यु से भय था | बाद जब सब सुंदर हो आया - असुंदर मिट गया - तब की एक घटना है - जो किसी दूसरे के साथ कहीं भी नहीं घटी | रवीन्द्र एक पुस्तकालय में एक ग्रंथ पढ़ते थे कभी कल्पना भी नहीं थी कि कोई व्यक्ति आँधी की तरह घुसेगा - और कहेगा - मैं तुम्हारा वध करने आया हूँ | रवींद्र ने कहा : तुम आए सो तो ठीक किया - पर बड़े बे-मौके आए हो | कुछ पत्र मैं अपने पूरे कर लूँ - बाद वध कर लेना मैं तैयार रहूँगा | उसके तो यह सुनना था कि हाथ कंप गये | एसे बुड्ढे को क्या मारना - जो कहता - मैं तैयार मिलूँगा | जीवन में - रवींद्रनाथ ने लिखा - एक बार तो मृत्यु आई - वह भी चली गई हत्यारे में भी सुंदर - उन्हें दिखा था - भारत के सिवाय और कहीं नहीं - इस तरह घटा | | ||
: | :१८५७ में - एक सन्यासी - अंग्रेज की गोली से मारा - वह १५ वर्षों से मौन था | पर जब मारा - तो कहा उसने | ||
:"हे ! श्वेतकेतु तू भी वही है |" | :"हे ! श्वेतकेतु तू भी वही है |" | ||
Line 629: | Line 636: | ||
:मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | :मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | ||
:रवीन्द्र मानते कि मृत्यु भी तो उसकी संदेश वाहक है | अपनी मृत्यु के तीन दिन पूर्व भी कवि वही आनंद और सौंदर्य से भरे रहे | आधे-आधे घंटे तक बेहोश रहते - पर जब बेहोशी खुलती - तो | :रवीन्द्र मानते कि मृत्यु भी तो उसकी संदेश वाहक है | अपनी मृत्यु के तीन दिन पूर्व भी कवि वही आनंद और सौंदर्य से भरे रहे | आधे-आधे घंटे तक बेहोश रहते - पर जब बेहोशी खुलती - तो १ - २ मिनिट तक - पूर्व अधूरी रह गई गीतों की पंक्तियों को लिखवाते | बहुत मुश्किल है -- इतना गहरा सौंदर्य-दृष्टा का जन्म लेना - जिसे मृत्यु में भी उस सुंदर के दर्शन हुए | | ||
:समय की रेत पर उनके पद-चिन्ह देर तक रहेंगे | उनके ग्रंथों और गीतों को कितनों ने यहाँ पढ़ा है -- मैं नहीं जानता | पर - गीतांजलि तो प्रत्येक घर में होना ही चाहिए | जिसे इतना भी न करना आया - उसे मुझे धार्मिक मानने का मन नहीं होता | गीतों से एक संगीत का भीतर आ जाना -- सौंदर्य-शांति का प्रकाश आ जाना -- और आप निशचित जानिए कि आप जिस रास्ते पर भी जा रहे हों -- आपको फूल खिलते दिखेंगे | | :समय की रेत पर उनके पद-चिन्ह देर तक रहेंगे | उनके ग्रंथों और गीतों को कितनों ने यहाँ पढ़ा है -- मैं नहीं जानता | पर - गीतांजलि तो प्रत्येक घर में होना ही चाहिए | जिसे इतना भी न करना आया - उसे मुझे धार्मिक मानने का मन नहीं होता | गीतों से एक संगीत का भीतर आ जाना -- सौंदर्य-शांति का प्रकाश आ जाना -- और आप निशचित जानिए कि आप जिस रास्ते पर भी जा रहे हों -- आपको फूल खिलते दिखेंगे | | ||
Line 637: | Line 644: | ||
:जैन मंदिर - जवाहरगंज - जबलपुर में रवीन्द्र शताब्दी समारोह पर दिया गया भाषण | | :जैन मंदिर - जवाहरगंज - जबलपुर में रवीन्द्र शताब्दी समारोह पर दिया गया भाषण | | ||
:दिनांक : | :दिनांक : १६.५.६१ | ||
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| [[image:man1321.jpg|400px]] | | [[image:man1321.jpg|400px]] | ||
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:16 Nover. 61. | :16 Nover. 61. | ||
: | :१७ मई सन १९६१ | ||
:रात्रि का घना अंधकार | बादल गहरे छाए हुये हैं | हवा बीच-बीच में बह उठती है | चाँद दूर बदलियों में अपने को छुपाए हुए है | एक सौभाग्य की घड़ी आती है | यों तो हर क्षण - प्रभु का सौंदर्य और प्रकाश सब जगह बिखरा है - पर जब वह चेतन सत्ता प्रगट होता है - तब वह अपना एक अमिट प्रभाव अन्य चेतनात्माओं में छोड़ जाता है | बाद फिर इन प्रकाशित आत्माओं को बाहर के मूक सौंदर्य और प्रकाश से -- सारा कुछ मिल जाता है -- जिसके जानने के लिए जीवन है | एक बार गहरी जीवन-दृष्टि आ जाने की बात है | इस कारण ही - बौद्धिक वर्ग के अच्छे समझदार विद्यार्थी -- आचार्य जी के समीप आते रहते हैं | इस घड़ी भी तीन विद्यार्थी आकर बैठे हैं - परिवार के और भी सदस्य हैं -- सब एक गहरी तल्लीनता से चर्चा सुन रहे हैं | | :रात्रि का घना अंधकार | बादल गहरे छाए हुये हैं | हवा बीच-बीच में बह उठती है | चाँद दूर बदलियों में अपने को छुपाए हुए है | एक सौभाग्य की घड़ी आती है | यों तो हर क्षण - प्रभु का सौंदर्य और प्रकाश सब जगह बिखरा है - पर जब वह चेतन सत्ता प्रगट होता है - तब वह अपना एक अमिट प्रभाव अन्य चेतनात्माओं में छोड़ जाता है | बाद फिर इन प्रकाशित आत्माओं को बाहर के मूक सौंदर्य और प्रकाश से -- सारा कुछ मिल जाता है -- जिसके जानने के लिए जीवन है | एक बार गहरी जीवन-दृष्टि आ जाने की बात है | इस कारण ही - बौद्धिक वर्ग के अच्छे समझदार विद्यार्थी -- आचार्य जी के समीप आते रहते हैं | इस घड़ी भी तीन विद्यार्थी आकर बैठे हैं - परिवार के और भी सदस्य हैं -- सब एक गहरी तल्लीनता से चर्चा सुन रहे हैं | | ||
Line 662: | Line 669: | ||
:in Oct. 61. | :in Oct. 61. | ||
:प्रसंग | :प्रसंग १९ मई का है | आचार्य जी सिरपुर जा रहे है | स्टेशन पर श्री राम मिश्रा से मुलाकात ली | मिश्रा जी का कहना है कि : वे कुछ विलंब करके साधना प्रारंभ करेंगे | इसपर उनको जो उत्तर मिला वह हम सबके काम का है :- | ||
:समय पर हमारा वश नहीं - वह तो बस | :समय पर हमारा वश नहीं - वह तो बस | ||
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:सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | :सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | ||
:मानसिक स्वास्थ कैसे उपलब्ध हो ? इसकी बहुत सहज आज ध्यान की प्रक्रियाएँ हैं | रात्रि सोने के पूर्व और प्रातः जगाने के बाद | :मानसिक स्वास्थ कैसे उपलब्ध हो ? इसकी बहुत सहज आज ध्यान की प्रक्रियाएँ हैं | रात्रि सोने के पूर्व और प्रातः जगाने के बाद १५ मिनिट तक जो हम सारे शरीर को मृत अवस्था में बिल्कुल ढीला छोड़ दें - एसा प्रतीत हो कि मैं इस शरीर में ही नहीं - यह किसी और का शरीर पड़ा हुआ है | फिर जो स्वांस आती - जाती उस पर ध्यान को लगालें - हम पायेंगे कि हमारे विचार विसर्जित हो गये और सहज शांति उपलब्ध हो | ||
:आई है - यह ध्यान में होकर शांत हो आना है | स्वांस पर ध्यान लगाना एकदम सरल है | बाद फिर दिन के | :आई है - यह ध्यान में होकर शांत हो आना है | स्वांस पर ध्यान लगाना एकदम सरल है | बाद फिर दिन के २४ घंटे में इस शांति को फैलाया जा सकता है -- और किसी भी क्षण ग़लत स्थिति में आने के समय अपने को जागरूक अवस्था में बनाए रखकर शांति में हो आया जा सकता है | इस तरह का अनापान योग का यह विज्ञान सहज शाँतिदायी है | यह धर्म की मौलिक साधना है और किसी भी धर्म से बँधी मानव अवस्था को इससे अस्वीकृति नहीं हो सकती - यह सहज प्रिय मीठा प्रयोग है | | ||
:<u> | :<u>१ जुलाई से २० जुलाई तक का चर्चा सार</u> | ||
:[ यह लिखा गया तो मात्र उतना ही है - जितना कि करोड़-करोड़ या कहें - अनगिनीत तारों में से एक दो तारे देख किए गये हों - अनंत आनंद तो चर्चा मे जो प्रत्यक्ष श्रोता होते और उनके भीतर जितनी जागरूकता और गहराई होती उस हिसाब से प्राप्त होता | ] | :[ यह लिखा गया तो मात्र उतना ही है - जितना कि करोड़-करोड़ या कहें - अनगिनीत तारों में से एक दो तारे देख किए गये हों - अनंत आनंद तो चर्चा मे जो प्रत्यक्ष श्रोता होते और उनके भीतर जितनी जागरूकता और गहराई होती उस हिसाब से प्राप्त होता | ] | ||
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:मौशी के संस्मरण | :मौशी के संस्मरण | ||
: | :७/८/६१ | ||
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Latest revision as of 16:57, 27 July 2020
- author
- Arvind Kumar Jain
- year
- Apr - Jul 1961
- notes
- 86 pages
- The first book in a series of five.
- see also
- Notebooks Timeline Extraction
- Arvind Jain Notebooks, Vol 2
- Arvind Jain Notebooks, Vol 3
- Arvind Jain Notebooks, Vol 4
- Arvind Jain Notebooks, Vol 5