Manuscripts ~ Reports: Difference between revisions
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:A: 7 - 22 Apr 1968 | :A: 7 - 22 Apr 1968 | ||
:B: 5 May - 29 Jul 1968 | :B: 5 May - 29 Jul 1968 (it should be 1967) | ||
:C: 2 Aug - 20 Sep 1968 | :C: 2 Aug - 20 Sep 1968 (it should be 2 Aug - 5 Oct 1967) | ||
:D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969 | :D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969 (it should be 1966-1967) | ||
:E: 4 Feb - 2 Apr 1969 | :E: 4 Feb - 2 Apr 1969 (it should be 1967) | ||
Chronological order of sections is: D-E-B-C-A. | |||
;notes | ;notes | ||
: | :71 sheets in groups A to E. We have designated them as events: | ||
:A: 4 sheets | :A: 4 sheets - [[Reports ~ 01]] | ||
:B: 13 sheets plus 10 written on reverse | :B: 13 sheets plus 10 written on reverse - [[Reports ~ 02]] | ||
:C: 17 sheets | :C: 17 sheets - [[Reports ~ 03]] | ||
:D: 8 sheets plus 2 written on reverse | :D: 8 sheets plus 2 written on reverse - [[Reports ~ 04]] | ||
:E: 9 sheets plus 7 written on reverse | :E: 9 sheets plus 7 written on reverse - [[Reports ~ 05]] | ||
: | :Missing at least Sheet A-5. | ||
:Sheets 23-9R and 23-9V have been erroneously in ''[[Manuscripts ~ Messages]]''. | |||
:Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "[[wikipedia:Recto and verso|Recto and Verso]]". | |||
; see also | |||
:[[:Category:Manuscripts]] | |||
:[[Manuscripts ~ Reports Timeline Extraction]] | |||
:{| class = "wikitable" | :{| class = "wikitable" | ||
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:धर्म चक्र प्रवर्तन: | :धर्म चक्र प्रवर्तन: | ||
:आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम | :आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम | ||
:संकलन : | :संकलन : जटूभाई मेहता | ||
:"शांति में, मौन में, शून्य में खड़े होकर जीवन को देखना ही धर्म है| वही है धर्म की कला| उसी से उसमें मिलन होता है, जो कि सत्य है| प्रेम की भाषा में वह सत्य ही परमात्मा है|" | :"शांति में, मौन में, शून्य में खड़े होकर जीवन को देखना ही धर्म है| वही है धर्म की कला| उसी से उसमें मिलन होता है, जो कि सत्य है| प्रेम की भाषा में वह सत्य ही परमात्मा है|" | ||
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:आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया | | :आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया | | ||
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:थ्योसोफिकल सोसाइटी सूरत में : | :थ्योसोफिकल सोसाइटी सूरत में : | ||
:आचार्यश्री ने | :आचार्यश्री ने 28 जून की संध्या थ्योसोफिकल सोसाइटी को संबोधित किया | सोसाइटी का हाल श्रोताओं से खचाखच भरा था | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : " मित्रों, क्या तुम आलोक के दर्शन करना चाहते हो ? तो आँखें खोलो ------- आँखें बंद किए हुए तो प्रकाश के सागर के मध्य में खड़े होकर भी तुम्हें प्रकाश के दर्शन न हो सकेंगे | प्रकाश तो सदा है | लेकिन, हम आँखें बंद किए खड़े हैं इसलिए अंधकार में हैं | " | ||
: | : | ||
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:जीवन जागृति केंद्र संगोष्ठी, जबलपुर | :जीवन जागृति केंद्र संगोष्ठी, जबलपुर | ||
:आचार्यश्री. के सान्निध्य में | :आचार्यश्री. के सान्निध्य में 29 जुलाई को जबलपुर में एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी | उन्होंने संगोष्ठी में कहा : " अहंकार के अतिरिक्त आत्मा पर और कौन सा पर्दा है ? वही है दीवार जो की स्वयं से ही मिलने नहीं देती है | उसे तोड़ने में जो समर्थ है वह स्वयं को पाने का अधिकारी बन जाता है | उसे खोने को जो राज़ी है, वह परमात्मा को पा लेता है | उससे मुक्त हो जाना ही मोक्ष है | " | ||
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:<u>कलाकारों की संगोष्ठी, जबलपुर, में -- </u> | :<u>कलाकारों की संगोष्ठी, जबलपुर, में -- </u> | ||
:11 अगस्त को आचार्यश्री. ने जबलपुर के चित्रकारों की एक संगोष्ठी को संबोधित किया | जीवन की प्रत्येन दिशा में उनके बड़े अनूठे और मौलिक विचार हैं | उन्होंने कहा : " वह जीवन निरर्थक है, जो कि सृजन में संलग्न नहीं है | सृश्टा होकर ही मनुष्य स्वयं में छिपे सृश्टा का अनुभव कर पता है | इसलिए मेरे देखे तथाकथित सन्यासियों और व्यक्तियों से भी कलाकार कहीं ज़्यादा परमात्मा के निकट होते हैं | लेकिन यह निकटता उसी मात्रा में अधिक होती है जिस मात्रा में कलाकार अपने अहंकार से मुक्त होता जाता है | अहंकार ही कलाकार की मौत है | और जो कलाकार अहंकार को मृत्यु दे देता है , वह शाश्वत जीवन से संबद्ध हो जाता है | फिर तो वह बस एक उपकरण मात्र रह जाता है और उसके माध्यम से परमात्मा स्वयं प्रकट होने लगता है | इसलिए में तुमसे कहता हूँ | :11 अगस्त को आचार्यश्री. ने जबलपुर के चित्रकारों की एक संगोष्ठी को संबोधित किया | जीवन की प्रत्येन दिशा में उनके बड़े अनूठे और मौलिक विचार हैं | उन्होंने कहा : " वह जीवन निरर्थक है, जो कि सृजन में संलग्न नहीं है | सृश्टा होकर ही मनुष्य स्वयं में छिपे सृश्टा का अनुभव कर पता है | इसलिए मेरे देखे तथाकथित सन्यासियों और व्यक्तियों से भी कलाकार कहीं ज़्यादा परमात्मा के निकट होते हैं | लेकिन यह निकटता उसी मात्रा में अधिक होती है जिस मात्रा में कलाकार अपने अहंकार से मुक्त होता जाता है | अहंकार ही कलाकार की मौत है | और जो कलाकार अहंकार को मृत्यु दे देता है , वह शाश्वत जीवन से संबद्ध हो जाता है | फिर तो वह बस एक उपकरण मात्र रह जाता है और उसके माध्यम से परमात्मा स्वयं प्रकट होने लगता है | इसलिए में तुमसे कहता हूँ ...(damaged)... हो सको | तुम्हारे होने में ही तुम्हारा मिटना है | और तुम्हारा मिटने में ही तुम्हारा होना है | | ||
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:<u>महिला महाविद्यालय, घाटकोपर , में </u> | :<u>महिला महाविद्यालय, घाटकोपर , में </u> | ||
:आचार्यश्री. 14 अगस्त की दोपहर महिला महाविद्यालय की छात्राओं को संबोधित करने के लिए यहाँ पधारे | उन्होंने यहाँ कहा : " मनुष्य का मन दुश्पूर है | उसे कितना ही भरो लेकिन वह खाली ही रह जाता है | वह न धन से भरता है, न पद से, न प्रतिष्ठा से | वह भरता ही नहीं है | फिर अंततः मनुष्य उसे परमात्मा से भरना चाहता है | वह उससे भी नहीं भरता है | शायद भरना उसका स्वाभाव ही नहीं है | या शायद वह पूर्व से ही भरा हुआ है और इसलिए हमारी उसे भरने की सारी चेष्टाएँ असफल हो जातीं हैं | में एक और दिशा सुझाता हूँ : मन को भरें न ———— बल्कि खाली करें | और ….( | :आचार्यश्री. 14 अगस्त की दोपहर महिला महाविद्यालय की छात्राओं को संबोधित करने के लिए यहाँ पधारे | उन्होंने यहाँ कहा : " मनुष्य का मन दुश्पूर है | उसे कितना ही भरो लेकिन वह खाली ही रह जाता है | वह न धन से भरता है, न पद से, न प्रतिष्ठा से | वह भरता ही नहीं है | फिर अंततः मनुष्य उसे परमात्मा से भरना चाहता है | वह उससे भी नहीं भरता है | शायद भरना उसका स्वाभाव ही नहीं है | या शायद वह पूर्व से ही भरा हुआ है और इसलिए हमारी उसे भरने की सारी चेष्टाएँ असफल हो जातीं हैं | में एक और दिशा सुझाता हूँ : मन को भरें न ———— बल्कि खाली करें | और ….(damaged).... का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि खाली होते ही पाया जाता है कि मन के मंदिर में तो ….(damaged).... हैं | " | ||
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:<u>जीवन जाग्रति केंद्र संगोष्ठी, गादरवारा : </u> | :<u>जीवन जाग्रति केंद्र संगोष्ठी, गादरवारा : </u> | ||
:22 अगस्त की रात्रि आचार्यश्री. के निकट सान्निद्य के लिए जीवन जाग्रति केंद्र द्वारा एक सांगोष्ठी आयोजित की गई | इसमें जिज्ञासुओं की एक बड़ी संख्या ने भाग लिया | आचार्यश्री ने अपने विचार भी प्रकट किए और शंकाओं का समाधान भी किया | उन्होंने कहा : " मनुष्य के जीवन का मूल दुख क्या है ? अशांति और तनाव | और अशांति और तनाव क्यों है ? क्योंकि, हम चित्त को विश्राम देना ही भूल गये हैं | शरीर तो विश्राम करता भी है लेकिन चित्त को तो कोई विश्राम है ही नहीं | उसे तो हम निरंतर जीवन के कोल्हू में जोते रखते हैं | कोल्हू के बैल भी रात्रि को विश्राम करते हैं, लेकिन चित्त तो रात्रि भी सक्रिय होता है | वह तो रात्रि भी स्वप्न देखता है ——— क्रोध करता है, भयभीत होता है, चिंतित होता है | चित्त पर यह अतिभार ही व्यक्तित्व के समस्त संगीत को नष्ट कर देता है | और फिर एसा अशांत और थका हुआ मन सत्य को या स्वयं को जानने में भी असमर्थ हो जाता है तो कोई आश्चर्य नहीं है | इसलिए मैं एक ही साधना के लिए प्रार्थना करता हूँ और वह है चित्त को विश्राम देने की | ….( | :22 अगस्त की रात्रि आचार्यश्री. के निकट सान्निद्य के लिए जीवन जाग्रति केंद्र द्वारा एक सांगोष्ठी आयोजित की गई | इसमें जिज्ञासुओं की एक बड़ी संख्या ने भाग लिया | आचार्यश्री ने अपने विचार भी प्रकट किए और शंकाओं का समाधान भी किया | उन्होंने कहा : " मनुष्य के जीवन का मूल दुख क्या है ? अशांति और तनाव | और अशांति और तनाव क्यों है ? क्योंकि, हम चित्त को विश्राम देना ही भूल गये हैं | शरीर तो विश्राम करता भी है लेकिन चित्त को तो कोई विश्राम है ही नहीं | उसे तो हम निरंतर जीवन के कोल्हू में जोते रखते हैं | कोल्हू के बैल भी रात्रि को विश्राम करते हैं, लेकिन चित्त तो रात्रि भी सक्रिय होता है | वह तो रात्रि भी स्वप्न देखता है ——— क्रोध करता है, भयभीत होता है, चिंतित होता है | चित्त पर यह अतिभार ही व्यक्तित्व के समस्त संगीत को नष्ट कर देता है | और फिर एसा अशांत और थका हुआ मन सत्य को या स्वयं को जानने में भी असमर्थ हो जाता है तो कोई आश्चर्य नहीं है | इसलिए मैं एक ही साधना के लिए प्रार्थना करता हूँ और वह है चित्त को विश्राम देने की | ….(damaged).... उतना चित्त को विश्राम दें | उसे खाली छोड़ें | किन्हीं क्षणों में बस चुपचाप मौन चित्त | ||
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| C-6 || [[image:man1098.jpg|200px]] || [[image:man1098-2.jpg|200px]] || | | C-6 || [[image:man1098.jpg|200px]] || [[image:man1098-2.jpg|200px]] || | ||
:को देखते रह जावें | देखते-देखते ही वह शांत होता जाता है | और फिर एक दिन जब वह पूर्ण शांति और विश्राम में होता है तो उसके दर्शन होते हैं जो कि मैं हूँ | और यह दर्शन सारे जीवन को आमूल ही बदल डालता है | यह अनुभूति दुख की जगह आनंद में प्रतिष्ठा बन जाती है | " | |||
:" सत्य के सागर को पाना है तो जिज्ञासा की जीवंत और सतत प्रवाहमान सरिता बनो ——— विश्वासों, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के बंद और मृत सरोवर नहीं | " | |||
:<u>जीवन जाग्रति केंद्र संगोष्ठी, जबलपुर </u> | |||
:26 अगस्त की रात्रि आचार्यश्री. के सान्निध्य में जीवन जाग्रति केंद्र की संगोष्ठी आयोजित हुई | जिज्ञासुओं से हाल खचाखच भरा हुआ था | और हाल के बाहर भी अनेक व्यक्तियों को खड़े रहकर चर्चा सुननी पड़ी | आचार्यश्री ने पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दिये | उन्होंने कहा : " सत्य की खोज का पथ सतत जिज्ञासा का पथ है | जैसे सरिताएँ सतत सागर की ओर बढ़ती रहती हैं एसे ही जिज्ञासा भी निरंतर सत्य की ओर बहती रहनी चाहिए | मन विश्वासों, धारणाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो तब एसा हो सकता है | जिनके चित्त किन्हीं मान्यताओं में आबद्द हो जाते हैं, उनकी गति अवरुद्ध हो जाती है | फिर वे प्रवाहमान सरिता न रहकर बंद सरोवर हो जाते हैं | सत्य के सागर से उनका मिलन असंभव हो जाता है | और जिसके जीवन में सत्य के सागर में मिलन नहीं होता है, वह एक अबूझ पीड़ा और दुख और व्यर्थता से भरा रह जाता है | इसलिए मैं कहता हूँ : स्वयं को खुला हुआ रखो ——— सब भाँति मुक्त और सतत प्रवाहमान ——— ताकि एकदिन वह उपलब्ध हो सके जिसके लिए प्राण प्यासे और आतुर हैं | " | |||
:" अहंकार जहाँ है, वहाँ सृजन कहाँ ? अहंकार सृजन का नहीं, विध्वंस का सूत्र है | कला का सत्य तो वहीं होता है जहाँ व्यक्ति स्वयं से शून्य और मुक्त हो जाता है | " | |||
:<u>कलानिकेतन, जबलपुर, में कलाकारों के मध्य संगोष्ठी </u> | |||
:मध्यप्रदेश राजकीय चित्रकला प्रदर्शनी के समारोह दिवस पर आचार्यश्री के सान्निध्य में 27 अगस्त की रात्रि कलाकारों की एक संगोष्ठी आयोजित हुई | आचार्यश्री ने कला और जीवन पर अपने विचार प्रस्तुत किये और कलाकारों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दिये | उन्होंने यहाँ कहा : " जीवन में सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति केवल उन्हें (ही) उपलब्ध होती है, जो सबभाँति स्वयं से रिक्त हो जाते हैं | अहंकार से भरा हुआ व्यक्ति | |||
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| C-7 || [[image:man1099.jpg|200px]] || [[image:man1099-2.jpg|200px]] || | | C-7 || [[image:man1099.jpg|200px]] || [[image:man1099-2.jpg|200px]] || | ||
:अँधा और बहरा होता है | उसे न कुछ दिखाई पड़ता है, न सुनाई पड़ता है | वह जीवन को जानने से वंचित ही रह जाता है | इसलिए अहंकार से कला का जोड़ नहीं होता है | अहंकार सृजनात्मक ही नहीं है | वस्तुतः तो वही विध्वंस का मूल मंत्र है | मेरे देखे : अहंकार और सृजन दोनों विरोधी आयाम हैं | अहंकार शून्यता के क्षण ही सृजन के क्षण हैं | और इन क्षणों में जिसका जन्म होता है, वह यदि शाश्वत हो जाता हो तो आश्चर्य नहींहै क्योंकि अहंकार जहाँ नहीं है, वहाँ आत्मा के शाश्वत स्वर सहज ही सुने जाते हैं |" | |||
:' बीज की सार्थकता बीज में ही नहीं है | वरन उन फलों और फूलों में है जो कि वह बन सकता है | और यही जीवन के संबंध में भी सत्य है |" | |||
:<u>पूना में सत्संग : </u> | |||
:आचार्यश्री. 3 और 4 सितंबर के लिए पूना पधारे | उन्होंने 3 और 4 सितंबर की सुबह " जीवन क्रांति की भूमिका " पर अपने विचार प्रकट किए | उन्हें सुनने के लिए एक विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा था | लेकिन उहें सुनने की आतूरता के कारण हज़ारों व्यक्तियों की भीड़ में भी एसा सन्नाटा होता है कि जैसे वहाँ कोई भी न हो | शांति का यह दृश्य देखते ही बनता है | और इस शांतिपुर्णा वातावरण में उनके अमृत शब्द सीधे हृदय में उतर जाते हैं | शायद वे मस्तिष्क से नहीं, वार्न सीधे हृदय से ही बातचीत करते हैं | उनका प्रभाव अपूर्व है और उसे व्यक्त करने के लिए शब्द खोजना भी कठिन हो जाता है | उन्होंने यहाँ कहा : " जीवन को वैसे ही स्वीकार नहीं कर लेना है जैसा कि वह उपलब्ध होता है | जन्म के साथ जो जीवन मिलता है वह तो एक बीज की भाँति है | उस बीज को ही सम्हालकर जो बैठ जाता है, वह तो पागल ही है | क्योंकि, बीज की सार्थकता अपने आप में नहीं है | उसकी सार्थकता तो उन फूलों और फलों में है जो कि वह बन सकता है |" | |||
:"मनुष्य के प्रति हम अभी भी अवैज्ञानिक हैं | और यही वह भूल है जिसके कारण मनुष्य हज़ारों समस्याओं और विक्षिप्तताओं में जी रहा है |" | |||
:पूना में महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के बीच : </u> | |||
:3 सितंबर की रात्रि आचार्यश्री. महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के बीच पधारे | विद्यार्थी युवकों ने उनकी बातें अत्यंत प्रेम और आनंद से सुनी और उनसे अपनी बहुत सी समस्याओं | |||
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| C-8 || [[image:man1100.jpg|200px]] || [[image:man1100-2.jpg|200px]] || | | C-8 || [[image:man1100.jpg|200px]] || [[image:man1100-2.jpg|200px]] || | ||
:के समाधान भी पूछे | आचार्यश्री. ने यहाँ कहा : " एक नये मनुष्य को जन्म देना है | पुराना मनुष्य स्वस्थ सिद्ध नहीं हो सका | उसकी रुग्णता बहुमुखी थी | वह ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा और मद में ही आजतक जीता रहा है | उसकी पूरी कथा एक लंबी विक्षिप्तता की कथा है | और स्वस्थ मनुष्य क्यों पैदा नहीं हो सका ? क्योंकि, मनुष्य के संबंध में हम अबतक वैज्ञानिक नहीं हो पाय हैं | मनुष्य के प्रति हम अबतक अंधविश्वासी और अवैज्ञानिक ही बने हुए हैं | पदार्थ-मात्र के प्रति जितनी समझ का हमने परिचय दिया है, उतनी समझ का परिचय हम स्वयम् के प्रति नहीं दे पाये है | और यही हमारी भूल है | " | |||
:" मनुष्य सोया हुआ है क्योंकि मनुष्य स्वयं को ही नहीं जानता है | यह कैसे ही सकता है कि जागा हुआ व्यक्ति और स्वयं को ही ना जाने ? जागरण और आत्मज्ञान एक ही अनुभव के दो नाम हैं |" | |||
:<u>अहमदाबाद में सत्संग : </u> | |||
:आचार्यश्री. पर्यूषण व्याख्यानमाला के अंतर्गत 5, 6, 7 सितंबर के लिए अहमदाबाद पधारे | इस त्रिदिवसिय सत्संग में हज़ारों नरनारियों ने उनके अमृतवचन सुने | एच. बी. आर्ट्स कालेज के सभाभवन में और उसके बाहर एसी भीड़ शायद ही कभी देखी गई हो | उनका कांतिघोष लोगों की निद्रा तोड़ रहा है | और वे देश के एक कोने से दूसरे कोने में बोलते हुए सतत घूम रहे हैं | उनका यह धर्म-चक्र-प्रवर्तन देश की चेतना में गहरे परिणाम लाएगा यह सुनिश्चित है | उन्होने यहाँ कहा : " मैं मनुष्य को सोया हुआ देखता हूँ | हम सब सोए हुए हैं | और इसलिए तो जीवन अपरिचित और अनजाना और व्यर्थ ही बीत जाता है | और सोया हुआ मनुष्य भी कोई मनुष्य है ? और सोया हुआ जीवन भी कोई जीवन है ? लेकिन मेरा सोए हुए होने से क्या अर्थ है ? जो स्स्वयं को नहीं जानता है, उसे मैं सोया हुआ कहता हूँ | यह कैसे हो सकता है कि जागा हुआ व्यक्ति और स्वयं को ही न जाने ? जागरण और आत्मज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं |" | |||
:" जीवन में बहुत आनंद है —— लेकिन केवल उन्हीं के लिए जिसके पास उसे भर लेने वाला पात्र है | उस पात्र का नाम है : शांति | " | |||
:<u>अहमदाबाद में हाईस्कूल के विद्यार्थियों के बीच : </u> | |||
:आचार्यश्री. 5 सितंबर की दोपहर हाईस्कूल के विद्यार्थीयों के बीच बोलने पधारे | उन्होने | |||
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| C-9 || [[image:man1101.jpg|200px]] || [[image:man1101-2.jpg|200px]] || | | C-9 || [[image:man1101.jpg|200px]] || [[image:man1101-2.jpg|200px]] || | ||
:विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा : " जीवन आनंदोपलब्धि का अवसर है | लेकिन इस आनंद को केवल वे ही उपलब्ध हो सकते हैं जो की शांत हों | शांति आनंद को पाने की अनिवार्य शर्त है | भीतर शांति हो तो बाहर आनंद है | भीतर अशांति हो तो बाहर दुख है | लेकिन हम जीवन को उल्टा देखते हैं ——— हम भीतर से बाहर की और न देखकर बाहर से भीतर की और देखते हैं और इसी भूल में जीवन व्यर्थ हो जाता है | हम देखते हैं कि बाहर दुख है इसलिए भीतर अशांति है | बाहर आनंद है इसलिए भीतर शांति है | यह भूल बहुत महँगी पड़ती है क्योंकि इसके आधार पर चलनेवाला कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता है | " | |||
:" परमात्मा क्या है ? प्रेम ——- प्रेम की अत्यंतिक अनुभूति ही परमात्मा है | " | |||
:<u>संस्कारतीर्थ, आजोल, में प्रवचन : </u> | |||
:आचार्यश्री. 6 सितंबर की दोपहर संस्कारतीर्थ, आजोल, पधारे | संस्कारतीर्थ की बहिनों ने उनका हार्दिक स्वागत किया | वे उनके शब्दों से परिचित थीं और उनके दर्शन के लिए बहुत समय से प्रतीक्षारत | आचार्यश्री के आगमन से यह दिवस संस्कारतीर्थ के लिए एक आनन्दोत्सव में परिणत हो गया था | आचार्यश्री. ने यहाँ कहा : "प्रेम प्रार्थना है क्योंकि प्रेम परमात्मा तक पहुँचने का द्वार है | जो प्रेम में प्रतिष्ठित हैं, वे परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं | इसलिए मैं कहता हूँ : परमात्मा को नहीं, प्रेम को खोजो क्योंकि जो प्रेम को पा लेता है , वह परमात्मा को तो पा ही लेता है | क्योंकि प्रेम की आत्यांतिक अनुभूति का नाम ही परमात्मा है | " | |||
:"धर्म है जीवन-वीणा को बजाने की कला | और जो इस कला से अपरिचित है, वह जीवन-संगीत से भी अपरिचित रह जाता है |" | |||
:<u>अहमदाबाद के महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के बीच : </u> | |||
:7 सितंबर की दोपहर आचार्यश्री. ने महाविद्यालयीन विद्यार्थियों को संबोधित किया | अनेक नागरिक भी इस जनसभा में उपस्थित हुए थे | आचार्यश्री. ने यहाँ कहा : " जीवन तो एक वीणा ...(damaged)... है | वीणा होने से भी कुछ नहीं होता है | उसे बजाना भी आना चाहिए | धर्म जीवन | |||
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| C-10 || [[image:man1102.jpg|200px]] || [[image:man1102-2.jpg|200px]] || | | C-10 || [[image:man1102.jpg|200px]] || [[image:man1102-2.jpg|200px]] || | ||
:-वीणा को बजाने की कला है | और जिसे यह कला नहीं आती है, वह वीणा लिए बैठा रह जाता है और उसे स्वप्न में भी ज्ञान नहीं हो पाता है कि कैसा अपार्थिव संगीत उस पार्थिव यंत्र में छिपा हुआ था ? " | |||
:" प्रभु तो द्वार पर खड़ा है लेकिन हम सोए हुए हैं | मित्रों ! जागो और देखो कि द्वार पर कौन खड़ा है ? " | |||
:<u>बंबई पर्यूषण व्याख्यानमाला में : </u> | |||
:आचार्यश्री. 8 सितंबर की सुबह बिरला क्रीड़ा केंद्र, चौपाटी, पर आयोजित पर्यूषण व्याख्यानमाला के अंतिम दिवस बोलने के लिए पधारे | उन्हें सुनने के लिए विशाल जनसागर उमड़ पड़ा | बिरला क्रीड़ा केंद्र का सभाभवन तो इंच-इंच भरा ही हुआ था | भवन के बाहर भी सैकड़ों लोग इकट्ठे थे | जनसमूह की एसी भावदशा देखकर स्पष्ट समझ में आता है कि लोगों कि धर्म में रूचि कम नहीं है लेकिन धर्म के नाम पर चलते पाखंड में ज़रूर अरुचि हो गई है | और इसलिए जहाँ भी उन्हें सत्य के दर्शन होते हैं, वे वहाँ प्यासे लोगों की भाँति इकट्ठे हो जाते हैं | आचार्यश्री. ने यहाँ कहा : " प्रभु तो निरंतर हमारे द्वार पर ही खड़ा है, लेकिन हमारे हृदय के द्वार बंद हैं और भीतर हम सोये हुए है | उसे जानना है तो हृदय के द्वार खोलने होंगे और जागना होगा | और यह जागने की साधना कोई दूसरा किसी के लिए नहीं कर सकता है | प्रत्येक को ही स्वयं यह काम करना है | शरीर की या मन की प्रत्येक क्रिया होश में —— जागृत होकर, स्मृतिपूर्वक करने से चित्त क्रमशः निद्रा के बाहर आ जाता है | और निद्रा के बाहर आना ही प्रभु में प्रवेश है | " | |||
:" आजीविका ही जीवन नहीं है | वह तो साधन को ही साध्य समझ लेना है | जीवन कुछ और ही है | और उसे जानने के लिए खुद से विराट की और गति आवश्यक है | " | |||
:<u>बंबई विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच : </u> | |||
:8 सितंबर की दोपहर आचार्यश्री. विश्वविद्यालय के विद्यार्थीओं के बीच बोलने यूनिवर्सिटी क्लब में पधारे | विद्यार्थियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया | आचर्यश्री. ने यहाँ कहा : " शिक्षा का केंद्रीय लक्ष्य क्या है ? जीवनमूल्यों की शिक्षा ही न ? क्षुद्र से चित्त विराट की ओर गतिमय हो, पार्थिव से अपार्थिव की ओर, शरीर से आत्मा की ओर, अंधकार से आलोक (की ओर) —— यही न ? लेकिन आज यह कहाँ हो रहा है ? शिक्षित व्यक्ति प्रतीत होता है कि | |||
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| C-11 || [[image:man1103.jpg|200px]] || [[image:man1103-2.jpg|200px]] || | | C-11 || [[image:man1103.jpg|200px]] || [[image:man1103-2.jpg|200px]] || | ||
:अधूरा ही शिक्षित है | शायद वह आजीविका कमा लेता है | लेकिन क्या आजीविका कमा लेना ही जीवन को अभी पा लेना है ? मित्र ! नही | आजीविका ( Living ) ही जीवन ( Life ) नहीं है | रोटी पा लेना ही सबकुछ पा लेना नहीं है | रोटी ज़रूरी है | उसके बिना जीना कठिन है | लेकिन अकेली रोटी पर ही जीना तो और भी कठिन है | कठिन ही नहीं वैसा जीना व्यर्थ भी है | आज जो मनोजगत में अर्थहीनता का अनुभव हो रहा है वह इस कारण ही हो रहा है | वह जीवन का कुसूर नहीं है | हमारी ही भूल है | " | |||
:" आत्मा के विकास की भूमिका है स्वतंत्रता | क्योंकि स्वतंत्रता में ही स्वयं में जो छिपा है, वह प्रगट होता है | स्वयं को स्वतंत्र बनाने में जो समर्थ है, वह जीवन-विकास के चरम शिखर छूने में भी समर्थ हो जाता है | " | |||
:<u>जबलपुर विज्ञान महाविद्यालय के अशोक छात्रावास में : </u> | |||
:11 सितंबर की संध्या आचार्यश्री. विज्ञान महाविद्यालय के विद्यार्थियों के उदबोधन हेतु अशोक छात्रावास में पधारे | विद्यार्थी तो सदा ही उनके विचार अत्यंत ही आदर से सुनते हैं | क्योंकि उनकी वाणी में नये युग का आवाहन है | और अतीत से मुक्ति के लिए ही उनके सारे प्रयास हैं | वे मनुष्य की चेतना को नित नया और युवा देखना चाहते हैं | उन्होंने यहाँ कहा भी : " जीवन-उर्जा सदा युक्त, नयी और बंधन हीन होनी चाहिए | उसकी परिपूर्ण स्वतंत्रता में ही उसका विकास है | स्वतंत्रता की भूमि में ही सत्य के बीज अंकुरित होते हैं | और स्वतन्त्रता के आलोक में ही स्वयं में जो छिपा है वह प्रकट होता है | इसलिए स्वयं की चेतना को सब भाँति स्वतन्त्र बनाये रखने को ही मैं साधना कहता हूँ | " | |||
:" काश ! वह जो भीतर है, उसे पा सके तो प्रत्येक व्यक्ति एक सम्राट है | अन्यथा, सभी भिखारी है, वे भी जो कि बह्यसंपदा के कारण स्वयं को सम्राट स्मझते हैं | " | |||
:<u>महावीर लायब्रेरी, जबलपुर , में प्रवचन : </u> | |||
:12 सितंबर की रात्रि आचर्यश्री. महावीर लायब्रेरी में बोलने पधारे | उन्हें सुनने के लिए आतुर लोगों से भवन खचाखच भर गया था | भवन के बाहर सड़क पर भी एक घंटे तक विशाल भीड़ उन्हें खड़े होकर सुनती रही | उन्होंने यहाँ कहा : " मनुष्य में अपरिमित खजाने छिपे हैं | लेकिन हम तो भीतर की ओर देखते ही नहीं हैं और इसलिए जो हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है उससे भी हम वंचित रह जाते हैं | काश ! वह जो भीतर है, उसे जाना जा सके तो प्रत्येक | |||
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| C-12 || [[image:man1104.jpg|200px]] || [[image:man1104-2.jpg|200px]] || | | C-12 || [[image:man1104.jpg|200px]] || [[image:man1104-2.jpg|200px]] || | ||
:व्यक्ति एक सम्राट है | अन्यथा सभी भिखारी हैं, वे भी जो बाहर की संपदा के कारण स्वयं को सम्राट मानते हैं | " | |||
:" साक्षी बनें | मन के तटस्थ साक्षी बनें | क्योंकि, वही मार्ग है मन की परिपूर्ण शांति पाने का | और स्मरण रखें कि जहाँ शांति है वहीं सब कुछ है ——-- आनंद भी, आलोक भी , अमृत्तत्व भी | " | |||
:<u>जबलपुर दशलक्षण व्यायामशाला में : </u> | |||
:आचार्यश्री. 13 सितंबर की रात्रि दशलक्षण व्यायामशाला में बोलने पधारे | वर्षा हो रही थी तो भी इतने लोग उन्हें सुनने आए थे कि हाल में बैठने को स्थान नही था | वर्षा में बाहर खड़े रहकर भी अनेक लोगों ने उनकी अमृतवाणी को सुना | उन्होंने कहा : " सत्य का चंद्रमा तो सभी झीलों के उपर चमक रहा है | लेकिन जो झीलें अशांत हैं, उनमें वह प्रतिबिंबित नहीं हो सकेगा | शांत झीलें ज़रूर उसे अपना अतिथि बना लेंगी | आपका मन कैसा है ? शांत झील की भाँति या अशांत झील की भाँति | क्योंकि आपके मन पर ही सबकुछ निर्भर है | शांत मन सत्य के लिए दर्पण बन जाता है | और सत्य की छाया में मिलता है आनंद, आलोक , अमृतत्व | इसलिए मन की शांति को उपलब्ध हों ——— वही है धर्म, वही है योग, वही है जीवन का सार विज्ञान | और मन की शांति पाने के लिए क्या करें ? मन के साक्षी बनें ———— तटस्थ साक्षी | मन के प्रवाह के किनारे बैठकर देखें ——— सिर्फ़ देखें, उस सरिता को | और देखते-देखते ही पाया जाता है कि मन क्रमशः शांत होता जाता है | और जिस क्षण भी मन शांत है उसीक्षण उसकी झलकें मिलनी शुरू हो जाती हैं जो कि सत्य है जो कि स्वयं का स्वरूप है | " | |||
:" मैं सीखाना चाहता हूँ : मौन ———— निःशब्द मौन | क्योंकि, उसी मौन में वह जाना जाता है जो कि जीवन में सत्य है, सुंदर है, श्रेष्ठ है | " | |||
:<u>जबलपुर मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच : </u> | |||
:आचार्यश्री. 14 सितंबर की रात्रि मेडिकल कॉलेज में पधारे | मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों और अध्यापकों ने उनका हार्दिक स्वागत किया | उनकी विवेक सम्मत वाणी से विद्यार्थियों के हृदय तो आंदोलित हो जाते हैं | उन्होनें यहाँ कहा : " शास्त्र का मूल्य नहीं है | मूल्य है सत्य का | और जो शास्त्रों में भटक जाता है, वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाता है | क्योंकि शास्त्र में शब्द है —— और सत्यानुभूति के लिए होना पड़ता है : निःशब्द, मौन, शून्य | क्या मित्रों ! कभी तुमने उस मौन को जाना है, जहाँ कि शब्द होते ही नहीं हैं ? मैं वही मौन तुम्हें सीखाना चाहता हूँ ...(damaged)... उसी मौन में वह सब जाना जाता है जो जीवन में सुंदर है, सत्य है, श्रेष्ठ है | " | |||
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| C-13 || [[image:man1105.jpg|200px]] || [[image:man1105-2.jpg|200px]] || | | C-13 || [[image:man1105.jpg|200px]] || [[image:man1105-2.jpg|200px]] || | ||
:" सत्य की यात्रा का पहला प्रस्थान बिंदु है विचार | श्रद्धा और विश्वास नहीं ———- चाहिए विचार ——— तीव्र विचार | विचार के पंख जिसके पास नहीं हैं , वह सत्य के मुक्त आकाश में उड़ना भी चाहे तो कैसे उड़ सकता है ? " | |||
:<u>बालासिनोर में प्रथम प्रवचन : </u> | |||
:आचार्यश्री. 17 सितंबर की प्रभातवेला में बालासिनोर पधारे | उन्होंने सुबह ही नागरिकों की एक सभा को संबोधित किया | इस नगर में बहुत दिनों से उनकी प्रतीक्षा थी | उनके क्रांतिकारी शब्द तो देश के कोने-कोने में उनके बिना पहुँचे ही पहुँच गये हैं | और जहाँ भी विचारशील लोग हैं, वहीं उनकी प्रतीक्षा की जा रही है | बालासिनोर का बुद्धिजीवी वर्ग भी इस प्रतीक्षा में पीछे नहीं था | आचार्यश्री. ने अपने प्रथम उद्बोधन में ही कहा : " श्रद्धा और विश्वास में जो भी बँधा है , वह जीवन के सत्य को नहीं जान सकता है | उसने तो अपने ही हाथों अपने पंख काट लिए हैं | आकाश में उड़ाने के लिए जैसे पंख चाहिए एसे ही सत्य को जानने के लिए तीव्र विचार और विवेक की क्षमता चाहिए | विश्वासी के भीतर यह क्षमता कुंठित ही हो जाती है | दूसरों पर विश्वास के कारण वह स्वयं की इस क्षमता का उपयोग ही नहीं कर पाता है | इसलिए सबसे पहले तो मैं विचार करने के लिए प्रार्थना करता हूँ | विचार सत्य की यात्रा का पहला प्रस्थान बिंदु है | " | |||
:" विचार की अग्नि में जल जाता है विश्वासों का कूड़ा-कचरा | और फिर जलाए जाने को कुछ न मिलने पर वह अग्नि भी बुझ जाती है | और तभी —— उसी निर्विचार में वह वह जाना जाता है —— जो कि है | " | |||
:<u>बालासिनोर में द्वितीय प्रवचन : </u> | |||
:17 सितंबर के मध्यान में आचार्यश्री. का दूसरा प्रवचन यहाँ हुआ | उन्होने कहा : " विचार की तीव्र अग्नि में विश्वासों के कूड़े-कचरे को जला डालो | और फिर तुम पाओगे कि जब जलाने को कुछ भी नहीं बचता है तो जैसे अग्नि स्वयं बुझ जाती है, एसे ही विचार भी स्वयं विलीन हो जाता है | और तब उस निर्विचार दशा में ही वह जाना जाता है जो कि है | " | |||
:" देखो —— भीतर देखो | चित्त की निष्कंप दशा ही भीतर देखनेवाली आँख है | और स्मरण रखना कि जो भीतर देखने में समर्थ हो जाता है, उसके जीवन से अंधकार सदा के लिए विदा हो जाता है | " | |||
:<u>बालासिनोर में वियार्थीयों के बीच : </u> | |||
:१८ सितंबर की प्रभातवेला में विद्यार्थियों की एक विशाल सभा को आचार्यश्री. ने संबोधित किया | | |||
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| C-14 || [[image:man1106.jpg|200px]] || [[image:man1106-2.jpg|200px]] || | | C-14 || [[image:man1106.jpg|200px]] || [[image:man1106-2.jpg|200px]] || | ||
:खुले आँगन में वृक्षों की छाया तले हुई यह सभा बड़ी अलौकिक थी | आचार्यश्री. तो अंधेरे में एक दिए की भाँति हैं | उनमें तो सहज ही आलोक किरणें विकर्ण होती रहती हैं | लेकिन जब प्यासे हृदय उनके निकट होते हैं तब तो जैसे ज्ञान की गंगा ही उनमें बहने लगती है | उन्होंने यहाँ कहा : " मनुष्य जाति का इतिहास दुखों और पीड़ाओं का इतिहास है | अंधकार में ही हम अबतक भटकते रहे हैं | जबकि प्रकाश का अविनाशी स्त्रोत प्रत्येक के भीतर है | लेकिन हम प्रकाश को बाहर खोजते रहे हैं और इसलिए ही उसे नहीं पा सके हैं | देखो ! भीतर देखो ——— और तुम इसे ज़रूर पा लोगे | मैं पाकर ही यह कह रहा हूँ | लेकिन तुम पुछोगे कि भीतर कैसे देखें ? मौन, शांति, शून्य है भीतर देखने की आँख | चुप हो जाओ और भीतर खोजो | एक शब्द भी भीतर न हो ———— विचार का एक कंपन भी न हो | और उसी निष्कंप दशा में तुम उसे पा लोगे जो कि तुम हो | और उसे पाते ही जीवन से सारा अंधकार सदा के लिए विदा हो जाता है | " | |||
:" संदेह ---- सम्यक और जीवंत संदेह ही निःसंदेह ज्ञान तक ले जाने वाला सेतु है | विश्वासी चित्त तो चलता ही नहीं , उसके कहीं पहुँचने का तो सवाल ही नहीं है | " | |||
:<u>नाडियाद में महाविद्यालयों के आद्यापकों के बीच : </u> | |||
:18 सितंबर की दोपहर आचर्यश्री. नाडियाद पधारे | आते ही उन्होंने महाविद्यालयों के अध्यापकों के की एक सभा को संबोधित किया | अध्यापकों ने उनकी वाणी का अत्यंत प्रेमपूर्ण स्वागत किया | आचार्यश्री. ने कहा कि : " मैं श्रद्धा नहीं, संदेह सिखाता हूँ | क्योंकि श्रद्धा जड़ता लाती है और संदेह खोज में ले जाता है | संदेह अत्यंत जीवंत प्रक्रिया है | उससे ग़ुजरकर कोई निसंदिग्ध ज्ञान तक भी पहुँच सकता है | लेकिन, विश्वास करने वाला चित्त यात्रा ही नहीं करता है | इसके कहीं पहुँचाने का तो सवाल ही नहीं है | " | |||
:" बाहर है मृत्यु लेकिन भीतर ——— भीतर कोई मृत्यु नहीं है | वहाँ तो जीवनों का जीवन विराजमान है | लेकिन जो खोजता है , वही उसे पाता है | " | |||
:<u>नाडियाद में जनसभा : </u> | |||
:18 सितंबर की रात्रि आचार्यश्री. ने टाउनहाल में आयोजित विशाल जनसभा को उद्बोधित किया | सर्वप्रथम नाडियाद के नागरिकों की और से उनका भावभीना स्वागत किया गया और उनके (क्रांतिकारी) व्यक्तित्व और विचारों का परिचय दिया गया | तत्पश्चात आचार्यश्री. ने अपने प्रवचन में ...(damaged)... की खोज में खो देते हैं | और वो हमारे भीतर ही है | |||
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| C-15 || [[image:man1107.jpg|200px]] || [[image:man1107-2.jpg|200px]] || | | C-15 || [[image:man1107.jpg|200px]] || [[image:man1107-2.jpg|200px]] || | ||
:उसे हम बाहर की दौड़ में खो देते हैं | एसे जीवन रिक्त होता है और मृत्यु निकट आती है | मैं पूछना चाहता हूँ कि इस तथाकथित जीवन में हम मृत्यु के अतिरिक्त और क्या उपलब्ध कर पाते हैं ? क्या यह बहुत अजीब सी बात नहीं है कि जीवन की खोज और दौड़ में अंततः मृत्यु हाथ में आती हो ? होना तो उल्टा ही चाहिए | होना तो चाहिए कि जीवन अमृतत्व को उपलब्ध हो ! तो ही हम उसे सफल भी कह सकते हैं | लेकिन निराश होने का कोई कारण नहीं है ! जीवन अमृतत्व को उपलब्ध हो सकता है | काश ! हम स्वयं की गहराइयों में उसे खोजें तो वह तो अमृत है ही | बाहर है मृत्यु लेकिन भीतर कोई मृत्यु नहीं है | " | |||
:" मनुष्य जो खोजता है वही हो जाता है | उसकी खोज ———— उसकी आकांक्षा ———— उसकी प्यास ही अंततः उसकी प्राप्ति बन जाती है | क्षुद्र को जो खोजता है वह क्षुद्र हो जाता है, और विराट को जो खोजता है वह विराट हो जाता है | " | |||
:<u>नाडियाद महिला महाविद्यालय में : </u> | |||
:19 सितंबर की सुबह आचार्यश्री. ने महाविद्यालयीन छात्राओं की विशाल सभा को संबोधित किया | आचार्यश्री. के शब्द तो जैसे एक कविता हैं और उनकी वाणी तो जैसे एक संगीत है | वे अपने विचारों के संगीत में सबको पृथ्वी से स्वर्ग की ओर बहा ले जाने में सफल हो जाते हैं | आह ! थोड़ी देर को एक और ही जगत निर्मित हो जाता है | आचार्यश्री. ने यहाँ कहा : " भिखारी बनना है या सम्राट ? भिखारी बनना हो तो क्षुद्र की खोज करो और सम्राट बनना हो तो विराट की | क्योंकि क्षुद्र की खोज में खोजनेवाला भी क्षुद्र हो जाता है और विराट की खोज में विराट | मनुष्य जो खोजता है, वही हो जाता है | " | |||
:" परमात्मा के द्वार को खोल लेना अत्यंत सरल है | शर्त एक ही है : क्या आपके पास शांति की कुंजी है ? " | |||
:<u>नाडियाद महाविद्यालय के छात्रों की विशाल सभा : </u> | |||
:19 सितंबर की दोपहर आचार्यश्री. महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के उद्द्बोधन के लिए पधारे | हज़ारों विद्यार्थियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना | उन्होने यहाँ कहा : " परमात्मा के द्वार को खोल लेना अत्यंत सरल है | लेकिन ठीक कुंजी न हो तो ज़रूर कठिन हो जाता है | और कुंजी कहाँ है ? कुंजी है प्रत्येक व्यक्ति स्वयं | अशांत व्यक्ति ठीक कुंजी नहीं है | शांत व्यक्ति ठीक कुंजी है | शांति की कुंजी से ही सत्य के द्वार पर लगा ताला खुलता है | | |||
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| C-16 || [[image:man1108.jpg|200px]] || [[image:man1108-2.jpg|200px]] || | | C-16 || [[image:man1108.jpg|200px]] || [[image:man1108-2.jpg|200px]] || | ||
:" धर्म को बचाना है | लेकिन किसके ? अधार्मिकों से ? नहीं , तथाकथित धार्मिकों और धर्मों से ही धर्म को बचाना है | " | |||
:<u>कपडवज लायंस क्लब में :</u> | |||
:आचार्यश्री. 19 सितंबर की संध्या कपडवज पधारे | लायंस क्लब कीओर से उनका भव्य स्वागत किया गया | रात्रि में क्लब द्वारा आयोजित सभा में उन्होंने कहा : " जीवन धर्म से विहीन हो गया है | और यह आधार्मिकों के कारण नहीं हुआ है | यह हुआ है धर्म के नाम पर चलते पाखंडों के कारण | उनकी ही प्रतिक्रिया स्वरूप लोग धर्मविमुख हो गये हैं | धर्म पाखंड से मुक्त हो तो मनुष्य पुनः धार्मिक हो सकता है | धर्म को तथाकथित धर्मों और धार्मिकों से बचना है | सभी सोचविचारशील व्यक्तियों के समक्ष आज इससे बड़ा और कोई पुनीत कार्य नहीं है | " | |||
:" जन्म ही जीवन नहीं है | और न मृत्यु ही जीवन की समाप्ति है | जो जीवन को जान लेता है वह तो पाता है कि जन्म और मृत्यु वस्त्रों की बदलाहट से ज़्यादा नहीं है | " | |||
:<u>कपडवज महाविद्यालय में :</u> | |||
:20 सितंबर की सुबह आचार्यश्री. ने महाविद्यालय के विद्यार्थियों को संबोधित किया | अत्यंत शांति में संपन्न हुई इस सभा में उन्होंने कहा : " जीवन एक कला है | कला ही नहीं परम कला है | जीवन भी सीखना पड़ता है | वह भी रेडीमेड नहीं मिलता है | उसे भी बनाना और निर्मित करना होता है | और जो व्यक्ति जन्म को ही जीवन मानकर रुक जाते हैं, वे जीवन को न जान पाते हैं और न ही जी पाते हैं | जन्म ही जीवन नहीं है | जीवन तो जन्म के भी पूर्व है | जीवन तो मृत्यु के भी पश्चात है | जन्म और मृत्यु तो जीवन के ही मध्य में घटी दो घटनाएँ हैं | और जो जीवन को जान लेता है, वह तो जानता है कि जन्म और मृत्यु वस्त्रों की बदलाहट से ज़्यादा नहीं है | " | |||
:" देखो ———— जीवन के रहस्य को देखो | क्योंकि, रहस्यानुभूति में ही छिपा है धर्म | रहस्य में ही छिपा है प्रभु | रहस्य में ही छिपा है सत्य | " | |||
:<u>कपडवज में नागरिकों की विशाल सभा : </u> | |||
:20 सितंबर की रात्रि टाउनहाल में आचार्यश्री. की वाणी सुनने के लिए सारा नगर ही उमड़ पड़ा था | उनके व्यक्तित्व में एसा ही चुंबकीय आकर्षण है | एक अद्भुत सम्मोहन है उनमें | जो कि सभी के हृदय में अपना प्रभाव पैदा करता है | उन्होंने यहाँ कहा : " मित्रों ! मैं जागकर जीवन को देखने के लिए निवेदन करने आया हूँ | जगकर देखो ——— स्वयं में और स्वयं के बाहर भी | तो तुम पाओगे कि एक अनूठा रहस्य जगत तुम्हें घेरे हुए है | इसी रहस्य में प्रवेश धर्म है | ...(damaged)... में नहीं है धर्म | धर्म है जीवन के रहस्यानुभव में | अज्ञात की अनुभूति में है धर्म इसलिए | |||
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| C-17 || [[image:man1109.jpg|200px]] || [[image:man1109-2.jpg|200px]] || | | C-17 || [[image:man1109.jpg|200px]] || [[image:man1109-2.jpg|200px]] || | ||
:उधार ज्ञान को छोड़ो और सरलता से जीवन को देखो | वह दर्शन तुम्हें उस ज्ञान पर ले जाएगा जो कि जीवन को सब बंधनों से मुक्त कर देता है | " | |||
|- style="vertical-align:top;" | |||
| 9R || [[image:man1144.jpg|200px]] || [[image:man1144-2.jpg|200px]] || | |||
:" धर्म की ओर पहला कदम क्या है ? मानसिक गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ डालना | श्रद्धाओं, विश्वासों और अंधी कल्पनाओं से मुक्त हो जाना ही धर्म की ओर पहला कदम है | " | |||
:<u>धुलिया में सत्संग</u> | |||
:आचार्यश्री. 4 और 5 अक्तूबर के लिए धुलिया पधारे उन्होंने धुलिया में तीन जनसभाओं को संबोधित किया | धुलिया की विचारशील जनता में उनके विचारों से क्रांति की एक लहर फैल गई | जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण ही नया और मौलिक है | उनकी प्रत्येक बात उनकी अपनी ही अनुभूति से उत्पन्न है | फिर भी वे इतनी सरलता से प्रत्येक बात समझाते हैं कि वह सभी की समझ में आ जाती है | बूढ़े और बच्चे सभी उन्हें सुनकर आनंद मग्न हो जाते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : " धर्म का श्रद्धा और विश्वास से संबंध अत्यंत घातक सिद्ध हुआ है | उनके कारण ही धर्म अंधविश्वास बन सका है और हज़ारों वर्षों से मनुष्य को अंधकार में रहना पड़ रहा है | विश्वास मानसिक अन्धेपन और गुलामी का ही दूसरा नाम है | और मानसिक रूप से गुलाम चेतना कैसे मुक्त हो सकती है ----- कैसे आनंद पा सकती है -------- कैसे आलोक को उपलब्ध हो सकती है ? इसलिए, मेरी दृष्टि में तो व्यक्ति की चेतना में धार्मिक क्रांति की शुरुआत अंधविश्वासों के सारे जाले तोड़ देने से ही शुरू होती है | धर्म की और वही पहला कदम है | " | |||
:" जीवन का संगीत है, संतुलन में | अतिवाद पीड़ा है, तनाव है | न शरीर, न आत्मा | न विज्ञान , न धर्म ---- वरन जीवन की समग्रता और पूर्णता पर एक सँस्कृति निर्मित करनी है | " | |||
:<u>धुलिया महाविद्यालय में : </u> | |||
:4 अक्तूबर की सुबह आचार्यश्री का आगमन धुलिया महाविद्यालय के विधयर्थीयों के बीच हुआ | विद्यार्थियों ने उनकी वाणी अभूतपूर्व शांति और तन्मयता से सुनी | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : " धर्म भी अकेला अधूरा है और विज्ञान भी | शरीर और आत्मा के अद्भुत मिलन और संतुलन में जैसे मनुष्य का जीवन है एसे ही धर्म और विज्ञान के संतुलन से ही मनुष्य की पूर्ण संस्कृति का जन्म हो सकता है |अबतक की सारी सभ्यताएँ और संकृतियाँ अधूरी थीं | इससे ही उनमें मनुष्य का कल्याण भी नहीं हुआ | या तो वे शरीरवादी थीं या आत्मवादी | लेकिन ये दोनों अतियाँ हैं | और अति एक तनाव है | वह एक रोग हैं | वह एक पीड़ा है | जीवन का संगीत तो सदा संतुलन में है, मध्य में है, अति में नहीं , अनति में है | भविष्य में एक एसी ही पूर्ण संस्कृति को जन्म देना है | वह पूर्ण संस्कृति ही मनुष्यता को दुखों और पीड़ाओं के उपर उठा सकती है | " | |||
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| 9V || [[image:man1145.jpg|200px]] || [[image:man1145-2.jpg|200px]] || | |||
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| D-1 || [[image:man1110.jpg|200px]] || [[image:man1110-2.jpg|200px]] || | | D-1 || [[image:man1110.jpg|200px]] || [[image:man1110-2.jpg|200px]] || | ||
:<u>समाचार विभाग</u> | |||
:<u>धर्म चक्र प्रवर्तन :</u> | :<u>धर्म चक्र प्रवर्तन :</u> | ||
:आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम | :आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम | ||
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| D-3 || [[image:man1113.jpg|200px]] || [[image:man1113-2.jpg|200px]] || | | D-3 || [[image:man1113.jpg|200px]] || [[image:man1113-2.jpg|200px]] || | ||
:जीवन है एक कला ---एक शिल्प | और प्रत्येक है स्वयं अपना शिल्पी | जो मिला है जन्म से वह तो अनगढ़ पत्थर है | इसे प्रतिमा बनाना हमारे हाथों में है | इसलिए जो मिला है उससे संतुष्ट नहीं हो जाना | एसा संतोष तो मृत्यू बन जाता है | इसलिए मैं कहता हूँ असंतोष ---दिव्य असंतोष में जलो | मंज़िल के लिए ---आत्म-सृजन के लिए जो निरंतर असंतुष्ट है, केवल वही और केवल वही जीवन को इस विकास तक पहुँचा सकता है जिसका नाम परमात्मा है |" | :जीवन है एक कला ---एक शिल्प | और प्रत्येक है स्वयं अपना शिल्पी | जो मिला है जन्म से वह तो अनगढ़ पत्थर है | इसे प्रतिमा बनाना हमारे हाथों में है | इसलिए जो मिला है उससे संतुष्ट नहीं हो जाना | एसा संतोष तो मृत्यू बन जाता है | इसलिए मैं कहता हूँ असंतोष ---दिव्य असंतोष में जलो | मंज़िल के लिए ---आत्म-सृजन के लिए जो निरंतर असंतुष्ट है, केवल वही और केवल वही जीवन को इस विकास तक पहुँचा सकता है जिसका नाम परमात्मा है |" | ||
"प्यास और प्यास और प्यास---क्योंकि प्यास ही अन्ततः प्राप्ति बन जाती है |" | :"प्यास और प्यास और प्यास---क्योंकि प्यास ही अन्ततः प्राप्ति बन जाती है |" | ||
:अहमदनगर महाविद्यालय में सत्संग ---- | :अहमदनगर महाविद्यालय में सत्संग ---- | ||
:आचार्यश्री अहमदनगर महाविद्यालय के आमन्त्रण पर 6,7 और 8 दिसंबर के लिए यहाँ पधारे | उन्होने महाविद्यालय में तीन प्रवचन दिए | विषय था : सत्य की खोज | उन्होनें कहा : "सत्य की खोज के लिए चाहिए ज्वलंत प्यास | एसी प्यास जो सत्य के अतिरिक्त और किसी भी चीज़ से तृप्त न हो | सिद्धांतों, शब्दों और शास्त्रों में जो तृप्त हो जाते हैं वे बहुतः प्यासे ही नहीं हैं | क्या वस्तुतः प्यास हो तो कोई पानी की बातों से तृप्त हो सकता है ? और प्यास गहरी होती जाय तो अंततः वही प्राप्ति बन जाती है क्योंकि जो सरोवर इसे बुझा सकता है, वह तो सदा तो है और साथ ही है | वह तो स्वयं के भीतर ही है | | :आचार्यश्री अहमदनगर महाविद्यालय के आमन्त्रण पर 6,7 और 8 दिसंबर के लिए यहाँ पधारे | उन्होने महाविद्यालय में तीन प्रवचन दिए | विषय था : सत्य की खोज | उन्होनें कहा : "सत्य की खोज के लिए चाहिए ज्वलंत प्यास | एसी प्यास जो सत्य के अतिरिक्त और किसी भी चीज़ से तृप्त न हो | सिद्धांतों, शब्दों और शास्त्रों में जो तृप्त हो जाते हैं वे बहुतः प्यासे ही नहीं हैं | क्या वस्तुतः प्यास हो तो कोई पानी की बातों से तृप्त हो सकता है ? और प्यास गहरी होती जाय तो अंततः वही प्राप्ति बन जाती है क्योंकि जो सरोवर इसे बुझा सकता है, वह तो सदा तो है और साथ ही है | वह तो स्वयं के भीतर ही है | | ||
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:"परमात्मा है प्रकाश की | :"परमात्मा है प्रकाश की भांति। उसे जानने को चाहिए प्रज्ञा की आंखें।" | ||
:छिंदवाड़ा में जनसभा --- | :छिंदवाड़ा में जनसभा --- | ||
:आचार्यश्री | :आचार्यश्री १७ दिसम्बर को छिंदवाड़ा पधारे। एक विशाल जनसभा को उन्होंने संबोधित किया। इस सभा में उन्होंने कहाः "धर्म प्रकाश की भांति है। परमात्मा भी। उसे देखने को प्रज्ञा की आंखें चाहिए। अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में विचार करे भी तो क्या करेगा ? वह तो प्रकाश की कोई भी धारणा नहीं बना सकताहै और जो भी कल्पना वह करेगा वह अनिवार्यतः गलत होगी। इसलिए विचार से न प्रकाश जाना जा सकताहै,न परमात्मा । निर्विचार की आंख हो तो ही परमात्मा है। विचार के उहापोह में ---विचार की विक्षिप्त तरंगों में आंखें बंद हैं। विचारों को विदा दे और देखें। निर्विचार मौन में जिसका प्रत्यक्ष होताहै, वही सत्य है, वही स्वयं की और सर्व की सत्ता है।" | ||
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:"विवेक को चुनौती दो ---संकट दो ताकि वह जाग | :"विवेक को चुनौती दो ---संकट दो ताकि वह जाग सके। विश्वास तो विवेक की मृत्यु है।" | ||
:छिंदवाड़ा में | :छिंदवाड़ा में विचार गोष्ठी --- १७ दिसम्बर की दोपहर में आचार्यश्री के सत्संग के लिए एक गोष्ठी आयोजित हुई। आचार्यश्री ने गोष्ठी में कहाः " मैं विश्वास में ही मनुष्य का अंधापन देखता हूँ। विश्वास नहीं, चाहिए विवेक। और विश्वास विवेक के जागरण में अवरोध बन जाताहै। जीवन की प्रसुप्त शक्तियां जागतीहै चुनौती से। और विश्वास उस चुनौती को व्यर्थ कर देते हैं, जोकि विवेक को जगाती है। विश्वास उन सत्यों को मान लेताहै, जिन्हें जानता नहीं। ऐसे मानने से स्वभावतः ही जानने की मात्रा रुक जाती है। जानना है तो न तो मानो, न न मानो। मन को 'हां ' या ' ना 'से मुक्त रखो और खोजो। विश्वास, अविश्वास दोनों से स्वयं को मुक्त रखकर जो खोजताहै, उसका विवेक इस चुनौती में ही जागृत होसकताहै। जहां न विश्वास है, न अविश्वास,वहां एक संकट उपस्थित होजाताहै और उसी संकट में विवेक जागता है। और विवेक है व्दार --- विवेक है मार्ग। जीवन में जो भी शुभ है, सुन्दर है और सत्य है वह सब उसीसे पाया जाताहै।" | ||
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:"सत्य है सीमाओं से मुक्त चित्त | :"सत्य है सीमाओं से मुक्त चित्त में। और वहीं है प्रेम। और प्रेम परमात्मा का मंदिर है।" | ||
: | :चौरई में जनसभा --- | ||
:आचार्यश्री | :आचार्यश्री १८ दिस. को यहां पधारे। सैकड़ों मुमुक्षु जन उन्हें सुनने को एकत्रित हुए। उन्होंने अमृतवाणी से कहाः "धर्मों में नहीं, धर्म में प्राण है। धर्मों ने ही तो धर्म के प्राण लेलियेहैं। हिंदू, जैन,ईसाई, बौद्ध, मुसलमान--- इन नामों ने ही सब उपद्रव कर दिया है। इन नामों के कारण ही --- इन देहों के कारण ही धर्म की आत्मा विस्मृत होगई है। मैं धार्मिक व्यक्ति का पहला लक्षण यही मानता हूँ कि वह किसी संप्रदाय और किसी सीमा में आबद्ध न होगा। वह तो सब सिमायें छोड़ देगा ताकि असीम को जान सके। सीमाओं सा बंधा चित्त असीम को कहीं जान सकता है। सत्य किसी विशेष में नहीं है और न परमात्मा है किसी चर्च या मंदिर में कैद है। सत्य तो है उस चित्त में जो सब सीमाओं से मुक्त है और परमात्मा है उस | ||
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| D-6 || [[image:man1117.jpg|200px]] || [[image:man1117-2.jpg|200px]] || | | D-6 || [[image:man1117.jpg|200px]] || [[image:man1117-2.jpg|200px]] || | ||
:"शुभ के बीज बोओ। छोटे ही सही। लेकिन कल वे ही मनुष्य की बगिया को सुवासित फूलों से भर देंगे।" | |||
:परतवाड़ा में विशाल जन सभा --<br> | |||
:आचार्य श्री २९ दिस. को परतवाड़ा,एलिचपुर पधारे। उनके स्वागत में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई। इस सभा को संबोधित करते हुए उनहोंने कहाः "मनुष्य हजारों वर्षों से दुख और पीड़ा में जीरहा है। निश्चित ही उसके जीवन के बुनियादी आधार गलत हैं। शिक्षा भूल भरी है। संस्कृति रुग्ण है और सभ्यता सभ्यता ही नहीं है। उसके जीवन का केन्द्र है, प्रेम नहीं, प्रतिस्पर्धा । मूलतः ईर्ष्या पर ही वह अपना भवन बनाता है। यह ऐसे है है जैसे कोई अग्नि की लपटों में ही रहने का प्रयास करे ! और छोटे छोटे बच्चों को भी हम महत्वाकांक्षा सिखाते हैं। जबकि समस्त आनंद का आधार है गैर महत्वाकांक्षी चित्त। क्या यह नहीं हो सकताहै कि हम बच्चों को महत्वाकांक्षा के ज्वर में दीक्षित न करें ? हम उन्हें अहंकार की शिक्षा न दें ? हम उन्हें ईर्ष्या के बिष से दीक्षित न करें ? यह होसकता है। मित्रो, मैं कहता हूँ कि यह होसकता है क्योंकि स्वभावतः हम दुख को नहीं, आनंद को ही चाहते हैं, घृणा को नहीं, प्रेम को ही चाहते हैं, अशांति को नहीं, शांति को ही चाहते हैं। मनुष्य स्वभावतः शुभ का, सत्य का और सुन्दर का आकांक्षी है। उसे सम्यक् दिशा मिले तो वह निश्चय ही पृथ्वी पर ही स्वर्ग बना सकताहै। नर्क तो हमने बनाकर देख ही लिया है। अब स्वर्ग भी बनाकर देखें। लेकिन यह कार्य कोई किसी अन्य पर नहीं छोड़ सकताहै। प्रत्येक को ही यह करना होगा। संसार को नर्क बनाने में आपका जो सहयोग है उससे अपने हाथ खींचलें और चाहे कितनी ही छोटी शक्ति हो सुन्दर के लिए सत्य के मूल्य में उसे लगायें। और स्मरण रखें कि आज बोये गये फूलों के छोटे छोटे बीज कल मनुष्य की बगिया को सुगंध से भरे फूलों की मुस्कुराहट से भर सकते हैं। " | |||
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:जबलपुर में विश्व मैत्री संघ की संगोष्ठी | |||
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:१ जन. | |||
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:"जीवन के अर्थ को जानना है ?तो चलो निर्विचार समाधी में। उसके अतिरिक्त सब व्यर्थ है।" | |||
:जालना में सत्संग --<br> | |||
:आचार्य श्री ३,४,५,६ जन. को जालना पधारे। उनके सानिध्य मे जालना में वैचारिक क्रांति की लहर ही फ़ैल गईं। उन्होंने वहां कहाः "विश्वासों को विचार के अस्त्र से छिन्न-भिन्न करदो। और फिर विचार को भी निर्विचार से विदा देदो। और तब जो शेष रह जाताहै, वही सत्य है। निर्विचार समाधि में ही पूर्ण जीवन के प्रति आंखें खुलती हैं। और यह आंखों का खुलना | |||
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| D-7 || [[image:man1118.jpg|200px]] || [[image:man1118-2.jpg|200px]] || | | D-7 || [[image:man1118.jpg|200px]] || [[image:man1118-2.jpg|200px]] || | ||
:व्यक्ति को एक बिल्कुल ही अभिनव लोक में प्रतिष्ठा दे देता है। उस अज्ञात लोक को जाने बिना न तो जीवन में अर्थ है और न अभिप्राय। उसे जानकर अर्थ उपलब्ध होता है और कृतार्थता आदि धन्यता का अनुभव होताहै।" | |||
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:"सत्य को जानना यानी स्वयं में होना। तीन स्वर्ण-सूत्रः शांति, सरलता और शून्यता।" | |||
:गुजरात विश्वविद्दालय, अहमदाबाद में -- | |||
:आचार्यश्री. १६, १७ जन. गुजरात विश्वविद्दालय के आमंत्रण पर अहमदाबाद पधारे। १६ जन. को उन्होंने अपने प्रथम भाषण में 'विज्ञान और धर्म' पर विचार प्रगट किये। और १७ जन. को अंतिम भाषण में 'जीवन-सत्य की खोज' पर। उन्होंने कहाः " सत्य को जानने का मार्ग विचार नहीं है। विचार तो स्वयं से दूर लेजाताहै। स्वयं में परिपूर्णतया होना ही सत्य को जानना है। उस भांति ही सत्य से संबंध होता है। स्वयं में होने के लिए तीन स्वर्णसूत्रः हैं : शांति, सरलता और शून्यता। चित्त शांत, सरल और शून्य हो तो सत्य के प्रति बंद आंखें अनायास ही खुल जाती हैं। और सत्य की अनुभूति सबकुछ बदल देती है -- दृष्टी, जीवन,गंतव्य। सत्य को जाने बिना न जीवन में अर्थ है, न आनंद है, न धन्यताहै।" | |||
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:"चित्त की परम स्वतंतत्रताही परमात्मा को पाने की पात्रता है।" | |||
:गुजरात विद्दापीठ, अहमदाबाद. में -- | |||
:आचार्यश्री. १६ जन.की प्रभात गुजरात विद्दापीठ पधारे। उन्होंने अपने प्रवचन में विद्दार्थीयों को 'मौलिक चिंतना' और 'मानसिक स्वतंतत्रता 'के लिए प्रेरणा दी। उन्होंने कहाः " परमात्मा का व्दार उनके लिए सदा से बंद है जो कि मानसिक रूप से परतंत्र हैं। यह परतंत्रता है विश्वासों की, परंपराओं की, पक्षपातों की। स्वतंत्र चित्त विश्वासों के अंधकार में नहीं,विवेक के आलोक से केंद्रित होताहै। विवेक ही स्वतंत्रताहै। इसलिए उधार विश्वासों से तृप्त मत होना। विश्वास से अज्ञान मिटता नहीं, बस छिप जाताहै। अज्ञान की मृत्यु के लिए तो जगाना होता है स्वयं के विवेक को। विवेक प्रकाश में आके स्वतंत्रता में प्रतिष्ठा देता है। और ऐसे प्रतिष्ठा देता है। और ऐसी प्रतिष्ठा ही परमात्मा को जानने और पाने की पात्रताहै।" | |||
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:"चित्त का निरीक्षण -- सतत निरिक्षण ही आत्मा पर ले जाता है। और वहीँ परमात्मा है।" | |||
:सागर क्रांति मंडल, अहमदाबाद में -- | |||
:आचार्य श्री. १७ जन. की प्रभात सागर क्रांति मंडल के युवको के मध्य पधारे। उन्होंने उन्हें संबोधित करके कहाः "मैं आत्मज्ञान के अतिरिक्त जीवन में आनंद और आलोक का कोई मार्ग नहीं होता है। वस्तुतः आत्मज्ञान ही ज्ञान है -- शेष सब तो अज्ञान है। | |||
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| D-8 || [[image:man1119.jpg|200px]] || [[image:man1119-2.jpg|200px]] || | | D-8 || [[image:man1119.jpg|200px]] || [[image:man1119-2.jpg|200px]] || | ||
:आत्मज्ञान अपरोक्ष ज्ञान है। उसके लिए तो बस स्वयं का सम्यक् निरीक्षण चाहिए। चित्त के निरीक्षण से -- सतत निरीक्षण से क्रमशः उसका बोध अवतरित होता है जो कि चित्त की उर्मियों के पीछे छिपा है। चित्त की वही पृष्ठ्भूमि आत्मा है। और उसे जान लेना जीवन के समस्त को जान लेना है। और उसे जान लेना मृत्यु का अतिक्रमण है। मृत्यु सत्य प्रतीत होती है क्योंकि जीवन का बोध नहीं है। जहां जीवन जाना जाता है, वहां मृत्यु नहीं है। और वही वह है जो परमात्मा है।" | |||
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:"राग भी नहीं, विराग भी नहीं। मंगलदायी तो है वीतरागता।" | |||
:माटुंगा, बम्बई में जनसभा -- | |||
:आचार्यश्री. १८ जन. को बम्बई पधारे। माटुंगा में एक पहली सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहाः "जीवन-विनाश की दो अतियां है -- राग और विराग, भोग और त्याग। दोनों ही असंयम हैं, असंतुलन हैं। संयम और संतुलन तोहै वीतराग-चित्तता में। वह तीसरी ही दिशा है। दिशा नहीं, वस्तुतः वह तो आत्मस्थिति है। चित्त, उस दिशा में ही चलें। वही शुभ है। वही मंगलदायी है। राग भी बाहरहै। विराग भी। विराग तो राग की ही प्रतिक्रिया है। वह तो उसका ही शीर्षासन करता रूप है। राग से विराग पर जाना कुयें से बच खाई में गिरनाहै। इसलिए राग पर हों तो वीतराग की ओर चलें। विराग पर हो तो वीतराग की ओर चलें। जहां भी हो वहीँ से वीतरागता की ओर गति करें। वीतरागता की ओर गति का उपकरण क्या है ? उपकरण हैः जागरूकता। अमूर्च्छा। सजगता। जीवन में -- शरीर के तल पर या मन के तल पर -- कुछ भी मूर्छित न हो। जो भी हो होशपूर्वक हो -- स्मृति पूर्वक हो। सम्यक् स्मृति क्रमशः व्दन्व्दों के पार उठा देती है। वह वहां पहुँचा देती है जहां स्वयं की सत्ताहै। और उस सत्ता का बोध ही मुक्ति ले आताहै। उसमें जाग जाना ही मोक्ष है। वही आलोकहै। वही आनंद है। वही अमृत है। वही वह है जो कि अनादि है और अनंत है।" | |||
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| E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || | | E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || | ||
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| E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || | | E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || | ||
:"स्वयं से भागो नहीं | :"स्वयं से भागो नहीं जागो। क्योंकि भागने से जो स्वयं में शून्य है, वही जागने से पूर्ण बन जाता है।" | ||
:<u>बारामती में प्रवचन</u> | :<u>बारामती में प्रवचन</u> | ||
:आचार्यश्री | :आचार्यश्री ७ फरवरी को बारामती पधारे। ७ फरवरी की सुबह उन्होंने नागरिकों की एक सभा को संबोधित किया। उन्होंने कहाः "मनुष्य के जीवन की मूल समस्या क्या है? वह पहेली कौनसी है, जिसमें उलझकर अधिक लोग व्यर्थ ही समाप्त होजाते है? और जो इस मूल समस्या को बिना जाने ही जीवनपथ पर चल पड़ताहै, निश्चय ही वह यदि भटक जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। और दुर्भाग्य से अधिक लोग जीवनभर भागते हैं, दौड़ते हैं, और गिरते हैं और समाप्त भी हो जातेहैं, बिना यह जाने कि वे क्यों दौड़ रहे थे और क्या कर रहे थे। क्या आपको उस मूल समस्या का बोध है? क्या आप उसके प्रति सचेत है? नहीं। नहीं। जरा भी नहीं। अन्यथा आप दुखी न होते, अन्यथा आप जीवन को एक बोझ की भांति न ढोते। क्योंकि जो उस समस्या को जान लेता है, वह उसे हल भी कर लेताहै। उसे ठीक से जान लेना ही उसका समाधान भी है। वह समस्या यह है कि मनुष्य स्वयं को भरने और पूरा करने के लिए दौड़ रहा है। मनुष्य पाता है कि वह भीतर खाली और रिक्त है। एक अभाव उसे स्वयं के प्राणों में अनुभव होता है। इस अभाव को, हम रिक्तता और अकेलेपन को भरने के लिए ही वह दौड़ता फिरताहै। धन की, यश की, पद की,सारी खोजें इसी अभाव के भरने के लिए हैं। लेकिन सब पाकर भी पाया जाताहै कि वह खाली का खाली है। और यही विफलता----यही अनिवार्य विफलता उसे जीते जी मुर्दा बना देती है। यह विफलता अनिवार्य है क्योंकि अभाव है उसके भीतर और जिससे उसे वह भरना चाहताहै, वह सब है उसके बाहर। और आंतरिक रिक्तता बाह्य संपदा से कैसे भर सकती है? इसलिए बाहर संपत्ति का ढेर लग जाताहै और भीतर की विपत्ति उससे अछूती ही रह जाती है। और संपदा के ढेर में भी मनुष्य स्वयं को दरिद्र ही पाता है। यह विफलता मनुष्य को त्याग और तप आदि कर्म की ओर भी लेजासकती है। लेकिन वे भी बाहर ही हैं और वे भी व्यर्थ हैं। वस्तुतः सवाल कही धन में, | ||
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:<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | :<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | ||
:आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो | :आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो | ||
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| E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | | E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | ||
:परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |” | :और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |” | ||
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:उन्हें तो सुनो सुनते-सुनते ही जैसे चेतना किसी और ही लोक में चली जाती है | उन्हें सुनना मात्र सुनना नहीं, वरन स्वयं में एक यात्रा भी है | उन्होंने यहाँ कहा : "मैं कौन हूँ? हम प्राथमिक प्रश्न का उत्तर ही जिसके साथ नहीं है, उनके जीवन में कोई भी अर्थ कैसे हो सकता है ? और जिनके पास इस प्रश्न के उत्तर और सीखे हुए उत्तर है, उनकी स्थिति तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण है | क्योंकि, उन्होंने स्वयं के सत्य का तो कोई अनुभव है ही नहीं, उल्टे उत्तरों को सीख लेने के कारण उनकी खोज भी अवरुद्ध हो जाती है | सत्य को तो स्वयम् के श्रम से ही खोजना और स्वयं में ही खोदना पड़ता है | उस खोज की पहली शर्त है किसी अन्य का उत्तर किसी भी शर्त किसी भी मूल्य पर स्वीकार न करना | यदि प्रश्न हो और उत्तर ना हों, तो वह प्रश्न ही एक तीर की भाँति स्वयम् में गहरे जाने का मार्ग बन जाता है | और यदि अनथक उस प्रश्न के साथ जीया जावे तो एक दिन वह उस उत्तर को खोज ही निकालता है वो तो स्वयं में ही प्रसुप्त और प्रच्छन्न है | एसा ज्ञान ही केवल ज्ञान है जो की स्वयम् में ही अविर्भूत होता है | उसके अतिरिक्त शेष सब अज्ञान है जो की स्वयम् को छिपाने के लिए ज्ञान के वस्त्र पहने होता है |" | :उन्हें तो सुनो सुनते-सुनते ही जैसे चेतना किसी और ही लोक में चली जाती है | उन्हें सुनना मात्र सुनना नहीं, वरन स्वयं में एक यात्रा भी है | उन्होंने यहाँ कहा : "मैं कौन हूँ? हम प्राथमिक प्रश्न का उत्तर ही जिसके साथ नहीं है, उनके जीवन में कोई भी अर्थ कैसे हो सकता है ? और जिनके पास इस प्रश्न के उत्तर और सीखे हुए उत्तर है, उनकी स्थिति तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण है | क्योंकि, उन्होंने स्वयं के सत्य का तो कोई अनुभव है ही नहीं, उल्टे उत्तरों को सीख लेने के कारण उनकी खोज भी अवरुद्ध हो जाती है | सत्य को तो स्वयम् के श्रम से ही खोजना और स्वयं में ही खोदना पड़ता है | उस खोज की पहली शर्त है किसी अन्य का उत्तर किसी भी शर्त किसी भी मूल्य पर स्वीकार न करना | यदि प्रश्न हो और उत्तर ना हों, तो वह प्रश्न ही एक तीर की भाँति स्वयम् में गहरे जाने का मार्ग बन जाता है | और यदि अनथक उस प्रश्न के साथ जीया जावे तो एक दिन वह उस उत्तर को खोज ही निकालता है वो तो स्वयं में ही प्रसुप्त और प्रच्छन्न है | एसा ज्ञान ही केवल ज्ञान है जो की स्वयम् में ही अविर्भूत होता है | उसके अतिरिक्त शेष सब अज्ञान है जो की स्वयम् को छिपाने के लिए ज्ञान के वस्त्र पहने होता है |" | ||
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: | :२८ अप्रेल | नवीन विद्यभवन जबलपुर में शिक्षा साप्ताह का समापन भाषण | | ||
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: | : | ||
:______________________________________ | :______________________________________ | ||
: | :२९ अप्रेल | जीवन जागृति केंद्र जबलपुर की संगोष्ठी | ||
:______________________________________ | :______________________________________ | ||
|} | |} | ||
[[Category:Manuscripts]] [[Category:Manuscript texts]] | |||
[[Category:Newly discovered since 1990]] |
Latest revision as of 09:52, 23 January 2022
Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri
- year
- A: 7 - 22 Apr 1968
- B: 5 May - 29 Jul 1968 (it should be 1967)
- C: 2 Aug - 20 Sep 1968 (it should be 2 Aug - 5 Oct 1967)
- D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969 (it should be 1966-1967)
- E: 4 Feb - 2 Apr 1969 (it should be 1967)
Chronological order of sections is: D-E-B-C-A.
- notes
- 71 sheets in groups A to E. We have designated them as events:
- A: 4 sheets - Reports ~ 01
- B: 13 sheets plus 10 written on reverse - Reports ~ 02
- C: 17 sheets - Reports ~ 03
- D: 8 sheets plus 2 written on reverse - Reports ~ 04
- E: 9 sheets plus 7 written on reverse - Reports ~ 05
- Missing at least Sheet A-5.
- Sheets 23-9R and 23-9V have been erroneously in Manuscripts ~ Messages.
- Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".