Arvind Jain Notebooks, Vol 5: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
mNo edit summary |
(add info) |
||
Line 27: | Line 27: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| style="width:410px" | | | style="width:410px; text-align:center; vertical-align:bottom;" | Dust cover (added later) | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:(5) | :(5) | ||
Line 42: | Line 42: | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 000.1 Dustcover front.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 000.1 Dustcover front.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |||
| style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | Original hardcover back and front | |||
| rowspan="2" | | |||
|- | |||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Hardcover back and front 60%.jpg|400px]] | |||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| | | style="text-align:center;" | Page 1 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:<u>( जनवरी का प्रथम पक्ष १९६३ )</u> (First Fortnight of January 1963) | :<u>( जनवरी का प्रथम पक्ष १९६३ )</u> (First Fortnight of January 1963) | ||
Line 57: | Line 63: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | Pages 2 - 3 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:लिखने को कितना कुछ बिखरा पड़ा है | ज्यों समेटने चलता हूँ - पाता हूँ कि उसके बिखरने का कोई अंत नहीं | वह तो बिखरा ही था - बिखेरने वाला मिलते है तो उसकी अमृत वर्षा होती हैं | यह दुर्लभ है | | :लिखने को कितना कुछ बिखरा पड़ा है | ज्यों समेटने चलता हूँ - पाता हूँ कि उसके बिखरने का कोई अंत नहीं | वह तो बिखरा ही था - बिखेरने वाला मिलते है तो उसकी अमृत वर्षा होती हैं | यह दुर्लभ है | | ||
Line 79: | Line 85: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | Pages 4 - 5 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:संभव है | भीतर चेतना की शांत गहराई - होती चली जाती है और बाहर व्यक्तित्व का सृजन होता चला जाता है | | :संभव है | भीतर चेतना की शांत गहराई - होती चली जाती है और बाहर व्यक्तित्व का सृजन होता चला जाता है | | ||
Line 106: | Line 112: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 6 - 7 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:इस वैज्ञानिक विश्लेषण को आचार्य ने श्री राम दुबे को दिया - और कहा : | :इस वैज्ञानिक विश्लेषण को आचार्य ने श्री राम दुबे को दिया - और कहा : | ||
Line 122: | Line 128: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 8 - 9 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:तो उसका विरोध नहीं होता है और मांसाहार के समर्थन में दलीलें प्रस्तुत नहीं की जाती हैं | अभी पश्चिम में कुछ महान पुरुषों ने मांस लेने का विरोध किया और एक हवा का फैलना वहाँ भी प्रारंभ हुआ है | जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा कि ' मेरी सारी संस्कृति ईसा को ही श्रेष्ठतम कहती हैं - लेकिन सब तरह से विचार करने के बाद भी - मैं ईसा को बुद्ध के उपर नहीं रख पाता | ' इन अर्थों में अब एक वातावरण निर्मित हो रहा है -- जिससे कि पूरब की संस्कृति को फैलने का अवसर मिले | यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि - बर्नार्ड शॉ ने अपनी अस्वस्थ अवस्था में डाक्टरों की सलाह पर गो-मांस लेने की अस्वीकृति दी - जिससे कि बर्नार्ड शॉ को बचाया जा सकता था | सारे मित्रों ने विनोद किया लेकिन बर्नार्ड शॉ ने कहा : ' किसी प्राणी की मृत्यु से - मैं स्वयं मर जाना पसंद करूँगा | ' | :तो उसका विरोध नहीं होता है और मांसाहार के समर्थन में दलीलें प्रस्तुत नहीं की जाती हैं | अभी पश्चिम में कुछ महान पुरुषों ने मांस लेने का विरोध किया और एक हवा का फैलना वहाँ भी प्रारंभ हुआ है | जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा कि ' मेरी सारी संस्कृति ईसा को ही श्रेष्ठतम कहती हैं - लेकिन सब तरह से विचार करने के बाद भी - मैं ईसा को बुद्ध के उपर नहीं रख पाता | ' इन अर्थों में अब एक वातावरण निर्मित हो रहा है -- जिससे कि पूरब की संस्कृति को फैलने का अवसर मिले | यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि - बर्नार्ड शॉ ने अपनी अस्वस्थ अवस्था में डाक्टरों की सलाह पर गो-मांस लेने की अस्वीकृति दी - जिससे कि बर्नार्ड शॉ को बचाया जा सकता था | सारे मित्रों ने विनोद किया लेकिन बर्नार्ड शॉ ने कहा : ' किसी प्राणी की मृत्यु से - मैं स्वयं मर जाना पसंद करूँगा | ' | ||
Line 138: | Line 144: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 10 - 11 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 10 - 11 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:… जीवन में एक गहरे आंतरिक स्त्रोत से व्यक्ति संबधित होता है – और अनंत शक्ति तथा आनंद के बोध से भर जाता है। वह संपूर्ण जगत की सत्ता से एक हो जाता है। तब फिर जगत में जो एक प्रभु की अभिव्यक्ति से सृजनात्मक बोध से भर जाता है – उससे ही जीवन में अहिंसा प्रगट होती है। | :… जीवन में एक गहरे आंतरिक स्त्रोत से व्यक्ति संबधित होता है – और अनंत शक्ति तथा आनंद के बोध से भर जाता है। वह संपूर्ण जगत की सत्ता से एक हो जाता है। तब फिर जगत में जो एक प्रभु की अभिव्यक्ति से सृजनात्मक बोध से भर जाता है – उससे ही जीवन में अहिंसा प्रगट होती है। | ||
Line 150: | Line 156: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 12 - 13 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 12 - 13 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:इन दिवसों में अनेक जन मिलन हेतु आए | बड़ा सुलभ होता है आचार्य श्री से मिलन | प्यास भी तो गहरी होती है -- आदमी की | उस प्यास को जब आदमी तृप्त होता पाता है - तो फिर गहरा आकर्षण उसका होता है | | :इन दिवसों में अनेक जन मिलन हेतु आए | बड़ा सुलभ होता है आचार्य श्री से मिलन | प्यास भी तो गहरी होती है -- आदमी की | उस प्यास को जब आदमी तृप्त होता पाता है - तो फिर गहरा आकर्षण उसका होता है | | ||
Line 166: | Line 172: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 14 - 15 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 14 - 15 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:श्री अचल जी पारख और उनके मित्र आ उपस्थित हैं | सारा जीवन क्रम निशा की गोद में खो आया है | दूर झिलमिल तारों का अपना सुंदर नृत्य हो रहा है | सब पूर्ण शांत और रात्रि की गहरी कालीमा में खो गया है | | :श्री अचल जी पारख और उनके मित्र आ उपस्थित हैं | सारा जीवन क्रम निशा की गोद में खो आया है | दूर झिलमिल तारों का अपना सुंदर नृत्य हो रहा है | सब पूर्ण शांत और रात्रि की गहरी कालीमा में खो गया है | | ||
Line 188: | Line 194: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 16 - 17 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 16 - 17 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:इस माह तो जो घटित हो रहा है, वह अपने में मौलिक, चिरंतन सत्य की धारा को व्यक्त करता हुआ, अपने में जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट और सख़्त भावों को व्यक्त करता हुआ है | ... न जाने कितने मूल्य जो मानव ने बनाए हैं - उनको पूरी तरह से भ्रम को तोड़ने की जो गहरी प्रक्रिया घटित हुई है - वह उल्लेखनीय रही | | :इस माह तो जो घटित हो रहा है, वह अपने में मौलिक, चिरंतन सत्य की धारा को व्यक्त करता हुआ, अपने में जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट और सख़्त भावों को व्यक्त करता हुआ है | ... न जाने कितने मूल्य जो मानव ने बनाए हैं - उनको पूरी तरह से भ्रम को तोड़ने की जो गहरी प्रक्रिया घटित हुई है - वह उल्लेखनीय रही | | ||
Line 202: | Line 208: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 18 - 19 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 18 - 19 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:उनकी गहरी नास्तिकता ही उन्हें प्रभु के शाश्वत जीवन में ले आई थी। एक-एक स्थान पर जाकर उन्होंने पूछा था: ‘प्रभु को देखा है?’ कोई उत्तर न मिलने पर उद्विग्न थे और जीवन के कोरेपन से भली भांति परिचित हो आये थे। पूछा था गहरी अंधेरी रातों में गंगा में कूदकर बजरा तोड़कर – महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से – पाया कि वहां भी झिझक थी और वापिस चले आये, बोले कि झिझक ने सारा उत्तर दे दिया। महर्षि की लिखने में कलम रुकती नहीं थी और न ही बोलने में वाणी रुकती थी, लेकिन उस दिवस न जाने क्या हुआ कि ‘झिझके’।... बाद उनका मिलना दक्षिणेश्वर के एक पागल पुजारी से हुआ, जिनकी गंध दूर-दूर तक फैल आई थी। मिलने पर उत्तर मिला: प्रभु को देखा है, तुम भी दर्शन करना चाहोगे तो करा दे सकता हूँ।‘ यह एक अद्भुत उत्तर था जिसे विवेकानंद ने पहले और कहीं नहीं पाया था। बाद रामकृष्ण देव से मिलकर उनकी समस्त नास्तिकता गिर गई। | :उनकी गहरी नास्तिकता ही उन्हें प्रभु के शाश्वत जीवन में ले आई थी। एक-एक स्थान पर जाकर उन्होंने पूछा था: ‘प्रभु को देखा है?’ कोई उत्तर न मिलने पर उद्विग्न थे और जीवन के कोरेपन से भली भांति परिचित हो आये थे। पूछा था गहरी अंधेरी रातों में गंगा में कूदकर बजरा तोड़कर – महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से – पाया कि वहां भी झिझक थी और वापिस चले आये, बोले कि झिझक ने सारा उत्तर दे दिया। महर्षि की लिखने में कलम रुकती नहीं थी और न ही बोलने में वाणी रुकती थी, लेकिन उस दिवस न जाने क्या हुआ कि ‘झिझके’।... बाद उनका मिलना दक्षिणेश्वर के एक पागल पुजारी से हुआ, जिनकी गंध दूर-दूर तक फैल आई थी। मिलने पर उत्तर मिला: प्रभु को देखा है, तुम भी दर्शन करना चाहोगे तो करा दे सकता हूँ।‘ यह एक अद्भुत उत्तर था जिसे विवेकानंद ने पहले और कहीं नहीं पाया था। बाद रामकृष्ण देव से मिलकर उनकी समस्त नास्तिकता गिर गई। | ||
Line 220: | Line 226: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 20 - 21 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 20 - 21 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:सकता है | इसमें प्रचलित पूजा - पाठ और प्रार्थना का - कोई स्थान नहीं है | जब व्यक्ति अपने में इतना समर्पित होता है कि उसका क्षुद्र ' मैं ' गिर जाता है तो वह विराट की सत्ता से एक हो आता है | इस क्षुद्र ' अहं ' का गिर जाना - भीतर परिपूर्ण विचारों से खाली हो जाना है | यह भक्ति योग है | | :सकता है | इसमें प्रचलित पूजा - पाठ और प्रार्थना का - कोई स्थान नहीं है | जब व्यक्ति अपने में इतना समर्पित होता है कि उसका क्षुद्र ' मैं ' गिर जाता है तो वह विराट की सत्ता से एक हो आता है | इस क्षुद्र ' अहं ' का गिर जाना - भीतर परिपूर्ण विचारों से खाली हो जाना है | यह भक्ति योग है | | ||
Line 238: | Line 244: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 22 - 23 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 22 - 23 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:उत्तर का क्या पूछना - बस अपने में अद्वितीय | उनकी एसी झलक देखने मे भी नहीं आती | एकदम जीवंत और सुवासित | सारा कुछ देखा हुआ और संपूर्ण कला में अभिव्यक्तिकरण - एक परिपूर्ण शान और दिव्यता को लिए हुए | प्यासा कभी भी तृप्त न हो - ऐसा कुछ अनोखा रस रहता है | सुना है 15 सालों से - और जो जाना है - वह तो बस शाश्वत निधि है | अनेक जीवन के उतार-चढ़ाव - पर भीतर चलते चलने का क्रम सदा एक़्सा | कभी-भी जीवन में कुछ भी तोड़ नहीं सका | | :उत्तर का क्या पूछना - बस अपने में अद्वितीय | उनकी एसी झलक देखने मे भी नहीं आती | एकदम जीवंत और सुवासित | सारा कुछ देखा हुआ और संपूर्ण कला में अभिव्यक्तिकरण - एक परिपूर्ण शान और दिव्यता को लिए हुए | प्यासा कभी भी तृप्त न हो - ऐसा कुछ अनोखा रस रहता है | सुना है 15 सालों से - और जो जाना है - वह तो बस शाश्वत निधि है | अनेक जीवन के उतार-चढ़ाव - पर भीतर चलते चलने का क्रम सदा एक़्सा | कभी-भी जीवन में कुछ भी तोड़ नहीं सका | | ||
Line 254: | Line 260: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 24 - 25 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 24 - 25 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:जीवन के अनेक भागों में - आचार्य श्री की दिव्य जीवन दृष्टि उपलब्ध हुई है | धर्म की वैज्ञानिक शोध से जो भी जगत को मिल रहा है - वह अद्भुत है और जीवन का प्रशस्त मार्ग है | श्री शर्मा (M.B.B.S.) और श्री अब्दुल अज़ीज - इस माह एक अजीब सी उलझन से गुज़रे | आप दोनों की पूर्व साधना थी और उससे उन्हें कुछ मिला था - शक्ति की प्राप्ति हुई थी | भाई अब्दुल के जीवन में तो इस तरह की घटनाएँ भी घटित हुई थीं - जिनसे कि अब्दुल जी को बड़ा विश्वास हो आया था कि जो कुछ उनके द्वारा बोला जाता है - वह पूरा होता है - एसी खुदा की उन पर कृपा है | | :जीवन के अनेक भागों में - आचार्य श्री की दिव्य जीवन दृष्टि उपलब्ध हुई है | धर्म की वैज्ञानिक शोध से जो भी जगत को मिल रहा है - वह अद्भुत है और जीवन का प्रशस्त मार्ग है | श्री शर्मा (M.B.B.S.) और श्री अब्दुल अज़ीज - इस माह एक अजीब सी उलझन से गुज़रे | आप दोनों की पूर्व साधना थी और उससे उन्हें कुछ मिला था - शक्ति की प्राप्ति हुई थी | भाई अब्दुल के जीवन में तो इस तरह की घटनाएँ भी घटित हुई थीं - जिनसे कि अब्दुल जी को बड़ा विश्वास हो आया था कि जो कुछ उनके द्वारा बोला जाता है - वह पूरा होता है - एसी खुदा की उन पर कृपा है | | ||
Line 270: | Line 276: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 26 - 27 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 26 - 27 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:लिए आवश्यक पद्धति का उपयोग मैं करता हूँ, जिससे आप पाते हैं कि आप ' न करने में हो आए हैं | ' इससे ' करना ' सब प्रयास जन्य है - और केवल मन के भीतर है -- जब सारे प्रयास छूट जाते हैं और अनायास पाया जाता है कि हम ‘ शून्य ‘ में हो आए हैं - वह वास्तव में अपने में हो आना है | जब सारे प्रयास छूट जाते है, मन परिपूर्ण शांत हो जाता है - उस अवस्था में जो अनुभूति होती है - वह ही केवल ' ईश्वर अनुभूति ' है | लेकिन मन हमें बीच ही उलझा लेता है और हमारे चित्त की एक अवस्था बने - इसके पूर्व अनेक बार तोड़ता है और उलझन खड़े करता है | इसे भी केवल जागरूक होकर देखना मात्र है - सब अपने से विसर्जित हो रहेगा और जीवन आनंद तथा शांति में हो आएगा | | :लिए आवश्यक पद्धति का उपयोग मैं करता हूँ, जिससे आप पाते हैं कि आप ' न करने में हो आए हैं | ' इससे ' करना ' सब प्रयास जन्य है - और केवल मन के भीतर है -- जब सारे प्रयास छूट जाते हैं और अनायास पाया जाता है कि हम ‘ शून्य ‘ में हो आए हैं - वह वास्तव में अपने में हो आना है | जब सारे प्रयास छूट जाते है, मन परिपूर्ण शांत हो जाता है - उस अवस्था में जो अनुभूति होती है - वह ही केवल ' ईश्वर अनुभूति ' है | लेकिन मन हमें बीच ही उलझा लेता है और हमारे चित्त की एक अवस्था बने - इसके पूर्व अनेक बार तोड़ता है और उलझन खड़े करता है | इसे भी केवल जागरूक होकर देखना मात्र है - सब अपने से विसर्जित हो रहेगा और जीवन आनंद तथा शांति में हो आएगा | | ||
Line 282: | Line 288: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 28 - 29 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 28 - 29 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:लिए है - इतने परिपूर्ण जागृत वातावरण में भी आदमी सोया रहे - उसे मूर्छा घेरे रहे तो जानना चाहिए कि मूर्छा की जड़ें गहरी हैं | जाना तो है - यह निश्चित है - क्योंकि बिना मूर्छा टूटे तो सारा कुछ स्वप्न है | यही स्वप्न दुहराता जाता है - मृगतृष्णा के समान सब केवल बहता जाता है -- इसी बहने में कभी आखरी सांस आती है और जीवन लीला टूट जाती है | ... | :लिए है - इतने परिपूर्ण जागृत वातावरण में भी आदमी सोया रहे - उसे मूर्छा घेरे रहे तो जानना चाहिए कि मूर्छा की जड़ें गहरी हैं | जाना तो है - यह निश्चित है - क्योंकि बिना मूर्छा टूटे तो सारा कुछ स्वप्न है | यही स्वप्न दुहराता जाता है - मृगतृष्णा के समान सब केवल बहता जाता है -- इसी बहने में कभी आखरी सांस आती है और जीवन लीला टूट जाती है | ... | ||
Line 296: | Line 302: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 30 - 31 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 30 - 31 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:जानना यह था कि सारा कुछ करने के बाद भी ' ब्रह्मचर्य ' उपलब्ध नहीं हुआ था | कहना था आचार्य श्री तुलसी का - किसी तरह ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाय साधुओं को, तो बड़ा काम होगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी हो जायगा | ' ध्यान योग ' पूर्ण विज्ञान है | यह भीतर उस शाश्वत सत्ता से व्यक्ति को संयुक्त कर देता है जिसके होने से सारा कुछ विसर्जित हो जाता है | प्रकाश होने से जैसे अंधेरा नहीं पाया जाता - वैसे ही आत्म-ज्ञान के होते ही सारी मूर्छा विसर्जित हो जाती है | | :जानना यह था कि सारा कुछ करने के बाद भी ' ब्रह्मचर्य ' उपलब्ध नहीं हुआ था | कहना था आचार्य श्री तुलसी का - किसी तरह ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाय साधुओं को, तो बड़ा काम होगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी हो जायगा | ' ध्यान योग ' पूर्ण विज्ञान है | यह भीतर उस शाश्वत सत्ता से व्यक्ति को संयुक्त कर देता है जिसके होने से सारा कुछ विसर्जित हो जाता है | प्रकाश होने से जैसे अंधेरा नहीं पाया जाता - वैसे ही आत्म-ज्ञान के होते ही सारी मूर्छा विसर्जित हो जाती है | | ||
Line 310: | Line 316: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 32 - 33 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 32 - 33 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:श्री मानव जी से एक प्रसंग में जो वार्ता हुई - वह इस प्रकार थी कि सारा कुछ उसमें समा आया था | मानव जी योगी अरविंद का साहित्य अध्ययन कर रहे हैं | इसमें आपने पाया होगा कि : सत्य - सत्य और असत्य दोनों के पार है | बात समझ में नहीं आई थी, इस कारण आचार्य श्री से पूछा | आचार्य श्री ने कहा : इसे मैं आपको शंकर ने जो उदाहरण दिया, उससे स्पष्ट करता हूँ | शंकर कहते हैं कि दूर कहीं रस्सी लटकी हो - और भूल से उसे साँप समझा जाता हो तो साँप का दिख पड़ना सत्य है लेकिन पास जाकर देखे जाने पर भ्रम टूट जाता है और साँप का दिखना असत्य हो जाता है | इससे ही सत्य जो दिखता वह असत्य हो सकता है और इसे आप अब व्यक्त करें तो स्पष्ट होगा कि सत्य, सत्य और असत्य दोनों के पार है | (क्योंकि सत्य तो यह है कि वह एक रस्सी है ) | :श्री मानव जी से एक प्रसंग में जो वार्ता हुई - वह इस प्रकार थी कि सारा कुछ उसमें समा आया था | मानव जी योगी अरविंद का साहित्य अध्ययन कर रहे हैं | इसमें आपने पाया होगा कि : सत्य - सत्य और असत्य दोनों के पार है | बात समझ में नहीं आई थी, इस कारण आचार्य श्री से पूछा | आचार्य श्री ने कहा : इसे मैं आपको शंकर ने जो उदाहरण दिया, उससे स्पष्ट करता हूँ | शंकर कहते हैं कि दूर कहीं रस्सी लटकी हो - और भूल से उसे साँप समझा जाता हो तो साँप का दिख पड़ना सत्य है लेकिन पास जाकर देखे जाने पर भ्रम टूट जाता है और साँप का दिखना असत्य हो जाता है | इससे ही सत्य जो दिखता वह असत्य हो सकता है और इसे आप अब व्यक्त करें तो स्पष्ट होगा कि सत्य, सत्य और असत्य दोनों के पार है | (क्योंकि सत्य तो यह है कि वह एक रस्सी है ) | ||
Line 322: | Line 328: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 34 - 35 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 34 - 35 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:चर्चा का दैनिक क्रम टूटकर - मेरे लिखने में अब यह एक स्मृति का अंश भर रह गया है | सब दिनों के बीच जो भी होता चलता है -उसे अवकाश के समय अपने में पूर्ण रूप में खोकर लिख डालता हूँ | पर लिखना स्मृति का अंश भर होता है - इसमें भाषा तो मेरी होती है ही - पर वाक्य रचना भी मेरी ही है | इस कारण इतना कम आचार्य श्री का अभिव्यक्त हो पाता है कि डर होता है और मन कभी-कभी रोकता है | पर यह जानकर कि थोड़ा बहुत भी स्मृति के आधार पर और अपनी भाषा में भी लिखा गया तो उसके परिणाम अदभुत आने को हैं | क्योंकि आचार्य श्री की चर्चा पूर्णतः वैज्ञानिक है | उसमें शब्दों और कल्पनाओं का खेल नहीं है - सीधा विज्ञान है, ठीक जान लेने पर फिर अभिव्यक्ति का उतना बड़ा प्रभाव नहीं होता है जितना जो लिख लेने का | | :चर्चा का दैनिक क्रम टूटकर - मेरे लिखने में अब यह एक स्मृति का अंश भर रह गया है | सब दिनों के बीच जो भी होता चलता है -उसे अवकाश के समय अपने में पूर्ण रूप में खोकर लिख डालता हूँ | पर लिखना स्मृति का अंश भर होता है - इसमें भाषा तो मेरी होती है ही - पर वाक्य रचना भी मेरी ही है | इस कारण इतना कम आचार्य श्री का अभिव्यक्त हो पाता है कि डर होता है और मन कभी-कभी रोकता है | पर यह जानकर कि थोड़ा बहुत भी स्मृति के आधार पर और अपनी भाषा में भी लिखा गया तो उसके परिणाम अदभुत आने को हैं | क्योंकि आचार्य श्री की चर्चा पूर्णतः वैज्ञानिक है | उसमें शब्दों और कल्पनाओं का खेल नहीं है - सीधा विज्ञान है, ठीक जान लेने पर फिर अभिव्यक्ति का उतना बड़ा प्रभाव नहीं होता है जितना जो लिख लेने का | | ||
Line 335: | Line 341: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 36 - 37 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 36 - 37 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
: जाती है – जिसमें कहीं वैज्ञानिक सत्य नहीं *(होता)। और जो भी वैज्ञानिक सत्य नहीं है – उस *(पर) श्रद्धा कभी हो सकती है तो कभी भी, *(श्रद्धा) टूटकर अश्रद्धा में परिणित हो सकती है। *(क्योंकि) श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों ही मन के दो *(विरोधी) स्तर हैं – और दुविधा है – मेरा *(जानना) है – जहाँ भी विरोध है – दुविधा है – वहीं मन है। इससे मैं, मन से तो कहीं पहुंचने को कहता ही नहीं हूँ। केवल वैज्ञानिक *(पद्धति) है, ‘ध्यान योग’ की – करने पर जो *(दीखेगा) वह अनुभुति अपने में होगी। इस एकात्म बोध में कहीं भी कोई उपेक्षा नहीं है। बाद फिर जो श्रद्धा आए वह अपेक्षा *(में) नहीं होगी – वह बस अपने में होगी। यह श्रद्धा कुछ पाने के पूर्व की नहीं - वरन जो जाना गया है – उसके बाद की होगी – अपने में पूर्ण होगी।.... | : जाती है – जिसमें कहीं वैज्ञानिक सत्य नहीं *(होता)। और जो भी वैज्ञानिक सत्य नहीं है – उस *(पर) श्रद्धा कभी हो सकती है तो कभी भी, *(श्रद्धा) टूटकर अश्रद्धा में परिणित हो सकती है। *(क्योंकि) श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों ही मन के दो *(विरोधी) स्तर हैं – और दुविधा है – मेरा *(जानना) है – जहाँ भी विरोध है – दुविधा है – वहीं मन है। इससे मैं, मन से तो कहीं पहुंचने को कहता ही नहीं हूँ। केवल वैज्ञानिक *(पद्धति) है, ‘ध्यान योग’ की – करने पर जो *(दीखेगा) वह अनुभुति अपने में होगी। इस एकात्म बोध में कहीं भी कोई उपेक्षा नहीं है। बाद फिर जो श्रद्धा आए वह अपेक्षा *(में) नहीं होगी – वह बस अपने में होगी। यह श्रद्धा कुछ पाने के पूर्व की नहीं - वरन जो जाना गया है – उसके बाद की होगी – अपने में पूर्ण होगी।.... | ||
Line 348: | Line 354: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 38 - 39 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 38 - 39 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:देखता हूँ – सारा कुछ मिट जाता है – कुछ भी *(रहता) नहीं है। आदमी इस अपेक्षा में जिए जाता *(है कि) वह महत्व के लिए जी रहा है और उसके बड़े म्हत्व के कार्य संपन्न हो रहे हैं। *(यह भ्रम) उसका चलता जाता है और जीवन के *(अंत) तक बना रहता है। कहीं टूटता है तो *(भी) फिर समझा देता है। ऐसा कुछ जगत का क्रम *(–) वह अपनी लीला को बनाए रखता है – ऐसी जीवन की विविधता है। आदमी की बुद्धि ही कितनी है – वह तो अपने को थोड़े से में ही तुष्ट (किया) करता है – और सारे खेल के बीच अपने (को) एक पात्र समझे रहता है। जैसे: कठपुतलियाँ नाचती हैं और नचाता कोई और है, ऐसे ही आदमी नाचता रहता है – संसार की इस (लीला) में। वह सिर फांस लेता है और जैसा भाग्य चक्र चलाता है – वह चलता जाता है। (कहीं) मुक्ति का पथ मिलता है तो मुंह फिर जाता (है) | :देखता हूँ – सारा कुछ मिट जाता है – कुछ भी *(रहता) नहीं है। आदमी इस अपेक्षा में जिए जाता *(है कि) वह महत्व के लिए जी रहा है और उसके बड़े म्हत्व के कार्य संपन्न हो रहे हैं। *(यह भ्रम) उसका चलता जाता है और जीवन के *(अंत) तक बना रहता है। कहीं टूटता है तो *(भी) फिर समझा देता है। ऐसा कुछ जगत का क्रम *(–) वह अपनी लीला को बनाए रखता है – ऐसी जीवन की विविधता है। आदमी की बुद्धि ही कितनी है – वह तो अपने को थोड़े से में ही तुष्ट (किया) करता है – और सारे खेल के बीच अपने (को) एक पात्र समझे रहता है। जैसे: कठपुतलियाँ नाचती हैं और नचाता कोई और है, ऐसे ही आदमी नाचता रहता है – संसार की इस (लीला) में। वह सिर फांस लेता है और जैसा भाग्य चक्र चलाता है – वह चलता जाता है। (कहीं) मुक्ति का पथ मिलता है तो मुंह फिर जाता (है) | ||
Line 359: | Line 365: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 40 - 41 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 40 - 41 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:कुछ भी करके, कहके – कुछ किया नहीं जा सकता है। केवल जो मिला है – उसी को भर पूर्ण करके अपने में मुक्त हो आया जा सकता है। बस यह मुक्ति देना, जैसे – पूज्य बड़े भैया - एक शाश्व्त विज्ञान है – शेष अब आदमी *(पर) निर्भर है कि मिल जाने पर भी वह अपनी *(अंधी) राहों पर चलता रहे। इससे एक ओर से तो केवल महान् जीवन-मुक्ति विज्ञान का शाश्वत पथ निर्देशन है – बिना किसी अपेक्षा के – क्योंकि जानना रहा है मुक्त चेतनाओं का – ‘क्या दे सकते हो - जिसे मैं ले सकूँ और मैं दे क्या सकता हूँ – जिसे तुम ले सको।’ कोई देना-लेना किसी को संभव नहीं है। प्रत्येक को स्वयँ अपनी मुक्ति राह पर चलना होता है। | :कुछ भी करके, कहके – कुछ किया नहीं जा सकता है। केवल जो मिला है – उसी को भर पूर्ण करके अपने में मुक्त हो आया जा सकता है। बस यह मुक्ति देना, जैसे – पूज्य बड़े भैया - एक शाश्व्त विज्ञान है – शेष अब आदमी *(पर) निर्भर है कि मिल जाने पर भी वह अपनी *(अंधी) राहों पर चलता रहे। इससे एक ओर से तो केवल महान् जीवन-मुक्ति विज्ञान का शाश्वत पथ निर्देशन है – बिना किसी अपेक्षा के – क्योंकि जानना रहा है मुक्त चेतनाओं का – ‘क्या दे सकते हो - जिसे मैं ले सकूँ और मैं दे क्या सकता हूँ – जिसे तुम ले सको।’ कोई देना-लेना किसी को संभव नहीं है। प्रत्येक को स्वयँ अपनी मुक्ति राह पर चलना होता है। | ||
Line 374: | Line 380: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 42 - 43 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 42 - 43 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:[चर्चा प्रसंगों का समय: जनवरी और फरवरी माह, ‘६३] | :[चर्चा प्रसंगों का समय: जनवरी और फरवरी माह, ‘६३] | ||
Line 389: | Line 395: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 44 - 45 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 44 - 45 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:और शांति में होकर चेतना की अनन्त गहाराई में हो आए – और जीवन – मुक्त हो रहे – केवल इसका भर विज्ञान, धर्म है। कोई धर्म इसके विरोध में यदि कुछ कहे – तो जानना है कि, वह भ्रांत है। मेरा जानना है कि अनेक लोग बातें करेंगे – और उनको कोई ज्ञान – जीवन की भीतरी गहराईयों का न होने से – केवल बात निष्प्राण हो जाती है और जगह-जगह उसमें निष्प्राणता स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह मुक्ति का पथ – प्रत्येक धर्म ने निर्देशित किया है – और जो भी उस पथ पर चला है – उसने अनन्तता उपलब्ध की है और चेतना के जगत में समृद्ध हो आया है। सारे धर्मों में जागृत चेतनायें हुई हैं – और जीवन के केंद्र से संयुक्त होकर – पुन: पुन: मानव जीवन को ज्योति प्रदान की है। अभी हमारे युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव हुये। उन्होंने सारे धर्मों पर चलके पाया कि – पहुंचना तो केंद्र पर ही हो जाता है। कहा उन्होंने ‘मेरे प्रभु की छत तक आगे के अनेक मार्ग हैं – कोई कहीं से चले – पहुंचना वहीं हो जाता है।‘ अब यह बात और है कि कोई ठीक पद्धति का उपयोग न करे और व्यर्थ की दौड़ में उलझा रहे और फिर कहे मेरी साधना में कमी थी – तो भ्रम | :और शांति में होकर चेतना की अनन्त गहाराई में हो आए – और जीवन – मुक्त हो रहे – केवल इसका भर विज्ञान, धर्म है। कोई धर्म इसके विरोध में यदि कुछ कहे – तो जानना है कि, वह भ्रांत है। मेरा जानना है कि अनेक लोग बातें करेंगे – और उनको कोई ज्ञान – जीवन की भीतरी गहराईयों का न होने से – केवल बात निष्प्राण हो जाती है और जगह-जगह उसमें निष्प्राणता स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह मुक्ति का पथ – प्रत्येक धर्म ने निर्देशित किया है – और जो भी उस पथ पर चला है – उसने अनन्तता उपलब्ध की है और चेतना के जगत में समृद्ध हो आया है। सारे धर्मों में जागृत चेतनायें हुई हैं – और जीवन के केंद्र से संयुक्त होकर – पुन: पुन: मानव जीवन को ज्योति प्रदान की है। अभी हमारे युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव हुये। उन्होंने सारे धर्मों पर चलके पाया कि – पहुंचना तो केंद्र पर ही हो जाता है। कहा उन्होंने ‘मेरे प्रभु की छत तक आगे के अनेक मार्ग हैं – कोई कहीं से चले – पहुंचना वहीं हो जाता है।‘ अब यह बात और है कि कोई ठीक पद्धति का उपयोग न करे और व्यर्थ की दौड़ में उलझा रहे और फिर कहे मेरी साधना में कमी थी – तो भ्रम | ||
Line 400: | Line 406: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 46 - 47 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 46 - 47 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:आचार्य श्री का कहना है कि सारे धर्मों में एक ही सत्य अभिव्यक्ता हुआ है – इस पर एक युवक ने पूछा: ‘हिंदू परंपरा आवागमन मानती है, लेकिन इस्लाम में केवल एक ही जन्म स्वीकार किया है –इसमें सत्य कैसे एक हो सकता है?’ आचार्य श्री ने कहा: उपर से देखने में ये दोनों बातें विरोधी दीखती हैं – लेकिन इनसे एक ही सत्य अभिव्यक्त हुआ है। जब इस्लाम केवल एक ही जीवन को मानता – तो वह कह रहा है कि समय तो ठोड़ा ही शेष है – इसी में तुम्हे – अल्लाह को पाना है – समय गया कि सारा कुछ समाप्त है। इससे एक घबड़ाहट में होकर व्यक्ति – प्रभु उपलब्धि की ओर चलता है। हिंदू परंपरा में एक लम्बा जीवन का क्रम सामने रखा गया है – और इस जीवन के क्रम में – जन्म, जरा, मरण का दुख ही दुख है – तो स्वभाविक घबड़ाहट; व्यक्ति को प्रभु उपलब्धि की ओर मोड़ती है। | :आचार्य श्री का कहना है कि सारे धर्मों में एक ही सत्य अभिव्यक्ता हुआ है – इस पर एक युवक ने पूछा: ‘हिंदू परंपरा आवागमन मानती है, लेकिन इस्लाम में केवल एक ही जन्म स्वीकार किया है –इसमें सत्य कैसे एक हो सकता है?’ आचार्य श्री ने कहा: उपर से देखने में ये दोनों बातें विरोधी दीखती हैं – लेकिन इनसे एक ही सत्य अभिव्यक्त हुआ है। जब इस्लाम केवल एक ही जीवन को मानता – तो वह कह रहा है कि समय तो ठोड़ा ही शेष है – इसी में तुम्हे – अल्लाह को पाना है – समय गया कि सारा कुछ समाप्त है। इससे एक घबड़ाहट में होकर व्यक्ति – प्रभु उपलब्धि की ओर चलता है। हिंदू परंपरा में एक लम्बा जीवन का क्रम सामने रखा गया है – और इस जीवन के क्रम में – जन्म, जरा, मरण का दुख ही दुख है – तो स्वभाविक घबड़ाहट; व्यक्ति को प्रभु उपलब्धि की ओर मोड़ती है। | ||
Line 411: | Line 417: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 48 - 49 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 48 - 49 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:भीतर झांक कर भी नहीं देखता है। इसमें उसे बड़ा भय होता है - क्योंकि सारा कुछ विकृत उभर आता है – इससे अपने को छिपाये हुये चलता रहता है। कहीं भी देखने का अवसर आता है तो किनारा कर लेता है। यह भ्रम जीवन के अन्त तक बना रहता है – लेकिन आदमी इसी भ्रम में जीने में आनंद मानता है। ठीक से अपने भीतर के अज्ञान को देख लेना – ‘आत्म-ज्ञान’ के उदय का कारण बन जाता है। व्यक्ति जैसे ही अपने से ठीक से परिचय पाना शुरु करता है कि वह एक गहरे अज्ञान के बोध से भर जाता है। वह पाता है कि वह तो अपने से पूर्णत: अपरिचित है। इसी से उसमें अपने प्रति ज्ञान से भर आने की प्यास प्रारंभ होती है – जो उसे अपने से ‘स्व-बोध’ से परिचित कराती है। गहरी उत्पीड़न, गहरा दुख ही आदमी को गहरे आनन्द और परम शांति की राह पर ले आता है। | :भीतर झांक कर भी नहीं देखता है। इसमें उसे बड़ा भय होता है - क्योंकि सारा कुछ विकृत उभर आता है – इससे अपने को छिपाये हुये चलता रहता है। कहीं भी देखने का अवसर आता है तो किनारा कर लेता है। यह भ्रम जीवन के अन्त तक बना रहता है – लेकिन आदमी इसी भ्रम में जीने में आनंद मानता है। ठीक से अपने भीतर के अज्ञान को देख लेना – ‘आत्म-ज्ञान’ के उदय का कारण बन जाता है। व्यक्ति जैसे ही अपने से ठीक से परिचय पाना शुरु करता है कि वह एक गहरे अज्ञान के बोध से भर जाता है। वह पाता है कि वह तो अपने से पूर्णत: अपरिचित है। इसी से उसमें अपने प्रति ज्ञान से भर आने की प्यास प्रारंभ होती है – जो उसे अपने से ‘स्व-बोध’ से परिचित कराती है। गहरी उत्पीड़न, गहरा दुख ही आदमी को गहरे आनन्द और परम शांति की राह पर ले आता है। | ||
Line 424: | Line 430: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 50 - 51 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 50 - 51 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:<u>जनवरी – मार्च, ६३ के पावन प्रसंग:</u> | :<u>जनवरी – मार्च, ६३ के पावन प्रसंग:</u> | ||
Line 444: | Line 450: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 52 - 53 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 52 - 53 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:आये। एक साधु ने कहा: ये सब तो परम्परायें हैं। | :आये। एक साधु ने कहा: ये सब तो परम्परायें हैं। | ||
Line 462: | Line 468: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 54 - 55 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 54 - 55 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:व्यक्ति – आनन्द, शांति में प्रतिष्ठित होकर – अपने में पूरा हो आता है और उसकी भटकन मीट जाती है। | :व्यक्ति – आनन्द, शांति में प्रतिष्ठित होकर – अपने में पूरा हो आता है और उसकी भटकन मीट जाती है। | ||
Line 477: | Line 483: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 56 - 57 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 56 - 57 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:अब यह जीवन दृष्टिकोण है – जिसमें हम अभाव की ओर देखते हैं – जो हो गया या मिल गया है, उसकी ओर से विमुख हो जाते हैं। इससे हमेशा दुख बना रहता है और भीतर खिंचाव चलता रहता है। जो भी जिसके पास है, उसे न देख जो उसके पास अभाव है – उसे देख कर हमेशा दुख उठाता रहता है। इससे मेरा जानना और देखना है कि सुलभता में मिल गया – बिना मूल्य दिए – व्यक्ति की दृष्टि में उसका महत्व ही नहीं हो पाता है। यह बड़े-बड़े लोगों के साथ है। जिन्हें हम विवेकवान और समझदार मानते हैं।...... | :अब यह जीवन दृष्टिकोण है – जिसमें हम अभाव की ओर देखते हैं – जो हो गया या मिल गया है, उसकी ओर से विमुख हो जाते हैं। इससे हमेशा दुख बना रहता है और भीतर खिंचाव चलता रहता है। जो भी जिसके पास है, उसे न देख जो उसके पास अभाव है – उसे देख कर हमेशा दुख उठाता रहता है। इससे मेरा जानना और देखना है कि सुलभता में मिल गया – बिना मूल्य दिए – व्यक्ति की दृष्टि में उसका महत्व ही नहीं हो पाता है। यह बड़े-बड़े लोगों के साथ है। जिन्हें हम विवेकवान और समझदार मानते हैं।...... | ||
Line 490: | Line 496: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 58 - 59 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 58 - 59 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
: हुआ – उसे सीढ़ी बना – व्यक्ति मंजिल पर पहुँच जाता है। यह तो सामान्य तथ्य है। सामान्य जीवन के संबंध में भी लागू होता है। फिर मन तो सूक्ष्म है। उसमें थोड़ा परिवर्तन भी बड़ी बात है। देखता हूँ करोड़ों जीवन पूर्ण यांत्रिक क्रम में समाप्त हो आते हैं और कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। इससे यह तो बहुत बड़ा मनुष्य का सौभाग्य है, कि वह जीवन – मुक्ति पथ पर अपने को सक्षम पाता है और सुलभतम ध्यान के प्रयोग के माध्यम से जीवन में अनंतता में हो आता है।... | : हुआ – उसे सीढ़ी बना – व्यक्ति मंजिल पर पहुँच जाता है। यह तो सामान्य तथ्य है। सामान्य जीवन के संबंध में भी लागू होता है। फिर मन तो सूक्ष्म है। उसमें थोड़ा परिवर्तन भी बड़ी बात है। देखता हूँ करोड़ों जीवन पूर्ण यांत्रिक क्रम में समाप्त हो आते हैं और कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। इससे यह तो बहुत बड़ा मनुष्य का सौभाग्य है, कि वह जीवन – मुक्ति पथ पर अपने को सक्षम पाता है और सुलभतम ध्यान के प्रयोग के माध्यम से जीवन में अनंतता में हो आता है।... | ||
Line 504: | Line 510: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 60 - 61 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 60 - 61 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
: अनुभूति पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति – तो एक गहरा द्वन्द मानस-पटल पर छोड़ता है। क्योंकि व्यक्ति तो बहुत बाह्य रूप से अपने को चलाता है, उससे तृप्त वह भी नहीं है, पर अपने अंत: को भी जानना नहीं चाहता है। लेकिन जब कोई पथ-दृष्टा भीतर का जो भी है उसे व्यक्त करता है, तो उसे बहुत बाह्य अर्थों में गलत, वह जरूर करना चाहता है, लेकिन पूर्णत: विवेक उसका सहयोग करता है और उसे वह आंतरिक रूप से ठीक लगता है। यह प्रारंभिक वर्णन केवल इस कारण कि, अचार्य श्री का बोला जाना यहाँ पर इसी अर्थ को लेकर प्रगट हुआ। | : अनुभूति पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति – तो एक गहरा द्वन्द मानस-पटल पर छोड़ता है। क्योंकि व्यक्ति तो बहुत बाह्य रूप से अपने को चलाता है, उससे तृप्त वह भी नहीं है, पर अपने अंत: को भी जानना नहीं चाहता है। लेकिन जब कोई पथ-दृष्टा भीतर का जो भी है उसे व्यक्त करता है, तो उसे बहुत बाह्य अर्थों में गलत, वह जरूर करना चाहता है, लेकिन पूर्णत: विवेक उसका सहयोग करता है और उसे वह आंतरिक रूप से ठीक लगता है। यह प्रारंभिक वर्णन केवल इस कारण कि, अचार्य श्री का बोला जाना यहाँ पर इसी अर्थ को लेकर प्रगट हुआ। | ||
Line 525: | Line 531: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 62 - 63 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 62 - 63 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:है। भारत में इसके परिणाम स्पष्टत: हुये हैं – मेरा देखना है कि पहले जाना जाता है – ‘जो भी है’ – उसे जानना पूर्व में होता है – बाद तो अपने से श्रद्धा आती है। यह ठीक दृष्टिकोण है जिससे धर्म विज्ञान में प्रतिष्ठित होता है – और ठीक रास्ते मानव-जीवन के सामने आते हैं। | :है। भारत में इसके परिणाम स्पष्टत: हुये हैं – मेरा देखना है कि पहले जाना जाता है – ‘जो भी है’ – उसे जानना पूर्व में होता है – बाद तो अपने से श्रद्धा आती है। यह ठीक दृष्टिकोण है जिससे धर्म विज्ञान में प्रतिष्ठित होता है – और ठीक रास्ते मानव-जीवन के सामने आते हैं। | ||
Line 543: | Line 549: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 64 - 65 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 64 - 65 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:होती है – और वापिस आने पर व्यक्ति ठीक वैसी ही बातें करता है – जो भक्त गण और मस्ती के बाद लोग करते हैं। ठीक से जानें – तो हमारी प्रार्थनाओं में कहे गये शब्द भी एक भूल जाने का सुख देते हैं। पुरानी अरबी, प्राकृत, संस्कृत भाषा के मंत्र और ध्वनि से भी व्यक्ति आत्म-विस्मरण में खोता है – और वापिस लौटने पर सामान्य दुख अनुभव करता है। इससे खोकर – दुख का विस्मरण करके – दुख से मुक्ति नहीं मिलती है – वह ज्यों का त्यों बना होता है – केवल हम थोड़ी देर को खोकर भूल जाते हैं – इस भूलने के पीछे हमारी श्रद्धा कार्य करती है – और कभी व्यक्ति को वैज्ञानिक विश्लेषण करने का अवसर नहीं मिलता है। इससे सामान्यत: व्यक्ति असहमत हो सकता है – क्योंकि ये सारी बातें लोक-मानस में बहुत दिन से बैठी हैं – लेकिन ठीक वैज्ञानिक-साधना के दृष्टिकोण से और जीवन में उदात्त अवस्था में हो आने के दृष्टिकोण से तो बात स्पष्ट हो जाती है। | :होती है – और वापिस आने पर व्यक्ति ठीक वैसी ही बातें करता है – जो भक्त गण और मस्ती के बाद लोग करते हैं। ठीक से जानें – तो हमारी प्रार्थनाओं में कहे गये शब्द भी एक भूल जाने का सुख देते हैं। पुरानी अरबी, प्राकृत, संस्कृत भाषा के मंत्र और ध्वनि से भी व्यक्ति आत्म-विस्मरण में खोता है – और वापिस लौटने पर सामान्य दुख अनुभव करता है। इससे खोकर – दुख का विस्मरण करके – दुख से मुक्ति नहीं मिलती है – वह ज्यों का त्यों बना होता है – केवल हम थोड़ी देर को खोकर भूल जाते हैं – इस भूलने के पीछे हमारी श्रद्धा कार्य करती है – और कभी व्यक्ति को वैज्ञानिक विश्लेषण करने का अवसर नहीं मिलता है। इससे सामान्यत: व्यक्ति असहमत हो सकता है – क्योंकि ये सारी बातें लोक-मानस में बहुत दिन से बैठी हैं – लेकिन ठीक वैज्ञानिक-साधना के दृष्टिकोण से और जीवन में उदात्त अवस्था में हो आने के दृष्टिकोण से तो बात स्पष्ट हो जाती है। | ||
Line 558: | Line 564: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 66 - 67 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 66 - 67 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:व्यर्थ पागल बनेंगे। ठीक ऐसे ही – मन से लड़ना नहीं होता। प्रकाश लाना होता है – कि अंधेरा पाया नहीं जाता। व्यक्ति को भी मन के विसर्जन के लिए कुछ करना नहीं है – केवल ‘ध्यान का दिया’ जलाना होता है। यह ‘ध्यान’ एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता में तो विचार है। फिर, ध्यान क्या है? ध्यान, समस्त विचारों के पार हो आना है। यह कैसे हो – इसके लिए ‘सम्यक जागरूकता’ मार्ग है। हर क्षण जो भी घट रहा है – उसके प्रति मात्र साक्षी हो जाना – विचारों से व्यक्ति को पृथक कर देता है। इस स्थिति में जो अनुभूत होता है – वह सत्य होता है। वहाँ आत्म-विस्मरण नहीं होता, परिपूर्ण आत्म-जागरूकता होती है। न वहाँ कोई – कल्पित तथ्य (पूर्व धारणायें) साकार होकर – प्रक्षेपित (Mental Projection) होती हैं। शुद्ध ज्ञान की अनुभूति मात्र होती है। इसमें हो आने पर ही व्यक्ति की चरम सार्थकता | :व्यर्थ पागल बनेंगे। ठीक ऐसे ही – मन से लड़ना नहीं होता। प्रकाश लाना होता है – कि अंधेरा पाया नहीं जाता। व्यक्ति को भी मन के विसर्जन के लिए कुछ करना नहीं है – केवल ‘ध्यान का दिया’ जलाना होता है। यह ‘ध्यान’ एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता में तो विचार है। फिर, ध्यान क्या है? ध्यान, समस्त विचारों के पार हो आना है। यह कैसे हो – इसके लिए ‘सम्यक जागरूकता’ मार्ग है। हर क्षण जो भी घट रहा है – उसके प्रति मात्र साक्षी हो जाना – विचारों से व्यक्ति को पृथक कर देता है। इस स्थिति में जो अनुभूत होता है – वह सत्य होता है। वहाँ आत्म-विस्मरण नहीं होता, परिपूर्ण आत्म-जागरूकता होती है। न वहाँ कोई – कल्पित तथ्य (पूर्व धारणायें) साकार होकर – प्रक्षेपित (Mental Projection) होती हैं। शुद्ध ज्ञान की अनुभूति मात्र होती है। इसमें हो आने पर ही व्यक्ति की चरम सार्थकता | ||
Line 571: | Line 577: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 68 - 69 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 68 - 69 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:जीवन को निखारकर परिपूर्ण करने वाले जीवन-प्रसंग आचार्य श्री के निकट हमेशा अभिव्यक्त होते हैं। सृजन की गंगा हमेशा बहती है। इसमें कूदकर सृजन में हो आने वाला चाहिए। | :जीवन को निखारकर परिपूर्ण करने वाले जीवन-प्रसंग आचार्य श्री के निकट हमेशा अभिव्यक्त होते हैं। सृजन की गंगा हमेशा बहती है। इसमें कूदकर सृजन में हो आने वाला चाहिए। | ||
Line 590: | Line 596: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 70 - 71 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 70 - 71 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
: कल सोचकर उत्तर दूँगा। जिसने गाली दी होती – वह कहता: आप ना-समझ मालूम होते हैं, अरे, मैंने तो गाली दी है – क्या उसका उत्तर भी सोचकर देना होगा – उसमें तो भारी भूल है। | : कल सोचकर उत्तर दूँगा। जिसने गाली दी होती – वह कहता: आप ना-समझ मालूम होते हैं, अरे, मैंने तो गाली दी है – क्या उसका उत्तर भी सोचकर देना होगा – उसमें तो भारी भूल है। | ||
Line 605: | Line 611: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 72 - 73 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 72 - 73 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
:ही बात प्राण-मन में थी कि: बस, एक सांस हवा मिल जाये। साधु बोला: ठीक, मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था – जब ऐसी ही प्यास भीतर से उठ आये – तो प्रभु तो जो निरंतर है – उसमें व्यक्ति हो आता है।...... | :ही बात प्राण-मन में थी कि: बस, एक सांस हवा मिल जाये। साधु बोला: ठीक, मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था – जब ऐसी ही प्यास भीतर से उठ आये – तो प्रभु तो जो निरंतर है – उसमें व्यक्ति हो आता है।...... | ||
Line 618: | Line 624: | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 072 - 073.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 072 - 073.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 74 - 75 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 74 - 75 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 074 - 075.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 074 - 075.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 76 - 77 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 76 - 77 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 076 - 077.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 076 - 077.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 78 - 79 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 78 - 79 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 078 - 079.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 078 - 079.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 80 - 81 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 80 - 81 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 080 - 081.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 080 - 081.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 82 - 83 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 82 - 83 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 082 - 083.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 082 - 083.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 84 - 85 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 84 - 85 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 084 - 085.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 084 - 085.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 86 - 87 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 86 - 87 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 086 - 087.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 086 - 087.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 88 - 89 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 88 - 89 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 088 - 089.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 088 - 089.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 90 - 91 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 90 - 91 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 090 - 091.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 090 - 091.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 92 - 93 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 92 - 93 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 092 - 093.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 092 - 093.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 94 - 95 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 94 - 95 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 094 - 095.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 094 - 095.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 96 - 97 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 96 - 97 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 096 - 097.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 096 - 097.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 98 - 99 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 98 - 99 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 098 - 099.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 098 - 099.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 100 - 101 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 100 - 101 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 100 - 101.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 100 - 101.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 102 - 103 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 102 - 103 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 102 - 103.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 102 - 103.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 104 - 105 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 104 - 105 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 104 - 105.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 104 - 105.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 106 - 107 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 106 - 107 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 106 - 107.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 106 - 107.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 108 - 109 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 108 - 109 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 108 - 109.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 108 - 109.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 110 - 111 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 110 - 111 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 110 - 111.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 110 - 111.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 112 - 113 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 112 - 113 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 112 - 113.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 112 - 113.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 114 - 115 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 114 - 115 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 114 - 115.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 114 - 115.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 116 - 117 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 116 - 117 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 116 - 117.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 116 - 117.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 118 - 119 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 118 - 119 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 118 - 119.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 118 - 119.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 120 - 121 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 120 - 121 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 120 - 121.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 120 - 121.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 122 - 123 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 122 - 123 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 122 - 123.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 122 - 123.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 124 - 125 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 124 - 125 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 124 - 125.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 124 - 125.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 126 - 127 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 126 - 127 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 126 - 127.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 126 - 127.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 128 - 129 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 128 - 129 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 128 - 129.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 128 - 129.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 130 - 131 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 130 - 131 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 130 - 131.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 130 - 131.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 132 - 133 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 132 - 133 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 132 - 133.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 132 - 133.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 134 - 135 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 134 - 135 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 134 - 135.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 134 - 135.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 136 - 137 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 136 - 137 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 136 - 137.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 136 - 137.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 138 - 139 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 138 - 139 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 138 - 139.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 138 - 139.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 140 - 141 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 140 - 141 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 140 - 141.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 140 - 141.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 142 - 143 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 142 - 143 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 142 - 143.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 142 - 143.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 144 - 145 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 144 - 145 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 144 - 145.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 144 - 145.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 146 - 147 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 146 - 147 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 146 - 147.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 146 - 147.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 148 - 149 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 148 - 149 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 148 - 149.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 148 - 149.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 150 - 151 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 150 - 151 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 150 - 151.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 150 - 151.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 152 - 153 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 152 - 153 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 152 - 153.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 152 - 153.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 154 - 155 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 154 - 155 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 154 - 155.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 154 - 155.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 156 - 157 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 156 - 157 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 156 - 157.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 156 - 157.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 158 - 159 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 158 - 159 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 158 - 159.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 158 - 159.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 160 - 161 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 160 - 161 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 160 - 161.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 160 - 161.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 162 - 163 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 162 - 163 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 162 - 163.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 162 - 163.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 164 - 165 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 164 - 165 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 164 - 165.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 164 - 165.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 166 - 167 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 166 - 167 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 166 - 167.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 166 - 167.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 168 - 169 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 168 - 169 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 168 - 169.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 168 - 169.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 170 - 171 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 170 - 171 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 170 - 171.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 170 - 171.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 172 - 173 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 172 - 173 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 172 - 173.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 172 - 173.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 174 - 175 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 174 - 175 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 174 - 175.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 174 - 175.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 176 - 177 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 176 - 177 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 176 - 177.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 176 - 177.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 178 - 179 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 178 - 179 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 178 - 179.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 178 - 179.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 180 - 181 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 180 - 181 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 180 - 181.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 180 - 181.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 182 - 183 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 182 - 183 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 182 - 183.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 182 - 183.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 184 - 185 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 184 - 185 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 184 - 185.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 184 - 185.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 186 - 187 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 186 - 187 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 186 - 187.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 186 - 187.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 188 - 189 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 188 - 189 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 188 - 189.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 188 - 189.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 190 - 191 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 190 - 191 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 190 - 191.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 190 - 191.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 192 - 193 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 192 - 193 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 192 - 193.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 192 - 193.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 194 - 195 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 194 - 195 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 194 - 195.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 194 - 195.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 196 - 197 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 196 - 197 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 196 - 197.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 196 - 197.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 198 - 199 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 198 - 199 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 198 - 199.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 198 - 199.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 200 - 201 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 200 - 201 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 200 - 201.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 200 - 201.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 202 - 203 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 202 - 203 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 202 - 203.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 202 - 203.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 204 - 205 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 204 - 205 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 204 - 205.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 204 - 205.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 206 - 207 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 206 - 207 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 206 - 207.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 206 - 207.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 208 - 209 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 208 - 209 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 208 - 209.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 208 - 209.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 210 - 211 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 210 - 211 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 210 - 211.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 210 - 211.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 212 - 213 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 212 - 213 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 212 - 213.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 212 - 213.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 214 - 215 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 214 - 215 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 214 - 215.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 214 - 215.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 216 - 217 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 216 - 217 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 216 - 217.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 216 - 217.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 218 - 219 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 218 - 219 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 218 - 219.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 218 - 219.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 220 - 221 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 220 - 221 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 220 - 221.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 220 - 221.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 222 - 223 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 222 - 223 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 222 - 223.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 222 - 223.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 224 - 225 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 224 - 225 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 224 - 225.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 224 - 225.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 226 - 227 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 226 - 227 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 226 - 227.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 226 - 227.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 228 - 229 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 228 - 229 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 228 - 229.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 228 - 229.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 230 - 231 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 230 - 231 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 230 - 231.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 230 - 231.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 232 - 233 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 232 - 233 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 232 - 233.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 232 - 233.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 234 - 235 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 234 - 235 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 234 - 235.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 234 - 235.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 236 - 237 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 236 - 237 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 236 - 237.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 236 - 237.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 238 - 239 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 238 - 239 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 238 - 239.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 238 - 239.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 240 - 241 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 240 - 241 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 240 - 241.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 240 - 241.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 242 - 243 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 242 - 243 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 242 - 243.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 242 - 243.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 244 - 245 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 244 - 245 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 244 - 245.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 244 - 245.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 246 - 247 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 246 - 247 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 246 - 247.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 246 - 247.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 248 - 249 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 248 - 249 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 248 - 249.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 248 - 249.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 250 - 251 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 250 - 251 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 250 - 251.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 250 - 251.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 252 - 253 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 252 - 253 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 252 - 253.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 252 - 253.jpg|400px]] | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 254 - 255 | | style="text-align:center; vertical-align:bottom;" | 254 - 255 | ||
| rowspan="2" | | | rowspan="2" | | ||
|- | |- | ||
| [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 254 - 255.jpg|400px]] | | [[image:Arvind Jain Notebook Vol 5 ; Pages 254 - 255.jpg|400px]] | ||
|} | |} |
Revision as of 14:51, 27 July 2020
- author
- Arvind Kumar Jain
- year
- Jan - Jun 1963
- notes
- A notebook, hardbound, with 254 pages.
- Cover:
- 250 pages
- Notes on Osho's Life Analysis over Different Subjects
- Meetings with Different Personalities & Group Discussion
- Jan 63 to June 63
- by Arvind Jain
- see also
- Notebooks Timeline Extraction